Thursday, December 7, 2023

सेवा क्षेत्र के कर्मचारी और मजदूर वर्ग

           

[पिछले कुछ दशकों से, सेवा क्षेत्र में रोजगार और कर्मचारियों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है और यह तबका अक्सर कुछ संघर्षों में सक्रिय भूमिका निभा रहा है। मार्क्सवादियों के बीच यह चर्चा का विषय रहा है कि क्या सेवा क्षेत्र में नियुक्त इस तबके को सर्वहारा वर्ग का हिस्सा बोला जा सकता है या नहीं । इस मुद्दे पर मार्क्सवादी-लेनिनवादियों के बीच केवल राय भिन्न और विवादित हैं, मार्क्सवादी अध्ययन के नाम पर, इस मुद्दे पर चर्चा में भी बहुत भ्रम सामने रहे हैं। इसलिए हमने इस सवाल पर एक ठोस और सुविचारित स्थिति तैयार करने को अति आवश्यक महसूस किया। इस पर और गहन विचार के लिए कुछ साल पहले एक टीम का गठन किया गया था। यह लेख उसी टीम की पड़ताल का उत्पाद है जो वर्ष 2017 में बंगला पत्रिका सन्धिक्षण में प्रकाशित किया गया था। हमें उम्मीद है, यह लेख इस विषय पर गहरी समझ के लिए एक उपकरण के रूप में अभी भी प्रासंगिक है --संपादक मंडल, सर्वहारा पथ]

 

ऐसा लगता है कि समाज के विभिन्न तबकों के बीच एक धारणा प्रचलित है। यह कि मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में औद्योगिक मजदूरों का अस्तित्व ही लगभग विलुप्त होने की कगार पर है । इस सोच में विश्वास करने वालों का यह भी दावा है कि औद्योगिक उत्पादन में लगे मजदूर तेजी से कम हो रहे हैं और नतीजन, हमें समाज के क्रांतिकारी परिवर्तन में मजदूर  वर्ग के नेतृत्व के मार्क्सवादी-लेनिनवादी विश्लेषण की प्रासंगिकता की समीक्षा और पुनरीक्षण करना चाहिए।

उनके तर्क के अनुसार, समाज का एक समूह, जो संख्या में इतना छोटा है, सामाजिक क्रांति के नेता के रूप में वे कैसे नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकता है? दूसरी ओर, कई लोगों के यह भी तर्क है कि भले समकालीन समय में औद्योगिक मजदूरों की संख्या कम हो गई है, लेकिन पारंपरिक औद्योगिक मजदूरों के उलट अन्य असंख्य सेवा क्षेत्रों में शामिल लोगों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है और ऐसे लोग मजदूर वर्ग का ही हिस्सा हैं । उनके अनुसार, समाज को पूंजीवादी शोषण से मुक्ति के लिए सेवा क्षेत्रों के कर्मी वाहिनी की भूमिका के संदर्भ में उन्हें अन्य औद्योगिक मजदूरों की तरह ही सर्वहारा वर्ग का हिस्सा माना जाना चाहिए। लिहाज़ा पहले समूह के जवाब में दूसरे समूह का मानना ​​है कि औद्योगिक मजदूरों की गिनती में गिरावट के बावजूद पूंजीवाद के खिलाफ लड़ाई आधुनिक मजदूर वर्ग के माध्यम से जारी रहेगी जिसमें मुख्य रूप से सेवा क्षेत्र के मजदूर शामिल हैं।

उपरोक्त पृष्ठभूमि में यह समझना जरुरी हो जाता है कि क्या सेवा क्षेत्र के मजदूरों को मार्क्सवादी-लेनिनवादी विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से सर्वहारा वर्ग का हिस्सा माना जा सकता है। और यह कहने की यहाँ आवश्यकता नहीं है कि यह मुद्दा अपने आप में कोई अमूर्त सैद्धांतिक प्रश्न नहीं है। मजदूर वर्ग के आंदोलन को संगठित करने के लिए दिन-प्रतिदिन की राजनीतिक रणनीति तय करने के संदर्भ में इसका आशय बहुत महत्वपूर्ण है। इस लेख में हमने इस मुद्दे को समझने की कोशिश की है। इसके अलावा, अंत में हमने यह भी चर्चा की है कि क्या औद्योगिक मजदूरों की संख्या तेजी से घट रही है और क्या सामाजिक क्रांति के नेता के रूप में मजदूर वर्ग की भूमिका उसके संख्यात्मक बहुमत पर निर्भर है।

कुछ मूलभूत सैद्धान्तिक पहलू-सर्वहारा क्रान्तिकारी क्यों है?

क्या सेवा क्षेत्र के मजदूर सर्वहारा वर्ग के अभिन्न अंग हैं? इसे समझने के लिए सबसे पहले ये समझना ज़रूरी है कि सर्वहारा कौन है यह तय करने की कसौटी क्या है ? क्या यह आंकलन  केवल आर्थिक दृष्टिकोण से है या इसके साथ राजनीतिक और सामाजिक विचार को भी जोड़कर देखना चाहिए ? विशेष रूप से, हमें यह जानना चाहिए कि पूंजीवादी समाज में सर्वहारा ही सबसे क्रांतिकारी वर्ग क्यों है। क्योंकि इससे हमें सर्वहारा वर्गे के वे विशेषताएं आंकने का पैमाना मिलना चाहिए जिससे ये तय किया जा सकेगा कि मेहनतकश लोगों के किसी हिस्सा को सर्वहारा वर्ग के अंतर्गत माना जा सकता या नहीं । इसलिए पहले हम इस सवाल पर चर्चा शुरू की है । इस ढाँचे में हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि आज जो नए नए क्षेत्रों में कामगार आ रहे है क्या वे सर्वहारा है या नहीं ।

सर्वहारा कौन हैं?

मार्क्स के शब्दों में "पूंजीवादी उत्पादन केवल माल का उत्पादन नहीं है, बल्कि यह अनिवार्य रूप से अधिशेष-मूल्य का उत्पादन है। मजदूर उत्पादन करता है, अपने लिए नहीं, बल्कि पूंजी के लिए।" [अनुवाद हमारा, कार्ल मार्क्स, पूंजी, खंड-1, अंग्रेजी में, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, पृष्ठ-477] मतलब, पूंजीवादी समाज में 'मजदूर' की परिभाषा है जो पूंजीपतियों के लिए अधिशेष मूल्य पैदा करता है और बस पूंजी के आत्म-विस्तार के लिए काम करता है। अगर आर्थिक दृष्टिकोण से विचार किया जाए, तब मजदूर वर्ग से हमारा अभिप्राय है उत्पादन में लगे वह समूह जो मजदूरी के लिए पूंजीपतियों को अपनी श्रम शक्ति बेचते हैं, और जिनके पास उत्पादन के किसी भी साधन पर कोई अधिकार नहीं है। अर्थात सामाजिक विकास के नियमों के अनुसार एक ऐसा वर्ग मजदूर वर्ग उभरा है जिसके पास उत्पादन के साधन तक नहीं हैं, उसके पास गुजारे के लिए श्रमशक्ति बेचने के अलावा और कुछ भी नहीं है। पूंजीवादी समाज में निजी संपत्ति और मजदूरी श्रमिक के बीच का यह विशेष संबंध सर्वहारा वर्ग को निजी संपत्ति के विपरीत के रूप में प्रस्तुत करता है। मार्क्स को उद्धृत करते हुए : “निजी संपत्ति, निजी संपत्ति के रूप में, धन के रूप में, खुद को बनाए रखने के लिए मजबूर है, और इस तरह इसके विपरीत, सर्वहारा वर्ग को, अस्तित्व में । यह प्रतिपक्ष (एंटी-थीसिस—हमारा), आत्मा-संतुष्ट निजी संपत्ति का सकारात्मक पक्ष है। इसके विपरीत, सर्वहारा वर्ग, सर्वहारा के रूप में खुद को और इस तरह यह विपरीत, निजी संपत्ति को, जो उसका अस्तित्व को निर्धारित करती है, और जो उसे बनाती है सर्वहारा, उसे ख़त्म करने के लिए मजबूर है। यह विरोध का नकारात्मक पक्ष है? सर्वहारा वर्ग उस दंडादेश को क्रियान्वित करता है जो निजी संपत्ति सर्वहारा का पैदा करके खुद को सुनाती है, ठीक उदसी तरह जैसे वह मजदूरी-श्रम द्वारा खुद को सुनाई गई सजा को दूसरों के लिए धन और अपने लिए गरीबी पैदा करके निष्पादित करता है ।[K. Marx – Holy Family, Chapter IV]

इसी अर्थ में वे सर्वहारा है । इस तरीका से पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के इर्द-गिर्द जो उत्पादन का संबंध बनता है, उसमे एक ओर सर्वहारा वर्ग और दूसरी ओर पूंजीपति वर्ग के बीच का संबंध बनता है । सर्वहारा अपनी श्रमशक्ति बेचकर ही जीवत रहता है, और उसका श्रम लगातार बढ़ती हुई पूंजी का उत्पादन करता रहता है, क्योंकि उसका उत्पादन “अनिवार्य रूप से अधिशेष मूल्य का उत्पादन होता है”।

निजी संपत्ति के उन्मूलन में सर्वहारा वर्ग की भूमिका

सवाल यह है कि सर्वहारा की स्थिति में ऐसी कौन सा गुण है जिसके जरिये सर्वहारा वर्ग ने निजी संपत्ति को ख़त्म करने की शक्ति हासिल कर ली है? थोड़ा सा गौर करने पर ही ये समझ में आएगा कि सर्वहारा वर्ग के साथ निजी संपत्ति की अंतर्संबंध कितना विचित्र रूप लेती है  मार्क्स के शब्दों में: “सर्वहारा वर्ग का अस्तित्व ही उस अस्थिरता के साथ है जो निजी संपत्ति को नष्ट कर देती है, जिससे निजी संपत्ति का भी अंत की ओर ले जाती है” [अनुवाद हमारा – Karl Marx Holy Family, Chapter IV, “Critical Criticism” As Herr Edgar) । कैसे? सर्वहारा वर्ग को अपने अस्तित्व के लिए पूंजी के लिए उत्पादन करना पड़ता है। इस पूंजी का निरंतर संचय निजी संपत्ति के रूप में प्रकट होता है। इस प्रकार निजी संपत्ति का निर्माण सर्वहारा वर्ग के अस्तित्व को आवश्यक बनाता है। दूसरी ओर, सर्वहारा वर्ग का अस्तित्व दूसरों के लिए धन के सृजन और स्वयं के लिए गरीबी से जुड़ा है। यदि सर्वहारा वर्ग अपनी दरिद्र स्थिति को बदलना चाहता है, तो उसे पूंजीवादी उत्पादन संबंध को बदलना होगा क्योंकि यह संबंध सर्वहारा वर्ग को अधिकाधिक दरिद्रता की ओर धकेलता है। इसलिए इस स्थिति का उन्मूलन सर्वहारा वर्ग के उन्मूलन और निजी संपत्ति को जन्म देने वाले उत्पादन संबंध के उन्मूलन का बराबर है। इसलिए निजी संपत्ति और सर्वहारा वर्ग के बीच का विरोध उनके बीच के संबंध में ही अंतर्निहित है। जब उत्पादन के साधनों का केंद्रीकरण और श्रम का समाजीकरण अंत में एक ऐसे बिंदु पर पहुंच जाता है जहां वे अपने पूंजीवादी आवरण के साथ असंगत हो जाते हैं तो “यह आवरण फट जाता है। पूंजीवादी निजी संपत्ति की घंटी बजती है। संपत्ति से बेदखल करने वालों का ही बेदखल किया जाता है” [कार्ल मार्क्स- पूंजी, खंड-1, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, अंग्रेजी संस्करण, 1986, पृष्ठ- 715, अनुवाद हमारा]। विरोध हिंसा रूप में प्रकट होता है। इस स्तर पर "यह अध्यावरण फट गया है। पूंजीवादी निजी संपत्ति की घंटी बज रही है। ।"

उत्पादन के साधनों का केंद्रीकरण व श्रम के समाजीकरण का संघर्ष और सर्वहारा वर्ग की भूमिका

पूंजीवादी समाज की प्रगति हर तरह के उत्पादन को अधिक से अधिक सामाजिक उत्पादन में बदल देती है, यानी ऐसा उत्पादन जो सैकड़ों या हजारों सर्वहारा उत्पादकों के मिलेजुले कार्य से ही संभव है। इस बदलाव के क्रम में सभी प्रकार के छोटे उत्पादक धीरे-धीरे तबाह हो जाते हैं। लाखों-करोड़ों सर्वहारा वर्ग के मजदूरों की मेहनत के आधार पर उत्पादन का समाजीकरण हो जाता है। उत्पादन के साधनों में भी क्रम-विकास होता है। मशीनरी ऐसी हो जाती है कि यह सभी उत्पादकों की संयुक्त कार्रवाई के माध्यम से ही संचालित होती है। यह क्रमश केंद्रीकृत होता है । यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण विशेषता है जो पूंजीवाद से उसके अगले समाज की ओर यात्रा में एक नींव की तरह काम करती है और सर्वहारा वर्ग को भी ऐसे बदलाव के लिए तैयार करती है। सर्वहारा ही इस बड़े पैमाने पर हो रहे सामाजिक उत्पादन के साथ उत्पादों का व्यक्तिगत तौर पर हड़पने, कब्ज़ा करने से उत्पन्न यह विरोध का समाधान कर सकते है। इस विशाल सामाजिक उत्पादन प्रक्रिया के एक हिस्से के तौर पर सर्वहारा हर वक़्त खुद महसूस करते है । केवल इन सामाजिक उत्पादन के सामाजिक मिलकियत प्रतिष्ठा के अलावा दूसरा कोई वैकल्पिक व्यवस्था की बात सर्वहारा के मन में नहीं आ सकता है। क्योंकि यह विशाल सामाजिक उत्पादन के साधनों को सर्वहारा कभी अपनी संपत्ति बनाने का सपना नहीं देख सकता।

सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया एक व्यक्ति मजदूर को व्यक्तिगत उपलब्धियों और क्षमताओं के बजाय सामूहिक कार्य पर भरोसा करने के लिए मजबूर करती है। कोई भी कार्यों का पूरा होना अब व्यक्तिगत उपलब्धि पर निर्भर नहीं है। कारखानों और उद्योगों में काम करने वाले लोगों का बड़े पैमाने पर संयोजन भी उनकी संगठित होने की क्षमता को बढ़ाता है। जिसका नतीजा होता है, मजदूर ने पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के बुनियादी क्षेत्रों पर हमला करने की ताकत हासिल करता है। यह बड़े पैमाने पर उत्पादन होने वाले जैसे बिजली, रेल, संचार और यहां तक ​​कि आधुनिक हथियारों और गोला-बारूद के उत्पादन में शामिल उद्योगों को नियंत्रित करने की क्षमता प्राप्त करता है। मतलब बुर्जुआ वर्ग सर्वहारा को वह हथियार मुहैया कराते है, जिसके इस्तेमाल कर एक संगठित ताकत के रूप में सर्वहारा ने बूर्जुआ वर्ग के सत्ता को उखाड़ फेंक सकता है।

सामूहिक श्रम से जुड़े रहने के वजह से सर्वहारा वर्ग की एक विशेष खासियत

मजदूर वर्ग की उपरोक्त विशेषताओं (सामूहिक श्रम पर निर्भरता) के कारण उनमें आम तौर पर समाज के उच्चतर स्तर में शामिल होने की लालच भौतिक रूप में नहीं होती है। यहाँ यह ध्यान दिया जा सकता है कि हम उनके समूचे वर्ग चरित्र के बारे में चर्चा कर रहे हैं न कि किसी एक मजदूर की। उनकी वर्ग स्थिति उन्हें लगातार और ज्यादा दरिद्रता और समाज के कमजोर हिस्से की ओर खींचती है। पूंजी के बहुत ही शातिशाली व्यक्तियों, जो इस बदलाव (पूंजी की केन्द्रीकरण  प्रक्रिया—सर्वहारा पथ) का सभी फायदों को हड़प लेती है और एकाधिकार कर लेती है, उनके संख्या क्रमश घटने के साथ साथ दु:, दमन, गुलामी, पतन, शोषण को सामूहिक रूप से बढ़ाती है; लेकिन इसके साथ ही मजदूर वर्ग का विद्रोह भी बढ़ता है, जो की एक ऐसा वर्ग है जो लगातार संख्या में बढ़ रहा है, और पूंजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया के तंत्र द्वारा ही अनुशासित, एकताबद्ध और संगठित होने लगते है” (अनुवाद हमारा, स्रोत—कार्ल मार्क्स, पूंजी, खंड-1, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, अंग्रेजी संस्करण, 1986, पृष्ठ-715)। जैसा कि मार्क्स ने व्याख्या किया है: “श्रम की प्राप्ति निषेध के रूप में प्रकट होती है एवं ये इस हद तक कि मजदूर बर्बाद होते होते भुखमरी के कगार तक पहुँच जाता है। वस्तुकरण (objectification) वस्तुओं के विनाश के रूप में इस हद तक प्रकट होता है कि मजदूर अपने जीवन और श्रम की सबसे जरुरी वस्तुओं से भी वंचित हो जाता है। सबसे महत्वपूर्ण, श्रम खुद एक ऐसी वस्तु बन गयी है, जिसका मालिक बनने के लिए मजदूर को अथक प्रयास से अनगिनत रुकावटों को पार करना पड़ता है। वस्तुओं का हरप लेन इस हद तक अलगाव के रूप में प्रकट होता है कि मजदूर जितनी अधिक वस्तुओं का उत्पादन करता है, उतना ही उसके पास कम उपलब्ध होता जाता है और उतना ही वह अपने उत्पाद और पूंजी के प्रभाव में आता जाता है।” (अनुवाद हमारा, स्रोत: कार्ल मार्क्स, Economic and Philosophical Manuscripts of 1844) मजदूर जितना ज्यादा सम्पदा पैदा करते हैं उसी तेज़ी से मजदूर की गरीबी बढती है। क्योंकि पूंजीवादी उत्पादन में मजदूर जितना माल बनाते है उतना ही उनका श्रम सस्ता हो जाता है। व्यक्तिगत मजदूरों लिए पूँजी के इस नियम के खिलाफ अकेला लड़ना असंभव है। संघर्ष के बिना “जीवन और श्रम के लिए आवश्यक चीजें” जुटा पाना उनके लिए असंभव है। सर्वहारा को एक सामूहिक रूप यानी एक वर्ग के रूप में एकजुट होकर लड़ना होता है। इसी कारण सर्वहारा वर्ग की संघर्ष समाज के किसी भी अन्य वर्ग से भिन्न है।

एंगेल्स ने अपनी किताब - इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की स्थिति में उपरोक्त पहलू पर चर्चा की: “जिस नियम के अनुसार श्रम शक्ति की मूल्य जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक साधनों के मूल्य तक बन जाता है और दूसरा जो नियम श्रम की औसतन दर को उन आवश्यक साधनों की सर्वनिम्न स्तर पर लाकर खड़ा कर देती है—लगता है ये दोनों नियम एक स्वचालित इंजन की अदम्य ताकत लेकर मजदूर वर्ग पर हमला करते हैं और उन्हें अपने पहियों के बीच कुचल देता है।” [जोर हमारा]  एंगेल्स यहाँ जो दो नियमों की बात करते हैं उनके बीच का अंतर्विरोध सर्वहारा वर्ग को समाज के निचले स्तर तक ले जाता है । और यह विशेषता ही लगातार सर्वहारा वर्ग को पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह करने के लिए धकेलता है। प्राथमिक स्तर पर इस तरह के विद्रोह उनकी मौजूदा सामाजिक-आर्थिक स्थिति का क्रमश बिगड़ने के खिलाफ होते हैं, लेकिन क्रमश ही उन्हें पूंजी की समग्र शक्ति के खिलाफ संगठित होने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। यह प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, मजदूर  विद्रोह करने के लिए प्रेरित करती है और अंततः "हड़पने वालों से ही छीन लिए जाने" की संघर्ष के ओर कदम बढ़ाते है । लिहाज़ा क्रमश गरीबी में फंसते जाना सर्वहारा वर्ग और पूंजी के बीच के अंतर्विरोध को ही दर्शाती है। इसलिए, सर्वहारा वर्ग अपनी मौजूदा आर्थिक स्थिति से संतुष्ट नहीं रह सकता है। उन्हें लगातार अपने “गुजारे व श्रम के लिए आवश्यक चीजों” की आपूर्ति में किसी तरह के गिरावट को रोकने के लिए लगातार संघर्ष करना पड़ता है।

सर्वहारा वर्ग की क्रांतिकारी क्षमता से संबंधित कुछ अन्य विशेषताएँ

i. हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि बड़े उद्योगों के मजदूरों को ऐतिहासिक रूप से सर्वहारा आंदोलन में जो विशेष महत्व दिया गया था वह बेवजह नहीं था। छोटे पैमाने के उत्पादन या जो उत्पादन सामाजिक रूप लिया नहीं उनमें शामिल मजदूरों के लिए यह संभव है कि वे स्वयं उस उत्पादन के मालिक बन जाएँ। लेकिन बड़े उद्योगों के मजदूरों को यह सोचना नामुमकिन है। इसलिए बड़े पैमाने के उद्योगों के मजदूरों को समाजवादी क्रांति में हरावल दस्ता का भूमिका लेना वास्तव में संभव है।

ii. इसका अलावा और कुछ विषय भी विचार में रखना ज़रूरी है । जैसे पूंजीवादी समाज में मजदूर यह तय नहीं कर पाता कि उत्पाद किस तरीके से एवं कितना उत्पादन किया जाएगा। उन्हें पूंजीवादी उत्पादन में निर्णय लेने की प्रक्रिया में किसी भी तरह की भागीदारी से वंचित रख दिया जाता है। जैसे एक मजदूर तय नहीं कर पाते कि कौन सा तरीके से एवं डिजाईन अनुसार सामानों का उत्पादन होगा। ऐसा स्थिति ही उन्हें उत्पाद से, उत्पादन की प्रक्रिया से अलग-थलग रखता है। वे उत्पादन प्रक्रिया से अपने आप को अलग करके रखते है। यह अंतर्विरोध भी मजदूरों को पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त करने और उत्पादन के साधनों पर सामाजिक नियंत्रण हासिल करने की ओर धकेलता है।

iii. पूंजीवाद जाति, नस्ल, धर्म, आदि के आधार पर सभी भेदों को मिटाकर मजदूरी दासता की आधार पर सर्वहारा को खड़ा करते है । क्योंकि पूंजीपति की नजरों में ये सभी मजदूर  केवल श्रम-शक्ति का विक्रेता है और पूंजीपति श्रमशक्ति का खरीदार है। पूंजीवाद में किसी भी धर्म, रंग, नस्ल या जाति के सभी मजदूरों की यह आम नियति है कि वे अपनी श्रम शक्ति को बेचने वाला और पूंजीपति के अधीन एक मजदूरी आधारित गुलाम बन जाता है। इसके विपरीत में वर्ग के तौर पर ये सामाजिक रूपांतरण सर्वहारा वर्ग द्वारा अगुआ भूमिका लेने का भौतिक आधार मुहैय्या कराते है। इस प्रकार मजदूर वर्ग की वास्तविक स्थिति उसमें इस सामाजिक परिवर्तन में भाग लेने की क्षमता संचित करती है । जो क्रांतिकारी तत्व की तरह काम करता है ।

इसलिए सर्वहारा वर्ग ही एकमात्र ऐसा वर्ग है जो अपने आप के लिए मुक्ति लाने की प्रयास में मौजूदा भौतिक स्थिति को ही बदले बिना मुक्त नहीं हो सकता है। इस वर्ग के एक हिस्से के रूप में, एक व्यक्तिगत मजदूर अपनी आज़ादी की चाह नहीं कर सकता है; उसे खुद को अपनी ऐतिहासिक स्थिति से एक वर्ग के रूप में मुक्त करना होगा। यहां हमें फिर से मार्क्स की चेतावनी को याद रखना चाहिए: सवाल यह नहीं है कि यह या वह सर्वहारा शख्स या पूरा सर्वहारा इस समय अपना लक्ष्य क्या मानता है। सवाल यह है कि सर्वहारा वास्तव में क्या है और वह अपनी स्थिति से क्या कर सकता है या करने के लिए बाध्य है। सर्वहारा वर्ग का उद्देश्य और उसकी ऐतिहासिक गतिविधि उसके अपने जीवन की स्थितियों और समूचे बुर्जुआ समाज के संगठन में स्पष्ट और निश्चित रूप से घोषित की जाती है” [अनुवाद व जोर हमारा, स्रोत: कार्ल मार्क्स, होली फैमिली, मार्क्स-एंगेल्स संगृहित रचनावली, खंड-4, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, अंग्रेजी संस्करण, पृष्ठ-37]।

क्या उत्पादक श्रम में लगे मजदूर ही सर्वहारा हैं ?

मजदूर वर्ग को समझने के पिछले कई कार्य अब तक उत्पादक और अनुत्पादक श्रम (productive and unproductive labour) के विभाजन पर चर्चाओं को केंद्रित कर उस आधार पर विचार करते हैं कौन सर्वहारा हैं कौन नहीं । पूंजीवादी संचयन की प्रक्रिया की व्याख्या करने के लिए पूंजी ग्रन्थ में मार्क्स द्वारा उत्पादक और अनुत्पादक श्रम का विस्तार से वर्णन किया गया था: “संचय के संबंध में उत्पादक और अनुत्पादक श्रम के बीच का अंतर महत्वपूर्ण है, क्योंकि पूंजी में अधिशेष मूल्य के पुन: रूपांतरण के लिए शर्तों में से एक यह है कि विनिमय अकेले उत्पादक श्रम के साथ होना चाहिए।” [मार्क्स-the Process of Production of Capital,Capital chapter-6, Results of the Direct Production Process] फिर भी, हमारी क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग की समझ के साथ इस अंतर को जोड़ने के लिए उत्पादक और अनुत्पादक श्रम पर एक संक्षिप्त चर्चा प्रस्तुत की गई है।

संक्षेप में, उत्पादक श्रम " वह श्रम है जिसका सीधे पूंजी के साथ आदान-प्रदान होता है[Marx-Theories of Surplus Value, Part I, Moscow, Foreign Languages Publishing House, 1956, pg-153] यानी श्रम जो अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करता है यानी वह श्रम जिसे पूंजीपति विनिमय मूल्य बनाने के लिए अपनी परिवर्तनीय पूंजी के रूप में खरीदता है। दूसरी ओर अनुत्पादक श्रम वह श्रम है जिसका "पूंजी के साथ नहीं, बल्कि सीधे आय के साथ, यानी मजदूरी या मुनाफे के साथ आदान-प्रदान किया जाता है "[Marx- Genuine Costs of Circulation, Capital, Volume-II, 1863-78 Progress Publishers, Moscow, 1956]

व्यक्तिगत जरूरतों (घरेलू काम सहित) की संतुष्टि के लिए उपयोग किए जाने वाले सभी प्रकार के श्रम इसलिए अनुत्पादक श्रम हैं। एक दर्जी का श्रम जो स्वतंत्र रूप से काम करता है और दूसरों के लिए कपड़े सिलता है, या एक निजी ट्यूटर का, या एक चिकित्सक का जो निजी तौर पर रोगियों को देखता है, अनुत्पादक श्रम के सभी उदाहरण हैं, क्योंकि उनके श्रम का विनिमय आय से होता है न कि पूंजी से। ऐसे श्रम स्पष्ट रूप से कोई अधिशेष मूल्य उत्पन्न नहीं करते हैं। हालाँकि, जब पूंजीवादी उत्पादन के लिए ठीक उसी तरह के श्रम का उपयोग किया जाता है, उदाहरण के लिए, एक कपड़ा कारखाने में कपड़े सिलने वाला व्यक्ति, या एक पूंजीपति के स्वामित्व वाले स्कूल में पढ़ाने वाला शिक्षक, या एक निजी अस्पताल में काम करने वाला और मजदूरी अर्जित करने वाला डॉक्टर, तब सभी उत्पादक श्रम कर रहे हैं, क्योंकि इन श्रम का पूंजी के साथ सीधा आदान-प्रदान होता है और इसलिए इनका उपयोग अधिशेष मूल्य पैदा करने में किया जाता है। इस सन्दर्भ को मार्क्स द्वारा विस्तृत किया जाना था जब उन्होंने पूंजी के संचालन (circulation) की प्रक्रिया से जुड़े श्रम संबंधो का विश्लेषण किया । जहाँ उन्होंने इसका विश्लेषण के दौरान देखा कि यदि पूंजीपति उत्पादन प्रक्रिया से उत्पन्न उत्पादों को नहीं बेचता हैं तो उसे पैसे में बदलना संभव नहीं है  इस पूरी बिक्री के प्रक्रिया में पैकेजिंग, भंडारण, बही खाता आदि के लिए श्रम सहित विभिन्न प्रकार के श्रम शामिल हैं, लेकिन इस प्रकार के श्रम “न तो कोई नया उत्पाद बनाते हैं और न ही कोई अतिरिक्त अधिशेष मूल्य पैदा करते हैं”। इसलिए यह अनुत्पादक श्रम है  माल उत्पादन से जुड़े ये संलग्न व्यय (incidental expenses) मजदूरी अर्जित करने वाले लोगों द्वारा किया जाता है जिनके पास उत्पादन के किसी भी साधन का कोई स्वामित्व नहीं होता है और अधिशेष उत्पादन की सामूहिक प्रक्रिया में आवश्यक कार्य करता है, फिर भी मूल्य के निर्माण के दृष्टिकोण से ये कार्य अर्थहीन और अनुत्पादक होता है।

पूंजी अपने उत्पन्न की प्रक्रिया में तीन चरणों से गुजरती है: मुद्रा पूंजी, उत्पादक पूंजी और माल पूंजी। पहला और तीसरा चरण 'पूंजी के संचलन की प्रक्रिया' है और दूसरा चरण 'पूंजी के उत्पादन की प्रक्रिया' का प्रतिनिधित्व करता है। उत्पादक पूंजी, इस योजना में, अनुत्पादक पूंजी के विरोध में नहीं है, बल्कि संचलन की प्रक्रिया में पूंजी के विरोध में है। मार्क्स 'उत्पादक' पूंजी द्वारा या अधिक सटीक रूप से उत्पादन के चरण में पूंजी द्वारा काम पर रखे गए श्रम को उस श्रम से अलग करता है जिसे माल या मुद्रा पूंजी, या अधिक सटीक रूप से संचलन के चरण में पूंजी द्वारा भाड़े पर लिया जाता है। केवल पहले प्रकार का श्रम ही 'उत्पादक' होता है, इसलिए नहीं कि यह भौतिक वस्तुओं का उत्पादन करता है, बल्कि इसलिए कि इसे 'उत्पादक' पूंजी द्वारा किराए पर लिया जाता है, यानी उत्पादन के चरण में पूंजी। श्रम का उत्पादक चरित्र पूंजी के उत्पादक चरित्र की अभिव्यक्ति है। पूंजी के चरणों का संचलन उस श्रम की विशेषताओं को निर्धारित करता है जिसे वे भाड़े पर लेते हैं।

अधिशेष मूल्य के निर्माण की प्रक्रिया में उत्पादक श्रम उत्पादक पूंजी के साथ जुड़ा हुआ है। एक ही क्रिया उत्पादक या अनुत्पादक श्रम हो सकती है यानी अतिरिक्त-मूल्य उत्पन्न कर सकती है या नहीं कर सकती है, यानी गतिविधि के सामाजिक रूप के आधार पर उत्पादन या संचलन का हिस्सा हो सकती है। समान अंतर्वस्तु वाला श्रम या तो उत्पादक या अनुत्पादक हो सकता है [Marx- Capital; A Critique of Political Economy, Vol-1, Penguin, 1976]।  पहले दिए गए उदाहरणों को जोड़ते हुए, एक कारखाने में काम करने वाला और मजदूरी अर्जित करने वाला प्लंबर उत्पादक श्रम प्रदान कर रहा है, जबकि वही प्लंबर जब घरेलू पाइपलाइनों को ठीक करने के लिए आता है, तो वह अनुत्पादक श्रम करेगा क्योंकि बाद के मामले में भुगतान किससे किया जाता है राजस्व यानि अपना कमाई से और वह लाभ उत्पन्न करने के लिए पूंजी का निवेश नहीं है।

उत्पादक और अनुत्पादक श्रम पर उपरोक्त चर्चा से हम निम्नलिखित बातों को संक्षेप में प्रस्तुत कर सकते हैंएक उत्पादक मजदूर उत्पादन के किसी भी साधन के स्वामित्व के बिना, मालों का उत्पादन करने वाला एक मजदूरी-अर्जक यानी वेतन-भोगी हैविशेष रूप से, पूंजीपतियों के लिए अधिशेष मूल्य पैदा करने वाले है । अनुत्पादक श्रम, इसके विपरीत, अधिशेष-मूल्य पैदा नहीं करता है। श्रम के उत्पादक या अनुत्पादक चरित्र को उसके उत्पाद की प्रकृति से या किए गए कार्य की प्रकृति से नहीं पहचाना जा सकता है। उत्पादक श्रम आवश्यक रूप से भौतिक वस्तुओं के उत्पादन की ओर नहीं ले जाता है।

लेकिन सवाल यह है कि यह भेद सर्वहारा चरित्र या सर्वहारा वर्ग की क्रांतिकारी क्षमता से कैसे संबंधित हैउत्पादक मजदूरों को सर्वहारा के रूप में और गैर-उत्पादक मजदूरों को गैर-सर्वहारा के रूप में वर्गीकृत करना गलत होगा, क्योंकि यह अंतर विशुद्ध रूप से पूंजीवादी संचय को समझने के लिए एक आर्थिक स्तरीकरण है। उत्पादक या अनुत्पादक श्रम प्रदान करने में शामिल कार्यबल के एक विशेष वर्ग की सर्वहारा क्षमता को समझना, इसलिए, पहले चर्चा की गई अन्य विशेषताओं पर निर्भर करता है जो मजदूर वर्ग को निजी संपत्ति के खिलाफ संघर्ष का नेतृत्व करने के लिए निष्पक्ष रूप से निर्देशित करती हैं।

उत्पादक और अनुत्पादक श्रम और सर्वहारा चरित्र

केवल आर्थिक मानदंडों के आधार पर सर्वहारा वर्ग को वर्गीकृत करने का प्रयास करना गलत है। समाजवादी क्रांति के नेता के रूप में सर्वहारा वर्ग की प्राथमिक विशेषताएं उसकी वस्तुगत क्रांतिकारी क्षमता के आधार पर हैं। मजदूरों का केवल उत्पादक या अनुत्पादक के रूप में वर्गीकरण क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग को परिभाषित नहीं करता है। सर्वहारा की क्षमता को समझने के लिए हमें पूंजी के साथ उनके संबंधों के विशिष्ट विवरणों को देखना होगा और क्रांतिकारी क्षमता के मापदंड के आधार पर विचार करना होगा।

इस संदर्भ में सीधे तौर पर यह महसूस किया जाना चाहिए कि व्यक्तिगत सेवाओं में शामिल मजदूरों में क्रांतिकारी क्षमता का अभाव है, इसलिए नहीं कि वे अनुत्पादक श्रम कर रहे हैं, बल्कि इसलिए कि ऐसे मामलों में क्रांतिकारी विशेषताओं को आत्मसात करने के लिए आवश्यक शर्तें ज्यादातर अनुपस्थित हैं। सभी मामलों में, निजी व्यवसायी - डॉक्टर से लेकर सफाई कर्मचारी तक, जहां एक मजदूर व्यक्तिगत सेवा प्रदान करता है, यानी जब भी उनके श्रम का राजस्व के साथ आदान-प्रदान होता है, यकीनन सबसे महत्वपूर्ण मानदंड - पूंजी के साथ अंतर्विरोध  अनुपस्थित होता है, यानी इस तरह के रिश्ते में निजी संपत्ति और सर्वहारा वर्ग के बीच का विरोध पूरी तरह से महसूस नहीं किया जाता है। अधिक विस्तार में जाने के बिना, व्यक्तिगत सेवा प्रदान करने वाले मजदूरों के इस वर्ग को क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग से बाहर रखा जा सकता है।

हालाँकि, पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का हिस्सा होते हुए अनुत्पादक श्रम करने वाले मजदूरों के लिए इस तरह के सरल निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते हैं। तथाकथित अनुत्पादक मजदूर जो संचलन की प्रक्रिया में एक आवश्यक भूमिका निभाते हैं, जहां तक उनकी क्रांतिकारी क्षमता का संबंध है, उन सभी को एक तत्त्व के रूप में नहीं जोड़ा जा सकता है। उदाहरण के लिए, प्रबंधकीय अनुभाग, सुपरवाइजर, क्लर्क और अधिकारी, जो वेतनभोगी हैं और उत्पादन के साधनों के किसी भी स्वामित्व से अलग हैं, न्यूनतम क्रांतिकारी क्षमता वाले कार्यबल के एक वर्ग का गठन करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि निजी-संपत्ति और इस विशेष तबके के बीच का अंतर्विरोध किसी विरोध के रूप में प्रकट नहीं होता है जो पूंजी के शासन को खत्म करने के संघर्ष की ओर ले जाता है। इस तरह के तबके को पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों के सबसे निचले तबके पर शोषणकारी मशीनरी को नयनया रूप देने और लागू करने के लिए काम पर रखा जाता है। निजी मालिकों के साथ उनके विशिष्ट प्रकार के संबंध के आधार परयह वर्ग आमतौर पर व्यक्तिगत ऊर्ध्वगामी गतिशीलता की आकांक्षाओं से परिपूर्ण है, जो निश्चित रूप से पूंजीपतियों के खिलाफ संघर्ष के लिए एक बड़ी बाधा है। इस प्रकार ऐसे समूहों को आम तौर पर निजी मालिकों के साथ गठबंधन करने के लिए पाया जाता है ताकि उनकी व्यक्तिगत आकांक्षाओं को पूरा किया जा सके जो स्पष्ट रूप से उन्हें सर्वहारा वर्ग से अलग करती हैं।

इस संबंध में एक अन्य महत्वपूर्ण वर्ग राज्य के स्वामित्व वाली फैक्ट्रियों में उत्पादन में शामिल मजदूर हैं। जाहिर है, वे पूंजीपतियों के लिए अधिशेष मूल्य का उत्पादन नहीं कर रहे हैं और इसलिए उत्पादक उत्पादन नहीं कर रहे हैं। लेकिन क्या वे उन मालों का उत्पादन नहीं कर रहे हैं जिनका बाजार में किसी अन्य माल की तरह आदान-प्रदान होता हैएक पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में, केवल राज्य के स्वामित्व वाली फैक्ट्रियों की उपस्थिति उन्हें किसी विशेष स्थिति के साथ नहीं जोड़ती है जो पूंजी के दायरे से बाहर संचालन की अनुमति देती है। हालांकि, इस तरह के उत्पादन में शामिल मजदूर किसी विशेष पूंजीपति के लिए अधिशेष का उत्पादन नहीं कर रहे हैं, फिर भी वे निश्चित रूप से क्रांतिकारी सर्वहारा का जोश के साथ एक शक्ति का गठन करते हैं। रेलवे - भारत में सबसे बड़ा नियोक्ता, जहाज निर्माण कार्य, विमानन उद्योग, आदि - सभी इस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। ऐतिहासिक रूप से भी, इन क्षेत्रों के मजदूरों का संघर्ष उनकी क्रांतिकारी क्षमता की ओर इशारा करता है।

इस स्तर पर, हम क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग के वर्गीकरण में आगे नहीं बढ़ेंगे, लेकिन फिर से यह बताना चाहेंगे कि सर्वहारा वर्ग केवल कुछ आर्थिक विशेषताओं वाले लोगों की आर्थिक श्रेणी नहीं है। यह एक ऐसा वर्ग है जिसमें आर्थिक विशेषताओं के अतिरिक्त कुछ वस्तुनिष्ठ सामाजिक और राजनीतिक विशेषताएँ होती हैं। व्यक्तियों और समूहों को कई तारों के माध्यम से उस वर्ग  से जुड़े होते है। इस वर्ग के साथ व्यक्तियों या समूहों का यह संबंध निश्चित रूप से द्वंदात्मक है, और ये वर्ग समूचे रूप से क्रांतिकारी है।

सेवा कार्य से जुड़े श्रम पर कुछ सामान्य विचार:

स्वाभाविक रूप से, 'सेवा क्षेत्र', जैसा कि आज समझा जाता है, मार्क्स के समय में कल्पना के परे थी। सेवा को उस समय में आमतौर पर व्यक्तिगत सेवाओं को माना जाता था, जिसे कुछ विवरणों में मार्क्स ने विस्तार से समझाया था। उन्होंने 'सेवा' (services) शब्द का प्रयोग अनिवार्य रूप से एक विशेष प्रकार की गतिविधि के अर्थ में किया: " सेवा सामान्य रूप से श्रम के विशेष उपयोग मूल्य के लिए केवल एक अभिव्यक्ति है, जहाँ तक यह एक भौतिक वस्तु के रूप में नहीं बल्कि एक गतिविधि के रूप में उपयोगी है " [Economic Works of Karl Marx 1861-1864 ad 2) Capitalist Production as the Production of Surplus Value]

ग्रंड्रिस में, कुछ प्रकार की प्रमुख गैर-पूंजीवादी सेवाओं पर चर्चा करते हुए, मार्क्स कहते हैं: "जीवित श्रम के साथ वस्तुनिष्ठ श्रम (श्रम को एक वस्तु के रूप में ) का आदान-प्रदान में अभी तक न तो एक तरफ पूंजी है और न ही दूसरी तरफ मजदूरी श्रम। सेवाओं का पूरा समूह--बूट पोलिश करने वाले से लेकर राजा तक की तथाकथित सेवाएं इसी श्रेणी में आती हैं... बुर्जुआ समाज में ही, राजस्व के लिए व्यक्तिगत सेवाओं का सभी आदान-प्रदान - जिसमें व्यक्तिगत उपभोग के लिए श्रम, खाना बनाना, सिलाई , बाग़बानी आदि, कार्य, तक शामिल हैं और सभी अनुत्पादक वर्ग, सिविल सेवक, चिकित्सक, वकील, विद्वान आदि - इस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। सभी नौकर आदि, अपनी सेवाओं के माध्यम से जिनके साथ अक्सर जबरदस्ती की जाती है - ये सभी, सबसे नीचे वाले से सबसे उच्चतम, अपने लिए अधिशेष उत्पाद का एक हिस्सा प्राप्त यानी पूंजीपति के राजस्व का प्राप्त करते हैं” [Marx-Draft writing on Capital, Collected Works, Vol-28, Pg- 396]

हालाँकि, मार्क्स इस चर्चा में मूलतः व्यक्तिगत सेवाओं के बारे में बात करते हैं, लेकिन साथ ही कुछ अन्य महत्वपूर्ण विशेषताओं पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। पहला, इस तरह का श्रम एक तरफ पूंजी और दूसरी तरफ उजरती श्रमिक नहीं होता है। जब कोई चिकित्सक या वकील से सलाह लेता है या नौकर नियुक्त करता है, तो वह उपयोग मूल्य का उपभोग कर रहा होता है, लेकिन इस प्रक्रिया में कोई मूल्य नहीं बनता है। धन, यदि सेवाओं को प्राप्त करने की प्रक्रिया में आदान-प्रदान किया जाता है, तो राजस्व के रूप में कार्य करता है और यह विनिमय "पैसे को पूंजी के रूप में प्रस्तुत नहीं करता है, और परिणामस्वरूप इसलिए, आर्थिक अर्थों में श्रम को उजरती श्रम के रूप में प्रस्तुत नहीं करता है।"[ M. A. Lebowitz, What Makes the Working Class a Revolutionary Subject? Volume 64, Issue 07, 2012] दूसरा, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि मार्क्स "... अनुत्पादक वर्गों तक और उसके सहित" का उल्लेख करते हैं और उदाहरण के तौर पर सिविल सेवकों और विद्वानों का हवाला देते हैं। न तो विद्वान और न ही सिविल सेवक (सरकारी अधिकारी—हमारा) व्यक्तिगत सेवाएं प्रदान करते हैं और वे वेतन प्राप्त करते हैं, फिर भी मार्क्स उन्हें 'अनुत्पादक वर्गों' के रूप में नामित करते हैं क्योंकि वे माल या अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन नहीं करते हैं।

सेवा की बुर्जुआ परिभाषा और श्रम का विश्लेषण

बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों के अनुसार, सेवा विभिन्न प्रकार की गतिविधियों को परिभाषित करती है जो आमतौर पर भौतिक वस्तुओं के उत्पादन में शामिल नहीं होती हैं। सेवा की इस परिभाषा को ध्यान में रखते हुए [i] इसमें शामिल गतिविधियों की विषमता काफी विचित्र है। सेवा क्षेत्र, जैसा कि इसे राष्ट्रीय खातों और गैर-मार्क्सवादी अर्थशास्त्र में वर्गीकृत किया गया है, उत्पादन, प्राप्ति, विनियोग, और अधिशेष-मूल्य के वितरण से पूरी तरह से अलग संबंधों वाली गतिविधियाँ में शामिल हैं। यह पूंजीवादी से गैर-पूंजीवादी कार्य तक फैला हुआ है, और इसमें वस्तु-उत्पादन और संचलन की गतिविधियां दोनों शामिल हैं। मार्क्सवादी दृष्टिकोण से, सेवाओं के लिए जो सामान्य है, वह विभिन्न प्रकार की सेवा गतिविधियों के बीच अंतर की तुलना में, तर्कसंगत रूप से कम महत्वपूर्ण है। [F. Tregenna, Services in Marxian Economic Thought, 2009, CWPE 0935]

आइए कुछ उदाहरणों पर विचार करें। विद्युत शक्ति के उत्पादन और वितरण को बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों द्वारा एक सेवा के रूप में माना जाता है। हालांकि, बिजली का उत्पादन और वितरण अखंड  रूप से अधिशेष के निर्माण और विनियोग से जुड़ा हुआ है, भले ही यह किसी भौतिक वस्तु के रूप में न हो। इन प्रक्रियाओं से जुड़े मजदूर एक माल के रूप में बिजली का उत्पादन कर रहे हैं और पूंजीवादी दृष्टि से संगठित और शोषित हैं। स्वाभाविक रूप से, ऐसे मजदूरों के पास क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग के रूप में वर्गीकरण के लिए आवश्यक सभी मानदंड हैं।

परिवहन एक अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र है जिसे आमतौर पर पूंजीपतियों द्वारा एक सेवा क्षेत्र के रूप में माना जाता है। अधिकांश मामलों में मालों का परिवहन उन्हें उपभोग के लिए उपलब्ध रूप में प्रदान करने के लिए आवश्यक है। मार्क्स के अनुसार: " परिवहन उद्योग एक ओर उत्पादन की एक स्वतंत्र शाखा बनता है और इस प्रकार उत्पादक पूंजी के निवेश का एक अलग क्षेत्र होता है।[Marx- Genuine Costs of Circulation, Capital, Volume-II, Progress Publishers, Moscow] कोयला ,उपभोक्ता के लिए कोयला खदान के निचले हिस्से के बजे खदान निकास पर होने से ज्यादा उपयोगी नहीं है। इस प्रकार परिवहन उद्योग अपने कर्मचारियों का उतना ही शोषण करता है जितना खदान मालिक खनिकों का करते हैं। इसलिए माल का परिवहन उतनी ही उत्पादक प्रक्रिया है जितनी वास्तविक उत्पादन और ऐसी प्रक्रिया में शामिल मजदूर निश्चित रूप से सर्वहारा वर्ग का हिस्सा हैं।

उपरोक्त चर्चा के बाद हम देखते हैं कि तथाकथित 'सेवा क्षेत्र' के कर्मचारियों (बुर्जुआ परिभाषा के अनुसार) का एक बड़ा हिस्सा वास्तव में पूंजीवादी तरीके से शोषित है। निजी संपत्ति के साथ सीधे विरोध का सामना करने के अलावा, ऐसे मजदूर बखूबी सामाजिक उत्पादन का हिस्सा हैं और सर्वहारा वर्ग के आवश्यक गुण रखते हैं। बिजली और परिवहन के अलावा समान विशेषताओं वाले कुछ और क्षेत्र हो सकते हैं लेकिन वर्तमान चर्चा के उद्देश्य से हम इन हिस्सों पर अधिक विस्तार से विचार नहीं करेंगे। हमारी समझ से ये तबके क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग के अभिन्न अंग हैं।

हालाँकि, उपरोक्त के अलावा, कामकाजी लोगों के कई नए उभरते समूहों सहित ऐसे हिस्सा भी हैं, जो "मालों के उत्पादन में संलंगित व्यय" में भी कुछ भूमिका निभा रहे हैं, अर्थात उनके श्रम का उत्पादक पूंजी के साथ आदान-प्रदान नहीं किया जा रहा है। क्या वे भी सर्वहारा वर्ग का हिस्सा हैंअब हम कुछ उदाहरणों के साथ इस बिंदु पर विचार करेंगे।

सर्वहारा चरित्र और सेवा क्षेत्र से जुड़े तबके

सॉफ्टवेयर और संबंधित गतिविधियों से जुड़ी आबादी, तथाकथित आईटी कर्मचारियों ने पिछले कुछ दशकों में बहुत ध्यान आकर्षित किया है। इस क्षेत्र में कार्यरत लोगों की एक बड़ी संख्या, ज्यादातर इस क्षेत्र के पदानुक्रमिक वर्गीकरण के बिल्कुल नीचे स्थित हिस्सा, आईटी मजदूरों का गठन करते हैं जिनका काम है उन्नत आधुनिक मशीनरी की सहायता से केवल शारीरिक श्रम देना। किसी अन्य औद्योगिक मजदूर की तरह ही उन्हें शोषण किया जाता है। औसतन उनकी मजदूरी औद्योगिक मजदूरों के चालू मजदूरी दरों से बहुत अधिक नहीं बल्कि कई जगह उससे भी कम है। इनमें से अधिकांश मजदूरी कमाने वाले मजदूर किसी भौतिक वस्तु का उत्पादन नहीं करते हैं, लेकिन माल का उत्पादन करते हैं, और इस प्रकार पूंजी के आत्म-विस्तार के लिए काम करते हैं। नतीजतन, इस खंड के भीतर पूंजी के साथ अंतर्विरोध, निजी संपत्ति के साथ विरोध बहुत अधिक मौजूद है। हालांकि, ऐसे कार्यकर्ता आमतौर पर कंप्यूटर प्रोग्राम के विकास में शामिल होते हैं, उनमें से अधिकांश आम तौर पर पूरी प्रक्रिया में कुछ उबाऊ कार्रवाई करते हैं और योजना और डिजाइन प्रक्रिया में उनकी कोई भूमिका नहीं होती है। ऐसा कोई कारण प्रतीत नहीं होता है कि लोगों के ऐसे समूहों को पारंपरिक औद्योगिक मजदूरों के साथ-साथ सर्वहारा वर्ग के रूप में क्यों नहीं माना जाना चाहिए। 

सॉफ्टवेयर कर्मचारियों के इस निम्नतम स्तर के समान ही  दिखने वाले अनुभाग कर्मचारी हैं जो सॉफ्टवेयर विकास के साथ-साथ निम्नतम स्तर के काम की सुपरवाइजरी भी करते हैं। इस वर्ग के भीतर आमतौर पर ऊपर की ओर गतिशीलता और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की आकांक्षा प्रचलित पाई जाती है। इस आकांक्षा के वस्तुनिष्ठ कारण इस कार्य की प्रकृति से जुड़े हैं। सबसे पहले, विशिष्ट कौशल और प्रशिक्षण के आधार पर, आईटी कर्मचारियों का यह तबका अपनी स्वयं की सॉफ्टवेयर कंपनियों को स्थापित करने की आकांक्षा कर सकता है, जिसमें वे लोगों को रोजगार दे सकते हैं और छोटे मालिकों के रूप में कार्य कर सकते हैं। दूसरा, इस वर्ग की वेतन ज्यादातर अधिशेष से जुड़ी होती है जिसे वे सबसे निचले तबके की देखरेख और शोषण करके निकाल सकते हैं, जिसे अक्सर प्रदर्शन आधारित आय (परफॉरमेंस आधारित इनकम) के रूप में संदर्भित किया जाता है। उनके काम की प्रकृति उन्हें मजदूरों के शोषण समूहों में माहिर बनाती है। आखिरकारइस तरह के उद्यम शुरू करने के लिए आवश्यक कंप्यूटर और बुनियादी सॉफ्टवेयर की सामर्थ्य भी ऐसी आकांक्षाओं को पूरा करती है। इस क्षेत्र के कर्मचारियों की व्यक्तिगत आकांक्षाओं के लिए एक उद्देश्यपूर्ण आधार मिलता है। सॉफ्टवेयर कर्मचारियों के सबसे निचले तबके के भीतर सर्वहारा चरित्र को आत्मसात करने के लिए अनुकूल अन्य परिस्थितियाँ होने के बावजूद, सामाजिक क्रांति के नेता के रूप में उनकी वस्तुनिष्ठ भूमिका केवल भविष्य के वास्तविक संघर्षों में उनकी वास्तविक भूमिकाओं में ही बेहतर ढंग से समझी जा सकेगी। सर्वहारा आंदोलन के संबंध में एक श्रेणी के रूप में उनकी विशिष्ट भूमिका केवल भविष्य के वास्तविक संघर्षों में उनकी वास्तविक भूमिकाओं में ही बेहतर ढंग से समझी जा सकेगी। लेकिन दूसरा तबका, जो सुपरवाइजर के रूप में सबसे निचले स्तर के कर्मचारियों से काम कराते हैं, वे किसी भी तरह सर्वहारा वर्ग की कोई विशेषता नहीं रखता है ।

कुछ ऐसी ही स्थिति स्वास्थ्य क्षेत्र में भी है। अस्पतालों और नर्सिंग होम में ऐसे कर्मचारी होते हैं जो चिकित्सा उपकरणों के रखरखाव और संचालन से जुड़े विभिन्न प्रकार के काम करते हैं। वे विभिन्न जाँच-परिक्षण के लिए मशीनें चलाते है और हम उन्हें उन्नत कारखानों के कुशल मजदूरों से अलग नहीं कर सकते । फिर बड़े अस्पताल या नर्सिंग होम है जहाँ शारीरिक श्रम के विभिन्न कार्य होते हैं, जैसे सफाई, परिवहन, सामान चढ़ाना-उतारना आदि। ये कर्मचारी आमतौर पर कम वेतन पाने वाले होते हैं और इस क्षेत्र में सबसे अधिक शोषित तबका होते हैं। यह तबका भी सर्वहारा की स्थिति के करीब है । लेकिन हम डॉक्टरों को एक ही कसौटी पर नहीं आंक सकते । क्योंकि पिछड़े देशों में वे आज भी अपने पेशे के अनुसार स्वतंत्र रूप में व्यवसाय करते हैं । फलतः वे समाज की सम्पत्तिवान के तबके में आसानी से ऊपर उठ जाते हैं । उन्हें केवल वेतनभोगी मजदूरों के रूप में पहचाना नहीं जा सकता और उन्हें सर्वहारा वर्ग के समान स्थान पर नहीं रखा जा सकता।

इस संबंध में अक्सर स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के वर्गीकरण की चर्चा होती रही है। मार्क्स के लेखन के कुछ अलग-थलग उद्धरणों के आधार पर कुछ ने यह सिद्धांत देने की भी कोशिश की है कि शिक्षकों को मार्क्सवादी विश्लेषण के हिसाब से मजदूर वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए। वे यह समझने में विफल रहे कि मार्क्स ने शिक्षकों के बारे में बात करते हुए निजी स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षकों और निजी ट्यूटर्स के बीच अंतर को स्पष्ट किया, ताकि उत्पादक और अनुत्पादक श्रम की व्याख्या की जा सके, न कि शिक्षण समुदाय की वर्ग स्थिति का पता लगाने के प्रयास में। और सर्वहारा वर्ग की विशेषताओं को आंकने में हम पहले ही देख चुके हैं कि केवल आर्थिक पहलू से आंकलन करना गलत है। शिक्षकों में मजदूर वर्ग के साथ एक महत्वपूर्ण अंतर दिखता है। शिक्षकों को, कम से कम समग्र रूप से समाज के विकास की वर्तमान स्थिति के तहत, शिक्षण के कार्य के लिए शायद ही किसी 'उत्पादन के साधन' की आवश्यकता होती है। एक शिक्षक की बौद्धिक क्षमता और शिक्षण कौशल उसे अपने साथी सहयोगियों के सहयोग के बिना भी एक सफल शिक्षक के रूप में फलने-फूलने की क्षमता प्रदान कर सकता है। नतीजतन, एक शिक्षक व्यक्तिगत उपलब्धियों और ऊपर की ओर गतिशीलता की आकांक्षा कर सकता है, जो उन्हें मजदूर वर्ग से अलग करता है। अन्य निर्णयों के अलावा केवल इस विशेषता के कारण इस सेवा से जुड़े लोगों में सर्वहारा विशेषता का होना संभव नहीं है । जिनके पास निजी संपत्ति प्राप्त करने के विभिन्न तरीके हैं वे निजी संपत्ति को समाप्त करने की आवश्यकता के बारे में कैसे सोचेंगे ?

ऊपर चर्चा की गई हिस्सों में ऐसे कई तबके हैं जो तमाम पूंजीवादी प्रावधानों के खिलाफ अपनी आवाज उठाने के लिए विभिन्न संघर्षों में सर्वहारा वर्ग के साथ आसानी से हाथ मिला लेंगे। लेकिन सर्वहारा वर्ग का संघर्ष केवल पूंजीवादी हमलों के विरोध तक ही सीमित नहीं रह सकता। सर्वहारा वर्ग का अंतिम लक्ष्य पूंजीवाद को उखाड़ फेंकना और एक वर्गहीन समाज की स्थापना करना है। केवल वही वर्ग क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग होने का दर्जा प्राप्त कर सकता है जो इस दिशा में निरन्तर संघर्ष करने की क्षमता रखता है। इस संघर्ष के विभिन्न चरणों में मेहनतकश आबादी के विभिन्न हिस्से सर्वहारा वर्ग के सहयोगी बनकर इसमें शामिल होंगे। उदाहरण के लिए, भारत जैसे देशों में किसानों एक हिस्से खुद सर्वहारा वर्ग के संघर्ष के साथ एकजुट होंगे। लेकिन सर्वहारा  कुछ हद तक संघर्ष में उनका एक हिस्सा को अपने साथ पाएगा। लेकिन समाजवादी समाज की ओर यात्रा में यानी निजी संपत्ति के उन्मूलन की यात्रा में यह किसानों का सभी हिस्सा उनके साथी नहीं हैं। इस तरह समाज की कई अलग अलग हिस्सा होंगे  जो पूंजीवादी हमलों के खिलाफ वर्तमान संघर्ष में मुखर होंगे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इन तबको में सर्वहारा के पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष के अंतिम लक्ष्य तक रहने का संघटक या उपादान हैं।

जो लोग यह दावा करते हैं कि सेवा क्षेत्र के कर्मचारियों का मजदूरी प्राप्त होने के नाते कारण और उत्पादन के साधनों पर कोई मालिकाना नहीं है इसलिए वे सर्वहारा हैं, उनकी सर्वहारा दृष्टिकोण को लेकर समझ दिग्भ्रमित है। हम ऐसे सिद्धांतकारों के लिए एक और मामला पेश करना चाहेंगे। यह सभी जानते हैं कि पिछले कुछ दशकों के दौरान विशेष रूप से विकसित देशों में सेवा क्षेत्र का प्रसार हुआ है। इस संदर्भ में वित्त क्षेत्र की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। इस क्षेत्र में काफी संख्या में लोगों को रोजगार मिला हुआ है। क्या वे सर्वहारा वर्ग के एक हिस्से का गठन करते हैं? अन्य कारकों को छोड़कर, हम केवल इस तथ्य पर विचार करते हैं कि इस क्षेत्र का अस्तित्व सट्टेबाजी और बाजार और पूंजी की चालबाजी से संबंधित है। पूंजीवाद की पराजय के बाद ऐसे क्षेत्रों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने के साथ ऐसे सभी क्षेत्र बेमानी और अप्रचलित हो जाएंगे। क्या इस क्षेत्र के कर्मचारी जिन्होंने इस क्षेत्र के लिए काम करने का कौशल हासिल कर लिया है और यह जानते हुए कि पूंजीवाद के बाद के समाज में उनकी नौकरी और विशेषज्ञता अर्थहीन हो जाएगी, इस क्षेत्र के खिलाफ एक मजबूत अवस्थिति ग्रहण कर सकते हैं और इसके पूर्ण उन्मूलन के लिए लड़ सकते हैं?

अंत में, हमें याद रखना चाहिए कि पूंजीवाद से समाजवाद में संक्रमण के संघर्ष में ही सर्वहारा सच्चा सर्वहारा बनते है। रूस के मामले में भी, हमे देखा है कि मजदूर उद्योग उत्पादन से जुड़ा है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि मजदूरों के बीच अलग-अलग स्तर हैं। यहाँ तक कि सभी औद्योगिक मजदूरों को भी सर्वहारा नहीं माना जाता था। छोटे उद्योगों में मजदूरों और बड़े उद्योगों में मजदूरों की स्थिति में अंतर का आकलन करना पड़ा। लेनिन इसके बारे में भी सचेत किया था कि बड़े उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों के तुलना में जिन मजदूरों का गांवों में ज़मीन है और उसे लेकर अपना स्वार्थ भी बने हुए है, वह उनके सर्वहारा अवस्थिति लेकर खड़े रहने की संघर्ष में बाधा थे। बड़े पैमाने के उत्पादन के उद्योगों के सर्वहारा वर्ग को समाजवाद का सबसे मजबूत सिपाही माना जाता था। सर्वहारा वर्ग की वस्तुगत स्थिति उस वर्ग को निजी संपत्ति के खिलाफ और पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने के लिए मजबूर करती है । इस वस्तुगत स्थिति को वह केवल उत्पादन के साधनों के स्वामित्व के बिना और अधिशेष मूल्य के उत्पादन में शामिल सभी वेतन-अर्जन करने वाले लोगों तक सीमित रखना एक सीमित परिप्रेक्ष्य है । समकालीन समय में, जब समाजवाद का पूरा लक्ष्य पूरी तरह से पीछे छुट गया लगता है, तो वर्गहीन समाज के लिए संघर्ष के पुनरुद्धार के मकसद से वास्तविक सर्वहारा वर्ग की ओर देखना महत्वपूर्ण है ।

क्या मजदूर वर्ग आज के पूंजीवादी विकास के स्तर पर भी मौजूद है?

यह अक्सर टिप्पणी की जाती है कि समकालीन पूंजीवाद की एक प्रमुख विशेषता के रूप में 'सेवाओं' के उद्भव के साथ, अब औद्योगिक सर्वहारा वर्ग का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। शास्त्रीय औद्योगिक सर्वहारा, उनके अनुसार, एक लुप्तप्राय प्रजाति है। ऐसी आशंकाओं और दावों की वैधता को समझने के लिए कुछ आवश्यक आँकड़ों को जानने से पहले, आइए हम एक अधिक बुनियादी प्रश्न पर ध्यान दें? क्या समाजवादी आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए मजदूर वर्ग का बहुमत होना जरूरी है? हम सभी जानते हैं कि इससे पहले के समाजों का परिवर्तन, चाहे वह सामंतवाद से पूंजीवाद में रहा हो या गुलामी से सामंतवाद, अल्पसंख्यक समूहों ने ही नेतृत्व दिया था। फिर समाजवाद की दिशा में संघर्ष का नेतृत्व करने के लिए सर्वहारा वर्ग को संख्या के मामले में बहुमत बनाना क्यों आवश्यक है? दरअसल, जो लोग ये तर्क देते हैं, वे या तो जानबूझकर इतिहास को विकृत करते हैं, या फिर अज्ञानता के कारण इन बातों को नज़रंदाज़ कर देते हैं ।

इस संदर्भ में कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के एक उद्धरण की अक्सर चर्चा की गई है: "पिछले सभी ऐतिहासिक आंदोलन अल्पसंख्यकों के आंदोलन थे? सर्वहारा आंदोलन व्यापक बहुमत के हितों में,  व्यापक बहुमत सचेत, स्वतंत्र आंदोलन है। सर्वहारा वर्ग, हमारे वर्तमान समाज का सबसे निचला तबका, तब तक हिल नहीं सकता, खुद को ऊपर नहीं उठा सकता, जब तक कि आधिकारिक समाज की अधिरचना को हवा में उछाला नहीं जाता है।”[अनुवाद हमारा—कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो] इस विशेष पहलू पर एक विस्तृत चर्चा एक अलग अध्ययन की मांग करती है और वर्तमान लेख के दायरे से कुछ हद तक बाहर है। फिर भी, संक्षेप में, हम यह बताना चाहेंगे कि मार्क्स-एंगेल्स इस वर्ग के ऐतिहासिक विकास को ध्यान में रखते हुए सर्वहारा वर्ग को अपार बहुमत के वर्ग के रूप में देखते थे। इस टिप्पणी से ठीक पहले, उन्होंने चर्चा की कि कैसे एक विशिष्ट सामंती समाज में और पूंजीवाद की स्थापना के बाद विकसित हुए समाजों में मौजूद विभिन्न अन्य वर्ग धीरे-धीरे लुप्त हो जाते हैं और दो प्रमुख वर्गों को जन्म देते हैं। पूंजीपति वर्ग जो अल्पसंख्यक हैं और सर्वहारा जो भारी बहुमत हैं। और हमें इस उद्धरण में जोर देने के स्थान पर ध्यान देने की ज़रुरत है । इन शब्दों को इस उद्धरण के पिछले अनुच्छेद के साथ संयोजन में लिया जाना चाहिए। यह अनुच्छेद इतिहास के शुरुआती चरणों में सत्ता हासिल करने वाले वर्गों द्वारा सत्ता पर कब्ज़ा करने और सर्वहारा वर्ग द्वारा सत्ता पर कब्ज़ा करने के बीच अंतर पर चर्चा करता है ।  वहां कहा गया है कि निजी स्वामित्व के स्वरुप में परिवर्तन वर्गों द्वारा सत्ता पर कब्जे के शुरुआती चरणों की विशेषता थी । और सर्वहारा वर्ग “सभी निजी संपत्ति की सभी पूर्व सुरक्षा और निश्चितता को समाप्त कर देता है ।” [स्रोत—उपरोक्त] इसी को आगे बढ़ाते हुए कहा जाता है कि पिछली क्रांति मुट्ठी भर लोगों के हितों के लिए थी और सर्वहारा वर्ग की शक्ति सामूहिक रूप से सामूहिक हितों के लिए है । क्या यहाँ बहुमत का मतलब कहीं भी यह है कि यह कुल जनसँख्या में सर्वहारा वर्ग के अनुपात के सन्दर्भ में है ? जैसा कि हमने उल्लेख किया है, इन पहलुओं पर एक अलग चर्चा की आवश्यकता है।

ऐतिहासिक रूप से भी, रूस और चीन, जिन दो मामलों में मजदूर वर्ग ने पूंजीपतियों को उखाड़ फेंक कर कम से कम अस्थायी रूप से राजनीतिक सत्ता ग्रहण की, औद्योगिक सर्वहारा पूर्ण जनसंख्या के मामले में अल्पसंख्यक थे। रूस में, सर्वहारा वर्ग कुल जनसंख्या का केवल 10% था और फिर भी वे अस्थाई रूप से ही सही लेकिन, पूंजीपतियों पर मजदूर वर्ग का शासन स्थापित करने में सफल रहे।

क्या वास्तव में सर्वहारा वर्ग वर्तमान युग में संख्यात्मक दृष्टि से पूर्णतया लुप्त हो गया है?

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मजदूर वर्ग के लुप्त होने या सिकुड़ते का सिद्धांत को 'साबित करने के लिए विकसित पूंजीवादी-साम्राज्यवादी देशों से एकत्रित विनिर्माण उद्योगों व औद्योगिक मजदूरों के आंकड़ों को प्रस्तुत किया जाता हैं। स्पष्ट रूप से वे इस तथ्य के बारे में चुप हैं कि पिछले कई वर्षों के दौरान पूंजीपतियों और साम्राज्यवादियों ने विनिर्माण उद्योगों को योजनाबद्ध तरीके से चीन, दक्षिण कोरिया, ताइवान, मलेशिया, ब्राजील, भारत, आदि, जैसे तथाकथित विकासशील देशों में सस्ते श्रम और बाज़ार की उपलब्धता के कारण स्थानांतरित कर दिया है। जॉन स्मिथ द्वारा इम्पेरिअलिस्म इन थे ट्वेंटी-फर्स्ट सेंचुरी नामक एक लेख में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के उल्लेख में हम पाते हैं कि जहां उन्नत देशों में औद्योगिक कार्यबल स्थिर हो गया है या गिर भी गया है क्योंकि यह 1980 के दशक में लगभग 20 करोड़ की तुलना में 2010 में 15 करोड़ से कम था, उस समय विकासशील व अविकसित देशों में यही आंकड़ा 1980 में लगभग 22 करोड़ से बढ़कर 2010 में 54.1 करोड़ हो गया है। पूरा दुनिया का लगभग 79 प्रतिशत औद्योगिक मजदूर ये पिछड़े देशों में काम करते है।

जो लोग मजदूर वर्ग के लुप्त हो जाने की अपने सपनों में डूबे हुए हैं, वे चाहते हैं कि हम उपरोक्त प्रक्रियाओं के बारे में अंधेरे में रहें। विकसित देशों के विनिर्माण मजदूरों के आकड़ो का चर्चा के आधार पर वे एक मूलभूत तर्क पेश करने की कोशिश कर रहे हैं--मजदूर वर्ग ने पूंजीवाद के खिलाफ लड़ने की अपनी क्षमता खो दी है। वे यह भी दावा करते है कि उद्योगों के विकेंद्रीकरण ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जहां बड़े उद्योग, जो सर्वहारा की संगठित संघर्ष के लिए मुख्य आधार बने हुए थे, जिन पर कम्युनिस्टों ने इतना ज्यादा महत्व देते आए है, वह ही अब खतरे में हैं। इसलिए, हमें इस पहलू पर ध्यान देने की जरूरत है।

बड़े उद्योगों के मजदूरों को संगठित करने के महत्व के संबंध में

यह सर्वविदित है कि लेनिन ने बड़े पैमाने के उद्योगों के मजदूरों पर जोर दिया, क्योंकि वे सर्वहारा आंदोलन के सबसे दृढ़ व अग्रणी सेना हैं।6 यदि हम इस विषय पर लेनिन के कथनों को क्रम से व्यवस्थित करें तो हम पाते हैं:

1. “.....पूंजीवादी संबंध छोटे उद्योगों में (कार्यशालाएँ जिनमें मजदूरी पर श्रम करने वाले काम करते और व्यापारी पूंजी निवेश होता) भी विकसित हुए। लेकिन वे पूरी तरह से विकसित नहीं हुए हैं और उत्पादन में शामिल लोगों के बीच विरोध अभी तक उत्पन्न नहीं हुए हैं। न तो बड़ी पूंजी और न ही सर्वहारा वर्ग का कोई व्यापक स्तर अभी तक विकसित हुआ है। लेकिन मैन्युफैक्चरिंग में ये दोनों बढ़ रहे हैं। उत्पादन के साधनों के मालिक और काम करके खाने वाले लोगों के बीच अंतर लगातार बढ़ रहा है। .... बड़े पैमाने की उद्योगों में ये सभी गतिरोध करने वाली तत्वों धीरे धीरे गायब हो जा रहे हैं; सामाजिक अंतर्विरोधों की तीक्ष्णता उसमें उच्चतम बिंदु पर पहुंच गई है। पूंजीवाद के सबसे अंधेरे पहलुओं वहां सर्वोच्च स्तर पर केंद्रित हो रहे हैं।[https://www.forbes.com/sites/niallmccarthy/2015/06/23/the-worlds-biggest-employers-infographic/]

2. क्यों बड़े उद्योगों के मजदूरों को संगठित होने का वास्तविक लाभ मिलता है उसके बारे में चर्चा के दौरान उनका मत था:

क. बड़ी फैक्टरियों में, जहाँ साल भर मशीनों की मदद से उत्पादन होता रहता है, वहां मजदूरों को भूमि के साथ अपना बंधन को पूरी तरह तोडना पड़ता है, जिससे वह पूरी तरह सर्वहारा की स्थिति अपना लेते हैं । यहां तक कि छोटी जोतें भी मजदूरों के बीच हितों का टकराव पैदा करती हैं, क्योंकि उस जोत को लेकर  सम्बंधित मजदूर का एक विशिष्ट हित विकसित होते हैं। यह संगठन में बाधा डालता है।

ख. एक साथ काम करने वाले सैकड़ों और हजारों मजदूर अपनी समस्याओं के बारे में संयुक्त चर्चा के लिए मौकों का लाभ प्राप्त करते हैं। वे संयुक्त कार्यक्रम लेने में सोच सकते है। और निश्चित रूप से, ऐसा मजदूर समूह यह महसूस करते हैं कि उसकी परिस्थितियां और हित एक दूसरों के समान हैं।

ग. बड़े उद्योग मजदूरों के बीच गतिशीलता को बढ़ाते हैं जिससे मेल-जोल और संगठित होने का मौका मिलता है। एक कारखाने के मजदूर दूसरे कारखाने की समस्याओं को समझ सकते हैं जो विभिन्न कारखानों के मजदूरों के बीच भाईचारा पैदा करता है।

नतीजतन, इन स्थितियों के कारण बड़े पैमाने के उद्योगों का मजदूरों के संगठन बनते रहते हैं।

लेनिन से पहले मार्क्स और एंगेल्स दोनों ने बड़े उद्योग के सर्वहारा वर्ग के विशेष महत्व की ओर इशारा किया है। एंगेल्स, इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की स्थिति की प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से उल्लेख करते हैं: "यह स्पष्ट है कि बड़े उद्योग देश के सभी जिलों में विकास के समान स्तर तक नहीं पहुंचे हैं। हालांकि, यह सर्वहारा वर्ग के वर्गीय संघर्ष को कभी धीमा किया नहीं। क्योंकि बड़े उद्योगों के सर्वहारा इस आंदोलन का नेतृत्व ग्रहण किया और पूरी जनता को अपने साथ लिया, क्योंकि बड़े उद्योग से बाहर किया हुआ मजदूर बड़े उद्योग के मजदूरों की तुलना में और भी बदतर स्थिति में पहुंच गए थे।" [F Engels, Preface to the Condition of Working Class in England, 1845] इस प्रकार, हम देखते हैं कि जहाँ एंगेल्स ने बड़े पैमाने के उद्योग मजदूरों की नेतृत्वकारी क्षमता पर बल दिया था, वहीं मार्क्स ने राजनीतिक संघों के निर्माण में ऐसे बड़े पैमाने के उत्पादन से जुड़े मजदूरों की भूमिका की ओर इशारा किया था। अब जो लोग कहते हैं कि बड़े पैमाने पर उद्योग को पूंजीपतियों द्वारा बंद किया जा रहा है, उनके लिए बड़े पैमाने की उद्योग के मजदूरों को संगठित करने का सवाल अप्रासंगिक है।

हम आखिरकार इस सवाल का सामना कर रहे हैं - क्या बड़े पैमाने के कारखाने गायब हो रहे हैं? यह पता लगाने के लिए एक अलग चर्चा है कि क्या पूंजीपति और साम्राज्यवादी विकेंद्रीकृत छोटी उत्पादन इकाइयों की ओर जा रहे हैं और बड़े उद्योगों को छोड़ रहे हैं। फिर भी, हम पहले कुछ उदाहरण देंगे। चीन में चाइना मोबाइल कंपनी ने 2008 में लगभग 138,000 मजदूरों को रोजगार दिया, जो 2015 में बढ़कर लगभग 438,000 हो गया। इसी तरह, लेनोवो में कर्मचारियों की संख्या 2008 में 23,000 कर्मचारियों से बढ़कर 2015 में 60,000 हो गई। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार हॉन होई प्रिसिजन इंडस्ट्री, जिसे फॉक्सकॉन के नाम से जाना जाता है, 2010 में 0.8 मिलियन कर्मचारियों की तुलना में 2015 में 1.3 मिलियन को रोजगार देती है। विकिपीडिया के अनुसार, फॉक्सकॉन का सबसे बड़ा कारखाना लोंगहुआ टाउन, शेन्ज़ेन में है, जहां सैकड़ों हजारों कर्मचारी (अलग-अलग गिनती में 230,000; 300,000; और 450,000 शामिल हैं) लोंगहुआ साइंस एंड टेक्नोलॉजी पार्क में कार्यरत हैं, जिसे कभी-कभी 'फॉक्सकॉन सिटी' कहा जाता है। यह पार्क लगभग 1.16 वर्ग मील (3 वर्ग किमी), और 15 कारखानों सहित, स्थित है। फॉक्सकॉन की एक और फैक्ट्री 'शहर' झेंग्झौ में है, जहां 2012 तक 120,000 कर्मचारी कार्यरत हैं। चाइना नेशनल पेट्रोलियम कॉरपोरेशन और स्टेट ग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ चाइना चीन में दो सरकारी स्वामित्व वाली एकीकृत कंपनियां हैं, जो क्रमशः 1.6 और 1.5 मिलियन लोगों को रोजगार देती हैं। [https://www.forbes.com/sites/niallmccarthy/2015/06/23/the-worlds-biggest-employers-infographic] हम इन नंबरों से कुछ भी साबित करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। बल्कि हम सिर्फ एक सवाल उठाना चाहते हैं? ऐसे आँकड़ों के सामने क्या यह दावा करना उचित होगा कि बड़े पैमाने के कारखाने गायब हो गए हैं?

पूंजीवाद की सामान्य विशेषताओं को समझने के लिए हम आमतौर पर अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी आदि जैसे देशों को देखते हैं। जाहिर है, हाल के दिनों में ऐसे देशों में बहुत कम कार्यबल वाले नए उद्योगों का प्रसार हुआ है। उन्नत प्रौद्योगिकी के कार्यान्वयन ने निश्चित रूप से उत्पादक कारखानों में मानव मजदूरों की आवश्यकता को कम किया है। लेकिन क्या इससे वैश्विक स्तर पर बड़े उद्योग गायब हो गए हैं? अद्भुत तकनीकी विकास के साथ-साथ हम यह भी देख रहे हैं कि अविकसित देशों में उपलब्ध सस्ते श्रम के दोहन के प्रयास में बड़ी पूंजी का निवेश किया जा रहा है। हजारों कर्मचारियों को नियुक्त किया जाता है और हजारों की छंटनी की जा रही है - फॉक्सकॉन के लगभग 1.3 मिलियन कर्मचारी लगभग सभी प्रसिद्ध कंप्यूटर और मोबाइल हार्डवेयर घटकों का उत्पादन कर रहे हैं। समकालीन साम्राज्यवाद की प्रवृत्ति किसे माना जाए? जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, इस पर विस्तृत चर्चा इस लेख के दायरे से बाहर है। इसलिए, वर्त्तमान ज़माने के उद्योग का कुछ विशेषता पर ध्यान आकर्षित करके हम इस बारे में चर्चा को फ़िलहाल समापन करेंगे।

'पूंजीवाद, विकास तथा वैश्विक माल श्रृंख्ला' (Capitalism, development and Global Commodity Chains) नामक एक लेख में जी. जेरिफी ने आधुनिक औद्योगिक प्रतिष्ठानों के कुछ विशेषताओं  पर चर्चा की है।[G. Gereffi in a collection Capitalism and Development, ed. L. Sklair, London Routledge, 1994, Ch 11, Pg-211-230] उन्होंने तर्क दिया है कि समकालीन औद्योगीकरण वैश्विक व्यापार और उत्पादन की एक एकीकृत प्रणाली का परिणाम है जो मुख्य निगमों से जुड़े हुए हैं। विभिन्न स्तरों पर संचालित और कई देशों से संबंधित औद्योगिक प्रतिष्ठान किसी माल के उत्पादन से जुड़े होते हैं। इसमें छोटे, मझौला एवं बृहत—सभी किस्म के उद्योग है। सभी व्यापार और उत्पादन के श्रृंखला में जुड़े हुए हैं । उससे अलग रहके कोई भी उद्योग बच नहीं सकते ।

 इस चरण के दौरान, विशेष क्षेत्रों में उद्योग और उनके सहायक उद्योग स्थापित किए जा रहे हैं। चूँकि उत्पादन ज्यादातर निर्यात से संबंधित होता है, किसी दिए गए क्षेत्र के भीतर, राष्ट्र विशेष का निर्यात क्षेत्र स्थापित किये जा रहे हैं। इसने कई इकाइयों और सहायक इकाइयों का गठन करने वाले औद्योगिक क्षेत्रों को जन्म दिया है। ऐसे क्षेत्रों में आमतौर पर बड़ी संख्या में मजदूर शामिल होते हैं और पहले के एकल बड़े पैमाने के उद्योगों की तुलना में बड़े भौगोलिक क्षेत्रों में फैले होते हैं। पेट्रोलियम उत्पादों, ऑटोमोबाइल, कपड़ा से लेकर विभिन्न उद्योगों को अब इस तरह से व्यवस्थित किया जा रहा है। इस उत्पादन श्रृंखला की प्रक्रिया ही एक से लेकर दुसरे उद्योगों के बीच एक ऐसी कड़ी स्थापित कर रही है कि यदि इस सर्किट में एक भी इकाई काम करना बंद कर दे, तो यह पूरी बहुराष्ट्रीय उत्पादन श्रृंखला को प्रभावित कर सकती है। कम से कम इस दृष्टिकोण से, इस तरह के उत्पादन में शामिल मजदूरों ने उत्पादन प्रणाली के खिलाफ अधिक प्रभावशाली शक्ति हासिल कर ली है। इन क्षेत्रों की आर्थिक गतिविधियों की मात्रा भी पिछले बड़े उद्योगों की तुलना में बहुत अधिक है। किसी भी एक इकाई में मजदूरों की हड़ताल का असर पूरी श्रृंख्ला पर दिख रहा है। तटीय चीन के साथ उभरे औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरों की हालिया हड़तालें शायद इस विशेषता की गवाही देती हैं।

कुछ समापन टिप्पणी

राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर सर्वहारा वर्ग आज समाजवाद की ओर पहले ऐतिहासिक मार्च की पराजय के बाद फिर से उठने के लिए संघर्ष शुरू कर रहा है। ऐसा स्थिति में कम्युनिस्टों के मुख्य कार्यभार होना चाहिए इन आंदोलनों के साथ एकीकृत होना । ऐसा लगता है कि अलग-अलग देशों की  औद्योगिक क्षेत्रों के मजदूर इससे इन आंदोलनों के साथ जुड़ते जा रहे है। हालांकि, अंतरराष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन के संकट के मद्देनजर सर्वहारा वर्ग बंटा हुआ और असंगठित  है। अपना किसी भी अंतरराष्ट्रीय संगठन को तो छोड़ ही दें, किसी भी देश में कोई वास्तविक सर्वहारा पार्टी नहीं है। अधिकांश मामलों में ऐसा लगता है कि मजदूरों के आर्थिक संघर्ष भी मजदूरों के किसी ठोस संगठन के बिना ही चलाये जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में कम्युनिस्टों ने सर्वहारा आन्दोलन से दूरी बनाए हुए अलग है। उनका प्राथमिक कार्य निस्संदेह औद्योगिक क्षेत्रों में हो रहे सर्वहारा संघर्षों के साथ तालमेल बिठाने पर केंद्रित होना चाहिए। लेकिन, ये भी सच है कि उपरोक्त प्रवृत्ति ध्यान आकर्षित करने के लिए बहुत कमज़ोर है। कम्युनिस्ट ज्यादातर इस प्रवृत्ति की पहचान करने में असमर्थ हैं। फिर समाजवादी आन्दोलन के पीछे हटने की इस लम्बी दौर के कारन वे क्रांति और समाजवाद के विचारों से अधिकाधिक दूर होते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में सर्वहारा वर्ग के बदलते स्वरूपों से चिंतित कम्युनिस्ट या मार्क्सवादी वास्तव में गंभीर समस्याओं का सामना कर रहे हैं। वे दुनिया भर में पूंजी के हमले के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोगों के विशाल जनसमूह को आसानी से देख सकते हैं, लेकिन वे इन संघर्षों में सर्वहारा वर्ग का पता लगाने में असमर्थ हैं। स्वाभाविक रूप से इन संघर्षों में भाग लेने वाले गैर-सर्वहारा वर्गों द्वारा ही उनका ध्यान खींचा जा रहा है। इसलिए आज हम नागरिक समाज बनाम कॉर्पोरेट हितों के बारे में सुनते हैं। हम आबादी के विभिन्न तबकों के साथ पूंजी के अंतर्विरोधों के बारे में सुनते हैं लेकिन वर्ग संघर्ष के बारे में कभी नहीं सुनेंगे। जो पूंजी और क्रांति के शासन को उखाड़ फेंकने का सवाल उठाता है, उसे कट्टर कहा जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह सर्वहारा आंदोलन का भविष्य नहीं देख सकते। समाजवादी संघर्ष से क्रमिक रूप से दूरी बढ़ते बढ़ते उन्होंने एक 'व्यापक' पूंजीवाद-विरोधी संघर्ष के घेरे में डाल दिया है। इसलिए वे सर्वहारा वर्ग को अपनी इच्छा के अनुसार परिभाषित कर रहे हैं। उन्हें औद्योगिक सर्वहारा वर्ग के अस्तित्व की भी परवाह नहीं है। कई मामलों में इन स्व-घोषित मार्क्सवादी सिद्धांतकारों की आवाज़ बुर्जुआ बुद्धिजीवियों की आवाज़ के साथ गूंज रही है। जब तक सर्वहारा वर्ग का संघर्ष फिर से शुरू नहीं होता, तब तक इस तरह की बौद्धिक उलझनें और अराजकता बनी रहेंगी। हम आशा करते हैं कि वर्तमान चर्चा उन्हें सर्वहारा वर्ग को समझने की दिशा में एक निश्चित दिशा खोजने में मदद करेगी। इस बीच, हम यह दावा कर सकते हैं कि सर्वहारा तब तक अस्तित्व में रहेगा जब तक पूंजीवाद मौजूद रहेगा और जब पूंजीवाद हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा तो उनका अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा। तब तक बुद्धिजीवियों को एक दूसरे के खिलाफ गलत परिभाषित सीमाओं के पार लड़ने दें।

 

नोट :

[1]संयुक्त राष्ट्र (यूएन) देशों के राष्ट्रीय खातों में आर्थिक गतिविधियों के वर्गीकरण पर अपनी नीति में, सेवाओं को, ऑर्डर करने के लिए उत्पादित आउटपुट के रूप में परिभाषित करता है और और आम तौर पर उपभोक्ता की मांग के आधार पर उत्पादक की गतिविधियों के अनुसार उपभोगी की इकाईयों की बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार होता है। उत्पादन के पूरा होते ही उन्हें उपभोक्ताओं तक पहुंचा दिया जाना चाहिए। सेवाओं का उत्पादन उन गतिविधियों तक ही सीमित होना चाहिए जो एक इकाई द्वारा दूसरे के लाभ के लिए किए जाने में सक्षम हैं। अन्यथा, सेवा उद्योग विकसित नहीं हो सकते थे और सेवाओं के लिए कोई बाजार नहीं हो सकता था। एक इकाई के लिए अपने स्वयं के उपभोग के लिए एक सेवा का उत्पादन करना भी संभव है, बशर्ते गतिविधि का प्रकार ऐसा हो कि इसे किसी अन्य इकाई द्वारा किया जा सकता था। (स्रोत: राष्ट्रीय लेखा प्रणाली 1993 जिनेवा: संयुक्त राष्ट्र)

अमेरिकी जनगणना ब्यूरो के अनुसार, सेवा क्षेत्र अर्थव्यवस्था का वह भाग है जो अमूर्त वस्तुओं का उत्पादन करता है।

 

(वर्ष 2017 का लेख)