Saturday, July 31, 2021

मोदी सरकार का नया कृषि कानून - किसके हित में?

 [यह लेख दिसम्बर 2020 में प्रकाशित हुआ था लेकिन दुर्भाग्यवश कुछ तकनीकी समस्यायों के कारण इसे पोस्ट नहीं किया जा सका]

 

केंद्र में मोदी सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ हजारों किसान पिछले एक महीने से दिल्ली में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। उनकी मांग है कि इन तीन कानूनों को तत्काल निरस्त किया जाना चाहिए। सरकार का कहना है कि उन्होंने किसानों की भलाई के लिए ये कानून बनाए हैं। हालांकि, किसान ये कानून नहीं चाहते हैं। तो सरकार किसके हित में ये कानून बना रही है? सरकार ने इन कानूनों को बड़े मालिकों के हित में बनाया है, जो किसानों की फसलों लेकर व्यापार कर रहे हैं, जो कृषि क्षेत्र को ही अपने कब्जे में लेना चाहते हैं। इसके नतीजे में मजदूर, किसान और खेत मजदूर सहित तमाम मेहनतकशों में तबाही मचेगी ।

अंबानी की रिलायंस, अदानी की फॉर्च्यून, टाटा या आईटीसी कंपनियां पिछले कुछ समय से किसानों की फसलों का व्यापार कर रही हैं। कोई किसानों से धान, गेहूं खरीद रहा है, कोई चावल, आटा, मैदा बना रहा है और पैकेट में बेच रहा है। कोई खाना पकाने का तेल या बेसन, या सोया गोलियां बना रहा है और बेच रहा है। कोई किसानों से सब्जियां और फल खरीद रहा है और बड़े शॉपिंग मॉल में बेच रहा है।

इन कानूनों के परिणामस्वरूप, किसानों की फसलों पर उनका कब्जा बढ़ेगा। न केवल फसलों, बल्कि किसानों की पूरी खेती, उनकी जमीन पर कब्जा करेगी।

कानून नंबर एक - नया कृषि विपणन कानून

सरकार के इस नए कानून के नतीजे में, सरकारी मंडी के अलावा विभिन्न स्थानों पर फसल बेचना संभव होगा। सरकार या भाजपा कहती है - इससे किसानों को फायदा होगा। किसान अपनी फसल बेचेंगे जहां उन्हें अधिक कीमत मिल सकती है। वे घर के पास बैठकर भी फसल बेच सकते हैं। लेकिन, यह बछो को ध्यान हटाने वाली कहानी जैसे है।

सबसे पहले, कानून कहता है कि कंपनियों को सरकारी मंडी के बाहर फसल खरीदने के लिए कोई कर नहीं देना पड़ेगा, जो कर उन्हें सरकारी मंडी में देना पड़ता है। अगर आप करों के बिना व्यापार कर सकते हैं, तो कर देकर व्यापार करने के लिए कौन जायेगा? स्वाभाविक रूप से, इसके नतीजे में, कोई भी सरकारी मंडी में नहीं जाएगा और सरकारी  मंदी ख़त्म हो जाएंगे।

नतीजतन, कॉर्पोरेट कंपनियां फसलों को खरीदने के लिए करों का भुगतान किए बिना अरबों रुपए बाख जायेगा । लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकारी मंडी के बाहर, कॉर्पोरेट कंपनियां सरकार द्वारा निर्धारित समर्थन मूल्य या एमएसपी से बहुत कम कीमत पर किसानों से फसलें खरीद सकेंगी। इसके उपरांत, अब जब विभिन्न कंपनियां किसानों से फसलें खरीदती हैं, तो वे किसानों को सरकारी मंडी में चल रही कीमतों के आधार पर भुगतान करती हैं। अगर  कोई सरकारी मंडी ही नहीं रहेगी तब वह दबाव भी नहीं रहेगा । फिर वे किसानों को उनकी मनचाही कीमत देंगे।

मोदीजी ने कहा, “नया कानून किसानों को स्वतंत्रता देगा। जहां फसल की कीमत अधिक है वही वे बेचेंगे । यह कानून किसानों के लिए ऐतिहासिक होगा। ”

 लेकिन, क्या किसान ये तय करते हैं कि फसल की कीमत क्या होगी? नहीं, सिर्फ व्यापारी ही तय करते है। क्योंकि व्यापारियों की ताकत के सामने किसान नहीं टिक सकते। क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि किसी गाँव का एक आम किसान अपने दस या बीस बोरी माल के लिए करोड़ों रुपये के मालिक अंबानी या अडानी के साथ सौदेबाज़ी करेगा?

खैर, इसके बारे में सोचें - ये बड़ी कंपनियां किसानों को ज्यादा कीमत क्यों देंगे ? क्या वे किसानों के लाभ के लिए व्यापार-धंधा कर रहे हैं? ऐसा कतई नहीं है। वे अपने लाभ के लिए व्यवसाय में शामिल हो रहे हैं। हम जानते हैं कि वे अपने लाभ के लिए कैसे मजदूरों का शोषण करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि वे किसानों से भी न्यूनतम संभव मूल्य पर खरीदना चाहते हैं। अतः क्या यह अफवाह नहीं है कि किसानों को ऊंची कीमतें मिलेंगी अगर ये कॉरपोरेट फसल की व्यापार में प्रवेश करेंगे?

ये बड़े कॉरपोरेट न केवल अमीर या बड़े किसानों से फसलें खरीदेंगे, बल्कि अपेक्षाकृत छोटे किसानों की फसलों को भी हड़पने की कोशिश करेंगे। कॉरपोरेट कंपनियों के लिए अनगिनत छोटे किसानों से थोडा थोडा फसल खरीदना बहुत ही दिक्कततलब बात है। वे इतने दिक्कत सहेंगे क्यों? यही कारण है कि सरकार किसानों की सहकारी समितियों का गठन कर रही है - इन्हें एफपीओ या फार्म प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन कहा जाता है। यानि कृषि उत्पादकों के संगठन। उनका काम छोटे किसानों की फसलों को इकट्ठा करना और उन्हें बड़ी कंपनियों को बेचना होगा। इन एफपीओ को बनाने का असली मकसद बड़ी कंपनियों की मदद करना है। वे ही इन सभी एफपीओ के शीर्ष पर बैठेंगे और उन पर हावी होंगे।

तो, आखिरकार, केंद्र सरकार ने नए कृषि विपणन अधिनियम के जरिये क्या किया? बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों ने किसानों से आसानी से अपनी कीमतों पर फसल खरीद सकें इसका पूरा इन्तेजाम किया । उन्हें सरकार को कोई कर नहीं देना होगा। सरकारी समर्थन मूल्य पर खरीदने की मजबूरी भी नहीं है। और, भले ही वे शुरुआत में बाजार पर कब्जा करने के लिए थोड़ी देर के लिए थोड़ी बेहतर कीमत चुकाते हैं, लेकिन जब वे किसान की फसल पर पूरा नियंत्रण स्थापित कर सकेंगे, तब किसान को इन कंपनियों के पास उनके मर्जी अनुसार कीमत पर अपनी खून से सनी फसल बेचने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

दूसरा कानून - अनुबंध खेती का कानून

नए कृषि कानूनों का एक और कानून है अनुबंध खेती कानून । अनुबंध खेती का क्या मतलब है? किसी भी कंपनी के साथ किसान के अनुबंध के आधार पर खेती करना । कंपनी जो फसल चाहेगी - चाहे वह टमाटर हो या आलू - उसे ही किसान को देना पड़ेगा । कंपनी इसकी गुणवत्ता भी तय करेगी। और, कंपनी अनुबंध में लिख देगी कि फसल कटने के बाद वे उसका कितना कीमत का भुगतान करेंगे। सरकार का दावा है कि किसान को अग्रिम में कीमत की गारंटी मिलेगी और उसे बाजार में कीमतों में उतार-चढ़ाव के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं होगी।

लेकिन, यह कितना भी आकर्षक लगे असल में वह नहीं है। किसानों का अनुभव है कि अनुबंध पर हस्ताक्षर करने के बाद भी, कंपनियों ने किसानों को इसी बहाने भुगतान नहीं किया कि फसल अच्छी नहीं है या उस फसल की बाजार में डांवाडोल चल रही है । इसके बजाय, जब किसानों ने फसल को किसी और को बेच दिया, तो एक मामले में पेप्सी कंपनी ने करोड़ों रुपये का मुकदमा लगा दिया । कंपनियों के ऐसे शारारती से किसान कैसे निपट सकते हैं? फिर इसके उपरांत सरकार ने नए कानून में यह भी कह दिया है कि किसान अदालत में नहीं जा सकता । असलियत को आप ही समझिये ।

हालांकि, मुलभुत खतरा यह है कि किसानों को अनुबंध कृषि के माध्यम से किसान बड़ी कंपनियों के अधीन बंध जायेंगे। किसान को कंपनियों के मनचाही फसल उगानी होगी । वह कंपनी ही उस फसल को खरीदेगी। इसलिए वे पहले अधिक भुगतान करने पर भी अगर बाद में  कम भुगतान करते हैं तो किसानों को कुछ नहीं कर पाएंगे । कौन कह सकता है कि कंपनियां किसानों की जमीन भी कब्ज़ा नहीं लेंगी? और जो गरीब किसान छोटी जमीन के मालिक हैं, वे भी इस खतरे से नहीं बचेंगे। कंपनियों के पास करार कराने के लिए एफपीओ यानी सरकार द्वारा प्रोत्साहित कृषि उत्पादकों की संगठन छोटे जोतों के मालिक इन गरीब किसानों को इकठ्ठा कर कंपनी के साथ अनुबंध करने के लिए ले जायेंगे । और इस तरह अनुबंध खेती द्वारा किसानों को कंपनियों के अधीन बंध जाएंगे।

कहने का तात्पर्य यह है कि, पहले कानून का मतलब है कि कृषि विपणन अधिनियम के माध्यम से, बड़े देशी और विदेशी एकाधिकारी पूंजीपति किसानों के खून-पसीना से उत्पादित फसलों पर एकाधिकार स्थापित करेंगे और अनुबंध खेती और अन्य तरीकों से उनकी भूमि, उनकी कृषि यानि समूचे कृषि क्षेत्र पर एकाधिकार कायम किया जायेगा । यही इन दो कानूनों का असली मकसद है।

कानून संख्या तीन - आवश्यक वस्तु अधिनियम का संशोधन

सरकार ने व्यापारियों और देशी व विदेशी कंपनियों के हितों की देखभाल करने के लिए न कि किसानों के हितों के लिए इन कानूनों को बनाया है इसका सबसे बड़ा सबूत आवश्यक वस्तु अधिनियम का संशोधन है। जमाखोरी, सट्टेबाजी को रोकने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम बनाया गया था। उसके लिए, फसलों के भंडारण पर एक सीमा तय होती थी और अगर व्यापारियों ने कीमत बढ़ाई तो सरकार ने कीमत में बढ़ोतरी पर रोक लगाने की कोशिश करते थे । हालाँकि इसके बावजूद भी बड़े कारोबारियों को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। हम अच्छी तरह से जानते हैं कि कैसे उन्होंने कभी प्याज की कीमत और कभी आलू की कीमत बढ़ा देते है । अब आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करके मोदी सरकार ने क्या किया? खाद्यान्न की भण्डारण सीमा हटा दिया है । व्यापारियों ने जिस कीमत पर फसल बेचेंगे उस पर नियंत्रण भी प्रत्याहार कर लिया। क्या यह किसानों के हित के लिए किया गया है?

कोई भी समझता है कि सरकार ने देश और विदेश में बड़े पूंजीपतियों के लिए ऐसा किया है जो किसानों से फसलों का व्यापार करेगा। जब फसल का कटाई होगा तब वे किसानों से कम कीमत पर खरीद सकेंगे और उसे अपनी ज़रुरत के अनुसार भण्डारण कर सकेंगे । अनुबंध खेती को इस आवश्यक वस्तु कानून से पूरी तरह से बाहर रखा गया है। नतीजे में अनुबंध खेती में शामिल बड़ी कंपनियों फायदा ही फायदा है। इसका फायदा बड़े कारोबारियों को भी मिलेगा। नुकसान हम आप जैसे मजदूर, खेतिहर मजदूर, या मेहनतकश लोगों का होगा, जिन्हें सब कुछ खरीदनी पड़ती है। फिर महंगाई के मार के सामने हम कैसे जीयेंगे ? क्या आप समझते हैं कि सरकार किसका फायदा करा रही है और किसकी जेब कट रही है?

इसका मतलब है कि सरकार ने बड़े देशी व विदेशी मालिकों के मुनाफे के लिए ये कानून बनाए हैं। और उससे तबाही मचेगा तमाम गरीब इंसानों में । क्या इसलिए मजदूरों को भी इन कानूनों का पुरजोर विरोध नहीं करना चाहिए ? मजदूर ही तमाम गरीब अवाम का नेता है | अतः अगर गरीब अवाम के खतरे के घडी में उसका विरोध में वह खरे उतर नहीं पाते तब और कौन करेगा ?

 13 दिसंबर, 2020