Wednesday, January 31, 2024

साम्प्रदायिकता, फ़ासीवाद और मजदूर वर्ग ---- अपूर्व सेनगुप्ता

पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा गठबंधन ने बहुमत के साथ केंद्र में सरकार बनाई थी। तब से आरएसएस सहित तमाम कट्टरपंथी सांप्रदायिक ताकतें अपनी उग्र आक्रमणकारी गतिविधियों को खतरनाक रूप से बढ़ाने में लगी हुई हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत के तुरंत बाद, 2 जून को हिंदू राष्ट्र सेना के लोगों ने पुणे में शिवाजी और बाल ठाकरे के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करने के बहाने एक मुस्लिम आईटी पेशेवर मोहसिन शेख की सरेआम  सड़क पर हत्या कर दी। उसके बाद से बीते एक साल में संघ परिवार और अन्य उग्र कट्टरपंथी हिंदू संगठनों ने कितनी आपत्तिजनक साम्प्रदायिक टिप्पणियां, घोषणाएं और यहां तक कि हमले किये हैं उनका कोई हिसाब नहीं है। 

कभी कोई मंत्री भाषण देता है कि मतदाताओं को तय करना होगा कि वे रामजादों को चुनेंगे या हरामजादों को, वहीं कोई सांसद फ़रमान जारी कर कहता है कि मुसलमानों के मताधिकार छीन लेना चाहिए। दलित हिन्दू अथवा आदिवासियों में से जिन्होंने इस्लाम या ईसाई धर्म को अपनाया था, उनमें से बहुतों का जबरन धर्मांतरण करवाया गया है। पुणे में एक आईटी पेशेवर की हत्या की उपरोक्त घटना भी दंगे की स्थिति में हुई थी।  साल 1992 या 2002 में जितने बड़े पैमाने पर तो नहीं, लेकिन फिर भी बड़ौदा और दिल्ली के त्रिलोकपुरी में दंगे कराये गये। महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में गौ-हत्या पर प्रतिबंध लगाया गया है। संघ परिवार और अन्य कट्टरपंथी हिंदू सांप्रदायिक संगठनों के उग्र हिंदुत्व अभियान का रथ इस प्रकार खतरनाक ढंग से आगे बढ़ रहा है।

संघ परिवार के अभियान का लक्ष्य 

संघ परिवार सहित कट्टरपंथी सांप्रदायिक संगठनों की सांप्रदायिक गतिविधियों से, उनकी कार्यशैली और लक्ष्यों के बारे में कई महत्वपूर्ण पहलू सामने आते हैं। पहला, कट्टरपंथी हिंदू सांप्रदायिक संगठन मुसलमानों और ईसाइयों पर हमला करते हैं, उनके पूजा स्थलों को नष्ट करते हैं, दंगे आयोजित करते हैं, धर्मांतरण करते हुए प्रभावी ढंग से उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को छीन रहे हैं और इस तरह से धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों पर अत्याचार करते हैं, उन्हें पैरों तले दबा कर दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। दूसरा, इस अनैतिक काम में हिन्दुओं के एक हिस्सा को अपने साथ लाने के लिए वे झूठ फैलाते हैं, इतिहास और वर्तमान के विभिन्न विषय या समस्या के बारे में जानकारी को तोड़-मरोड़कर मुसलमानों और ईसाई लोगों के खिलाफ सांप्रदायिक प्रचार चला रहे हैं। साथ ही हिन्दू धर्म को मानने वाली आबादी को अधिक से अधिक सांप्रदायिक पहचान बनाने या उस सोच में बांधने का प्रयास कर रहे हैं। इनके इस अभियान का सबसे घातक परिणाम यह है कि ये लोग समाज में पहले से मौजूद साम्प्रदायिक विभाजन को और अधिक तेज और व्यापक बना रहे हैं। 

इसके अलावा संघ परिवार की गतिविधियों की एक और खतरनाक पहलू भी है। इसके कई प्रतिबिंब पहले भी घटित हो चुके हैं, और अतीत में भी। कुछ समय पहले भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन में संघ से जुड़े कई लोगों ने अजीब दावे किये थे। उनका दावा था कि आज से 7000 साल पहले अगस्त्य मुनि और ऋषि भारद्वाज ने प्राचीन भारत में विमान का अविष्कार किया था। सिर्फ इतना ही नहीं, वे विमान न सिर्फ अलग-अलग देशों में जाते थे, बल्कि अलग-अलग ग्रहों तक भी जाया करते थे। यहां तक कि वे विमान न सिर्फ सामने की तरफ से उड़ सकते थे, बल्कि दायें, बाएं और पीछे की तरफ भी उड़ सकते थे। उस विज्ञान (!) कांग्रेस के अधिवेशन में संघ से जुड़े वरिष्ठ बुद्धिजीवियों ने इस तरह के और भी दावे किये थे। इसमें उनकी क्या गलती है? खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया है कि भारत में प्लास्टिक सर्जरी का अविष्कार बहुत पहले हो गया था और गणेश की गर्दन पर हाथी का सर इसका प्रमाण है! किसी भी प्राचीन सभ्यता की तरह मानव समाज के ज्ञानमीमांसा के विकास में भारतीय सभ्यता के महत्वपूर्ण योगदान के बारे में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन जो दावे वे लोग कर रहे हैं वह अवैज्ञानिक और मनगढ़ंत हैं। इन अवैज्ञानिक और झूठे दावों के जरिये वे प्राचीन भारतीय परंपराओं की स्थापना के नाम पर कुछ अवैज्ञानिक, अंधविश्वासी विचारों को समाज में स्थापित करना चाहते हैं। इसके अलावा उनके इन दावों का एक और महत्वपूर्ण पहलू भी है। वे पूरी भारतीय सभ्यता को हिन्दू सभ्यता सिद्ध करना चाहते हैं जो इतिहास को नष्ट करना जैसा है। 

 वे न केवल ऐसी अवैज्ञानिक दावा कर रहे हैं, उससे भी बड़ी बात यह है कि जो लोग इन अवैज्ञानिक, साम्प्रदायिक झूठे प्रचार को बेनकाब करने की कोशिश कर रहे हैं, उनकी ज़ुबान बंद करने के लिए किसी भी हद तक जाने लिए तैयार हैं। इसका प्रमाण है नरेंद दाभोलकर, एम. कलबुर्गी और गोविन्द पानसरे जैसे प्रगतिशील, तर्कशील व्यक्तियों की हत्या। 

इन घटनाओं से साफ़ हो जाता है कि संघ परिवार या उसके सहयोगी अन्य  कट्टरपंथी सांप्रदायिक हिन्दू ताकतें हिंदुत्व की जिस विचारधारा को समाज में स्थापित करना चाहते हैं, उसका अर्थ है वैज्ञानिक सोच के विरुद्ध अवैज्ञानिक, धार्मिक अंधविश्वासों को स्थापित करना और इस आदर्श के आढ़ में उन्होंने जिस साम्प्रदायिक उग्र हिन्दू सेना का निर्माण किया है वह सेना फासीवादी तरीके से समाज में किसी भी असहमतिपूर्ण राय को नष्ट करने के लिए प्रतिबद्ध है। संघ परिवार न केवल सांप्रदायिक कट्टरपंथी है, बल्कि वह स्वाभाविक तौर पर प्रगति और लोकतंत्र के खिलाफ एक फासीवादी ताकत है। 

क्या भारत फासीवाद के द्वार पर खड़ा है?

क्या संघ की ये गतिविधियां कोई नई परिघटना है? बिलकुल नहीं। संघ परिवार का यह उत्पाद अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से शुरू हुआ है। इस समय बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ, बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद पूरे देश में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे हुए। साल 1993 में मुंबई में हुए बम धमाकों के बाद बड़े सांप्रदायिक दंगे आदि हुए। संघ के अभियान की तीव्रता हमेशा एक जैसी नहीं रही है, कभी इसकी तीव्रता बढ़ी है तो कभी कुछ हद तक कम हुई है। 

संघ परिवार का फासीवादी चरित्र उसके जन्म के साथ ही दिखाई देने लगा था। लेकिन, इस स्तर पर उसका यह चरित्र बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना से सबसे अधिक मजबूती से सामने आता है। संघ ने जिस तरह से देश की न्यायिक व्यवस्था की परवाह किये बिना, समाज का एक अहम हिस्सा केवल मुसलमान समुदाय ही नहीं, बल्कि गैर-मुस्लिम समुदाय के एक बड़े हिस्से की भावनाओं और नाराज़गी को नज़रअंदाज़ करते हुए जिस तरह से बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया था, उस घटना ने उसके फासीवादी चरित्र को पूरी तरह से उजागर कर दिया था। 2002 के गुजरात नरसंहार ने संघ परिवार के फासीवादी अभियान के खतरे को एक बार फिर सामने ला दिया था। बेशक, न केवल ये घटनाएं, बल्कि इन घटनाओं के दौरान संघ द्वारा लगातर जारी तमाम गतिविधियों ने इसके फ़ासीवादी ख़तरे को उजागर कर दिया था। 

स्वाभाविक रूप से, गुजरात नरसंहार के नायक नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने और उसके बाद संघ परिवार की सक्रियता ने फासीवाद के खतरे के सवाल को फिर से प्रभावी रूप से हमारे सामने ला दिया है। सवाल यह खड़ा हो गया है कि क्या हमारे देश फासीवाद के मुहाने पर खड़ा हो गया है? 

संघ परिवार के नजरिये से देखा जाये तो इसमें कोई संदेह नहीं कि संघ का मुख्य लक्ष्य है भारत को हिन्दू राष्ट्र के रूप में स्थापित करना, जहां अन्य धर्म के लोगों को न सिर्फ पैरों तले दबाये रखा जायेगा बल्कि उस राष्ट्र की शासन का एक प्रमुख स्तंभ कट्टरपंथी हिंदू धर्म के प्रतिक्रियावादी आदर्शों पर संगठित अंध भक्तों की एक फ़ौज होगी। स्वाभाविक रूप उस राष्ट्र में बुर्जुआ लोकतंत्र के न्यूनतम अधिकारों को छीन लिया जायेगा, महिलाओं के अधिकारों को समाप्त कर दिया जायेगा साथ ही मजदूर, शोषित और मेहनतकश लोगों के विरोध और संगठन बनाने के लोकतांत्रिक अधिकार को भी ख़त्म कर दिए जायेंगे। क्या कोई भी धार्मिक राष्ट्र फ़ासीवादी राष्ट्र है? ऐसा नहीं है। लेकिन यदि हम संघ की गतिविधियों, उनके लक्ष्य और आदर्शों आदि पर नज़र डालें तो यह समझना कठिन नहीं है कि संघ द्वारा नियोजित और निर्मित यह एक फ़ासीवादी राष्ट्र होगा। 

 लेकिन संघ की जो भी योजना जो भी हो, अंततः किसी भी देश की तरह, भारत में फासीवाद स्थापित होगा या नहीं इसका फैसला संघ या उस जैसा कोई संगठन तय नहीं करेगा बल्कि यह निर्णय शासक वर्ग, मुख्य रूप से उनके नेता बड़े बुर्जुआ वर्ग तय करेंगे। बड़े पूंजीपति वर्ग ने वैश्वीकरण-उदारीकरण हमले को तेज करने के लिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को सत्ता में लाया है, जिसका उद्देश्य मेहनतकश जनता पर उनके संकट का बोझ डालना है। लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि वे संसदीय ढांचे को नष्ट करके फासीवादी ढांचा स्थापित करना चाहते हैं? इस विषय पर हमें गौर करना चाहिए। 

बड़े पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधियों की हालिया टिप्पणियों और बयानों पर नजर डालने से पता चलता है कि लोकसभा चुनाव के बाद संघ परिवार की कट्टरपंथी हिंदू सांप्रदायिक गतिविधियां बड़े पूंजीपति वर्ग के लिए चिंता का विषय बन गई हैं। उन्होंने खुलकर अपनी इस चिंता को व्यक्त किया है और नरेंद्र मोदी सहित भाजपा नेतृत्व को इन कट्टरपंथी हिंदू संप्रदायवाद के कट्टरपंथी वर्गों पर लगाम लगाने की बार-बार सलाह दे रहे हैं। कुछ माह पहले बड़े पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधियों में से एक और उद्योगपति आदि गोदरेज ने  हिंदुत्व को लेकर असहिष्णुता फ़ैलाने वालों पर नियंत्रण रखने के लिए सरकार को चेतावनी दी है। ( BJP led govt needs to control ‘extreme – Hindutva’ elements: Adi Godrej, The Financial Express, April 2015)। एक और पूंजीपति हर्ष गोएंका ने कहा है, “ एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में किसी भी तरह के धार्मिक कट्टरपंथी गतिविधियों से बचना चाहिए। मनमाने ढंग से फासीवादी व्यक्तव्य  सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ती हैं और उनसे सख्ती से निपटा जाना चाहिए।“  पिछले कुछ महीनों में बड़े पूंजीपति वर्ग के विभिन्न प्रतिनिधियों द्वारा कई बार ऐसी टिप्पणियाँ करते देखा गया है। 

इसकी क्या वजह है? क्या भारत के बड़े पूंजीपति बहुत गैरसांप्रदायिक और लोकतांत्रिक हो गये हैं? कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसा सोचना सरासर मूर्खता होगी। वास्तविक कारण शायद फिक्की के अध्यक्ष ज्योत्सना सूरी के शब्दों में खोजा जा सकता है, “उनकी (भगवा ब्रिगेड) टिप्पणियां निश्चित रूप से फोकस को कमजोर कर रही हैं और इसकी आवश्यकता नहीं थी।“  (इस टिप्पणी और पिछली टिप्पणियों के स्रोत: India Inc frets over govt’s fading sheen, Times of India, April 8, 2015)।  इस बात का मतलब बिलकुल साफ़ है- अपने संकट से उबरने के लिए गरीबों पर “सुधारों” के हमले द्वारा बढ़ाने के जिस उद्देश्य से उन्होंने मोदी सरकार का समर्थन किया था, सरकार के उस फोकस से हटने को लेकर वे चिंतित हैं। 

थोड़ा और गहराई में जाने पर यह समझना मुश्किल नहीं है कि बड़े पूंजीपति वर्ग के इस रवैये का असली कारण यह है कि वे मौजूदा शासन के ढांचे को बरकरार रखना चाहते हैं। बीते सात दशक से भी अधिक समय से बड़े पूंजीपति वर्ग इस संसदीय ढांचे के माध्यम से बहुत चतुराई और कुशलता के साथ लोगों को धोखा देकर शासन कर रहा है और लगातर विभिन्न सुधारों के माध्यम से इस संसदीय ढांचे को परिशोधित किया है ताकि लोगों को इस व्यवस्था में चारो ओर से जोड़ कर रख सके। यह भी बिल्कुल स्पष्ट है कि जनता इस संसदीय ढांचे के भीतर बहुत हद तक बंधे हुए हैं। इस कारण से, बड़े पूंजीपति वर्ग को वर्तमान संसदीय शासन संरचना को तोड़ने और उसके स्थान पर फासीवादी शासन संरचना स्थापित करने का कोई आग्रह नहीं होना चाहिए।   

 संभवत इसी कारण से बीते दो दशक से अधिक समय से भारतीय राजनीति में भले ही संघ परिवार ने महत्वपूर्ण स्थान हासिल कर लिया हो, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि भारत में फासीवाद स्थापना की संभावना बहुत प्रबल हो गयी है। क्या इसका मतलब यह है कि भारत का बड़ा बुर्जुआ शासक वर्ग फासीवादी शासन की ओर नहीं मुड़ सकता? ऐसा सोचना निश्चित रूप से सही नहीं होगा। देश की वित्तीय संकट यदि गहराता रहा और उससे पूंजीपति वर्ग का संकट बढ़ जाता है तो ऐसे में जरुरत पड़ने पर बड़े पूंजीपति वर्ग फासीवादी शासन की रुख कर सकते हैं और उस स्थिति में फासीवादी संघ परिवार उनके लिए योग्य हथियार साबित होगा। हालांकि वह संभावना अभी प्रबल है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। 

यहां हम पाठकों का ध्यान एक और पहलू की ओर आकर्षित करेंगे। हिंदू लोगों के बीच सांप्रदायिकता के प्रभाव में वृद्धि को इस तथ्य से मापना गलत होगा कि इस चुनाव में भाजपा का मतदान प्रतिशत या सीटों के मामले में एकल बहुमत बढ़ा है। क्योंकि, मोदी के नेतृत्व में चुनाव पूर्व प्रचार में जिस तरह से बीजेपी ने विकास या “अच्छे दिन” का अभियान चलाया, उससे लोगों का एक वर्ग आकर्षित हुआ था और दूसरी ओर कांग्रेस सरकार के खिलाफ गुस्सा भी बीजेपी को समर्थन देने में एक अहम कारक था। इसके बावजूद, यह सच है कि अस्सी के दशक के आखिर से अब तक संघ परिवार का नेटवर्क और शाखाएँ बहुत  दूर-दूर तक फैल गई हैं। लेकिन  यह भी सच है कि संघ परिवार की राजनीतिक शाखा, भाजपा , पिछले पच्चीस वर्षों में  स्पष्ट रूप से संघ परिवार की कट्टरपंथी हिंदुत्व लाइन से कुछ हद तक दूर चली गई है।  इसी कारण कभी-कभी संघ परिवार का अपने राजनैतिक शाखा बीजेपी के साथ कुछ विरोध सामने आते रहते हैं। शायद यह भी शासक वर्ग और संघ के लक्ष्य के बीच कम से कम  जो वर्तमान टकराव है, यह उसी संघर्ष का प्रतिबिंब या अभिव्यक्ति है। इस शासन व्यवस्था के भीतर एक आधिकारिक राजनैतिक दल के तौर पर भाजपा बड़े पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के लिए मजबूर है। चूंकि वर्तमान शासक वर्ग इस संसदीय ढांचे और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक (अपनी सभी सीमाओं, खामियों और विकृतियों के साथ) ढांचे को अपनी आजमाई हुई और परखी हुई तर्ज पर बनाए रखना चाहता है, या इसके माध्यम से अपने शोषण का शासन चलाना चाहता है,  इसलिए बीजेपी भी उसी राजनीति का अनुसरण कर रही है अथवा करने को बाध्य है। यही कारण है संघ परिवार के लक्ष्य के विपरीत भाजपा जो राजनीति कर रही है उसी राजनीति का तत्कालीन विरोध दिखाई दे रहा है। इस टकराव को महज दिखावा कह कर ख़ारिज करना सही नहीं है, और यह कोई नासुलाझने वाला टकराव नहीं है, यह एक ही परिवार के भीतर अलग-अलग हिस्सों के बीच का टकराव है। संसदीय लोकतंत्र में सत्ता में बने रहने लिए जरुरी है कि भाजपा केवल कट्टरवादी हिंदुत्व एजेंडे पर निर्भर नहीं रह सकती वहीं वह अपने मूल समर्थन आधार, सवर्ण जाति और हिन्दू साम्प्रदायिकता को भी नहीं छोड़ सकती है। दूसरी ओर, संघ परिवार के मूल लक्ष्यों और भाजपा की वर्तमान गतिविधियों के बीच स्पष्ट संघर्ष के बावजूद, उन्हें अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए  सत्ता पर बीजेपी का रहना उनकी आवश्यकता है। 

वर्ग एकता का विघटन: मजदूर वर्ग के लिए मुख्य खतरा

बड़ा बुर्जुआ शासक वर्ग अभी फासीवादी शासन व्यवस्था को स्थापित करने की दिशा में नहीं जा रहा है तो क्या इसका मतलब यह है कि संघ परिवार का यह फासीवादी, सांप्रदायिक अभियान मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता के लिए खतरनाक नहीं है? क्या हम इस तरह से देखें कि बीजेपी कांग्रेस की तरह बड़े पूंजीपतियों की एक पार्टी है जो हिन्दू समाज के लोगों को लामबंद करने के लिए कुछ साम्प्रदायिक नारों का इस्तेमाल कर रही है? इस तरह से देखना या सोचना एक भयंकर भूल होगी। 

मजदूर वर्ग के लिए साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा खतरा यह है कि साम्प्रदायिकता वर्ग एकता को कमजोर करती है। निम्न-बुर्जुआ, बुर्जुआ वर्ग सांप्रदायिक सद्भाव के लक्ष्य से संतुष्ट हो सकता है, जिसे बुर्जुआ निम्न-बुर्जुआ पार्टियाँ या यहाँ तक कि उनके वर्ग के बुद्धिजीवी भी बार-बार सामने रखते हैं, लेकिन मजदूर वर्ग ऐसा नहीं कर सकता। अपने-अपने वर्ग के भीतर बंधे रहकर साम्प्रदायिक सद्भाव के माहौल में रहना बुर्जुआ, निम्न-बुर्जुआ वर्ग के लिए पर्याप्त है। लेकिन मजदूर वर्ग के लिए जो वास्तविक है वह उसकी वर्ग एकता है, समुदाय की परवाह किए बिना मजदूर  वर्ग की एकता। मालिकों के शोषण और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ संघर्ष खड़ा करने के लिए इस एकता की ज़रूरत है, लेकिन सभी प्रकार के शोषण को हमेशा के लिए ख़त्म करने और शोषण रहित साम्यवादी समाज के निर्माण के लिए इस एकता की और अधिक आवश्यकता है। संघ परिवार का साम्प्रदायिक अभियान इस वर्ग एकता के निर्माण में हर दिन हर पल रुकावट खड़ा कर रहा है। न केवल हिन्दू समुदाय के मजदूर और मेहनतकश लोगों के सन्दर्भ में चूँकि आरएसएस का उग्र हिंदुत्व अभियान देश के मुसलमान समुदाय के भीतर भी सांप्रदायिक ताकतों के प्रभाव को बढ़ाने का एक मुख्य कारक के रूप में काम कर रहा है, इसलिए दोनों ही समुदाय के मेहनतकश लोगों के लिए यह सांप्रदायिक विभाजन वर्ग एकता के निर्माण में एक बड़ी बाधा के रूप में काम कर रहा है। 

साथ ही साथ अधिक चिंताजनक बात यह है कि संघ परिवार एक पिछड़ी, अवैज्ञानिक, प्रतिक्रियावादी विचारधारा पर खड़ा है। संघ परिवार सहित कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादी  ताकतें मजदूरों और मेहनतकश गरीबों पर जितना अधिक अपना प्रभाव बढ़ाएंगी, उतना ही वे सामाजिक परिवर्तन, वर्गविहीन, शोषणमुक्त, साम्यवादी समाज के निर्माण के अपने आदर्श के लक्ष्य से दूर होते जाएंगे। सिर्फ  इतना ही नहीं, उग्र हिंदुत्व की इस प्रतिक्रियावादी विचारधारा के आधार पर संघ परिवार जिन फासीवादी ताकतों का निर्माण कर रहा है, उनके द्वारा लोकतांत्रिक आंदोलनों को दबाने यह खतरा भी क्रमश बढ़ गया है। इसके साथ ही न केवल साम्यवादी विचारधारा जैसे उन्नत आदर्शों पर बल्कि तर्कसंगत, प्रगतिशील, वैज्ञानिक सोच पर भी हमले की संभावना बढ़ गई।

इसीलिए संघ परिवार का यह विस्तार न केवल मजदूर वर्ग सहित मेहनतकश जनता के लिए बड़ा ख़तरा है  बल्कि समग्र रूप से प्रगति और लोकतंत्र की दृष्टि से भी ख़तरा है। परिणामस्वरूप, मजदूर वर्ग की अग्रणी ताकतों को यह तय करना होगा कि इस खतरे से कैसे निपटा जाए।

अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता के खतरे 

इसमें कोई संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है कि उग्र हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतें मजदूर और मेहनतकश लोगों के लिए प्रमुख खतरा है। पहला, यह है बहुसंख्यक का साम्प्रदायिकता और बीते दो-ढाई दशक से ये ताकतें बहुत उग्र और आक्रामक हो गई हैं। खासकर फासीवादी संघ की अगुवाई में वे बहुत संगठित होकर अपनी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। वे न केवल धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के दुश्मन हैं, बल्कि वे सभी मजदूरों और मेहनतकश लोगों के दुश्मन हैं चाहे वो किसी भी धर्म के हों, उत्पीड़ित जाति के लोग दलित, आदिवासी सहित तमाम मजदूर  शोषित, उत्पीड़ित और लोकतांत्रिक लोगों के दुश्मन हैं। वे मुख्य खतरा भी है क्योंकि वे राज्य की सत्ता पर कब्ज़ा कर सकते हैं, बेशक अगर शासक वर्ग उस रास्ते पर चलता है, और एक फासीवादी राज्य की स्थापना करता है।

कट्टरपंथी हिंदू संप्रदायवाद मुख्य खतरा होने के बावजूद अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता  खासकर मुस्लिम साम्प्रदायिकता के खतरे को भी कम आंकना बड़ी भूल होगी। एक तरफ वे अपने-अपने समुदाय के मेहनतकश लोगों को सांप्रदायिक रूप से संगठित करके वर्ग एकता को कमज़ोर कर रहे हैं, दूसरी ओर उनकी सांप्रदायिक गतिविधियाँ हिंदू समुदाय के मेहनतकश लोगों के बीच हिंदू सांप्रदायिकता के प्रभाव को बढ़ाने में मदद कर रही हैं।

भारतीय इतिहास में मुस्लिम सांप्रदायिकता का इतिहास बहुत पुराना है, जो उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से हिंदू सांप्रदायिकता के साथ मिलकर विकसित हुआ, जिसके परिणामस्वरूप देश विभाजन और दंगे हुए। मुस्लिम साम्प्रदायिकता का वर्तमान विकास इसी इतिहास पर आधारित है। हालाँकि, पिछले पच्चीस से तीस वर्षों में भारत में मुस्लिम समुदाय के एकजुट होने और बढ़ने का सबसे महत्वपूर्ण कारण आक्रामक अभियान रहा है, जिनमें असंख्य घटनाओं के साथ-साथ ‘साल 92 में बाबरी विध्वंस’ 93 में ‘मुंबई दंगे’ और 2002 में गुजरात नरसंहार जैसी व्यापक और तीव्र घटनाएं शामिल हैं। अल्पसंख्यक समुदाय, विशेषकर मुस्लिम समुदाय  के लोगों पर कट्टरपंथी हिंदू सांप्रदायिक, फासीवादी ताकतों के इन हमलों के जवाब में मुस्लिम समुदाय के बीच मुस्लिम संप्रदायवाद की भावना में वृद्धि हुई है, जिसका उपयोग कट्टरपंथी, सांप्रदायिक ताकतों द्वारा अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए किया गया है। 

एक और कारण से भी भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता का प्रभाव बढ़ा है, वह कारण अंतर्राष्ट्रीय है। साम्राज्यवादी देश, विशेषकर अमेरिकी साम्राज्यवाद,  अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए पिछले कुछ दशकों से मध्य पूर्व और उसके पड़ोसी देशों पर लगातार हमले कर रहे हैं और क्षेत्र के लोगों पर क्रूरतापूर्वक हमला कर रहा है। हालाँकि इस साम्राज्यवादी हमले का उद्देश्य मध्य और पश्चिम एशिया में अपना आधिपत्य स्थापित करना है ताकि क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों को लूटा जा सके, लेकिन वे अपनी साजिश को छिपाने के लिए इस्लामी आतंकवाद को दबाने के नाम का इस्तेमाल कर रहे हैं। इन सभी हमलों को मुस्लिम समुदाय के लोगों बीच में पूरे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ हमले के तौर पर देखा जा रहा है। दुर्भाग्य से, अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग की असंगठित स्थिति के कारण, मुस्लिम लोगों के साम्राज्यवाद-विरोधी विरोध को मुख्य रूप से मुस्लिम कट्टरपंथी, सांप्रदायिक संगठनों के एक बड़े तबके  द्वारा आवाज दी जा  रही है। इस कारण से भी मुस्लिम समुदाय के लोगों के बीच मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों का प्रभाव बढ़ रहा है और मुस्लिम कट्टरपंथी, सांप्रदायिक ताकतों का विकास हुआ है।

दूसरा, उनका एक समूह प्रमुख साम्राज्यवाद के खिलाफ जन संघर्ष खड़ा करने के बजाय मुख्य रूप से आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दे रहा है, जो दूसरी ओर गैर-मुस्लिम आबादी के बीच इस्लाम विरोधी या मुस्लिम विरोधी भावनाओं का आधार तैयार कर रहा है। साम्राज्यवादी ताकतें और उनके दलाल बहुत चालाकी के साथ इस विरोध का फायदा उठा रहे हैं और पूरी मुस्लिम समुदाय के लोगों के पीठ पर आतंकवाद का ठप्पा लगा रहे हैं। आम मुसलमान जनता तरह-तरह ज़ुल्म, अत्याचार, और उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं। ये घटनाएं भी मुस्लिम आबादी के बीच साम्प्रदायिकता की भावना को बढ़ा रही हैं और उन पर कट्टरपंथी, सांप्रदायिक ताकतों के प्रभाव को मजबूत कर रही हैं। 

साम्राज्यवादी देशों में मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों के बढ़ने के पीछे एक और कारण भी है। साम्राज्यवादी देशों में खासकर यूरोप के कुछ देशों में निवास करने अप्रवासी आबादी का बड़ा हिस्सा मुस्लिम समुदाय के लोगों का है। इन देशों की मूल आबादी जो कि गोरे और ईसाई हैं, उनके साथ तमाम कारणों से अप्रवासी लोगों का संघर्ष बढ़ रहा है। ये विरोध भी मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों के उभरने में सहायता कर रहा है। हमें यह स्पष्ट तौर पर समझना होगा कि किसी एक साम्प्रदायिकता को अलग करके मुकाबला नहीं किया जा सकता है। अग्रणी मजदूर वर्ग को एक ही समय में दोनों साम्प्रदायिकता का विरोध करना होगा। कारण, एक साम्प्रदायिकता दूसरी साम्प्रदायिकता को बढ़ाने में सहायक होती है। बेशक, इन दोनों संप्रदायों के बीच कट्टरपंथी हिंदू सांप्रदायिकता का मुख्य रूप से विरोध करना होगा क्योंकि वो ही मुख्य खतरा हैं, लेकिन गौण होने के बावजूद अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता के खिलाफ भी मजदूर वर्ग को खड़ा होना होगा। 

संघ परिवार सहित सभी सांप्रदायिक ताकतों से निपटने का मार्ग क्या है?

हमें न केवल फासीवादी शक्ति के इस उभार के खतरे को समझना होगा, बल्कि यह भी समझना होगा कि इसका मुकाबला कैसे किया जाये। इससे निपटने का रास्ता खोजने के लिए सबसे पहले यह समझना होगा कि इस समस्या के प्रकट होने के मुख्य कारण क्या हैं, क्योंकि यदि हम किसी समस्या के मूल कारण को समझे बिना उससे निपटने का रास्ता ढूंढ पाना संभव नहीं है। दूसरी बात यह समझने की  जरूरत है कि इससे मुकाबला करने की ताकत क्या है या कौन लोग हैं--वास्तव में कट्टरपंथी हिंदू सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतों का मुकाबला करने की शक्ति किसके पास है। 

हमारे देश में सांप्रदायिकता के इस तरह बढ़ने के पीछे कई कारण हैं, जिनके जटिल अंतर्संबंधों के कारण ही सांप्रदायिकता इस तरह बढ़ी है। साम्प्रदायिकता के इस विकास का मुख्य कारण  निश्चित रूप से आर्थिक-सामाजिक है। यद्यपि हमारे देश में पूंजीवाद का विकास हुआ है, परंतु यह जनवादी क्रांति के माध्यम से नहीं, बल्कि सुधारों के माध्यम से हुआ है, यही कारण है कि समाज और अर्थव्यवस्था में उत्पादन के पूर्व-पूंजीवादी संबंधों के अवशेष अभी भी व्यापक रूप से मौजूद हैं। और सुधारों के माध्यम से पूंजीवाद के इस विकास के कारण पुराने मूल्यों और आदर्शों का प्रभाव अब भी काफी हद तक बचा हुआ है। धर्म यहां केवल व्यक्तिगत आस्था का विषय नहीं है, सामाजिक जीवन पर भी धर्म का व्यापक प्रभाव है, और इसी कारण समाज में धार्मिक संप्रदायों का अस्तित्व मजबूती से कायम है। दूसरी ओर, पूंजीवाद के तीव्र विकास ने समाज में पूंजीवाद के लाभों को प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया है जिसके परिणामस्वरूप धार्मिक साम्प्रदायिक अस्तित्व, विभाजन एवं संघर्ष भी उत्पन्न हुआ। 

इस व्यवस्था को किसने बनाये रखा है? निस्संदेह भारत का बड़ा बुर्जुआ शासक वर्ग ने। उन्होंने न केवल सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरवाद के सामाजिक-आर्थिक आधार को कायम रखा है, बल्कि सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरवाद का इस्तेमाल भी किया है। क्योंकि उनमें धर्म की प्रतिष्ठा को सामाजिक रूप से कमजोर करने की शक्ति नहीं थी,  इसलिए उन्होंने कभी भी धर्म को राष्ट्र और शिक्षा से अलग करके एक वास्तविक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के निर्माण का मार्ग नहीं अपनाया। उन्होंने जिस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का निर्माण किया है उस राज्य में सर्वधर्मसद्भाव की नीति अर्थात सभी धर्मों को समान रूप से प्रोत्साहित करने की नीति अपनाई गई है।  लेकिन ऐसे देश में जहां आबादी का एक बड़ा हिस्सा एक विशेष समुदाय का है, वस्तुतः सभी समुदायों को समान रूप से प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता है, वहां राज्य का झुकाव बहुसंख्यक समुदाय की ओर होना तय है। धर्मनिरपेक्षता की इसी नीति ने हर तरह की धार्मिक कट्टरवाद को बढ़ावा दिया है, सांप्रदायिकता को  बनाये रखा है और बढ़ाने में मदद की है। इसलिए, सांप्रदायिकता और कट्टरवाद के खिलाफ संघर्ष एक तरह से शासक वर्ग के खिलाफ राजनीतिक संघर्ष है। 

बड़े पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक दल, जो खुद को धर्मनिरपेक्ष घोषित करते हैं, और यहां तक कि अन्य संसदीय बुर्जुआ-निम्न-बुर्जुआ दलों ने भी कमोबेश सांप्रदायिक विभाजन का उपयोग किया है। ऐसा कोई दल नहीं है जिसने किसी न किसी रूप में सांप्रदायिक विभाजन का उपयोग नहीं किया है या धार्मिक कट्टरवाद का सहारा नहीं लिया है। ऐसा नहीं है कि केवल बीजेपी या अन्य साम्प्रदायिक दलों ने सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा दिया है, इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने भी इस विभाजन को बढ़ाने में सहयोग किया है और लगातार कर रहे हैं। इन पार्टियों की जनविरोधी भूमिका और उनके नकली धर्मनिरपेक्ष चरित्र ने सांप्रदायिक ताकतों, विशेषकर संघ परिवार सहित कट्टरपंथी हिंदू सांप्रदायिक ताकतों को मजबूत करने में मदद की है। संघ परिवार का जिस कट्टरपंथी सांप्रदायिक, फासीवादी अभियान का वे विरोध कर रहे हैं वह नकली है और इसका असली उद्देश्य लोगों के एक वर्ग के बीच संघ परिवार के खिलाफ बढ़ते आक्रोश का उपयोग कर सत्ता में आना है। इसीलिए जो लोग मजदूर वर्ग सहित मेहनतकश जनता को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि इन पार्टियों के द्वारा संघ परिवार के बढ़त को रोका जा सकता है, वे मेहनतकश जनता को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं। 

फासीवादी संघ परिवार सहित सभी सांप्रदायिक ताकतों के मजबूत होने का एक और महत्वपूर्ण कारण क्रांतिकारी संघर्ष की धारा का अभाव है। जब वर्ग संघर्ष चरम पर होता है तो सांप्रदायिक ताकतें जनता के बीच अधिक प्रभाव नहीं डाल सकती हैं । साठ के दशक के आखिर में क्रांतिकारी संघर्ष का प्रवाह अपेक्षाकृत मजबूत था, मजदूर-किसान संघर्ष का उफान भी सामने आया था। लेकिन वह ज्यादा समय तक टिक नहीं पाया था। पीछे मुड़कर देखने पर यह समझ में आता है  कि भारत के क्रांतिकारी संघर्ष का पीछे हटना अंतरराष्ट्रीय समाजवादी संघर्ष के पहले अभियान की भारी हार से जुड़ा है।  तब से वर्ग संघर्ष लंबे समय से बहुत निचले स्तर पर है। इस स्तर पर मजदूर और गरीब ग्रामीण जनता का जितना संघर्ष देखा गया है वह भी आर्थिक आर्थिक हलचल के स्तर पर अटका हुआ है वह भी अलग-थलग।   

दूसरी ओर, सीपीआई (एम-एल) के कई गुटों में विभाजित होने के बाद, पिछले 40 वर्षों से कोई क्रांतिकारी पार्टी अस्तित्व में नहीं है,  क्रांतिकारी कम्युनिस्टों की गतिविधि की धारा इतनी कमजोर है कि वह समाज पर कोई प्रभाव डालने में असमर्थ है। जिस प्रकार ठहरे हुए पानी में काई जम जाती है, उसी प्रकार क्रांतिकारी संघर्ष, क्रांतिकारी विचारधारा की गैर-मौजूदगी में श्रमिकों सहित गरीब मेहनतकश जनता के बीच धर्म, उनकी जाति या जातीय पहचान हावी हो गई है। क्रांतिकारी कम्युनिस्ट समूह इतने विखंडित हैं कि वे उनमें से किसी की ओर से, या यहां तक कि अपनी सामूहिक पहल पर भी संघ परिवार के खिलाफ कोई प्रभावी प्रतिरोध खड़ा करने में भूमिका निभाने में असमर्थ हैं।

तो संघ परिवार के अभियान का मुकाबला कौन कर सकता है?

जिस प्रकार संघ परिवार सहित सभी सांप्रदायिक शक्तियों के उदय का भौतिक कारण इस समाज की सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ हैं, उसी प्रकार इसके विरुद्ध संघर्ष का भौतिक तत्व भी इसी समाज में मौजूद है। 

ये भौतिक तत्व क्या हैं? बेशक, इसकी सबसे बड़ी ताकत मजदूर वर्ग है। उत्पादन की पूंजीवादी व्यवस्था ने मजदूरों को, चाहे वे किसी भी समुदाय के हों, एक ही उत्पादन प्रणाली का हिस्सा और समान शोषण-उत्पीड़न का पात्र बनाकर, मजदूर वर्ग को भौतिक रूप से धार्मिक सांप्रदायिक विभाजन से बाहर धकेल दिया है। मजदूरों के लिए अपने जीवन के अनुभव से यह समझना कठिन नहीं है कि पूंजीपति उनके दुश्मन हैं, दूसरे धर्मों के मजदूर या गरीब लोग एक-दूसरे के दुश्मन नहीं हैं। 

हालाँकि, यह भावना तभी मजबूत और प्रभावी रूप ले सकती है जब मजदूर अपने संघर्ष के जरिए वर्ग-सचेत बनने कके ओर आगे बढ़ते हैं, जब वे स्वाभाविक रूप से अपनी वर्ग एकता को बनाए रखने, बढ़ाने और मजबूत करने की आवश्यकता को आसानी से महसूस कर पाता है।  वास्तव में, मजदूर वर्ग ही समाज की एकमात्र शक्ति है जो सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतों का वास्तविक प्रतिरोध करने की क्षमता रखता है और मजबूत वर्ग एकता का निर्माण करके वर्ग संघर्ष के विकास के माध्यम से कट्टरपंथी हिंदू सांप्रदायिक, फासीवादी संघ परिवार सहित सभी प्रकार की सांप्रदायिक ताकतों को हरा सकते हैं। 

ग्रामीण खेत मजदूर, गरीब किसान और अधिकांश मेहनतकश लोग, अपने जीवन के अनुभवों के माध्यम से, सांप्रदायिक संघर्ष और विशेष रूप से दंगों के खिलाफ होते हैं।

इसके अलावा, पूंजीवाद का विकास समाज में बुर्जुआ निम्न-बुर्जुआ वर्ग के बीच वैज्ञानिक सोच, बेहतर जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक भावना को जन्म दे रहा है।  इसी कारण से, बुर्जुआ निम्न-बुर्जुआ के बीच भी एक बौद्धिक वर्ग उभरा जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक भावना और वैज्ञानिक सोच के दृष्टि से सांप्रदायिकता के खिलाफ खड़ा होता है। मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश जनता के साथ-साथ वे समाज में साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष के तत्वों को भी भौतिक रूप से लेकर चलते हैं। 

 एक वर्ग के रूप में केवल संगठित मजदूर वर्ग  ही सभी मेहनतकश लोगों, लोकतांत्रिक और सांप्रदायिक विरोधी ताकतों को एकजुट कर सांप्रदायिक विरोधी संघर्ष खड़ा कर सकता है। 

मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता वास्तविक जीवन में समुदाय विशेष की परवाह किये बिना शोषकों के खिलाफ वास्तविक संघर्ष के जरिये एक वर्ग एकता को महसूस कर सकता है और एक तय सीमा तक संघर्ष कर सकता है। लेकिन इस स्थिति से पूर्ण अर्थों में सांप्रदायिकता, कट्टरवाद और फासीवाद विरोधी स्थिति में आने के लिए  उन्हें पुरानी, पिछड़ी विचारधारा के विरुद्ध आधुनिक वैज्ञानिक और उन्नत विचारधारा और कुछ हद तक समाजवादी विचारधारा को स्वीकार करना होगा। क्योंकि, लोगों के बीच सांप्रदायिकता और कट्टरवाद का प्रभाव वास्तव में एक विचारधारा के प्रभाव का प्रकटीकरण है। एक ओर, वह विचारधारा जो धार्मिक कट्टरता, अंधविश्वास, भाग्य में विश्वास, ईश्वर पर निर्भरता आदि के माध्यम से प्रकट होती है, दूसरी ओर अपने जीवन की समस्याओं के असली कारणों को खोजने के बजाय उन समस्याओं के लिए किसी अलौकिक शक्ति या दूसरे धर्म के लोगों को जिम्मेदार ठहराना और अन्य समुदायों के साथ प्रतिस्पर्धा कर अपने समुदाय की श्रेष्ठता साबित करने के जरिये प्रकट होती है। 

लेकिन यह आदर्श गरीब मेहनतकश, शोषित लोगों को तभी आकर्षित कर सकता है जब शोषण से मुक्त साम्यवादी समाज के निर्माण के लिए मजदूर वर्ग और ग्रामीण मजदूर वर्ग के वर्ग संघर्ष की एक मजबूत धारा हो और स्वाभाविक रूप से एक वास्तविक कम्युनिस्ट पार्टी हो जो उस संघर्ष को सचेत रूप से नेतृत्व करने में सक्षम हो।

लेकिन निर्मम वास्तविकता यह है कि संघर्ष की वह धारा अब  मौजूद नहीं है, कोई कम्युनिस्ट पार्टी नहीं है। मजदूर वर्ग अपनी हार से अब तक उबर नहीं पाया है। मजदूर वर्ग के संघर्ष की कोई मजबूत प्रवृत्ति समाज में मौजूद नहीं है। इस ठहराव के स्थिति से निकलकर आगे बढ़ने की कुछ शुरुआती लक्षण ही अब दिखने लगे हैं। मजदूर वर्ग में यह बदलाव आर्थिक संघर्ष के स्तर पर शुरू हुआ है। ऐसी स्थिति में मजदूर वर्ग फासीवादी शक्तियों के उदय को कैसे रोक सकता है? क्या यह एक कठोर कल्पना मात्र नहीं है? 

सबसे पहले, आर्थिक संघर्ष के इस स्तर पर भी आंशिक में ही सही मजदूर वर्ग अपने संघर्ष के जरुरत के लिए सांप्रदायिक विभाजन के खिलाफ संग्रामी एकता कायम करने का प्रयास करेंगे। हालांकि, वास्तविक वर्ग परिपेक्ष में समग्र राजनैतिक स्तर पर साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष खड़ा करने के लिए जरुरी है ऊंची वर्ग चेतना, शोषण से मुक्त समाज के निर्माण के लिए मजदूर वर्ग के वास्तविक उद्देश्य को पूरी चेतना के साथ समझना। आर्थिक संघर्ष की स्तर पर मजदूर वर्ग का जो आंदोलन अब शुरू हुआ है वह आने वाले दिनों में निश्चित तौर पर राष्ट्रव्यापी वर्ग संघर्ष की तरफ अग्रसर होगा और संघर्ष की इस प्रगति के माध्यम से,  मजदूर वर्ग अपने अनुभव से सीखते हुए आगे बढ़ेगा और इसी के जरिये एक बेहतर वर्ग चेतना की ओर प्रगति करेगा। अगर मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी संघर्ष की एक धारा और मजदूर वर्ग की एक पार्टी बनती है, तो उस पार्टी का नेतृत्व मजदूरों और किसानों की एकजुट शक्ति के माध्यम से एक वास्तविक सांप्रदायिकता-विरोधी संघर्ष खड़ा करने में सक्षम होगा। साम्प्रदायिकता विरोधी संघर्ष मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता के वर्ग संघर्ष का एक अभिन्न अंग है और यह संघर्ष समाजवाद के लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए ही अपने मुख्य लक्ष्य तक पहुँच सकता है। 

मजदूर वर्ग की इस बिखरी हुई, असंगठित स्थिति को देखते हुए यदि कोई यह सोचता है कि मजदूर वर्ग नहीं, बल्कि निम्न-पूंजीपति वर्ग का संपूर्ण तुलनात्मक रूप से प्रगतिशील, लोकतांत्रिक तबका संघ परिवार के अभियान को रोक पाएगा, वे बहुत बड़ी गलती करेंगे। एक वर्ग के रूप में निम्न-पूंजीपति वर्ग हमेशा अस्थिर, डगमगाहट की स्थिति में रहता है और उसकी संघर्ष करने की शक्ति बहुत कमजोर होती है। निम्न पूंजीपति वर्ग के बीच एक प्रगतिशील, लोकतांत्रिक वर्ग है, जिनमें से कई संघ परिवार के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन वे बहुत सीमित संख्या में हैं और मेहनतकश जनता को इस संघर्ष में शामिल करने में असमर्थ हैं। 

इस स्थिति में कम्युनिस्ट क्या कर सकते हैं? 

वर्ग संघर्ष के वर्तमान स्तर पर, कम्युनिस्ट पार्टी की अनुपस्थिति में, किसी क्रांतिकारी  ग्रुप यानी समूह के लिए  पिछड़ी आबादी के बड़े जनसमूह को, यहां तक कि मजदूर वर्ग के बड़े हिस्से को भी वास्तविक साम्प्रदायिकता-विरोधी स्थिति में संगठित कर सांप्रदायिकता विरोधी संघर्ष खड़ा करना संभव नहीं है। यह काम सिर्फ एक असली कम्युनिस्ट पार्टी ही कर सकती है। इस स्थिति में कम्युनिस्ट जो कर सकते हैं वह है कि वे मजदूर वर्ग के अग्रणी हिस्सा को संघ परिवार के कट्टरपंथी हिंदू सांप्रदायिक और फासीवादी राजनीति के बारे में जागरूक कराएं और सभी प्रकार के कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ अभियान चलाकर विभिन्न समुदाय के मजदूरों और ग्रामीण गरीबों के अग्रणी हिस्से को उनकी अपनी कट्टरपंथी सांप्रदायिक ताकतों से अलग करके मजदूर वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली हरावल दस्ते को एकीकृत करें और उसे विस्तृत करें। बड़ी विषम परिस्थितियों के बावजूद  मजदूर वर्ग के अग्रणी हिस्से को सोचने के लिए तैयार करने की संभावना है क्योंकि उनके अपने जीवन के अनुभव से उनके लिए शोषित लोगों के सामान्य हितों को समझना और उसके लिए समुदाय की परवाह किए बिना मेहनतकश लोगों की एकता बनाने की आवश्यकता को एहसास करना संभव है। दूसरा, एक और तरीके से वे मजदूर वर्ग के संघर्ष के विकास में भूमिका निभा सकते हैं। वह है, आर्थिक स्तर पर ही सही, समाज में मजदूर वर्ग की जो स्वतंत्र शक्ति के विकास की गति दिखाई देने लगी है उसे एकीकृत करने और विकसित करने में मदद करना। इसी के माध्यम से वह ताकत विकसित होगी जो भविष्य में संघ परिवार से मुकाबला करने में सक्षम होगी। 

छोटे पूंजीपतियों के बीच एक हिस्सा, छोटा ही सही, लेकिन आज एक ऐसे हिस्सा  का अस्तित्व स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है जिसके साथ संघ परिवार के उग्र हिंदुत्व के आदर्शों का टकराव है। निम्न-बुर्जुआ बुद्धिजीवियों के एक वर्ग को संघ परिवार की कट्टरपंथी हिंदू सांप्रदायिक और फासीवादी विचारधारा और सामान्य रूप से सभी प्रकार की सांप्रदायिकता के खिलाफ खड़े होने के लिए राजी करना संभव है। उन्हें मूल रूप से सोचने और उन्हें आकर्षित करने का प्रयास करना होगा वर्ग एकता के प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य से नहीं, बल्कि उन्नत आदर्शों के परिप्रेक्ष्य से।

                                                                                      अगस्त-अक्टूबर 2015