Wednesday, March 16, 2022

पहला पड़ाव पूरा करने के बाद किसानों का संघर्ष – सुरख लीह के टिप्पणियों पर जोड़ने के लिए और कुछ

 हाल ही के फार्मरों का संघर्ष (केवल किसानों का ही नहीं) ने अपना पहला महत्वपूर्ण पड़ाव पूरा कर लिया है। इस संघर्ष ने कॉर्पोरेट-सरकार के खिलाफ दृढ़ता से विद्रोह का झंडा बुलंद किया।. जिसके परिणाम स्परूप प्रधानमंत्री को 19  नवंबर को पीछे हटना पड़ा और कृषि कानूनों को रद्द करना पड़ा। हालांकि भाजपा के लिए आने वाले चुनाव बहुत महत्वपूर्ण था तो जाहिर तौर पर ऐसा लग सकता है कि कई राज्यों में होने वाले चुनावी संघर्ष ने इस पर अपनी छाया डाली थी । फिर भी निस्संदेह रूप से प्रधानमंत्री के पीछे हटने का मूल कारण दृढ़ किसान संघर्ष ही था। 

लेकिन बडे पूंजीपति वर्ग व सरकार का गठबंधन और एक मौके की प्रतीक्षा में है। यह बात कुछ दिनों बाद ही कृषि मंत्री के बयान से पूरी तरह से स्पष्ट हो गयी थी - हम दो कदम आगे बढ़ने के लिए एक कदम पीछे चले गए हैं। हकीकत भी यह है कि सरकार ने मुद्दों को सुलझाने के लिए एक समिति बनाने की बात की है। इसके मतलब कॉरपोरेट या बड़ी एकाधिकारी पूंजी के खिलाफ संघर्ष अभी पूरा नहीं हुआ है।

इसके बारे में कई अन्य सवालों पर भी विचार किया जाना बाकी है। एक साल से अधिक समय पहले 23  दिसंबर 2020 को एक कम्युनिस्ट क्रांतिकारी संगठन के मुखपत्र सुरख लीह ने, एक फेसबुक पोस्ट में इस फार्मर आंदोलन के बारे में एक बहुत ही महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किया। किसान आंदोलन के उस शुरुआती दौर में एक पोस्ट में सुरख लीह ने किसान आंदोलन की एक कमी के बारे में आगाह किया था—“मौजूदा किसान संघर्ष को मजदूर वर्ग के दृढ़ समर्थन के अभाव का सामना करना पड़ रहा है। अगर मजदूर वर्ग खुद संघर्ष कर रहा होता तो किसानों का संघर्ष कई गुना मजबूत होता।“ “मजदूर वर्ग ही था जो मोदी सरकार के खिलाफ टक्कर देने वाले दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों के लिए एक बड़ा उत्प्रेरक साबित होता”। इस प्रकार सुरख लीह ने बड़े, एकाधिकारी पूंजीपतियों के पक्ष में बनाए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ अपने हालिया संघर्ष में किसानों के साथ मजदूर वर्ग के संघर्ष के संबंध की आवश्यकता और महत्व को सामने रखा।

इसकी गहराई में जाने से पहले, पहला सवाल यह है कि क्या घरेलू और साम्राज्यवादी बड़ी इजारेदार पूंजी के खिलाफ संघर्ष केवल इन कृषि कानूनों को हराने और निरस्त करने का सवाल है? वास्तव में कानूनों के बिना भी पूंजीवादी सुधार की प्रक्रिया बेरोकटोक जारी है। छोटे किसानों को जमीन से बेदखल करना, व्यापारियों, बिचौलियों के माध्यम से धन का शासन, खेतिहर मजदूरों का मामूली मजदूरी पर शोषण, ठेका खेती ग्रामीण इलाकों में जारी है। इन सबसे बढ़कर, इन वर्षों मे सरकार द्वारा, बड़े पूंजीपति घरानों द्वारा फसलों के व्यापार पर अधिकाधिक कब्जा, निजी गोदामों और अन्न भंडारों की स्थापना, खेती की प्रक्रिया में मशीनीकरण के परिणामस्वरूप बढ़ती बेरोजगारी को लगातार आगे बढ़ाया जा रहा है और उनके लिए रास्ता तैयार किया जा रहा है। हाल ही में अडानी कपिटल ने कृषि मशीनरी हेतु किसानों को ऋण देने के लिए एन.बी.एफ.सी एजेंट (गैर बैंकिंग वित्तिय संस्था) के रूप में कार्य करने के लिए स्टेट बैंक आफ इंडिया के साथ एक समझौता किया है।

उल्लेखनीय रूप से, कृषि कानूनों को समाप्त करने के साथ फार्मर व किसानों का संघर्ष समाप्त होने के तुरंत बाद, किसानों के घर वापस आने से पहले ही पंजाब के कई क्षेत्रों में एक और संघर्ष छिड़ गया। यह खेतिहर मजदूरों, भूमिहीन और गरीब किसानों और ग्रामीण गरीबों का संघर्ष था, जो हमेशा भारी गरीबी में, बिना रोजगार के, बिना जमीन के जीवन जीते है। चूंकि उनके मुद्दे उन किसानों और फार्मरों से अलग हैं,  वे जमीन की मांगों के साथ-साथ, सूदखोरी और कर्ज-जाल, नियमित काम की गारंटी, तथा पीडीएस, आदि मुद्दों के लिए अलग संघर्ष में लगे हुए थे। अपने अस्तित्व के हालातों के कारण वे ग्रामीण शोषकों-पूंजीवादी फार्मरों, जमींदारों,  धनी किसानों और विभिन्न प्रकार के सामंती शोषकों जैसे अनुपस्थित जमींदारों, साहूकारों, आढ़तियों और व्यापारियों द्वारा अपनी आजीविका पर सबसे चरम प्रकार के हमले के शिकार हैं। इसलिए कानूनी हो या बिना कानून के, पूंजीवादी शोषण,सरकार द्वारा अपनाए गए अनेकों उपायों के माध्यम से फैल रहा है और उत्पीड़क सामंती अवशेष अभी भी मौजूद हैं। पूंजीपति-जमींदार शासक वर्ग और उनकी सरकार ने केवल एक कानून को ही रद्द किया है,  अर्थव्यवस्था के हर दूसरे क्षेत्र के साथ कृषि पर बड़ी पूंजी का वर्चस्व और नियंत्रण स्थापित करने की नीति को नहीं त्यागा। इस प्रकार हरित क्रांति के क्षेत्रों से भी, जहां से हाल के फार्मरों का संघर्ष का उदय हुआ, वहां अन्य हिस्सा अपने अलग-अलग संघर्षों में न केवल तीन कृषि कानूनों के खिलाफ बल्कि अपने ग्रामीण इलाकों में पहले से मौजूद पूंजीवादी और सामंती शोषण के खिलाफ भी थे। उस संघर्ष के लिए उनके अपने अलग संगठन भी हैं।

पश्चिमी यूपी, हरियाणा, पंजाब और महाराष्ट्र जैसे हरित क्रांति बेल्ट में ऐसे क्षेत्रों के अलावा कुछ अन्य राज्यों के लाखों किसान, बटाईदार, भूमिहीन गरीब हैं, जो भी इस पूंजीवादी-जमींदार व्यवस्था द्वारा उत्पीड़ित हैं। वे मुख्यतः धीमे पूंजीवादी विकास के बीच सामंती अवशेषों की मजबूत उपस्थिति से उत्पीड़ित हैं। जहां, पूंजीवादी विकास की कमी ने इन जनता को खेती की पिछड़ी परिस्थितियों के बीच फंसा रखा है। वहीं यह पूंजीवादी व्यवस्था उन सामंती अभिजात वर्ग के साथ हाथ मिलाकर उनका जीवन बर्बाद कर देती है। अनुपस्थित जमींदार,  बेनामी भू-स्वामी जिनके पास कई अधिक मात्रा में भूमि है, जो अमीर, गैर-किसान वर्ग के रूप में अभी भी मौजूद हैं वे गरीबी में गुजर बसर करने वाले गरीब और बड़े पैमाने पर भूमिहीन बटाईदारों की मेहनत को निचोड़ कर जीवन यापन कर रहे हैं। सरकार के भूमि सुधार कार्यक्रम अपने आप में ही सीमित हैं। इन सीमित सुधारों को भी रोक दिया गया है। गरीब, भूमिहीन, बटाईदारों की एक बड़ी भीड़ बेरोजगार रहने के लिए मजबूर होती है या कम वेतन वाले मनरेगा या अन्य विषम नौकरियों में कम से कम कुछ दिनों के लिए काम करते है। अनुदान अर्थात 100दिनों के लिए मनरेगा और अन्य तथाकथित सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर ग्रामीण अभिजात वर्ग के निहित स्वार्थों द्वारा कब्जा कर लिया गया है। इस प्रकार, यद्यपि पूँजीपति वर्ग मौजूदा शासन व्यवस्था में अग्रणी वर्ग है जो पूरे देश में, जनता का शोषण और दमन करता है, ग्रामीण इलाकों में यह कई तरह से दमनकारी सामंती अभिजातों के साथ बंधा हुआ है और सामंती अभिजातों के हितों को ध्यान में रखते हुए पूंजीवादी उत्पादन में परिवर्तन की धीमी, दर्दनाक प्रक्रिया को अपना रहा है।

देहात क्षेत्र में शोषण की विभिन्न प्रकृति के इस विविध परिदृश्य की तुलना में, हालिया फार्मरों का संघर्ष केवल तीन कानूनों के खिलाफ  व घरेलू और साम्राज्यवादी बड़ी, एकाधिकारी पूंजी के कृषि क्षेत्र की खेती पर नियंत्रण व कब्ज़ा लेने की योजना के खिलाफ था। इसलिए इस संघर्ष में प्रमुख मांगें एमएसपी की कानूनी गारंटी, सरकारी मंडी और खरीद प्रणाली को खत्म करने के विरोध तक सीमित थीं।  ये वे मुद्दे हैं जिनसे बड़े अतिरिक्त फ़सल उत्पादक अमीर किसान और उनके ऊपरी वर्ग को फायदा हुआ। यह संघर्ष समग्र रूप से ग्रामीण गरीब मेहनतकश जनता के शोषण के सभी प्रकार के पूंजीवादी और सामंती रूपों के खिलाफ नहीं था। मेहनतकश किसानों, खेतिहर मजदूरों और ग्रामीण गरीबों पर हमले,  सत्ता में बैठे पूंजीपति-जमींदार शासक वर्गों के संपूर्ण हमले का एक हिस्सा मात्र हैं। इस तरह के हमलों को हमेशा के लिए रोकने के लिए इस शासन व्यवस्था को ध्वस्त करना होगा। केवल तभी ग्रामीण शोषित वर्गों के लिए एक निर्णायक जीत हासिल की जा सकती है।

इस फार्मरों के संघर्ष में न तो मेहनतकश किसानों और न ही ग्रामीण गरीबों के सभी वर्ग शामिल थे,  बल्कि इसके विपरीत इसके भीतर कई अलग-अलग प्रवृत्तियाँ मौजूद थीं। इससे पहले हम खेतिहर और ग्रामीण मजदूरों के संघर्ष को देख चुके हैं जो कई महीनों से किसान संघर्ष के दृश्य के पीछे अलग से जारी था। यहां तक कि गरीब किसान भी इसमें शामिल थे, जो अपने छोटे भूखंडों के अलावा, वर्ष के अधिकांश समय खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करने के लिए मजबूर होते हैं।

किसान संघर्ष के भीतर फार्मर, जमींदार, यहाँ तक कि धनी किसान भी, जो शोषण के पूँजीवादी व अन्य पुराने रूपों से मुनाफा कमाते हैं, वे भी कृषि कानूनों के खिलाफ इस संघर्ष में शामिल हो गए क्योंकि कॉर्पोरेट बड़ी पूंजी द्वारा ग्रामीण अर्थव्यवस्था और शोषण पर नियंत्रण के लिए उनके स्थान को हथियाने के प्रयास से वे क्षुब्द हो गए थे। ये ग्रामीण अमीर शोषण पर अपनी पकड़ बनाए रखना चाहते थे और अपने लाभ के साधनों को सुरक्षित रखना चाहते थे। इसलिए वे कॉरपोरेट बड़ी पूंजी के अधिग्रहण के खिलाफ थे, लेकिन ग्रामीण शोषकों के रूप में उनकी स्थिति पूरी तरह से पूंजीवाद के खिलाफ नहीं हो सकती थी। वास्तव में वे शिविरों में लंबे संघर्ष के मुख्य संघर्षशील बल भी नहीं थे। जबकि मेहनतकश किसानों के निचले तबके के लिए, जो खुद का श्रम लगाकर मेहनत करते हैं और दूसरों के श्रम के शोषक नहीं हैं, उनका दैनिक संघर्ष उनके अपने अस्तित्व के लिए है और वे अपने श्रम पर -गुजर बसर करते हैं। इसलिए किसान संघर्ष में मध्यम, उच्च-मध्यम वर्ग के किसानों ने बड़ी संख्या में भाग लिया। साल भर का संघर्ष मुख्य रूप से मध्यम किसानों की बड़ी तादाद के दबाव और सक्रिय संघर्षपूर्ण भूमिका के कारण संभव हुआ, जिनके एक बड़े हिस्से को कई क्रांतिकारी संगठनों द्वारा संगठित किया गया था। हालांकि यह सच है कि ये फार्मर, धनी किसान और मध्यम किसान वर्ग ने सरकार को तीन कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए मजबूर करके संघर्ष में अपनी ताकत साबित करते हुए एकजुट हो गए, लेकिन उनके हित अलग-अलग थे। जाहिर है कि इस तरह के पंचमेल अंश का संघर्ष उन पर होने वाले विभिन्न प्रकार के शोषण के खिलाफ निर्णायक जीत नहीं ला सका। इसके अलावा इस संघर्ष में  खेतिहर मजदूर , ग्रामीण मजदूर और गरीब किसानों की बहुसंख्यक ग्रामीण आबादी की उपस्थिति नाममात्र की थी। जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं कि उनमें से अधिकांश इस संघर्ष से बाहर थे और अपने स्वयं के एक अलग आंदोलन में शामिल थे। अतः किसानों का यह संघर्ष समग्र रूप से इस पूंजीवादी-जमींदार व्यवस्था के खिलाफ सभी शोषित किसानों और खेतिहर मजदूरों का एक व्यापक संघर्ष नहीं था। इसलिए यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि हालिया किसान संघर्ष व्यापक किसान आबादी और अन्य ग्रामीण निर्धनों को सभी प्रकार के शोषण से मुक्त करने के लिए व्यापक संघर्ष को शुरू करने का पायदान नहीं बन सकता न बना।

सुरख लीह ने लेख में आगे बढ़ते हुए यहाँ तक कहा है, 'किसान संघर्ष की वर्तमान  स्थिति जन-आंदोलन की इन कमजोरियों को दूर करने की मांग कर रही है’। ‘मजदूर वर्ग के साथ घनिष्ठ गठजोड़,  इन संघर्षों को संगठित करने, अनुशासित करने और जागरूकता एवं तैयारी को एक नयी मिज़ाज देगा। जन आंदोलन के सामने पड़े इन कार्यों को तेजी से पूरा करने के लिए स्थिति चीखते हुए पुकार रह है’। इस प्रकार सुरख लीह ने भविष्य के जन आंदोलनों के लिए मजदूर वर्ग के संघर्षों के महत्व को रेखांकित किया, परंतु किसानों के सभी प्रकार के शोषणों से मुक्ति व उनके व्यापक आंदोलन के संदर्भ में मजदूर वर्ग की अग्रणी भूमिका का उल्लेख नहीं किया।

वास्तव में ग्रामीण जनता,  मेहनतकश किसानों और खेतिहर मजदूरों और गरीबों के विशाल जनसमूह के  शोषण के खिलाफ उनका संघर्ष वर्तमान किसान संघर्ष की स्थिति तक ही सीमित नहीं रह सका। इसलिए यह स्वाभाविक है कि मजदूर वर्ग की मदद से किसी भी संघर्ष को मजबूत करने और बढ़ावा देने का विचार हालिए किसान संघर्ष जैसे संघर्षों के माध्यम से नहीं हो सकता। ऐसा इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि यह संघर्ष ग्रामीण इलाकों के अलग-अलग और विपरीत वर्गों से बना है। जबकि इसे एक उच्च धरातल पर पूरी तरह से अलग किस्म का संघर्ष होना चाहिए।  मजदूर वर्ग के लिए वास्तव में अपनी भूमिका निभाने के लिए संदर्भ बहुत बड़ा होना चाहिए। सबसे पहले पूंजीवादी शोषण से पूर्ण मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिए सभी सामंती अवशेषों के खिलाफ संघर्ष करना होगा। इसलिए इसके पीछे मौजूद पूंजीवादी-जमींदार व्यवस्था पर निर्णायक जीत के लिए, जो अभी भी प्रचलित सामंती ताकतों से कई तरह से बंधी हुई है,  इसे हराने के लिए शोषक व्यवस्था को पूरी तरह से बेनकाब करने में सक्षम होना चाहिए। पूरी शोषक पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था के खिलाफ एक निर्णायक संघर्ष होना चाहिए। दूसरे, यह प्राप्त करने के लिए हाल ही में किसान संघर्ष की तरह यह विरोधी या विविध वर्गों का या फिर ग्रामीण जनता के केवल कुछ धड़ों का संघर्ष नहीं हो सकता है। इस तरह के संघर्ष के लिए यह आवश्यक है कि सभी शोषित, मेहनतकश, किसानों का और खेतिहर मजदूरों की अलग एकता हो। 

यह कैसे पूरा होगा और कौन करेगा? यहाँ पर ही मजदूर वर्ग की भूमिका आती है। यह भूमिका केवल इस प्रकार के पंचमेल बहु श्रेणी किसान संघर्ष को 'बढ़ावा' देने की नहीं है, बल्कि पूंजीवादी-जमींदार व्यवस्था में सभी प्रकार के शोषण के खिलाफ शोषित वर्गों के संघर्ष का नेतृत्व करने की है। यह मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मेहनतकश किसानों का संघर्ष है। मजदूर वर्ग पूंजीवादी-जमींदार शासन व्यवस्था के खिलाफ अपने संघर्ष से व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव का आह्वान करता है, जो मेहनतकश किसानों को सामूहिक रूप से किसानों पर उत्पीड़न करने वाले उन सामंती अवशेषों के खिलाफ उठ खडे होने के लिए प्रेरित करता है और गरीब किसानों, खेतिहर मजदूरों को भी पूंजीवादी और सामंती शोषण के सभी रूपों के खिलाफ जाग्रत करता है। इसके अलावा, मेहनतकश, शोषित किसानों को जागरुक करते हुए, मजदूर संघर्ष एक प्रमुख केंद्र की भूमिका निभाता है, जो इन वर्गों को सत्तारूढ़ व्यवस्था के खिलाफ मजदूरों और किसानों के संयुक्त गठबंधन की ओर ले जाता है, जो कि अमीर किसानों और पूंजीपति जमींदारों द्वारा उन्हें मौजूदा शोषक व्यवस्था में केवल सुधार के रास्ते पर ले जाने के लिए लुभाने के प्रयासों के विपरीत है। तभी जमीन तैयार होती है, जैसा कि सुरख लीह ने कहा था, अगर मजदूर वर्ग खुद संघर्ष कर रहा होता तो “किसान संघर्ष भी कई गुना मजबूत होता”। इससे किसान आंदोलन को न केवल बढ़ावा मिलता बल्कि इसे वर्ग संघर्ष के रास्ते पर  सही वर्ग दिशा की ओर संगठित भी किया जा सकता । और मजदूर वर्ग पहले किसानों का शोषण करने वाले सामंती अवशेषों के खिलाफ संघर्ष में अग्रणी शक्ति के रूप में और फिर पूंजीवादी शोषण के खिलाफ इन ग्रामीण मजदूर और मेहनतकश जनता को इनसे मुक्ति की ओर बढ़ने के लिए नेतृत्व करता।

जाहिर है कि वर्तमान में मजदूर वर्ग के नेतृत्व की अनुपस्थिति के कारण इस किसान संघर्ष का नेतृत्व अभी भी प्रभावशाली अमीर किसानों और फर्मेरों के हाथों में था, न कि गरीब किसानों और खेतिहर मजदूरों के। बाद के उल्लिखित ग्रामीण गरीब, निम्नतम मेहनतकश वर्गों ने एक साथ मिलकर अलग से संगठित नहीं होने और औद्योगिक मजदूर वर्ग के नेतृत्व में संबद्ध नहीं होने के कारण यह होना स्वाभाविक है। भले ही पूरे देश के किसानों और फर्मेरों के ये सभी अलग-अलग वर्ग एकजुट होकर बड़ी ताकत हासिल कर लें,  और बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी के खिलाफ विजयी हो जाए, लेकिन वह जीत भी पूंजीवादी और सभी प्रकार के शोषण को खत्म करने वाली जीत नहीं होगी। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पहले से मौजूद समृद्ध, शोषक वर्गों को और मजबूत करेगा। ऐसी ताकतों का संघर्ष न तो सभी प्रकार के सामंती और न ही पूंजीवादी शोषण पर निर्णायक और अंतिम जीत दिला सकता है।

दरअसल, दो ही रास्ते हैं। एक वह है जिसमें समग्र किसान जनसमूह का नेतृत्व धनी फार्मर, धनी किसान करते हैं और दूसरे है किसानों का नेतृत्व मजदूर वर्ग, उसकी क्रांतिकारी वर्ग पार्टी द्वारा ग्रामीण खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों को साथ लेकर दिया जाता है।  पहला गांवों में पूंजीवादी वर्ग संबंधों को और मजबूत करने और स्थापित करने का मार्ग है, जबकि दूसरा सामंती अवशेष, पूंजीवाद को खत्म करने और मजदूर वर्ग और ग्रामीण सर्वहारा वर्ग और गरीब किसानों की सत्ता की स्थापना के लिए आगे बढ़ने का मार्ग है।  पहला अंततः पूंजीवादी शासन के लिए धीमे तथा  दर्दनाक सुधारों का मार्ग है और दूसरा मार्ग नीचे से क्रांतिकारी परिवर्तन का है। यह जो बाद का रास्ता है इसमें मजदूर वर्ग द्वारा निर्देशित किसान, खासकर उसका शोषित तबका, और खेतिहर मजदूर, सामंती अवशेषों को हटाने और बराबर के लिए पूंजीवादी वर्चस्व के खात्मे के कार्य की ओर आगे बढ़ने में सक्षम होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसी स्थिति में ही केवल मजदूर वर्ग की उस भूमिका के अभाव वास्तविक तौर पर महसूस किया जाता है जैसा कि सुरख लीह ने कहा था, ‘मजदूर वर्ग के दृढ़ समर्थन की कमी की चुभनेवाली अनुपस्थिति (pinching absence) का अनुभव होगा’। मेहनतकश किसानों, खेतिहर मजदूरों और ग्रामीण मजदूरों का खुद को पूंजीवादी और सामंती शोषण से मुक्ती के लिए किए जाने वाले किसी भी संघर्ष को ही यह महसूस होना लाजिमी है। 

फ़िलहाल ग्रामीण शोषित वर्गों का ऐसा कोई संघर्ष अभी देखने को नहीं मिल रहा है और वास्तव में खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों के ऐसे संघर्ष के उदभव के लिए उनकों स्वतंत्र रूप से संगठित होना होगा। उसके लिए समाज में एक वास्तविक क्रांतिकारी मजदूर वर्ग पार्टी और एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उसके वर्ग संघर्ष की उपस्थिति अत्यंत आवश्यक है। अन्यथा ये ग्रामीण वर्ग स्वतंत्र रूप से संगठित होने में अक्षम हैं। इस प्रकार ये सभी हिस्से पूंजीवादी शोषण के खिलाफ ताकत के रूप में सामने आते है, जिसमें खासकर मजदूर वर्ग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पूरे समाज में पूंजीवादी वर्चस्व को समाप्त करने के संघर्ष को आगे बढ़ाने के बारे में जो कोई भी गंभीर है उसे इस तरह साफ तौर पर समझ लेना चाहिए कि इस संघर्ष में वास्तविक मित्र, वास्तविक सहयोगी कौन हैं।

इस स्थिति में सुरख लीह ने ठीक ही इशारा किया है कि मजदूर वर्ग इस समय असंगठित और खंडित स्थिति में है। संभवत: वे इस बात से भी सहमत होंगे, विशेषकर इस महत्वपूर्ण तथ्य से कि स्थापित वामपंथ के विश्वासघात के बाद मजदूर वर्ग ही वर्ग संघर्ष और वर्ग एकता के रास्ते से भटक गया है। सुरख लीह ने वर्तमान में मजदूर वर्ग की कमजोरी को स्वीकार करते हुए आगे कहा है, “किसान संघर्ष की मौजूदा स्थिति जन आंदोलन की इन कमजोरियों को दूर करने की मांग कर रही है। हालाँकि, अभी निकट दिनों में इस अंतर को नहीं भरा जा सकता है; फिर भी, क्रांतिकारी ताकतों को भविष्य के संघर्षों के लिए इस कार्य को पूरा करने हेतु अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए। मजदूर वर्ग के साथ घनिष्ठ संश्रय संगठन, अनुशासन, चेतना और इन संघर्षों की तैयारियों को नया स्वरूप देगा।“ हम सुरख लीह से पूछेंगे- क्या क्रांतिकारी ताकतों की वास्तव में मजदूर वर्ग में किसी भी तरह की पैंठ हैं और मजदूर वर्ग को जगाने में सक्षम हैं? इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या अन्य मेहनतकश जनता के आंदोलनों के संबंध में मजदूर वर्ग की अग्रणी भूमिका के अत्यधिक महत्व को वे वास्तव में पहचान रहे हैं ? व्यवहार में उस मान्यता की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति यह होगी की देश भर में सुधारवादी राजनीति से स्वतंत्र रूप से मजदूरों की अपने अगुवा दस्ता की एकता प्राप्त करने के लिए मजदूर वर्ग की मदद करने का कार्य करना होगा, जिससे उनकी अपनी क्रांतिकारी पार्टी के गठन का मार्ग प्रशस्त होगा ताकि अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा सके। क्या ऐसा किया जा रहा है या ऐसी तमाम ताकतें जो कुछ अगुवा मजदूरों को अपने करीब लाने में सक्षम होता हैं, उन्हें विभाजित करके अनेको खंडित क्रांतिकारी संगठनों में भर्ती कर रहा है, जिसका वजह से मजदूर वर्ग के संघर्ष पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ा रहा है? 

पूंजीवाद निजी संपत्ति पर आधारित एक शोषणकारी व्यवस्था है। सामाजिक उत्पादन में सामूहिक रूप से काम करने वाला मजदूर वर्ग वह सामाजिक शक्ति है जो शोषण और उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व के आधार को समाप्त करने के लिए संगठित हो जाता है। लेकिन इसे हाथ में लेने के लिए वे पहले सामंतवाद के अवशेषों को मिटाकर जमीन तैयार करता है। इस हैसियत से मजदूर वर्ग पहले सामंती अवशेषों के खिलाफ किसानों का नेतृत्व करने में सक्षम होता है और फिर ग्रामीण खेतिहर मजदूरों, गरीब किसानों और यहां तक कि मध्यम किसानों के कुछ हिस्से को साथ लेकर संघर्ष को आगे बढ़ाता है। लेकिन यह सबसे पहले इस बात पर निर्भर करता है कि मजदूर वर्ग खुद को समाज में एक वर्ग के रूप में संगठित होना है। तभी वह वर्ग-संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है, विभिन्न प्रकार के बुर्जुआ रूझानों और विचलनों के खिलाफ संघर्ष को मजबूत करता है ताकि उन ताकतों की एकता और चेतना विकसित हो सके जो सत्ताधारी द्वारा अपनाए गए सिर्फ कुछ उपायों और कानूनों को हराने के लिए नहीं बल्कि पूरी पूंजीवादी-जमींदार व्यवस्था को समाप्त करने के लिए जो विशेषकर हमारे जैसे पिछड़े देशों में प्रचलित है। केवल क्रांति ही निर्णायक जीत सुनिश्चित कर सकती है। स्पष्ट शब्दों में इसे सामने रखना इस समय की अत्यंत महत्वपूर्ण आवश्यकता है - मजदूर वर्ग की राजनीति का तकाजा है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हाल के किसान संघर्ष ने लंबी खामोशी को तोड़ते हुए, विद्रोह का झंडा बुलंद किया है, चाहे वह कितना ही सीमित क्यों न हो।  इससे इस प्रकार के शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ शोषित वर्गों के और निरंतर उत्थान के लिए जमीन तैयार कर रहा है। मजदूरों को इस मौके का लाभ उठाना होगा। जब तक मजदूर अपने ऊपर हो रहे हमले के खिलाफ खड़ा होना शुरू नहीं करते, जब तक वे पिछले विश्वासघात और विखंडन पर काबू पाकर एक वर्ग के प्रतिनिधियों के रूप में एकजुट नहीं हो जाते (केवल समर्थन और बढ़ावा देने की परिप्रेक्ष्य में नहीं बल्कि नेतृत्व की), तब तक वह ‘चुभने वाली अनुपस्थिति’ बनी रहेगी। मजदूर वर्ग की एक वास्तविक, सच्ची क्रांतिकारी पार्टी की तत्काल आवश्यकता है - वास्तविक वर्ग पार्टी जो अन्य मेहनतकश जनता को उनकी आजीविका और अधिकारों पर बढ़ते हमलों से मुक्ति के मार्ग पर ले जा सकती है। हमें उम्मीद है कि सुरख लीह उस भूमिका को मान्यता देंगे।

       फरवरी 2022           





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