Monday, January 10, 2022

नागालैंड में नरसंहार

कहा जा रहा है कि सैन्य बलों के पास ख़ुफ़िया सूत्रों के द्वारा जानकारी थी कि उग्रवादी तत्व हमला कर सकते हैं । उधर खदान से काम खत्म कर 8 युवा मजदूर ट्रक से लौट रहे थे। सिर्फ उग्रवादी होने के शक पर, बिना किसी छानबीन किये सैन्य बल मजदूरों पर गोली बरसा दी। फ़ौरन मौके पर ही छह लोगों की मौत हो गई, दो लोग गंभीर रुप से घायल हो गए। इधर गोली की आवाज सुनकर ग्रामीण दौड़ते हुए आए। उन लोगों ने देखा लाशें पड़ी हुई है और सैन्य बल लाशों को गायब करने की तैयारी में लगे हुए हैं।  सैन्य बलों के इस क्रूर हमला से आक्रोशित ग्रामीण लोगों ने सैन्य बलों के खिलाफ भड़क उठे। सेना फिर गोलीबारी शुरू कर दी। इस बार आठ और निर्दोष ग्रामीणों की मौत हो गई, कम से कम और बीस लोग घायल हुए। दिसंबर की शुरुआत में नागालैंड के मोन जिले में यह दर्दनाक हादसा हुई।

देश में आम जनता की सुरक्षा देने का संवैधानिक शपथ लेकर जो गृह मंत्री बनकर संसद में बैठे हुए हैं, वही अमित शाह संसद में सुरक्षा बलों का पक्ष लेकर ही सफाई दिए। उसने बोला-- सुरक्षा बलों ने उन्हें  गाड़ी रोकने को  कहा  था, लेकिन गाड़ी बिना रुके चली जा रही थी, इसलिए “उग्रवादी भाग रहे हैं” इस शक के मारे वे गोली चला दिए हैं। हालांकि सुरक्षा बलों के उस हमले में बचे  हुए ऐसे दो मजदूर सुरक्षा बलों व सरकार के इस आरोपों को खारिज कर दिए हैं। उनलोगों ने बताया हैं-- सुरक्षा बलों के लोग कुछ कहे बिना एकाएक ही गोली चला दी। इसका मतलब है कि सिर्फ शक के आधार पर सुरक्षा बल इस तरह गोली चला सकती है, यह अधिकार उनका है— इसी को वास्तविक तौर पर अमित शाह स्वीकृति दे बैठे ! वाह रे वाह ! देश के आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेवार देश के नेता ! यह बात सही है कि वे एक एसआईटी (विशेष जाँच दल) द्वारा जांच का आदेश दिए हैं, लेकिन जब खुद मंत्री ही ऐसा रुख अपनाया  है तब जांच का नतीजा क्या होगा, यह तो पहले से ही समझा जा सकता है।

नागालैंड का यह नरसंहार कोई अपवाद नहीं है। इससे पहले 2014 में, नागालैंड के फेक शहर में अर्धसैनिक बलों ने 14 व 15 वर्षीय दो किशोर को गिरफ्तार कर, उनलोगों पर अमानवीय उत्पीड़न चलाया—सिगरेट से झुलसाने से शुरु कर खुद का खुन पीने के लिए मजबूर करना, यहां तक कि एक सेना जवान उनके मुंह में पेशाब तक कर दिया था। उसी साल बीएसएफ के एक जवान ने 60 साल की एक महिला का बलात्कार किया था।

   सिर्फ नागालैंड ही क्यों? साल 2004 में मणिपुर में असम राइफल्स के प्रधान कार्यालय के सामने नौ मणिपुरी महिलाओं का पूरी तरह नंगा होकर "भारतीय सेना, हमालोगों का बलात्कार करो !" ऐसा एक बैनर लेकर विरोध प्रदर्शन का घटना भी याद रहा होगा! उस घटना ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया था। सभी समाचार माध्यम में सामने आई थी वह तस्वीर। असम राइफल्स के जवानों द्वारा थंगजाम मनोरमा के उपर पूरी रात भर बलात्कार सहित अकथनीय अत्याचार व हत्या की खबर सामने आते ही पूरे मणिपुर में विरोध की आंधी फैल गई थी। कांगला फोर्ट में सेना मुख्यालय के सामने मणिपुरी महिलाओं का नंगा होकर प्रदर्शन उस विरोध की चरम अभिव्यक्ति थीं!

और पीछे चलें जाईए। वर्ष 2000 में  नवंबर के 2 तारीख में इस मणिपुर में ही मालोम तुलिहाल गांव में असम राइफल्स के और एक दस्ता गोली मारकर दस निर्दोष ग्रामीणों की हत्या कि थी, जिनमें 60 साल की एक बुज़ुर्ग महिला थीं। इसके विरोध में इरम शर्मिला 16 साल तक भूख हड़ताल जारी रखी थी।

  असम में भी इसी तरह के घटनाएं दोहराए जाने की बात सामने आई हैं।  सन 1994 में तिनसुखीया के ढोला गांव के घरों से सेना के जवानों ने नौ निर्दोष युवकों को उठाया और उनके ऊपर खौफनाक जुल्म ढाया। बाद में उनमें से चार लोगों को छोड़ देनें पर भी शेष पांच लोगों को नदी मार्ग से दूसरे  तरफ ले जाने के वक्त गोली मारकर हत्या कर दिया गया ।

    इन सभी हत्याओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि-- यह सभी हत्या हुई है सैन्य बलों, अर्धसैनिक बलों के हाथों से और आज तक वस्तुतः किसी भी हत्याकांड के अपराधियों को कभी भी किसी तरह से दंडित होते नहीं देखा गया। यह बात तो सही है कि भारतीय राष्ट्र द्वारा कभी-कभी न्यायिक जांच की घोषणा की जाती रही है, लेकिन लगभग किसी भी केस में आज तक सेना के जिस अधिकारी के आदेश पर गोली चलाना-गिरफ्तारी-हिरासत में क्रूर यातना या बलात्कार हुआ था, ऐसे किसी अधिकारी को कोई सजा का आदेश सरकार को या सेना प्रमुखों को देते हुए नजर नहीं आया हैं। नतीजतन अमित शाह आदि ने कितना भी अपनी संवेदना का बात क्यों न बंया करें, (वह भी शायद इसलिए कि नागालैंड में उनकी ही पार्टी सत्ता में है, वहां आम जनता के अंदर से अफ्स्पा कानून को खत्म करने की मांग पर जोरदार आवाज उठ रहा है, इस सबकी दबाव में आकर नागालैंड के मुख्यमंत्री को भी अफ्स्पा खत्म करने का मांग करना पड़ रहा है !) फिर कुछ दिन बाद इन सभी क्षेत्रों के कहीं न कहीं सेना के हाथों हो रहे इस तरह का एक और खूंखार हादसा का बात सुर्खियों में होगा।

    इन सभी क्षेत्रों में सुरक्षा बलों का इतना दबदबा क्यों है ? क्योंकि, लोकतंत्र का कितना ही बड़ा नकाब भारतीय राष्ट्र के चेहरे पर क्यों न मढ़ा हो, असल में देश में कई सारे जनविरोधी काला कानून लागू है। सशस्त्र बल बिशेषाधिकार कानून 1958 (संक्षेप में अफ्स्पा) ऐसा ही एक कानून है। 1958 साल में नागा अवाम को अपना अधीनता में लाने के लिए सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार “सशस्त्र बल (असम व मणिपुर) बिशेषाधिकार कानून 1958 के नाम से ब्रिटिश ज़माने का काला कानून फिर से लागू करना शुरू किया। इस कानून के बल पर किसी इलाके को सरकार “अशांत” घोषित कर उसी आधार पर "शांति" लौटाने के नाम पर सुरक्षा बलों को जो चाहे करने का अधिकार सौंप दिया गया है। वही शुरुआत है। उस समय तक यह कानून असम और मणिपुर क्षेत्र में ही लागू था, हालांकि इसका मतलब त्रिपुरा को छोड़कर पूरे पूर्वोत्तर क्षेत्रों में लागु था, क्योंकि सिर्फ मणिपुर और त्रिपुरा को छोड़कर पूरा पूर्वोत्तर उस समय असम राज्य के  अन्तर्गत था। फिर समय के साथ साथ पहले कुछ कुछ क्षेत्रों को केंद्र-शासित प्रदेश के हैसियत से घोषित करना, फिर अलग अलग राज्यों के रूप में गठित किए जानें के बावजुद उन सभी क्षेत्रों को इस कानून के दायरे में लाया गया और इस कानून का नाम संशोधित करके “सशस्त्र बल (बिशेषाधिकार) कानून 1958” संक्षेप में अफ्स्पा कहा जाने लगा है। इसके बाद 1983 में पंजाब और 1990 में जम्मू-कश्मीर को भी इस कानून के दायरे में लाया गया।

    इस कानून के बल पर केंद्र सरकार जरूरत पड़ने पर किसी भी क्षेत्र को “अशांत”  घोषित कर उस क्षेत्र को सेना या अर्धसैनिक बलों के हाथ सौंप सकता है। सेना का बिना वारंट के किसी भी जगह मनमर्जी से तलाशी लेने का, बिना वारंट के किसी को गिरफ्तार करने का, यहां तक कि गोली मारने का भी अधिकार रहेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात है इस कानून के अनुसार, यह जो सेना का मनमानी  तरीके से कुछ भी करने का अधिकार है, इस अधिकार के बारे में कोई कानूनी सवाल नहीं उठा सकता या सेना के किसी को भी सजा तक नहीं दिया जा सकता।

 बुर्जुआ समाचार माध्यमों में अफ्स्पा कानून खात्मे की जोरदार आवाज उठ रही है। यही लोग एक समय "अलगाववादी", "आतंकवादी" दमन के नाम पर इस क्षेत्र में इस कानून को लागू करने के पक्ष में पुरजोर वकालत की थी। हाँलाकि इस देश के शासक वर्ग के ओर से इन इलाकों को जबरन अपने कब्जे में रखने के लिए राजसत्ता की खुल्लम खुल्ला पहल पर इस क्षेत्र के निर्दोष लोगों पर साल दर साल जो दहशत-उत्पीड़न चलाई जा रही है, दरअसल इन सभी क्षेत्रों में उग्रवाद पनपने के पीछे असली कारण यही है, इस सच्चाई को ये लोग उस वक्त सचेत रुप से दबाकर रखे थे। आज शायद उनको “उग्रवाद” के भूत उतना ज्यादा सता नहीं रहा इसलिए अब इनको अफ्स्पा कानून रद्द करने की बात याद आया है ।

      लेकिन क्या सिर्फ अफ्स्पा ही हमारे देश में लागू एकमात्र काला कानून है? हम अपनी आँखों के सामने देख पा रहे हैं किस तरह और एक भयानक काले कानून युएपीए का इस्तेमाल कर सुधा भारद्वाज को भारतीय राजसत्ता  तीन साल तक अदालत का कोई फैसला बगैर जेल में सड़ाया है! इसी बीच में इस कानून का शिकार होकर जेल हिरासत में तीब्र रूप से बीमार होकर स्टैन स्वामि का देहांत हो गया। अभी भी जेल में सड़ रहे हैं आनंद तेलतुम्बडे-सोमा सेन-गौतम नौलखा जैसे शख्स। पूरी तरह सजावटी मुकदमा में गैरकानूनी तरीके से उन पर लादा गया है यूएपीए का हमला। क्योंकि ये लोग भारत के मौजूदा सत्तारूढ़ दल भाजपा के खिलाफ बिभिन्न मौके पर लोकतंत्र के पक्ष में बात की है। एक ही तरह से इस देश में कुछ समय पहले तक और एक खौफनाक काला कानून टाडा लागू था। पिछली सरकारों ने इन सभी चरम अलोकतांत्रिक कानूनों को प्रभावी रखा है एवं मोदी जमाना इस तरह के काले कानूनों को और अधिक जोर-शोर से लागू करने के पक्षधर रहे हैं, यह तो 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले छत्तीसगढ़ में मोदी के द्वारा दिए गए एक भाषण से ही साफ ज़ाहिर हो गया है। वहां मोदी कहे हैं: "मजबूत भारत" बनाने के लिए सैन्य बलों के हाथ और अधिक ताकत होनी चाहिए और इस कारण अफ्स्पा कानून का विरोध करने का अर्थ असल में देश को अंदर से ही कमजोर करने की साजिश है।

   इसका मतलब क्या सिर्फ यही है कि एक के बाद एक काला कानून लागू करने का मतलब ही है भारतीय लोकतंत्र के ऊपर दखल देना? एक बात साफ़ कर देना जरूरी है। 'सच्चा लोकतंत्र' का अर्थ वोट देने का अधिकार या संगठन करने के अधिकार के जैसा महज कुछ लोकतांत्रिक अधिकार नहीं है; सच्चा लोकतंत्र का मतलब है सभी लोगों का सिर्फ औपचारिक तौर पर समान अधिकार भी नहीं है, वास्तविक अर्थों में ही समान अधिकार रहना। सचमुच ऐसा एक लोकतंत्र तो दूर की बात, यहां तक कि बुर्जुआ लोकतंत्र के भी जो सीमित अधिकार है, वह भी इस देश में 1947 के पश्चात शुरुआत से ही काफी सीमित और संकुचित हो रहे हैं। हमारी देश की संविधान के विभिन्न धाराओ में जितने लोकतांत्रिक अधिकार मुहैया किये गए हैं, उसमें से भी बहुत कुछ संविधान के अन्य धाराओं द्वारा छीन लिए गए हैं। इसके उपरांत पिछले 75 वर्षों के दौरान भारत का शासक वर्ग के माध्यम से एक के बाद एक कई काला कानून लाकर इस सीमित बुर्जुआ लोकतंत्र को और ज्यादा से ज्यादा कमजोर बनाए जा रहा  है।

   साथ साथ भारतीय लोकतंत्र और एक तरफ से भी संकुचित, सीमित है। आज भी इस देश में जाति के आधार पर, धर्म के आधार पर न केवल विभाजन, बल्कि विविध प्रकार के उत्पीड़न – अत्याचार चलाया जाता है। एक बहुराष्ट्रीय देश के हैसियत से इस देश में कई उत्पीड़ित राष्ट्रीयता के कौम मौजूद है, जिन पर पुलिस-सेना बलों का दहशत चलाकर उनके लोकतांत्रिक अधिकार-मांगों से वंचित करके रखा जा रहा है। अभी भी इस देश के  आदिवासी लोग समाज के सबसे निचले पायदान पर हैं। महिलाएं अभी भी इस देश में दोयम दर्जे की नागरिक हैं। एक लब्ज में कहे तो अभी भी भारत के व्यापक उत्पीडित जनता कई तरह के प्राक-पूंजीवादी अलोकतांत्रिक वातावरण में जी रहे है।

    इस स्थिति में नागालैंड में हुई इस क्रूर नरसंहार का विरोध तो हमें करना ही है, साथ ही साथ हत्यारों को चरम सजा दिलाने कि मांग को काफी जोरदार रूप से हाजिर करना होगा। सिर्फ यही नहीं, अफ्स्पा-यूएपीए सहित सभी काले कानूनों को निरस्त करने की मांग में मुखर होना होगा। आतंकवाद दमन के बहाने और देश-रक्षा के नाम पर व्यापक जनता के संघर्षों को सभी प्रकार के पुलिस और सेना द्वारा दमन पीड़न समाप्त करने का मांग उठाना होगा। लेकिन, जितने  दिनो तक भारत के वर्तमान अलोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के दायरे में ही लोकतंत्र के प्रसार की ये संघर्ष चक्कर काटते रहेगा, मजदूर, किसान, शोषित आम लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला होता ही रहेगा। इसलिए लोकतंत्र के उपर हमले के खिलाफ संघर्ष को, लोकतंत्र की विस्तार के मांग पर संघर्ष को, सच्चे लोकतंत्र की स्थापना की लड़ाई के साथ जोड़कर देखना होगा।

                                      15 दिसम्बर 2021

 

 

 

Wednesday, January 5, 2022

कृषि क़ानून वापसी को लेकर मोदी सरकार के एलान पर प्रस्ताव

1) 19 नवंबर 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोर्ट के राय का इंतज़ार किए बगैर अचानक ही एलान किया कि तीनों कृषि क़ानून रद्द किया जाएगा। उन्होंने यह भी सूचित किया कि चूंकि संसद में स्वीकृत क़ानून संसद में ही ख़ारिज़ करना संभव है इसलिए अगला संसद सत्र में ही यह काम किया जाएगा। इसी के साथ वे यह भी सूचित किया है कि, कृषि व किसानों के समस्यायों के समाधान के मक़सद से एक कमेटी गठित किया जाएगा जहाँ किसानों के प्रतिनिधि भी रहेंगे। दूसरी तरफ, मोदी के घोषणा पर भरोसा न रख कर किसान आंदोलन की अगुवाई कर रही संयुक्त किसान मोर्चा ने संघर्ष जारी रखने का फ़ैसला लिया है और वे लोग यह भी ऐलान किए है की संसद में कृषि क़ानून रद्द किया जाना तो ज़रुर चाहिए था, एक ही साथ एमएसपी सहित दूसरा कुछ मांगो का समझौता न होने तक धरना प्रदर्शन आगे की तरह जारी रहेगा।

2) कॉर्पोरेट के स्वार्थ में तैयार तीन कृषि क़ानून रद्द करने की मांग पर ठीक एक साल पहले दिल्ली की तमाम सीमा प्रांत में किसानों का धरना शुरु हुआ था। सर्दी-गर्मी-बरसात की परवाह किए बग़ैर लाख लाख अमीर किसान से ग़रीब किसान – सभी तबके के किसानों का एक साल से चल रहे धरने में सात सौ के क़रीब आंदोलनकारी जान गवां चुके हैं। इस अभूतपूर्व किसान संघर्ष ने एक हद तक पूरे देश भर में किसान जनता को आन्दोलित किया था। मौजूदा संघर्षहीन स्थिति में फंसे हुए मज़दूरवर्ग व मेहनतकश जनता के अंदर भी इस आंदोलन ने एक हद तक हलचल पैदा किया, कम से कम एक हिस्सा के अंदर तो ज़रूर। इस समयकाल में, ख़ासकर शुरुआत में मोदी जी और उनकी सरकार बार-बार तरह तरह के हथकंडे अपनाकर व साजिश रचकर आंदोलन को तोड़ने की कोशिश की। दूसरी ओर, यह कहना अधिक न होगा, कृषि क़ानून निरस्त करने के बारे में वे लोग एक पल के लिए भी नहीं सोचे थे। कॉर्पोरेट के प्रति मोदी सरकार की वफादारी ऐसी थी कि वे अपनी स्थिति में अडिग, अटल थे और उनके इस रवैये का आधार था संसद में भाजपा का पूर्ण बहुमत। बड़ी पूंजी के सबसे भरोसेमंद व वफादार प्रतिनिधि के रूप में जिस नरेंन्द्र मोदी और उनकी सरकार अर्थव्यवस्था को तंदुरुस्त करने के नाम असल में कॉर्पोरेट के स्वार्थ में साल 2014  से, ख़ासकर 2019-से भारी बहुमत के बल पर अड़ियल रवैया और अति आत्मविश्वास के साथ अनूठी रफ्तार से एक के बाद एक जनविरोधी सुधार का काम करते जा रहे थे, अब उस ज़बरदस्त व अहंकारी मोदी सरकार को ही दूसरे तरफ के अटल, अडिग किसान आंदोलन की ज़िद और ताक़त के सामने पीछे हटना पड़ा।

3) नये श्रम क़ानून के जैसा ही एक घातक मज़दूर विरोधी क़ानून मोदी सरकार ने जब मज़दूरों पर थोप दिया, तब मज़दूर एकजुट संघर्ष के जरिए उसका विरोध न कर सके। कहा जा सकता है, मज़दूर चुपचाप इस हमले को हजम कर लिए। ऑर्डनेन्स फैक्ट्रियों सहित अहम राष्ट्रीय उद्योगों के निजीकरण, लाँकडाउन के दौर में बड़े पूंजीपतियों को टैक्स छूट, लाखों करोड़ रुपये का अनुदान आदि किसी क्षेत्र में मोदी सरकार को किसी भी बाधा का सामना नहीं करना पड़ा है। इसलिए कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ पंजाब में उभरा हुआ किसानों का संघर्ष इतना विस्तृत रुप से फैल जाएगा और सभी बाधाओं और विपत्तियों को लांघ कर वह संघर्ष एक साल के बाद भी इस तरह जारी रहेगा, यह सत्ता के अहंकार से अंध मोदी व उनके सरकार के पास पूरी तरह अप्रत्याशित थी। दरअसल जिस आंदोलन को शुरु में वे नजरअंदाज़ करते रहे हैं और महीने दर महीने धीरज के साथ इंतज़ार करते रहे कि कब ख़ुद व ख़ुद यह आंदोलन दम खो देगा, आखिरकार वह आंदोलन ही संघर्षरत किसान जनता की स्वतःस्फूर्त भागीदारी और अगुवाई कर रही मोर्चे की मज़बूत एकता के बल पर ख़ुद को ज़िन्दा रख कर और बढ़ते जनसमर्थन से पुनर्जीवित होकर मोदी को पीछे हटने के लिए मजबूर किया, कर सका। प्रबल पराक्रमी मोदी व उनकी सरकार को संसद के बाहर जनप्रतिरोध के जरिए रोका नहीं जा सकेगा, इस मिथक को बहादुर किसान जनता उनलोगों के एक साल के संघर्ष के ज़िद से तोड़ दिए।

4) नरेंद्र मोदी ने जिस समय टीवी पर आकर कृषि क़ानून रद्द करने का फ़ैसला लिए उस समय पर ग़ौर करना ज़रुरी है। आंदोलनकारी किसानों को भी यह बात समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई कि पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश का आने वाला चुनाव जल्दबाज़ी के साथ कृषि क़ानून  निरस्त करने के पीछे एक अहम कारण है। बेशक़ यह सच है, लेकिन किसान जनता का आंदोलन ही इस मामले में मुख्य कारण व निर्धारक है इसमें संदेह की कतई गुंजाइश नहीं है। क्योंकि, पहला तो, पिछले साल से शुरू कर एक साल तक अगर किसान लोग उन लोगों के संघर्ष को जारी न रख पाते तब चुनावी मजबूरी आरएसएस भाजपा के सामने अब हाज़िर नहीं होता। दूसरी बात, आंदोलन जितना समेकित और विस्तारित हो रहा था, मोदी और उसके दल के प्रति व्यापक जनता के एक हिस्से का मोहभंग होना शुरु हो गया था जो इस समय के विविध चुनाव में परिलक्षित होते देखा गया है। तीसरा, चूंकि आंदोलन का केन्द्र था पंजाब और आंदोलनकारीयों मे से व्यापक बहुसंख्यक हिस्सा सिख था, इसलिए आंदोलन जितना लंबा हो रहा था उतना ही हिंदी-हिंदू के मुख्य धारा से पूरे सिख समुदाय के अलग हो जाने की आशंका, आरएसएस-भाजपा के पास चिंता का कारण बन रहा था।

5) इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कृषि क़ानून भाजपा के केन्द्र की सत्ता में आने के बाद बड़े पूंजीपतियों के स्वार्थ में मोदी सरकार का सबसे बड़ा और दूरगामी कार्यसूची थी। स्वाभाविक रुप से उस कार्यसूची से पीछे हटना (बहुत संभव अल्पकालिक) कॉर्पोरेट को निराश करेगा। लेकिन, मोदी व मोदी सरकार के प्रति उन लोगों की निष्कपट आस्था में दरार आया है यह सोच लेना निहायत ग़लत होगा।

6) इस संदर्भ में, चुनावी राजनीति से उपजे कृषि क़ानून रद्द का फ़ैसला कम से कम इस सच्चाई को उजागर करता है कि, आरएसएस भाजपा का हिंदुत्ववादी राजनीति के बल पर ध्रुवीकरण करके कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ किसान जनता का विक्षोभ-आंदोलन को दबाकर या अनदेखा कर चुनाव जितने का रास्ता भाजपा के सामने खुला नहीं था। मुज़फ्फ़रनगर की महापंचायत ने जो संकेत दिया था उसे समझना उन लोगों के लिए कोई मुश्किल की बात नहीं थी। इस बारे में, यह कहा जा सकता है की यह फ़ैसला शायद यह भी दर्शाता है कि पिछले दो सालों में वास्तविक जीवन के अनुभव के आधार पर भाजपा प्रभावित लोगों के चेतना में एक बदलाव हो रहा है। इसे और भी देखना परखना है, लेकिन लगता है सार्वजनिक जीवन में साम्प्रदायिक चेतना, तथा हिंदू गौरब को लेकर जीने के रास्ता से रोजी-रोटी का सवाल अहमियत पाना शुरु किया है। निश्चित रुप से इस संबंध में वास्तविक संघर्ष, और साफ़ तौर पर कहे तो वर्ग संघर्ष ही निर्णायक भूमिका निभायेगा।

7) संसदीय लोकतंत्र और फासीवादी आक्रामक अभियान – इन दोनो का अंतर्विरोध उपरोक्त फैसले के मध्य से इस बार साफ़ तौर पर उजागर हुआ। मोदी सरकार फिलहाल इस विरोध का समाधान पीछे हटकर ही किया। लेकिन यह कहने की ज़रुरत नहीं है कि यह अलबत्ता एक रणकौशल के तौर पर वापसी (tactical retreat) है। बहरहाल, आने वाले दिनों में इस अंतर्विरोध को लेकर मोदी जी और उनकी सरकार, हालांकि भाजपा भी कैसे चलेगी यह आने वाले दिनों में ही साफ हो पाएगा। हालांकि इस बारे में कहा जा सकता है कि, कॉर्पोरेट व साम्राज्यवादी पूंजी का सबसे वफादार और मुसाहिब मोदी ने सुधार के आक्रामक अभियान पर लगाम लगायेंगे ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं है। कौन सा दाँव-पेच वे अपनायेंगे यह देखना है। हालिया स्थिति में नरेंद्र मोदी पीछे हटने के लिए मजबूर हुए यह बात सही है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बड़ी पूंजी के हित हिफ़ाजत करने वाले नीति व हिंदू राष्ट्र गठन के लक्ष्य में हिंदुत्ववादी राजनीति के जरिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की नीति आरएसएस-भाजपा छोड़ देगी। ध्यान रखना होगा कृषि क़ानून के एजेंडे से मोदी सरकार हटे नहीं। संसद के जरिए कमेटी बनाने का फ़ैसला ही इसका एक बड़ा सबूत है।

8) खेतिहर मज़दूर इस धरना आंदोलन में भाग नहीं लिए थे। जिस एकजुटता के बल पर एक साल से यह संघर्ष चल सका, वह थी ग़रीब किसानों, मध्य किसानों व अमीर किसानों की एकजुटता – जिन लोगों का स्वार्थ, आशाएं और आकांक्षाएं अलग अलग हैं। तीन कृषि कानूनों की विशालता ही इन तीनों हिस्सों को एक ही मंच पर खड़ा कर दिया था। कहना ज़रुरी नंहीं है कि, इस एकजुटता का नेतृत्व ताक़तवर धनी किसानों के हाथों में ही था। प्रस्तावित कमेटी का काम यानी कसरत का नतीजा कंहा तक पहुंचेगा। यह अभी कहना संभव नहीं है। लेकिन, यह कहना शायद ग़लत नहीं होगा कि, जो किसान जनता एकजुट होकर लड़ाई किए, उन लोगों के अंदरूनी स्वार्थ के आपसी विरोध को इस्तेमाल कर उस एकता को तोड़ने का प्रयास ही कमेटी के जरिए किया जाएगा। निश्चित रूप से कहे तो, ग़रीब व मध्यम किसानों (कम से कम उसका निचला हिस्सा) से अमीर किसानों/ पूंजीवादी ज़मींदारों को अलग करने का प्रयास ही किया जाएगा। सरकार ख़ुद के स्वार्थ तथा बड़ी पूंजीपति के स्वार्थ में इस मौक़े पर समझौता करे या कुछ भी करे, अंत तक आनेवाले दिनों में कृषि क़ानून नई चेहरा व आकार में (एकक या खंड खंड रुप में) जिस तरह से भी उभर कर आए, उससे शायद अमीर किसान लोग व पूंजीवादी ज़मींदार लोग उनलोगों का समृद्ध और विकसित स्थिति को काफ़ी हद तक बरक़रार रख सकेंगे, लेकिन कृषिक्षेत्र में जो सबसे बड़ा हिस्सा है, वह ग़रीब किसान और कम से कम मध्यम किसानों का निचला हिस्सा, जो लोग सदीयों से सामंती शोषण से तबाही और उत्पीड़न का शिकार हैं अब उन लोगों को और ज़्यादा से ज़्यादा बड़ी पूंजी के शोषण नियंत्रण का सामना करना पड़ेगा। वास्तविक अनुभव ही तब अमीर किसानों के नेतृत्व से बाहर निकल कर खेतिहर मज़दूर – ग़रीब किसानों के स्वतंत्र एकजुटता के सवाल को और ज़ोर से सामने लेकर आएगा। क्योंकि इस एकता के सिवा उनलोगों का और एक ही साथ मध्यम किसानों के कम से कम निचले हिस्से का जीने का दूसरा कोई चारा नहीं है। और उस रास्ते के मायने है सामंत और पूंजीवादी दोनों शोषण से मुक्ति का रास्ता। खेतिहर मज़दूर –ग़रीब किसान के मुक्ति के स्वार्थ ही उनलोगों के एकजुट होने का काम इसी बीच आगे ले जाना संभव होने पर यह इस आंदोलन के अंदर आनेवाले उस विशेष समय पर खेतिहर मज़दूर व ग़रीब किसानों के स्वतंत्र एकजुटता तैयार करने के काम को मदद करेगा।

9) इस एकजुटता की संभावना को सही मायने में हक़ीक़त में बदल सकता है मज़दूर वर्ग का संगठित नेतृत्व। शोषण मुक्त समाज निर्माण के लक्ष्य में मज़दूर वर्ग का सबसे बड़ा साथी ग्रामीण खेतिहर मज़दूर और ग़रीब किसान। इसलिए, सिर्फ़ ख़ुद के स्वार्थ में ही नहीं, खेतिहर मज़दूर गरीब किसान के स्वार्थ में भी उनलोगों का एकजुटता तैयार करने के काम में हाथ लगाना मज़दूर वर्ग के लिए जरुरी ही नहीं है, फ़र्ज़ भी है। मज़दूर वर्ग अग्रणी भूमिका निभाने में सक्षम होगा या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कितनी जल्द मज़दूर वर्ग बिखराव की स्थिति से निकलकर वर्ग की हैसियत से संगठित हो सकेंगे, यक़ीनन कहें तो कितनी जल्द अगुवा मज़दूर देशभर में एकजुट हो सकेंगे और अपना स्वाधीन व स्वतंत्र पार्टी बना सकेंगे।

                                            28 नवंबर, 2021