Saturday, April 16, 2022

क्या दर्शा रहे है विधानसभा चुनाव का नतीजा?

 

कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश और पंजाब समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं। चुनाव जीतने के बाद आम आदमी पार्टी ने पंजाब में और उत्तर प्रदेश समेत बाकी चार राज्यों में बीजेपी ने सरकारें बना ली हैं। पंजाब में मतदान अप्रत्याशित तो था ही, उत्तर प्रदेश में भी बीजेपी के पक्ष में इतना मतदान की उम्मीद नहीं थी। पंजाब में वोटिंग विशेषज्ञों को झूठा साबित करते हुए सरकार बनाने की दावा करने वाली दो पार्टियां कांग्रेस और अकाली दल ने आम आदमी पार्टी की लहर में बह गए हैं। उत्तर प्रदेश में भी चुनाव प्रचार के दौरान मीडिया ने भविष्यवाणी की थी कि बीजेपी और सपा गठबंधन के बीच इस चुनाव में काटें के टक्कर होगी। यहां तक ​​कि कुछ पत्रकारों, जिन पर सपा के प्रति पक्षपाती होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता, उन्होंने भी सपा के जीतने की स्पष्ट संभावना देखी। लेकिन वैसा नहीं हुआ। हालांकि पिछली बार की तुलना में सीटों की संख्या में कमी आई है, लेकिन बीजेपी पर्याप्त बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब रही है। यहां तक ​​कि वे अपने पक्ष में मतदान भी बढ़ाने में सफल रहे हैं। अन्य तीन राज्यों में बहुमत वाली भाजपा को सरकार बनाने में कोई कठिनाई नहीं हुई।

बार-बार दोहराए जाने पर भी शुरुआत में एक सच्चाई का उल्लेख करना आवश्यक है। क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग के अग्रणी प्रतिनिधि के रूप में, हम वर्ग संघर्ष के विकास में रुचि रखते हैं। बुर्जुआ संसदीय व्यवस्था में मजदूर और किसान सहित मेहनतकश लोग इस व्यवस्था में ही थोड़ा बेहतर रहने की सोच से चुनाव में भाग लेते हैं। मौजूदा शोषक व्यवस्था से मुक्ति की रास्ता तलाशने की मकसद से उनका मतदान संचालित नहीं होता है। और अब जब मजदूर वर्ग की पार्टी अनुपस्थित है, जब वर्ग-सचेत मजदूरों की वाहिनी वास्तव में नहीं है या बहुत ही छोटी, कमजोर है, वैसे स्थिति में किसान और अन्य मेहनतकश लोग, यहाँ तक कि मजदूर भी, उनके अपनी वर्गीय भावना या प्रवृत्ति से मतदान में भाग नहीं लेते हैं। अक्सर मजदूर की पहचान से अधिक उनकी धार्मिक, सांप्रदायिक या जातिगत पहचान बढ़-चढ़कर सामने आ जाती है। वे किसको वोट देंगे यह इन पहचानों से निर्धारित होता है। इसलिए ऐसे स्थिति में चुनावों के परिणामों के माध्यम से मजदूरों की वर्ग चेतना का व्यक्त होना लगभग असंभव तो है ही, यहां तक ​​कि इस व्यवस्था के खिलाफ उनके स्वतःस्फूर्त विरोध भी विभिन्न बुर्जुआ विचार तले दबा रह जाता है। नतीजतन, इस चुनाव के परिणामों से मेहनतकश लोगों की वास्तविक वर्ग आकांक्षाओं का व्यक्त होने की संभावना तलाशना भूल होगी। फिर भी, चूंकि ये बुर्जुआ चुनाव एक राजनीतिक संघर्ष है जिसमें कुल मिलाकर मेहनतकश लोग अपनी स्वतंत्र सोच के आधार पर भाग लेते हैं, इसलिए इस वोट के माध्यम से उनके ऊपर जो भी सोच की प्रभाव है उसकी अभिव्यक्ति प्रकट होती है। साथ ही, चुनावी प्रचार के माध्यम से विभिन्न प्रतिद्वन्दी बुर्जुआ पार्टियों की नीतियों का कुछ संकेत मिलता है।

चुनाव प्रचार के दौरान, विभिन्न मीडिया की रिपोर्ट के जरिये उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के खिलाफ व्यापक विरोध की सुचना मिली थी। कोरोना अतिमारी की दूसरी लहर के दौरान, लोगों को चिकित्सा देखभाल प्रदान करने में विफलता को लेकर असंतोष था। बेरोजगारी और मूल्य वृद्धि जैसी दैनिक समस्याओं में सरकार की किसी भी सक्रिय भूमिका की कमी को लेकर लोगों द्वारा विरोध प्रदर्शन किया गया था। इसके अलावा, हालांकि शुरुआत में नहीं, लेकिन बाद में किसान आंदोलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी अच्छी तरह से फैल गया। विभिन्न क्षेत्रों में विशाल महापंचायतें हुई थीं। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों से पैदा हुआ हिंदू-मुस्लिम विभाजन से एक हद तक बाहर आकर हिंदु और मुसलमान दोनों समुदायों के किसानों ने मिलकर समान रूप से भाजपा सरकार के खिलाफ संगठित हो गए। फिर भी इन सबके बावजूद, बीजेपी ने न केवल जीती है, बल्कि 2017 के विधानसभा चुनावों की तुलना में सीटों की संख्या कम होने पर भी (312 से 255), उसका प्राप्त वोट का हिस्सा 39.7% से बढ़कर 41.3% हो गया है। अतः सवाल यह है कि इसके पीछे  वजह क्या है?

उत्तर प्रदेश की व्याप्त क्षेत्रों की ज़मीनी हकीकत समझने लायक किसी भी मजदूर वर्ग के संगठन के अभाव में मेहनतकशों की सोच की गतिशील प्रकृति को समझना मुश्किल है। केवल मीडिया रिपोर्टों के आधार पर सही निर्णय लेना बहुत कठिन है। हालांकि, उत्तर प्रदेश की राजनीति के पिछले इतिहास की निरंतरता में, भाजपा की जीत के पीछे कई कारकों की पहचान करना संभव लगता है।

पहला, हालांकि चुनाव प्रचार के दौरान बहुत स्पष्ट रूप से सामने नहीं आया, फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं है कि चरमपंथी हिंदुत्व की राजनीति ने भाजपा की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बीजेपी व संघ परिवार पिछले कुछ दशकों में पूरे भारत में और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में चरमपंथी हिंदुत्व की राजनीति के माध्यम से जिस हद तक सांप्रदायिक विभाजन करने में सक्षम हुए है उसका इस चुनाव पर भी बड़ा प्रभाव पड़ा है। गौरतलब है कि बाबरी मस्जिद की विवादित जमीन को राम जन्मभूमि मंदिर के लिए इसी सरकार के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से दी गई थी। भाजपा ने स्वाभाविक रूप से राम जन्मभूमि मंदिर के फैसले और उसके बाद के निर्माण को अपनी केंद्र और राज्य सरकारों के लिए एक बड़ी जीत बताया है। शायद यह समझना मुश्किल नहीं है कि इसका बहुत बड़ा असर होगा, खासकर उत्तर प्रदेश के हिंदू समुदाय के बीच। चुनाव के बाद विभिन्न समीक्षा से पता चला है कि भाजपा जनता में एक स्पष्ट विभाजन बनाने में कामयाब रही है और हिंदू मतदाताओं के एक बड़े तबके को जरुर आकर्षित किया है।

सवाल उठ सकता है कि यह सांप्रदायिक विभाजन कोई नई घटना नहीं है। राम जन्मभूमि मंदिर के शिलान्यास के समय से ही यह तीखा रूप लेने लगा। हालांकि तब भी इसके पश्चात कई सालों तक बीजेपी को विपक्ष के सीट पर हीं मजबूरन बैठना पड़ा। जब बीजेपी उस दौरान  बंटवारे की राजनीति करके सत्ता हांसिल नहीं कर पाए  तब आज वो कैसे संभव हो पा रही है? याद रहेगा की कि उस समय के चुनावों में भाजपा साम्प्रदायिक राजनीति का पूरा फायदा न उठा पाने का एक बड़ा कारण यह था कि उस समय भाजपा को पिछड़े वर्ग और दलित लोगों का वोट नहीं मिला था। हालांकि 2014 के बाद से एक बदलाव आना शुरू हो गया है। बसपा का दलित आधार आम तौर पे जाटव जाति में है। उस जाति को छोड़कर अन्य दलित जाती की संगठनों को भाजपा अपनी ओर आकर्षित करना शुरू किया था। इस बार भी देखा जा रहा है कि दलितों का एक बड़ा तबका बीजेपी के पक्ष  में चला गया है। मायावती का बसपा का वोट शेयर और उन्हें जितनी सीटें मिली हैं, वह पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में भी कम हो गया है। जहां 2017 में बसपा को 22.23% वोट मिले थे, वहीं इस चुनाव में बसपा को 12.88% वोट ही मिले हैं। दूसरे शब्दों में, बसपा को मिले वोटों के हिस्से में करीब 10 फीसदी की कमी आई है। बसपा की सीटों की संख्या 19 से घटकर 1 हो गई है। चुनाव के बाद के समीक्षाओं से भी पता चला है कि वोट का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के पक्ष में गया। नहीं तो बीजेपी के वोट में बढ़ोतरी की व्याख्या नहीं की जा सकती है।

भाजपा ने दलित लोगों के एक तबका का वोट कैसे जीता? पिछले कुछ चुनावों में यह देखा गया है कि सपा या बसपा जैसी पार्टी केवल जातिगत विवादों और बंटवारे के आधार पर निचली जाति के लोगों का वोट नहीं जीत पाती। उनके जीवन के विकास का सवाल इस हिस्से के लोगों के लिए महत्वपूर्ण होता जा रहा है, जहां वे देखते हैं कि सपा या बसपा सरकार के तहत भी उनके जीवन में सुधार नहीं हुआ है, यहां तक ​​कि जातिगत  उत्पीड़न का अंत भी नहीं हुआ है। इसके विपरीत बसपा ने अपने शासन काल में ब्राह्मणों के साथ गठबंधन किया था। इन घटनाओं और दूसरी ओर मोदी के 'विकास', 'अच्छे दिन' के नारों ने उन्हें भाजपा की ओर आकर्षित किया। इस चुनाव में भी, विभिन्न जनमत सर्वेक्षणों से पता चला है कि दलित लोगों के वोटों को भाजपा की ओर आकर्षित करने में 'विकास' के नाम पर गरीबों को, जिसमें दलित समुदाय एक बड़ा हिस्सा है, कुछ राहत देने का कार्यक्रम एक प्रमुख कारक रहा है। अधिकांश दलित लोग बेहद गरीब हैं। गरीब और विशेष रूप से दलित होने के कारण, राशन में चावल, आटा, मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन, आवास योजना के तहत घर आदि कराने के सरकार की कार्यक्रम ने उत्तर प्रदेश के इस हिस्से के लोगों को भाजपा की ओर आकर्षित करने में बड़ी भूमिका निभाई है।

वास्तव में, पिछले कुछ चुनावों ने दिखाया है कि लगभग हर राजनीतिक दल गरीब से गरीब जनता को आकर्षित करने के लिए इस तरह के राहत कार्यक्रम का वादा कर रहा है। वोट जीतने के लिए ये कार्यक्रम तेजी से महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं, खासकर गरीबों के लिए। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के मामले में भी, हमने देखा है कि स्वास्थ्य-साथी, भोजन-साथी आदि के नाम पर इस तरह का राहत कार्यक्रम जमीनी स्तर की जीत के पीछे एक महत्वपूर्ण कारक बन गया। क्या यह सरकारी राहत गरीब लोगों की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम है? बिल्कुल भी नहीं। क्या सरकार वास्तव में उन्हें यह सरकारी राहत देकर उनके ज़रुरत से ज्यादा भरपाई कर पा रही है? बिल्कुल भी नहीं। अपना श्रम से बने सामानों के मामले में प्रत्यक्ष रूप से और परोक्ष रूप से आवश्यक वस्तुओं के कीमतों में वृद्धि के माध्यम से थोपे गए करों के तहत गरीब कामकाजी लोगों का जो शोषण चल रही है, उसकी तुलना में सरकारी राहत की राशि बहुत ही कम है। कहने का तात्पर्य यह है की  सरकारें गरीबों से हड़पे गए तमाम सम्पदा का एक बहुत छोटा सा हिस्सा ही उन्हें वापस देकर खुद को 'मसीहा' के रूप में दर्शा रही हैं। हालांकि, संघर्ष के अभाव में यह छलावा गरीब लोगों को  समझ में नहीं आ रहा है। अधिकार की भावना की कमी के कारण, यह थोड़ी सी राहत ही उनके लिए बड़ी प्रतीत होती जा रही है। इतना ही नहीं, जिस पार्टी की मदद से उन्हें यह राहत मिल रही है, उसे गरीबों का 'मसीहा' बनाया जा रहा हैं और उनके हीं पक्ष में जनता खड़े हो रहे हैं। दरअसल केवल उनका संघर्ष ही उनके अधिकार की भावना की सीमा को बढ़ा सकता है जो स्पष्ट रूप से उनके ऊपर चलने वाली शोषण की राज को उनकी चेतना में ला सकता है। कम से कम तब तक संसदीय राजनीतिक दल व्यापक पिछड़े जनता को राहत देने की इस कार्यक्रम में लपेट कर रखने की अपनी राजनीति जारी रखेंगे, जब तक कि यह कार्यक्रम बड़े पूंजीपतियों के हिफाज़त करने वाली अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा खतरा न बन जाए। और इस तरह वे जनता के साथ धोखाधरी करते जाएंगे।

आभासी तौर पर यह लग सकता है कि इस चुनाव में पिछले किसान आंदोलन का कोई खास असर होता नहीं दिख रहा था। उत्तर प्रदेश में क्या असर दिखा? मुजफ्फरनगर के आसपास गन्ने की खेती के क्षेत्र को छोड़कर, जो सरासर किसान आंदोलन से जुड़ा हुआ था, भाजपा ने पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन किया है। पंजाब में 32 किसान संगठनों में से 22 संगठनों ने संयुक्त संघर्ष मोर्चा के नाम से चुनाव में उम्मीदवार उतारे। वहां 94 में से 93 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई है। ऐसा क्यों हुआ? तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने के मोदी सरकार के फैसले से निश्चित तौर पर बीजेपी को काफी मदद मिली है। अगर उत्तर प्रदेश की चुनाव में किसान आंदोलन की उल्टा असर को अंदाजा लगाकर कृषि कानूनों को रद्द नहीं किया गया होता और अगर चुनाव के दौरान किसानों का धरना जारी रहता और केंद्र सरकार सहित हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारों के साथ हर दिन का टकराव जारी रहतीं तो भाजपा बड़ी मुसीबत में पड़ जाती। इसका उपरांत भी ऐसा नहीं है कि किसान आंदोलन का कोई असर नहीं हुआ। मुजफ्फरनगर के आसपास के इलाकों में बीजेपी के नतीजे अच्छे नहीं रहे। 2013 के दंगों के आयोजन में अहम भूमिका निभाने वाले भाजपा के तीन विधायक संगीत सोम, उमेश मालिक और सुरेश राणा सभी हार गए हैं। मुजफ्फरनगर, बागपत और शामली में भाजपा ने पिछले चुनावों में 10 सीटें जीती थी। इस बार 12 में से सिर्फ 4 सीटों पर जीत हासिल की है। मेरठ में इस बार बीजेपी ने 7 में से 3 में जीत हासिल की है, पिछले बार 7 में से 6 सीट पर जीत हासिल की थी। अतः यह समझा जा सकता है कि किसान आंदोलन के माध्यम से सामने आने वाली हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रभाव अभी भी सीमित है। यह भाजपा और संघ परिवार की हिंदुत्व की राजनीति को हराने के लिए काफी नहीं है। यह उग्रवादी हिंदुत्व की राजनीति को तब तक हरा नहीं पाएगा जब तक कि वर्ग संघर्ष के विकास के माध्यम से मजदूर वर्ग की वर्गीय चेतना से लैस वाहिनी का निर्माण नहीं हो जाता और उसके नेतृत्व में मेहनतकश लोगों की एकता का निर्माण नहीं हो जाता।

अंत में, भाजपा की जीत के पीछे के कारणों को पूरी तरह से तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि दो और कारणों का उल्लेख नहीं किया जाता है। पहला है  नरेंद्र मोदी के प्रति आकर्षण। मोदी ने 2014 में 'अच्छे दिन' का नारा लगाकर आम लोगों में झूठी उम्मीद जगाकर जो पागलपन पैदा किया था, वह पिछले 6-7 सालों के अनुभव में काफी कमजोर हो गया है। हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मोदी में आकर्षण अभी भी है और यह इस चुनाव में भी दिखाई दिया है।

दूसरा कारण यह है कि संसदीय राजनीति के क्षेत्र में भाजपा का कोई विकल्प नहीं है। लोगों को अन्य संसदीय विपक्षी राजनीतिक दल की सरकार का भी काफी अनुभव है। उनका भ्रष्टाचार, बाहुबली नीति, बेईमानी, और सबसे बढ़कर जनविरोधी नीतियां भाजपा की ओर आकर्षित होने का एक बड़ा कारण हैं। इसलिए बीजेपी के खिलाफ भले ही जनता का विरोध बढ़ गया हो, लेकिन जनता हर जगह इन सभी पार्टियों के पक्ष में नहीं जा रही है। एक हद तक इसका भी झलक उत्तर प्रदेश चुनाव में देखने को मिला। हालांकि, यह ज्यादातर पंजाब चुनाव में देखा गया। पंजाब में आप का उदय ने कांग्रेस और अकाली दल को पछाड़ दिया और दिखाया कि लोग विपक्षी राजनीतिक दलों पर भरोसा नहीं कर सकते। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि विभिन्न राज्यों में इन क्षेत्रीय दलों के भाजपा के विकल्प बनने की संभावना बिलकुल ही समाप्त हो गया है। उन सभी राज्यों में जहां भाजपा की सरकार है, वहां भी भाजपा का जनविरोधी नीति अनिवार्य रूप से लोगों के बीच विरोध को जन्म देगी और वे विरोध संसदीय राजनीति में इन विपक्षी दलों के इर्द-गिर्द घूमेंगे।

चुनाव में बीजेपी की जीत के पीछे यही वजह है। लेकिन, इसका परिणाम क्या हैं? इस जीत ने स्वाभाविक रूप से भाजपा का मनोबल बढ़ाया है। इसका परिणाम यह होगा कि आने वाले दिनों में भाजपा और संघ परिवार अपने उग्र हिंदुत्व की राजनीति को और मजबूती से उठाएंगे। मतदान के परिणाम के तुरंत बाद दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। एक, कर्नाटक हिजाब विवाद में, उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि सरकार का फैसला सही था। मतलब कर्नाटक में मुस्लिम छात्र स्कूल और कॉलेज में हिजाब नहीं पहन पाएंगे। दूसरा, उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय ने मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि मंदिर से सटे ईदगाह को स्थानांतरित करने का मामला उठाया है। इसमें कोई शक नहीं कि ये सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ाने और मुस्लिम समुदाय पर विभिन्न तरीकों से दबाव बनाने में भाजपा के औजार होंगे। इसका प्रमाण भाजपा शासित राज्य में देखा जा सकता है। कर्नाटक में हलाल मांस की बिक्री और मंदिर के आसपास मुस्लिम व्यापारियों के व्यापार को अवैध बताया जा रहा है, जिससे मुस्लिम व्यापारियों की जान खतरे में पड़ जाएगी। दिल्ली में कई नगर पालिकाओं ने नवरात्रि के बहाने सभी मछली और मांस की दुकानों को एक हफ्ते के लिए बंद करने का आदेश दिया है। रामनवमी के दिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रावास के मेस हॉल में एबीवीपी के गुंडों ने जबरन मांसाहारी खाना बंद करा दिया और इसे लेकर जमकर मारपीट हुई। हालांकि सबसे खराब स्थिति मध्य प्रदेश की रही। मुसलमानों को एक शहर में रामनवमी जुलूस पर दंगा करने के लिए दोषी ठहराया गया है, और संपत्ति के नुकसान के मुआवजे की मांग के बहाने कई मुस्लिम घरों को बुलडोजर से दहा दिया गया है। भाजपा और संघ परिवार के इस उग्र हिंदुत्व की आक्रामक राजनीति का मकसद न केवल चुनाव जीतने के लिए हिंदू जनता को एकजुट करना है, इसका वास्तविक मकसद हिंदू राष्ट्र बनाना है, जो अब संसदीय पथ पर ही आगे बढ़ रही है। एक शब्द में कहें तो भाजपा और आरएसएस का फासीवादी अभियान जोरदार तरीके से जारी रहेगा।

 दूसरी ओर संसदीय राजनीति के क्षेत्र में बीजेपी अपनी ताकत बढ़ा रही है। बड़े पूंजीपति भी इस वजह से उत्साहित हैं क्योंकि मोदी और भाजपा सरकारों के लिए जनता पर आर्थिक सुधारों के हमले को उतारना और आसान होगा। इसलिए इस चुनाव के बाद मीडिया में बड़े पूंजीपतियों के प्रवक्ता मोदी को अपने सुधार कार्यक्रम को तेज करने की सलाह दे रहे हैं। मज़दूरों और गरीबों पर सरकार और सत्ताधारी पूंजीपतियों के हमले बढ़ते जा रहे हैं और आने वाले दिनों में और तेज़ होंगे। यह हमला  मजदूर और आम लोगों के बीच विरोध को तेज करेगा और उनके बीच मोदी के प्रति जो मोह बचा है उसे तोड़ने में मदद करेगा। संघर्ष की कमी के कारण यह प्रक्रिया बहुत धीमी है, लेकिन आने वाले दिनों में अगर यह तेज गति लेती है तो मजदूर वर्ग में नए रास्ते तलाशने की चाहत भी बढ़ेगी। लिहाज़ा, एक ओर भारतीय राजनीति का दक्षिणपंथ की ओर झुकाव जैसे-जैसे मजबूत होता जाता है, वैसे-वैसे मजदूर व मेहनतकश लोगों के बीच एक नए संघर्ष की संभावना भी पैदा होगी।

यह दोहराना अप्रासंगिक नहीं होगा कि चुनावों में भाजपा की जीत का मतलब यह नहीं है कि मजदूर वर्ग व जनता में असंतोष संघर्ष के माध्यम से प्रकट नहीं होगा। बल्कि उसकी संभावना बढ़ जाएगी। हालांकि, हार के प्रभावों पर काबू पाकर मजदूरों के अग्रणी दस्ते की संगठित होने के साथ मजदूर वर्ग का संघर्ष के विकास की संभावना जुड़े हुए है। इसके अलावा, शासक वर्ग की बढ़ती आक्रामकता से मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता में स्वतःस्फूर्त प्रतिरोध की संभावना भी बढ़ जाएगी। पश्चिम बंगाल जैसे उत्तर प्रदेश में भी 'नो वोट टू बीजेपी’ यानी ‘भाजपा को वोट न दें' के नारे के साथ जो लोग कुछ संगठनों को एकजुट करके फासीवादी भाजपा को हराने का सपना देखने वाले थे उनको यह महसूस करना चाहिए कि शासक वर्ग के हमले का मुकाबला करने का असली राह वर्ग संघर्ष की मैदान पर ही है।