Monday, September 20, 2021

पेगासस जासूसी और मोदी सरकार

 

              पेगासस जासूसी और मोदी सरकार

विभिन्न सरकारों के ख़िलाफ़ असहमति रखने वालों के गुप्त विचार-विमर्श को जानने के लिए उनके फोन की जासूसी करवाने के आरोप अतीत में भी लगाये गये हैं। ऐसा कई बार साबित भी हो चुका है। आज से पचास साल पहले अमेरिका की सियासत में तूफान लाने वाला वाटरगेट कांड फोन पर जासूसी करने की कुख्यात घटनाओं में से एक थी। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन के ख़िलाफ़ डेमोक्रेटिक पार्टी के कार्यालय और उसके नेताओं के फोन पर जासूसी करने के आरोप सामने आये थे। निक्सन प्रशासन द्वारा सैकड़ों प्रयासों के बावजूद उस घोटाले को छुपाया नहीं जा सका। अंततः निक्सन को इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा  और इस घटना में शामिल कई सरकारी अधिकारियों को सजा दिया गया।

हालांकि, इस बार सरकार द्वारा जासूसी कराने का आरोप फोन पर जासूसी से कहीं ज्यादा गंभीर है। इस बार आरोप फोन से सारी जानकारी चुराने का है। एमनेस्टी इंटरनेशनल और कई स्थानीय और विदेशी समाचार संगठनों ने संयुक्त रूप से दावा किया है कि एनएसओ नामक एक इजरायली कंपनी ने विभिन्न देशों की सरकारों को पेगासस नामक जासूसी कंप्यूटर सॉफ्टवेयर बेचा है और उस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करके सरकार विरोधी राजनीतिक नेताओं, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के स्मार्टफोन से जानकारी चुराकर उनपर निगरानी कर रहे हैं। उनका दावा है कि उनके पास 50,000  फोन नंबरों की सूची है जो निगरानी के संभावित शिकार हैं। 'संभावित' शब्द का अर्थ है कि वे फोन नंबरों की सूची में तो थे,  लेकिन यह निश्चित नहीं है कि उन पर नज़र रखी गई या नहीं। वास्तव में निगरानी हुयी की नहीं यह जानने के लिए फोन की जांच करना पड़ेगा। कुछ फोनों की जांच से पेगासस द्वारा निगरानी के सबूत सामने आये हैं। इन सभी फोन वार्तालापों को पेगासस के माध्यम से रिकॉर्ड किया गया है। यहां तक ​​कि कौन किसको क्या मैसेज भेज रहा है, इसकी भी जानकारी फोन से चोरी हो गई है। यह सॉफ्टवेयर इतना शक्तिशाली है कि उसके लिये कोड को तोड़कर छिपे हुए संदेशों को पढ़ना भी मुश्किल नहीं है।  भारत में भी पेगासस को लेकर काफी बवाल मचा है। पेगासस के मुद्दे पर विपक्षी दलों ने वार्तालाप की मांग को लेकर संसद को निष्क्रिय कर रखा है,  लेकिन सरकार ऐसा करने से इंकार कर रही है। इस जासूसी से भारत सरकार का क्या लेना-देना है ? जिनके पास उन फोनों की सूची है,  उन्होंने दावा किया है कि सूची में भारत के करीब 1000 फोन नंबर हैं,  जिन पर नज़र रखी जा सकती है। वे डेढ़ सौ से अधिक फोन के मालिकों की पहचान करने में सफल रहे हैं। इसमें विपक्षी नेताओं, सरकार के आलोचकों के रूप में जाने जाने वाले पत्रकारों और विरोध करने वाले कार्यकर्ताओं के नाम शामिल हैं, जिनमें से कई को सरकार द्वारा झूठे आरोपों में पहले ही गिरफ्तार और जेल में डाल दिया गया है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस सूची में कुछ उद्योगपतियों,  नौकरशाहों और यहाँ तक कि संघ परिवार के सदस्यों के नाम भी शामिल हैं। सॉफ्टवेयर बेचने वाली इजरायली कंपनी एनएसओ ने साफ कर दिया है कि वह सॉफ्टवेयर सिर्फ़ सरकारों को ही बेचती है, किसी व्यक्ति या गैर-सरकारी संगठन को नहीं।  इतना ही नहीं इस सॉफ्टवेयर और इसे इस्तेमाल करने लायक कंप्यूटर सिस्टम के लिए काफी खर्च होता है और इसे चालू रखने में भी अरबों रुपये खर्च होते हैं, जो कि सरकार के बिना किसी भी व्यक्ति या संगठन के लिए मुश्किल है। अगर यह सच है तो इन लोगों के फोन की निगरानी का काम मोदी सरकार के अलावा किसी और नहीं कर सकते। इसके अलावा, सूची पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि भारत के जिन लोगों के नाम उस सूची में है लगभग वे सभी लोग भाजपा और संघ परिवार के कट्टर विरोधी माने जाते हैं। इस कारण से  इस निगरानी के पीछे उनके हितों को समझना मुश्किल नहीं है। इस मुद्दे पर सरकार के बयान से शक़ कम होने के बजाय और ज्यादा संदेह पैदा किया है। केंद्र सरकार के नए आईटी मंत्री ने संसद में एक बयान में कहा है कि केंद्र सरकार ने अनधिकृत तरीके से कोई निगरानी नहीं की है। इससे एक चीज तो यह स्पष्ट है कि सरकार ने अधिकृत निगरानी की होगी।  इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार ने पेगासस सॉफ्टवेयर ख़रीदा है या नहीं,  इस ठोस सवाल को बार-बार पूछा गया है, लेकिन सरकार ने कभी यह स्पष्ट नहीं किया है कि उन्होंने पेगासस सॉफ्टवेयर को खरीदा या इस्तेमाल नहीं किया।  दो दिन पहले रक्षा मंत्रालय ने लोकसभा में कहा था कि उसने एनएसओ के साथ कोई लेन-देन नहीं किया है। अगर यह सच है, तो किसी अन्य मंत्रालय ने ऐसा नहीं किया, इस बयान से यह सिद्थ नहीं हो रहा है। क्या सरकार की यह भ्रमित करने वाली स्थिति उनके खिलाफ संदेह को मजबूत करने में मदद नहीं करती है?

पेगासस सॉफ्टवेयर के मालिक इजरायली कंपनी एनएसओ ने ऐसे घातक जासूसी सॉफ्टवेयर की बिक्री की सफाई में कहा है कि उसने आम जनता की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आतंकवादियों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने के लिए इसे विकसित किया है।  सच में ही ऐसा है क्या?  लेकिन, सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किसके ख़िलाफ़ किया जा रहा है?  राजनीतिक नेता, विरोध करने वाले कार्यकर्ता या पत्रकार! यानी वास्तव में इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल में आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं है। सरकार का असली मकसद विरोध करने वाले पर नज़र रखना है।  विरोध करने वाले पर नज़र रखने के कई कारण हैं। उदाहरण के लिए, विरोध करने वाले को चोरी छुपे सुन कर उनकी योजना जानने से तो शासक दल इसके बारे में पहले से सतर्क हो सकते हैं और अग्रिम कार्रवाई कर सकते हैं। और अगर इस बातचीत से कोई जानकारी लीक होती है जिसका इस्तेमाल उनके खिलाफ किया जा सकता है,  तो वह तो सोने पे सुहागा है। फिर, उन्हें ब्लैकमेल करके सरकार के लिए काम करने के लिए मजबूर करना संभव है। जानकारी लीक करने वाले मीडिया की स्रोतों ने यह भी कहा है कि कर्नाटक में जद (एस)-कांग्रेस गठबंधन सरकार को हटाने के लिए पेगासस द्वारा कई विधायकों के फोन पर नज़र रखी जा रही थी।

लेकिन,  स्मार्टफोन या कंप्यूटर पर जासूसी करना अब एक घातक प्रयोग होता जा रहा है। इस तरह के स्पाई सॉफ्टवेयर की मदद से यूजर यानी व्यवहारकर्ता की जानकारी के बिना उनके स्मार्टफोन या कंप्यूटर में दस्तावेज डाले जा सकते हैं, जो उनका बिल्कुल भी नहीं है, लेकिन वह उनका ही है ऐसा दावा करके उन्हें फंसाया जा सकता है। हाल ही में पता चला है कि भीमा कोरेगांव मामले में दो प्रतिवादियों के ख़िलाफ़ ठीक ऐसा ही किया गया था। सरकार और जांचकर्ताओं ने दावा किया है कि इन लोगों ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रची थी  और उनके कंप्यूटर पर पाए गए कुछ पत्रों की एक श्रृंखला को इसके सबूत के तौर पे पेश किया गया।  एक अमेरिकी कंप्यूटर फोरेंसिक एजेंसी ने जेल में बंद दो लोगों की कंप्यूटर के हार्ड डिस्क प्रतियों की जांच की और कहा कि सबूत के रूप में इस्तेमाल किए गए कई पत्र उनके कंप्यूटर पर कभी नहीं लिखे गए थे। तो, वे पत्र उस कंप्यूटर तक कैसे पहुंचे? अमेरिकी कंप्यूटर एजेंसी ने कहा कि पत्रों को गुप्त रूप से एक जासूस या जासूसी सॉफ्टवेयर के माध्यम से उन दोनों के कंप्यूटरों में बाहर से डाला गया था। इस घटना के लीक होने से पहले कितने लोगों ने कल्पना की होगी कि तकनीक के इस्तेमाल से ऐसा फंसाया जा सकता है?

स्मार्टफोन, कंप्यूटर आदि अब लोगों के जीवन से इस कदर जुड़े हुए हैं कि उनके निजी जीवन की लगभग सभी गोपनीय जानकारी उनके स्मार्टफोन या कंप्यूटर पर पाई जा सकती है - वे किन लोगों से संपर्क रखते हैं,  क्या बात करते हैं,  उन्हें क्या पत्र लिखते हैं, उनके बीच किन पत्रों का आदान-प्रदान होता है आदि। उनकी इंटरनेट उपयोग की जानकारी से भी उनकी ज़रूरतों और इच्छाओं के बारे में बहुत कुछ जानना संभव है, जिसके बारे में व्यक्ति स्वयं पूरी तरह से अवगत नहीं हो सकता है, लेकिन इसे अनजाने में अपने इंटरनेट उपयोग की जानकारी के माध्यम से कब्ज़ा किया जा सकता है। नतीजतन, फोन या कंप्यूटर पर निगरानी का मतलब है उस व्यक्ति के हर पल की निगरानी करना, यहां तक ​​कि सबसे निजी पल की भी। ठीक यही सरकार या राज्य अब अपने विरोधियों के मामले में कर रही है - पेगासस सॉफ्टवेयर के बारे में लीक हुई जानकारी इस तथ्य को दर्शाती है। सरकार या राजसत्ता  की ख़ुफ़िया तंत्र इस स्तर पर पहुंच गई है कि वे किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के जीवन के हर पल को अपनी इच्छानुसार अपनी निगरानी में रख सकते हैं। आज शायद  सरकारें दुनिया भर में 50,000  लोगों के जिंदगी पर नज़र रख रही हैं।  लेकिन, अगर ऐसा ही चलता रहा तो भविष्य में लाखों-करोड़ों लोगों के जीवन पर नज़र रखना संभव होगा। क्योंकि  ऐसे कंप्यूटर सिस्टम की कीमत में तेजी से गिरावट आने के कारण अब निगरानी करने की जो खर्च हो रही है उसके समान खर्च में ही अरबों लोगों की निगरानी करना संभव होगा।

अगर निगरानी के साथ विभिन्न जांच एजेंसियों को विपक्ष के पीछा करने की रणनीति से जोड़ दिया जाए तो सरकार की मंशा साफ हो जाती है। अगर कोई मोदी सरकार का विरोध करता है और यह उनके लिए ख़तरनाक हो जाता है, तो उनके पीछे प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), आयकर विभाग और सबसे बढ़कर सीबीआई जैसे सरकारी औजारों का इस्तेमाल करके सरकार की पक्ष में बोलने के लिए मजबूर किया जा रहा है। ये छोड़कर भी राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, आईटी अधिनियम, यूएपीए और संविधान के अनुच्छेद 124  अर्थात् राजद्रोह का धारा आदि है। हाल ही में, नए आईटी नियमों को इस सूची में जोड़ा गया है, जो सरकार के उत्पीड़न के उपकरण को और मजबूत किया है। इन कानूनों का दायरा इतना व्यापक है कि लगभग किसी भी कृत्य पर आतंकवाद,  देशद्रोह,  राजद्रोह या शांति भंग करने का आरोप लगाया जा सकता है। हालांकि आरोपों को साबित करना संभव नहीं होने से भी, गिरफ्तार होने पर जमानत मिलना बहुत मुश्किल है और इसीलिए झूठे आरोपों में कुछ महीने जेल में ही नहीं यहां तक ​​कि बिना मुक़दमे के सालों-साल बंद रखना संभव है। सभी दलों की सरकार ने इसी तरह विरोध करने वाले को परेशान करने और उन्हें चुप कराने की कोशिश की है। हालांकि मोदी सरकार के दौरान इसका स्तर काफी बढ़ गया है। आर्टिकल 14  नाम के एक वेब पोर्टल के मुताबिक 2010  से अब तक 816  देशद्रोह के मामलों में 11,000  लोगों पर आरोप लगाए गए हैं। इनमें से ज्यादातर मामले 2014  के बाद मोदी के कार्यकाल में हुए हैं।  इन 11,000 प्रतिवादियों में से 65 प्रतिशत पर 2014 के बाद आरोप लगाया गया है। 2010  से 2014  तक, प्रति वर्ष दर्ज किए गए राजद्रोह के मामलों की औसत संख्या 62 थी, लेकिन 2014  के बाद यह बढ़कर 79.8 या लगभग 80  हो गई है। यह धारा भाजपा शासित राज्यों में ही अधिक लागू की जा रही है। इस धारा का प्रयोग इतना व्यापक है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह प्रश्न उठाया है कि इस धारा को रखा जाए या नहीं। आईटी अधिनियम की धारा 66 (ए) भी है, जिसके आधार पर इंटरनेट पर कुछ संदेशों का आदान-प्रदान करने के लिए कई लोगों को परेशान किया जा रहा है। 2015  में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस धारा को निरस्त करने के बावजूद, विभिन्न सरकारें इस धारा को लागू करके लोगों को परेशान करना जारी रखीं हैं। असहमति रखनेवालों के गुप्त वार्ता उन्हें दंडित करने के लिए सरकार के लिए बहुत उपयोगी होगी - सरकार की निगरानी को उसी के अनुसार आंकना होगा।

भाजपा शासन की एक और विशेषता यह है कि न केवल पुलिस प्रशासन राज्य के इन कानूनों को लागू करके विपक्ष को परेशान करने का काम कर रहा है, बल्कि भाजपा या संघ परिवार की अपना वाहिनी भी हमेशा ऐसा कोशिश कर रही हैं। एक तरफ भाजपा का आईटी सेल है, जो इंटरनेट की निगरानी कर रहा है- कौन संघ परिवार की चरमपंथी हिंदुत्व विचारधारा का विरोध करते हैं,  कौन भाजपा सरकार या उसके नेताओं और मंत्रियों के अन्याय के खिलाफ बोलने की हिम्मत करते हैं। दूसरी तरफ संघ परिवार की दस्तें या वाहिनी हैं,  जो आम लोगों पर नज़र रखने के लिए हमेशा सड़कों पर गश्त करती रहती हैं। वे गोरक्षा अधिनियम या लव-जिहाद अधिनियम के तहत किसको फंसाया जा सकता  इस पर कड़ी नज़र रख रहे हैं  और कभी पुलिस के साथ, कभी पुलिस के बिना ही अपराधियों को दंडित करने के लिए उतरे है । इसके चलते न सिर्फ उच्च वर्ग के लोगों पर बल्कि आम लोगों पर भी नज़र रखी जा रही है। जासूसी सॉफ्टवेयर ही निगरानी का एकमात्र तरीका नहीं है।

जबकि निगरानी का स्तर मोदी की भाजपा सरकार के दौरान या भाजपा शासित राज्यों में बहुत अधिक है, यह कतई भी नहीं सोचना चाहिए कि सिर्फ़ भाजपा या संघ परिवार ही निगरानी करता है। निगरानी तंत्र किसी भी पार्टी की सरकार द्वारा चलाई जाती है। वस्तुत: एक ओर मुट्ठी भर शोषकों और दूसरी ओर बहुसंख्यक शोषित, गरीब जनता में बँटा हुआ है, जो समाज शोषण-उत्पीड़न-वंचन पर टिका हुआ है, एक तरफ धन के पहाड़ जमा करने वाला समाज और दूसरे पर अनंत गरीबी। जिस समाज में विभिन्न प्रकार के दमन व्याप्त हैं और जिसमें शासक मुट्ठी भर शोषकों के हितों को देखते हैं, वहाँ अनगिनत शोषित, वंचित, उत्पीड़ित लोगों के बीच शासकों के ख़िलाफ़ हमेशा तीव्र विरोध जमा होता रहता है – इस विरोध कभी तीव्र, कभी भूमिगत होता है।  ऐसे समाज में शोषण, दमन द्वारा लाभ कमाने की व्यवस्था, मुट्ठी भर धनी लोगों की अकूत संपत्ति की रक्षा के लिए निगरानी की आवश्यकता होती है । यह निजी संपत्ति को बनाए रखने का एक अनिवार्य तरीका है।

 इसलिए किसी भी बुर्जुआ लोकतंत्र में सभी शासक नागरिकों पर निगरानी रखते हैं। लोकतंत्र का मतलब अगर हम यह समझ लें कि सभी को समान अधिकार हैं, तो बुर्जुआ लोकतंत्र में वह लोकतंत्र संभव नहीं है। यहां लोकतंत्र सिर्फ शासक पूंजीपति के लिए ही है। जो लोग यह सोचते हैं,  पूंजीवाद में ही वास्तविक लोकतंत्र संभव है, अगर वे आखों पर पट्टी बांधना नहीं चाहते है तो यह निगरानी की इस घटना उनकी आखें खुलने में मदद कर सकती है। दमन के बिना, शोषित लोगों को उनके अधिकारों से वंचित किए बिना, उनकी निगरानी के बिना, मुट्ठी भर शोषक बहुसंख्यक शोषितों पर शासन नहीं कर सकते। इसलिए, बुर्जुआ लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र,  बुर्जुआ वर्ग के लिए लोकतंत्र,  आम लोगों के लिए लोकतंत्र नहीं। सच्चा लोकतंत्र - यानी बुर्जुआ लोकतंत्र में सभी लोगों की हर तरह से समानता असंभव है। लोकतंत्र का प्रसार बहुसंख्यक जनता, मजदूरों और किसानों के शासन में ही हो सकता है। चूँकि उस समाज में सत्ताधारी लोग बहुसंख्यक हैं, करोड़ों लोगों की निगाह शोषित लोगों की उस राजसत्ता को बचाने के लिए मुट्ठी भर शोषकों पर लगी रहती है। इसलिए निगरानी चलाने के लिए फोन टैपिंग कर छुप छुप कर सुनना या जासूसी के लिए स्पाई सॉफ्टवेयर जैसे अलग से व्यवस्था की ज़रूरत नहीं है।

किसी भी बुर्जुआ लोकतंत्र में शोषित वर्गों में लोकतंत्र नहीं होता बल्कि वे बहुत संकीर्ण होते हैं,  यह तो एक पहलू है। एक और पहलू यह है कि शासक वर्ग के प्रतिनिधि विभिन्न दलों ने सरकार में सत्ता हथियाने के लिए हमेशा अपने बीच लड़ते और झगड़ते रहते हैं। सरकार में जो शासक दल है वे हमेशा विपक्षी दलों से सावधान रहते हैं, जो वर्तमान शासकों को उखाड़ फेंकने और अपने दम पर सत्ता हथियाने की कोशिश करते हैं। शासक हमेशा यह महसूस करते हुए सतर्क रहते हैं  कि अभी ही विपक्ष ने उनके ख़िलाफ़ साजिश रची और उन्हें सत्ता से हटा दिया। नतीजतन, शासक कभी भी अपनी सत्ता पर चैन से नहीं रह सकते। इसलिए वे हमेशा विपक्ष पर निगरानी जारी रखे हुए हैं।

अगर बुर्जुआ लोकतंत्रों में निरंकुश प्रवृत्तियाँ या फासीवादी प्रवृत्तियाँ बढ़ती रहती हैं, तो बुर्जुआ जनवादी अधिकार सिकुड़ते हैं, यहाँ तक कि विपक्षी बुर्जुआ राजनीतिक दलों के लोकतंत्र भी सिकुड़ते हैं। मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के दौरान यही हो रहा है। यह एक ऐसा पहलू है जिसमें सत्ताधारी बड़े पूंजीपति के स्वार्थ में मजदूरों और किसानों सहित मेहनतकश लोगों पर अधिक से अधिक हमले कर रहे हैं। एक और पहलू यह है कि संघ परिवार की विचारधारा को समाज में स्थापित करने के लिए वे समाज के विभिन्न वर्गों पर हमला कर रहे हैं, जो उनकी चरमपंथी हिंदुत्ववादी विचारधारा के विरोधी हैं, ताकि उनकों अपने पैरों के नीचे रखकर चरमपंथी हिंदुत्व की विजय का रथ को तेज गति से आगे बढ़ा सकें। वे अपने चरमपंथी हिंदुत्व की राजनीति का विरोध करने वाले बुर्जुआ पत्रकारों, बुर्जुआ बुद्धिजीवियों पर भी हमला कर रहे हैं। यही कारण है कि वे मेहनतकश लोगों के ख़िलाफ़ दमन के औजारों को न केवल तेज कर रहे हैं, बल्कि पूंजीपति वर्ग के अन्य हिस्सों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने के लिए उन्हें बढ़ा रहे हैं, साथ ही उनकी निगरानी भी बढ़ा रहे हैं। पेगासस इसका प्रमाण है।

हालांकि, इसका एक दूसरा पहलू भी है। शासकों को जनता या विपक्ष पर अपनी निगरानी कब बढ़ानी होती है ? जब वे डरने लगते हैं, वे घबराने लगते हैं उनके ख़िलाफ़ विद्रोह होने की संभावना से। जितना अधिक वे अपने हमलों को बढ़ाते हैं, उतना ही उनके ख़िलाफ़ विरोध बढ़ता है और जब विरोध बढ़ता है, तो शासक इसकी  अंदाज़ा लगा पाते हैं। आज यह सच है कि मोदी सरकार के ख़िलाफ़ मजदूरों और किसानों सहित मेहनतकशों का विरोध बढ़ने लगा है, लेकिन अभी तक तेज नहीं हुआ है। लेकिन, ऐसा नहीं है कि विरोध नहीं हो रहा है। पिछले कुछ समय से छात्रों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के बीच चरमपंथी हिंदुत्व की राजनीति का विरोध बढ़ रहा है, जिससे संघ परिवार और भाजपा चिंतित हैं। दूसरी ओर, जब पहली बार मोदी सरकार सत्ता में आई थी, तो लोगों का उन पर जो दृढ़ भरोसा और विश्वास रखा था, वह आज टूटने लगा है । मेहनतकशों के बीच विरोध भी बढ़ने लगा है। संघ परिवार और भाजपा को एहसास हो रहा है कि उनका नियंत्रण ढीला होता जा रहा है। जितना अधिक वे यह महसूस करते हैं, जितना अधिक वे चिंतित हैं, उतना ही वे अपने दमन के साधनों को तेज कर रहे हैं, उतना ही वे निगरानी बढ़ा रहे हैं। जब शासक लोगों के समर्थन पर खड़े होते हैं, वह किसी भी कारण से हो, तब उन्हें निगरानी या दमन की आवश्यकता नहीं होती है। केवल जब वे अपने भविष्य के बारे में चिंतित हों तब उन्हें निगरानी और दमन को बढ़ाने की जरूरत है। इस कारण से, उनकी निगरानी, ​​दमन के उपकरण को और तेज करना, जैसे उनकी भयानक राक्षसी चेहरा को दर्शाती है वैसे साथ साथ उनकी कमजोरी को भी प्रकट करती है। आपको इसे सिर्फ एक तरफ से देखने से ही नहीं होगा, इसे दोनों तरफ से देखना है - नहीं तो यह गलत होगा।

 

 10 अगस्त 2021                                     

Wednesday, August 11, 2021

पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी की असली वजह

पिछले कुछ महीनों से पेट्रोल और डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं। पेट्रोल और डीजल दोनों की कीमत अब देश के सभी हिस्सों में पिछले सभी रिकॉर्ड को तोड़ते हुए 100 रुपये प्रति लीटर को पार कर गई है। हर कोई जानता है कि पेट्रोल और डीजल की इस कीमत का बोझ अंततः देश के अधिकांश गरीब लोगों पर पड़ेगा, जिनमें मजदूर और किसान भी शामिल हैं, भले ही वे खुद कभी पेट्रोल या डीजल नहीं खरीदते हैं। तेल की बढ़ती कीमतों, विशेष रूप से डीजल से परिवहन लागत में वृद्धि होगी। नतीजतन, बस किराया में वृद्धि होगी, सब्जियों सहित हमारी जरूरत की हर चीज की कीमत बढ़ जाएगी। यह कहना भी गलत है कि बढ़ेगी, दरअसल इस बार तेल के दाम बढ़ने से सब्जियों के दाम पहले ही बढ़ चुके हैं | हम सब महंगाई की मार महसूस करने लगे हैं |

पेट्रोल-डीजल के दाम इस तरह क्यों बढ़ रहे हैं? सरकार का तर्क हम सभी जानते हैं-अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल या पेट्रोलियम के दाम बढ़ रहे हैं, ऐसे में घरेलू बाज़ार में तेल की कीमत बढ़ेगी, अतः और क्या किया जा सकता है? लेकिन, सारा पूंजीपति मीडिया भी अब बहुत जोर-शोर से रिपोर्ट कर रहा है कि  सरकार बिल्कुल भी सच नहीं बोल रही है। पेट्रोल और डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी का मुख्य कारण अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी नहीं है। देश के बाज़ार में पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने की सबसे बड़ी वजह तेल पर सरकार का टैक्स है | 1 जुलाई के एक आंकलन के मुताबिक उस वक्त दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 98.80 रुपये प्रति लीटर थी, जिसमें से 55.70 रुपये सरकारी टैक्स था। यानी पेट्रोल पर सरकार की टैक्स दर 56.37 फीसदी है | हर राज्य में पेट्रोल-डीजल की कीमत में कुछ अंतर है, टैक्स के हिस्से में कुछ अंतर हो सकता है, लेकिन गणना हर जगह समान है। [स्रोत 1 ] डीजल पर सरकार का टैक्स भी करीब एक जैसे है। 15 मई की गणना के अनुसार, दिल्ली में पेट्रोल पर सरकारी कर 58.6 फीसदी है और डीजल पर सरकारी कर 52.85 फीसदी है। [स्रोत 2]

लेकिन, यह जानकारी का सिर्फ़ एक पहलू है। इससे भी बड़ी बात यह है कि न केवल करों की राशि में वृद्धि हुई है, बल्कि सरकार ने कर की दर में भी लगातार वृद्धि की है। इसका मतलब है कि अगर किसी वस्तु की कीमत 50 रुपये है और सरकारी कर 20% है, तो कर की राशि 10 रुपये होगी। और अगर वस्तु की कीमत बढ़कर 100 रुपये हो जाती है, तो कर की दर न बढ़ने पर भी कर की राशि 20 रुपये हो जाएगी। दूसरे शब्दों में, भले ही टैक्स की दर न बढ़े, पेट्रोल और डीजल पर टैक्स की राशि बढ़नी चाहिए। हालांकि, टैक्स और भी बढ़ गए हैं। पिछले 7 साल में पेट्रोल-डीजल पर टैक्स की रकम में न सिर्फ़ इजाफ़ा हुआ है, बल्कि टैक्स की दर में भी लगातार बढ़ोत्तरी की गयी है |

जून 2014 में, जब मोदी जी के नेतृत्व में बीजेपी या एनडीए गठबंधन 'अच्छे दिन' के सपने के साथ सत्ता में आयी, तो दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 73 रुपये थी और टैक्स 22.60 रुपये था। और ये तो पहले ही बताया जा चुका है कि इस साल 1 जुलाई की गणना के अनुसार, एक लीटर पेट्रोल की कीमत 98.80 रुपये है, जिसमें टैक्स ही 55 रुपये 70 पैसे है। दूसरे शब्दों में, एक लीटर पेट्रोल पर टैक्स 33.10 रुपये बढ़ गया है। समझे, टैक्स छोड़कर एक लीटर पेट्रोल की कीमत महज 39 रुपये 30 पैसे है। और इस पर सरकार का टैक्स 33 रुपये 10 पैसे बढ़ गया है | और यह सब मोदी सरकार के “अच्छे दिन” के दौरान हो रहा है। लेकिन, इससे एक और बात सामने आती है --- तब पेट्रोल पर कर की दर करीब 31 फीसदी थी  (खास तौर पर 30.95 फीसदी) । अब कर की दर 56.37 फीसदी है। दूसरे शब्दों में कहें तो पिछले सात सालों में मोदी सरकार ने न सिर्फ़ पेट्रोल और डीजल पर प्रति लीटर ज्यादा टैक्स वसूला है, बल्कि और भी ऊंची दर से भी टैक्स वसूला है | [स्रोत 1 ] दुनिया में पेट्रोल और डीजल पर सबसे ज्यादा सरकारी कर कहाँ है? भारत में। इस लिहाज से भारत ने सच में ही विश्वगुरु बन चुके है!

नतीजतन, सरकार की आय में कितने पैसे की वृद्धि हुई है? एक अनुमान है कि जब मोदी सरकार पहली बार सत्ता में आई तो 2014-15 में केंद्र सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों पर 74,158 करोड़ रुपये का टैक्स वसूला | और इसमें बढ़ोत्तरी के बाद आज 2020-21 में यह रकम कहाँ खड़ी है ? लोकसभा में राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर के बयान में कहा गया है कि अप्रैल 2020 से जनवरी 2021 तक के 10 महीनों में सरकार ने 295,000 करोड़ रुपये का संग्रह किया है, जो 2014-15 के तुलना में 300 फीसदी से अधिक है। पूरे वर्ष की गणना स्वाभाविक रूप से इससे भी अधिक होगी। [स्रोत 3 ]

सरकार ने इस तरह टैक्स बढ़ाया और हमें कोई सुराग नहीं मिला क्यों? वजह यह है कि 2014 में मोदी के पहली बार सत्ता में आने के बाद से उन्हें एक फायदा मिला है- अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोल-डीजल के दाम गिरते जा रहे थे | 2012 में अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत 112 डॉलर प्रति बैरल थी। यह 2016 में घटकर केवल 28 डॉलर रह गया। (1 बैरल यानी लगभग 159 लीटर)। इसका मतलब है कि 2014 से 2016 तक के दो वर्षों में अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमत में 75% की कमी आई है। हालांकि, सरकार ने देश के बाज़ार में तेल की कीमत में कोई कमी नहीं की । उस वक्त देश के बाज़ार में पेट्रोल और डीजल के दाम में क्रमश: 13 फीसदी और 5 फीसदी की कमी आई थी | [स्रोत 3 ] सरकार ने अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतों में कमी का फायदा उठाने के लिए पेट्रोल और डीजल पर कर बढ़ा रही थी । चूंकि तेल की कीमत थोड़ी कम हुई, लोगों पर ज्यादा असर नहीं पड़ा और न ही वे ज्यादा हंगामा किया । 2018 के बाद अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतें फिर से बढ़ने लगीं। सरकार ने करों को कम करके घरेलू बाज़ार में तेल की कीमत को नियंत्रित करने के बजाय अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमत बढ़ने के बहाने देकर तेल की कीमत बढ़ाना शुरू कर दिया। अब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमत करीब 77 डॉलर प्रति बैरल है। यदि पेट्रोल-डीजल की कीमत अब 100 रुपये से अधिक हो जाती है, तो देश के बाज़ार में पेट्रोल-डीजल की कीमत क्या होगी जब तेल की कीमत 2012 की तरह 112 डॉलर प्रति बैरल हो जाएगी? 150 रुपये बन जाएगी क्या ? और क्या होगा अगर 2008 की तरह अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोलियम की कीमत 149 डॉलर प्रति बैरल हो गई? तो क्या सरकार देश के बाजार में पेट्रोल-डीजल 200 रुपये प्रति लीटर पर बेचेगी? मोदी की बीजेपी केंद्र सरकार देश की जनता को किस तबाही  की ओर ले जा रही है?

हिटलर के पास गोएबल्स (हिटलर के प्रचार मंत्री) थे । उसकी नीति थी झूठ को इतनी बार कहो कि वो सच बन जाए तब लोग झूठ को सच मानने लगेंगे । यही मोदी की या भाजपा-सह-संघ परिवार की नीति है । हर दिन वे झूठ की खेती कर रहे हैं। और उनका आईटी सेल उस काम में सबसे आगे है। इस आईटी सेल ने कुछ दिन पहले ट्वीट किया था कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी के पीछे असली दोषी यूपीए सरकार है। क्यों? क्योंकि, जब यूपीए सरकार सत्ता में थी, उन्होंने बाज़ार में तेल बांड नामक एक बांड जारी किया और बाज़ार से उधार लिया और उस ऋण के पैसे से उन्होंने तेल में सब्सिडी दी। सरकार कह रही है कि अब उन्हें इसलिए कर्ज चुकाना है, और ऐसे में उनके पास तेल के दाम बढ़ाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है |

यह तो पूरा झूठ है। यह सच है कि यूपीए सरकार ने तेल बांड जारी कर बाज़ार से उधार लिया। लेकिन, अभी तक इस सरकार को उस कर्ज का लगभग कुछ भी चुकाना नहीं है। अकेले वर्ष 2015 में सिर्फ 3500 करोड़ रुपये चुकाने पड़े। इसलिए, मोदी सरकार द्वारा इतने लंबे समय तक पेट्रोल और डीजल की करों में बढ़ोत्तरी के साथ तेल बांडों का कोई लेना-देना नहीं है । यह सच है कि अब से 2026 तक सरकार को इस तेल बांड का ब्याज और मूलधन चुकाना होगा। लेकिन, वह कितना है? 2021-22 में सरकार को 20 हजार करोड़ रुपये देने होंगे। अगर भले ही उस पैसे को टैक्स के पैसे से चुका दिया जाए, तब भी यह देखा जा सकता है कि सरकार ने पिछले 6 सालों में टैक्स में 2 लाख करोड़ रुपये और बढ़ा लिया हैं। तो साफ़ ज़ाहिर है कि 2 लाख करोड़ रुपये कर बढ़ाने से तेल बांडों का कोई लेना-देना नहीं है, है न?

अब सवाल यह है कि सरकार ने टैक्स क्यों बढ़ाया, जब टैक्स का ज्यादातर पैसा मेहनती लोगों या मजदूरों और किसानों सहित मध्यम वर्ग को देना पड़ता है ? इस सवाल पर जाने से पहले कि सरकार ने टैक्स क्यों बढ़ाया, यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि भले ही मोदी या बीजेपी की केंद्र सरकार इस पूरी साजिश का मास्टरमाइंड हो, लेकिन अन्य दलों की सरकारें भी दूध से धुले हुए नहीं है । पेट्रोल और डीजल पर टैक्स का एक हिस्सा केंद्रीय है, बाकी राज्य का है । जून 2014 के दौरान पेट्रोल की कीमत का 16.71 फीसदी राज्य कर था और 14.2 फीसदी केंद्रीय कर था। अब जुलाई 2021 में, पेट्रोल पर केंद्रीय कर 33.3 फीसदी है, जिसका अर्थ है कि मोदी सरकार ने कर की दर को दोगुना कर दिया है। हालांकि, राज्य सरकारें चुप नहीं बैठीं। अब राज्य कर की दर लगभग 23% है। यानी केंद्र की तरह न बढ़ने पर भी राज्यों की कर की दर भी बढ़ी है [स्रोत 1]। क्या राज्य सरकारें इस टैक्स का एक हिस्सा माफ कर रही हैं? नहीं । इस साल फरवरी में जिन दो सरकारों ने टैक्स में छूट दी है, वे हैं पश्चिम बंगाल और असम | इसका कारण समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं होना चाहिए। दोनों राज्यों में मई में चुनाव हुई थी।

वैश्वीकरण और उदारीकरण के इस दौर में सरकारें और उनके बुद्धिजीवी और बड़े पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि एक बात कहते हैं - सरकार को व्यापार-धंधा में नहीं रहना चाहिए, व्यापार-धंधा चलाना पूंजीपतियों का काम है | व्यापार को पूंजीपतियों के हाथ छोड़ देना चाहिए और सरकार को शासन चलाना चाहिए। एक और बात वे कहते हैं - कि सरकार को किसी भी चीज की कीमत पर नियंत्रण नहीं रखना चाहिए। कीमत बाज़ार द्वारा तय होना चाहिए । हालाँकि हम जानते हैं कि बाज़ार द्वारा सामानों का कीमत तय करने की असली मतलब है मोनोपॉली यानी इजारेदार पूंजी द्वारा कीमत तय करना | हम यहां उस विषय पर विचार नहीं करेंगे । सवाल यह है कि फिर सरकार पेट्रोल-डीजल की कीमत क्यों तय कर रही है? अगर सरकार या पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि जिन नियमों की बात कर रहे थे, उनका पालन यहाँ किया जाता, तो पेट्रोल-डीजल के दाम वैसे ही नीचे जाना  चाहिए थे, जैसे अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कीमतें गिर जातीं। सरकार ऐसा क्यों नहीं कर रही है? क्या जब सरकार की फायदा नहीं होता तब एक नियम है, और जब सरकार को लाभ होता है तब दूसरा नियम ? यानी चित भी मेरा और पट भी मेरा ! ये तो सरकार के बहुत अच्छे नियम हैं। वाह!

अगर यह माना कि यह मोदी सरकार का अपना फैसला है, फिर यह सवाल उठता है कि बड़े पूंजीपतियों के प्रतिनिधि उन्हें इस विषय में सलाह क्यों नहीं दे रहे हैं। वे समय-समय पर सरकार को तरह तरह के सुझाव तो देते आए हैं। तो क्या इस कर की बढ़ोत्तरी में बड़े पूंजीपतियों के हित भी शामिल हैं? हाँ ये सच है। इस सदी के पहले दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था में उछाल आने के बाद 2008-09 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद से अर्थव्यवस्था में मंदी का दौर शुरू हो गया है, जो दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है । जब तक बड़े पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ रहा था, वे सरकार की नीति यानी तत्कालीन यूपीए सरकार से संतुष्ट थे। लेकिन 2010 के बाद से वे अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए मुखर रहे हैं ताकि वे अपने गिरते मुनाफे को बढ़ा सकें। इस कारण से, वे दूसरी यूपीए सरकार को “नीतिगत पक्षाघात” से ग्रस्त करार दिया और तीव्र आलोचना करने लगे। यह भी हमारे लिए अज्ञात नहीं है कि गुजरात मॉडल के कलाकार नरेंद्र मोदी को सत्ता में लाने के लिए बड़े पूंजीपतियों का एक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली तबका जी जान लगाकर कोशिश किया ताकि वे मोदी सरकार के नेतृत्व में अपनी चाहते आर्थिक "सुधार" हासिल कर सकें। यहाँ यह बताने की मौका नहीं है कि मोदी सरकार ने पिछले 7-8 सालों में बड़े पूंजीपतियों के हित में क्या क्या कदम उठाए हैं । हालांकि, सरकार के इस कदम का एक प्रमुख पहलू है एक तरफ बड़े पूंजीपतियों पर करों में छूट देने से लेकर दूसरी तरफ सरकारी खजाने से विभिन्न प्रोत्साहन और राहत पैकेज देना शामिल है। उदाहरण के लिए, यूपीए सरकार के दौरान, अप्रत्यक्ष करों और प्रत्यक्ष करों का संतुलन कुछ प्रत्यक्ष करों के तरफ झुका हुआ था । यानी सरकारी राजस्व में प्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी बढ़ाई गई थी । हम जानते हैं कि प्रत्यक्ष करों का भुगतान पूंजीवादी संगठन और अमीर और उच्च मध्यम वर्ग द्वारा किया जाता है। बड़े पूंजीपतियों को देखते हुए मोदी सरकार ने प्रत्यक्ष करों का हिस्सा कम करना शुरू कर दिया। बड़े पूंजीपतियों का सबसे बड़ा फायदा कॉरपोरेट करों में कटौती करना रहा है, जिसे लगभग 40% से घटाकर 25% कर दिया गया है। इससे बड़े पूंजीपतियों की लाभ दर में वृद्धि हुई। फिर पूंजीपतियों के लाभ की दर को बढ़ाने के लिए यह सरकार ने मजदूरों के अधिक शोषण का रास्ता खोलने के लिए नया श्रम कानून लाई, बड़े पूंजीपतियों के पूँजी निवेश का और अधिक रास्ते खोलने के लिए कृषि कानून लाई है, नए क्षेत्रों में नए निवेश का विशेष सुविधा मुहैया कराई, विनिवेश्करण के नाम पर बड़े पूंजीपतियों को सरकारी संस्थान सौंपना शुरू किया । हालांकि, सिर्फ उसी से मंदी का अंत करना संभव नहीं है । आर्थिक मंदी का एक बड़ा कारण यह है कि देश का बाजार सिकुड़ रहा है, देश की जनता के पास खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। सरकार को बाज़ार का विस्तार करने के लिए, उपभोक्ता ऋण की व्यवस्था करने की ज़रूरत है, बुनियादी ढांचे में निवेश करने की ज़रुरत है । बुर्जुआ अर्थशास्त्री सोचते हैं कि इससे बाज़ार खुल जाएगा। लेकिन, यह पैसा आएगा कहां से? इसे पूंजीपतियों से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, बल्कि उन्हें रियायतें देनी पड़ रही है । अप्रत्यक्ष करों (मुख्य रूप से जीएसटी) से सरकार का राजस्व का आमदनी आर्थिक मंदी के कारण नहीं बढ़ रहा है। सरकार की आमदनी बढ़ानी होगी, लेकिन पूंजीपतियों पर दबाव बनाकर नहीं, बल्कि उन्हें रियायतें देकर। इसके साधन सरकार के हाथ में बहुत सीमित हैं। एक तरीका यह है विनिवेश्करण, विरासत में मिली सरकारी संपत्ति, जनता की संपत्ति को बेच दिया जाए। दूसरा तरीका पेट्रोलियम उत्पादों के दाम बढ़ाना है। पेट्रोलियम उत्पादों पर टैक्स लगाकर आय बढ़ाने के लिए सरकार ने शुरू से ही पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में नहीं लाया है । 2014 के बाद, सरकार को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतों में गिरावट के कारण घरेलू बाज़ार में तेल की कीमतें बढ़ाये बिना कर बढ़ाने का मौका मिला । इसी वजह से सरकार ने तेल की कीमतों को एक स्तर पर रखते हुए जितना हो सके टैक्स बढ़ा दिया था । लेकिन, अब जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतें बढ़ने लगी हैं, घरेलू बाज़ार में तेल की कीमतें बढ़ रही हैं। हालांकि, अर्थव्यवस्था की स्थिति अब ऐसी है कि सरकार की व्यय तेजी से बढ़ी है, खासकर दो साल की कोरोना महामारी में चरम मंदी के कारण । ऐसे में सरकार पेट्रोल-डीजल पर टैक्स कम नहीं कर पा रही है | तब आमदनी कम हो जाएगी। सब्सिडी पहले से ही बढ़ रही है। अगर उस पर आय घटती है, तो सब्सिडी और बढ़ेगी । हालांकि, तेल की कीमतों में वृद्धि का मतलब यह नहीं है कि बड़े पूंजीपति वर्ग को कोई समस्या नहीं है। कुछ दिनों पहले, बड़े पूंजीपतियों के प्रतिनिधित्व करने वाली एक अंग्रेजी दैनिक सरकार को इसके बारे में चेतावनी दी है । उन्होंने कहा कि भारतीय स्टेट बैंक के आंकड़ों से पता चलता है कि जिस तरह से पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ रही हैं, उससे आम तौर पर उपभोक्ता वस्तुओं के लिए व्यय में कमी आई है। इसका मतलब जनता की क्रय क्षमता घट रही है । इससे फिर अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर निकालना और ज्यादा मुश्किल होगा। इसलिए उन्होंने आंशिक तौर पर कर में कटौती का सुझाव दिया है। यानी सरकार के लिए अब दुविधा पैदा हो गई । हमें नहीं पता कि केंद्र सरकार और बड़े पूंजीपति आने वाले दिनों में इस संकट से बचने के लिए क्या कदम उठाएंगे, लेकिन एक बात तय है । वे जो भी कदम उठाएंगे, वे बड़े पूंजीपतियों के हितों को देखते हुए मेहनतकशों पर और ज्यादा बोझ बढ़ाकर इस संकट से बाहर निकलने की कोशिश करेंगे।

हमें यह समझना होगा कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों में वृद्धि वास्तव में इसी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और इसे बचाने के लिए बड़े पूंजीपतियों की रखवाली कर रही सरकारों की नीतियों का परिणाम है। नतीजतन, इस प्रणाली के अन्दर किसी भी कदम का समाधान खोजना क्रांतिकारियों का काम नहीं है । यह तय करना क्रांतिकारियों का काम यह समझाना नहीं है कि, मोदी सरकार के अलावा कोई और होने से हल निकलेगा या नहीं, या मेहनतकशों का थोडा भी भला होगा या नहीं । वर्तमान समय में पेट्रोल-डीजल के दामों में वृद्धि के कारण मजदूर, मेहनतकशों को उन अनुभवों से सीखना होगा जिनसे वे गुज़र रहे हैं और उन्हें जागरूक करना होगा कि उनके जीवन में इस संकट का कारण पूंजीपतियों का शोषण है और एकमात्र रास्ता उस शोषण को समाप्त करना है। और हमें उस मक़सद से लड़ने के लिए उन्हें जगाना होगा। यही क्रांतिकारियों का काम है।

सूत्र:--

1. The Print

(https://theprint.in/economy/40-rise-77-jump-petrol-price-hiked-under-modi-govt-upa-reasons-differ/690653/)

2. Autocar

https://www.autocarindia.com/car-news/petrol-diesel-price-and-tax-break-down-in-india-420823

3. Hindustan Times, 22 March,

https://www.hindustantimes.com/india-news/central-government-s-tax-collection-on-petrol-diesel-jumps-300-in-6-years-101616412359082.html