Thursday, March 7, 2024


  पंजाब का किसान आंदोलन और दलित खेतिहर मजदूर

                                     --विजय चन्द्र                                                     

जब केंद्र सरकार द्वारा तीन कृषि कानून पारित कर भारतीय कृषि पर कब्ज़ा करने के दरवाजे खुल गए तो कॉरपोरेट सेक्टर बहुत खुश हुआ। कई लोगों ने सोचा, किसानों का भाग्य तय हो चुका है और इसके सामने झुकने के अलावा कोई रास्ता  नहीं है। भाजपा के सत्ता में आने के बाद से उनके पक्ष में बने तमाम कानूनों ने शायद कॉरपोरेट सेक्टर को इतना आश्वस्त कर दिया है कि इस बार भी सब कुछ उनके मन मुताबिक होगा। लेकिन इस बार चीज़ें कुछ अलग हो गयीं उस नाजुक मोड़ पर पंजाब और हरियाणा के फार्मरों  और किसानों ने दृढ़तापूर्वक घोषणा की - 'हम इन कठोर कानूनों के सामने नहीं झुकेंगे, हम अंत तक लड़ेंगे, हम मरने के लिए तैयार हैं लेकिन कॉर्पोरेट क्षेत्र को हमारे जीवन और आजीविका को लूटने नहीं देंगे।' . वे अपनी प्रतिज्ञा के प्रति सच्चे थे। एक वर्ष से अधिक समय तक चली लंबी लड़ाई के अंत में (दिल्ली की सड़कों पर लगभग 700 किसानों की शहादत, मौसम की मार झेलने  और लाठीचार्ज और गिरफ्तारियों सहित सभी प्रकार के दमन का सामना करते हुए, और गोदी मीडिया के विरोधी प्रचार के बावजूद ) वे सरकार को कानून वापस लेने में सफल रहे। यदि हम आंदोलन में अधिकांश अन्य राज्यों के मजदूर वर्ग और किसानों की सक्रिय भागीदारी की अनुपस्थिति को ध्यान में रखते हैं तो यह विशेष रूप से प्रशंसनीय था। इसने एक बार फिर इस तथ्य की पुष्टि की कि शासक वर्ग से लड़ने का रास्ता एकजुट होकर प्रतिरोध करने के अलावा और कुछ नहीं है।

 

इस पत्रिका की एक अन्य लेख में इस आंदोलन के विवरण पर चर्चा की गई है। यहां हम आंदोलन के साथ पंजाब के खेतिहर मजदूरों के रिश्ते पर बात करेंगे, जो तब से उभर रहे विभिन्न तर्कपूर्ण विचार-विवादों के सैलाब में उतना सामने नहीं आया है। उन तीन कानूनों से खेतिहर मजदूर भी प्रभावित होंगे और इसलिए उनके आंदोलन के नेतृत्व ने भी कानूनों के खिलाफ अभियान चलाया। पंजाब में किसानों का संघर्ष जिस हद तक फैला, उसने निश्चित रूप से तीन कृषि कानूनों के कार्यान्वयन की स्थिति में उन पर पड़ने वाली मुसीबतों  के बारे में खेतिहर मजदूरों की चेतना को ज्वलंत  कर दिया है। लेकिन इस सब कुछ के बावजूद हमने किसानों के प्रतिरोध आंदोलन के एक  पूरे लंबे वर्ष के दौरान दिल्ली की सीमाओं पर खेतिहर मजदूरों की लगभग बहुत कम या कोई भागीदारी नहीं देखी है।

 

आंदोलन के नेतृत्व ने तर्क दिया - वे किसानों के आंदोलन का पूरी तरह से समर्थन करते हैं, लेकिन अपनी दैनिक आजीविका को खतरे में डालकर धरने में लंबे समय तक रहने का जोखिम नहीं उठा सकते, जिससे भुखमरी की स्थिति बन सकती  है। इसलिए उनकी भागीदारी कम थी। इस तर्क के प्रति पूर्ण सम्मान रखते हुए अभी भी यह तर्क दिया जा सकता है कि यदि वे आंदोलन का हिस्सा होते तो वे निश्चित रूप से अपने काम को जारी रखते हुए पंजाब के ग्रामीण इलाकों में किसी और भी तरह तरह का आंदोलन करते। लेकिन हमने शायद ही ऐसी कोई खबर सुनी हो।

 

क्या उन्होंने कृषि कानूनों को निरस्त करने की लड़ाई को केवल किसानों और भूस्वामियों का आंदोलन माना है? यह एक प्रासंगिक प्रश्न बन जाता है। क्या वे इस बात से अनजान थे कि ये तीन कृषि कानून उनके जीवन में कितना बड़ा दुख, दुर्गति लेकर सकते हैं ?

 

ऐसा सोचना कठिन है। बीकेयू (उगराहां), बीकेयू (डकौंडा), कीर्ति किसान यूनियन जैसे कई किसान संगठनों ने इस मुद्दे पर व्यापक और लगातार अभियान चलाया है। उन्होंने बड़ी सभाएं आयोजित कीं, जिससे खेतिहर मजदूरों को होने वाले खतरों और कृषि कानूनों के कार्यान्वयन से होने वाली तबाही के बारे में पता चला। इन संगठनों ने स्पष्ट रूप से इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे बड़े कॉरपोरेट केवल गरीब किसानों को विस्थापित करेंगे, बल्कि खेतिहर मजदूरों को भी खत्ते में डाल देंगे। कृषि में अधिक आधुनिक यांत्रिक साधनों और प्रौद्योगिकी के प्रयोग से निश्चित रूप से शारीरिक श्रम की आवश्यकता समाप्त हो जाएगी। उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि कैसे बड़े कॉरपोरेट अनुबंध खेती के माध्यम से गरीब किसानों को लुभाएंगे और अंत में उन्हें उनकी ही जमीन से बेदखल कर देंगे, अंततः वे कृषि उपज के अधिकांश हिस्से पर कब्जा कर लेंगे और एकाधिकार के आधार पर बाजार को नियंत्रित करेंगे। यह एकाधिकार मूल्य मजदूरों को उनकी जरुरत के अनुसार जरुरी सामान खरीदने से भी रोक देगा और पूरी तरह से कंगाली ला देगा। बड़े कॉरपोरेट्स का वर्चस्व भी खेतिहर मजदूरों को एक और बड़ा झटका देते हुए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को धीरे धीरे नष्ट कर समाप्ती की ओर ले जा सकती है। इन सबके बावजूद खेतिहर मजदूरों ने किसी भी महत्वपूर्ण तरीके से किसान आन्दोलन  में भाग लेने से परहेज किया है।

 

कुछ लोगों की राय है कि इन संगठनों ने निश्चित रूप से खेतिहर मजदूरों के बीच कृषि कानूनों के बढ़ते खतरे के बारे में अभियान चलाया है। हालाँकि, शुरू से अंत तक, मंडी की सुरक्षा और एमएसपी प्रणाली की कानूनी मान्यता पर दिए गए व्यापक जोर ने यह विचार पैदा कर दिया होगा कि आंदोलन मूलतः इन दो मांगों को लेकर है। ये मुद्दे अमीर और मध्यम किसानों के हित में हैं और किसी भी तरह से खेतिहर मजदूरों  से संबंधित नहीं हैं। यह खेतिहर मजदूरों के लिए आंदोलन से दूरी बनाने का एक कारण हो सकता है। लेकिन दूसरी ओर, आंदोलन जिस ऊंचाई पर पहुंच गया था, उसको मिले समर्थन की लहर और इसका परिणाम में शासक वर्ग द्वारा किए गए हमले, इन सभी को मिलाकर उपरोक्त तर्क (खेतिहर  मजदूरों द्वारा सिर्फ दर्शक की भूमिका निभाने का)  समर्थनयोग्य नहीं  है।

 

खेतिहर मजदूरों की  अनुपस्थिति या कमजोर भागीदारी के संबंध में उपरोक्त स्पष्टीकरण इसका एक हिस्सा हो सकता है। लेकिन हमारे लिए इसका एक गहरा संरचनात्मक आधार भी है। पंजाब के खेतिहर मजदूरों का बड़े भूस्वामियों और धनी किसानों के साथ गहरा विरोधाभास और संघर्ष है। इसका गहराई से विश्लेषण करने से आंदोलन के प्रति उनकी उदासीनता के कारणों को और अधिक समझने में मदद मिल सकती है।

 

देश के सभी राज्यों में से पंजाब और हरियाणा में ही 'हरित क्रांति' सबसे अधिक सफलतापूर्वक लागू की गई। एक अनुमान से पता चलता है कि 1972 से 1985-86 के बीच जहां देश के भीतर कृषि उत्पादन में वृद्धि दर 2.31% थी, वहीं पंजाब में इसी अवधि के दौरान 5% की वृद्धि दर दर्ज की गई। भारत में औसत जोत का आकार केवल 1.08 हेक्टेयर है, पंजाब का औसत जोत का आकार 3.62 हेक्टेयर है। राष्ट्रीय अन्न भंडार में भी पंजाब का योगदान किसी भी अन्य राज्य से अधिक है। जबकि पंजाब में 98% जमीन में उच्च उपज वाले किस्म के बीजों का उपयोग किया जाता है, राष्ट्रीय औसत केवल 55% है। पंजाब में सिंचित कृषि क्षेत्र भी अन्य राज्यों की तुलना में बहुत अधिक है। इसलिए पंजाब में किसान सालाना तीन या कम से कम दो फसलें उगा सकते हैं। पंजाब में मशीनों और आधुनिक तकनीकों का प्रयोग उल्लेखनीय रूप से किया गया है। जहां 1971 में नियोजित ट्रैक्टरों की संख्या केवल 5281 थी, वहीं 2014-15 में यह बढ़कर 5,36,429 हो गई। गहरे ट्यूबवेलों की संख्या भी 1981 में 78,763 से बढ़कर 2014-15 में 12,35,722 हो गई। कृषि से अर्जित लाभ और किसानों द्वारा प्राप्त उदार बैंक क़र्ज़ ने पंजाब में कृषि की इतनी तेज़ बढ़ोतरी में योगदान दिया।

 

उत्पादकता बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग बहुत जरुरी  है। आज की कृषि का प्रतीक ये सारे लागत, मिटटी की उर्वरता की कीमत पर, पूरे भारत में ही बढ़ोतरी हो रही है। इसमें भी पंजाब सबसे आगे है। देश में उत्पादित कुल उर्वरकों का लगभग 10% अकेले पंजाब में खपत होता है। नाइट्रोजन उर्वरकों की खपत 1970-71 में 175 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 2014-15 में 1486 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गई है। उत्पादकता की तीव्र वृद्धि को जीवंत संरचनात्मक बाज़ार से सहायता मिली है। देश के अन्य हिस्सों की तुलना में पंजाब में 'मंडी' और 'एमएसपी' प्रणालियाँ कहीं अधिक विकसित हैं। इसलिए धनी किसानों, मध्यम किसानों के साथ-साथ पूंजीवादी किसानों और बड़े भूस्वामियों  ने ऐसे बाजार नेटवर्क के माध्यम से पर्याप्त लाभ कमाया है। कई बार बैंक कर्ज माफी से भी उन्हें फायदा हुआ है। वर्तमान में उन्हें केंद्र सरकार की कृषि विकास योजना के तहत प्रति एकड़ जमीन के लिए करीब 10 से 15 हजार रुपये भी मिल रहे हैं। उपरोक्त सभी कारकों ने पंजाब को एक समृद्ध राज्य के रूप में उभरने में योगदान दिया। लेकिन ऐसी समृद्धि के बीच मूल सवाल यह समझने की कोशिश है कि असल में इससे लाभ किसे मिल रहा है। निश्चित रूप से अमीर किसान, पूंजीवादी फार्मर और बड़े भूस्वामी लाभार्थी हैं। इससे धनी किसानों के इन वर्गों और भूस्वामियों के ऊपरी तबके के लिए रही किसी भी मुश्किल को अलग नहीं किया जा सकता है विशेष रूप से फसलों की विकास दर इनपुट लागत में वृद्धि की दर के साथ समता बनाए रखने में विफल रही है। इस प्रकार की समस्याएँ मौजूद हैं जिन्हें हम किसी अन्य समय में उठा सकते हैं। आइए उस प्रश्न पर वापस आते हैं जिसकी हम जांच करना चाहते हैं, क्या पंजाब की सामान्य समृद्धि से खेतिहर मजदूरों को भी लाभ हुआ है?

 

कई बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों की राय है कि कृषि अर्थव्यवस्था के विकास से ग्रामीण अर्थव्यवस्था का भी सामान्य विकास होता है। जब उत्पादक अच्छा मुनाफा कमाने में सक्षम हो जाते हैं तो इसका एक हिस्सा खेतिहर मजदूरों तक पहुंच जाता है। नतीजतन उनकी क्रय शक्ति बढ़ती है और ग्रामीण बाज़ार का विस्तार होता है। दो या तीन फसलों की खेती से मजदूरों के लिए साल भर आजीविका सुनिश्चित होती है; तब वे अधिक कमाएंगे और उनके जीवन की स्थिति में सुधार होगा। खेतिहर मजदूरों की दुर्दशा की गहरी जांच उपरोक्त दृष्टिकोण को खंडित कर देती है। खेतिहर मजदूर अपनी मेहनत को धनी किसानों, पूंजीवादी किसानों और बड़े जमीन मालिकों के स्वामित्व वाली ज़मीन पर लगाते हैं। खेतिहर मजदूरों की संख्या दिन--दिन बढ़ती जा रही है। एक अनुमान से पता चलता है कि 1961 में उनकी संख्या 3,34,610 थी जो 2011 में बढ़कर 15,88,000 हो गई। इसके अलावा, लगभग 8.0 से 9.0 लाख की संख्या में मौसमी प्रवासी मजदूर भी इन आकड़ों में शामिल होते हैं । कुल मिलाकर एक आश्चर्यजनक आंकड़ा यह है कि लगभग 23.0 से 24.0 लाख लोग कृषि श्रम बाजार में आते हैं। पंजाब में भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की बढ़ती संख्या के कई कारण हैं। एक मुख्य कारण यह है कि गरीब किसानों का एक बड़ा तादाद बढ़ती लागत का सामना कर रहा है, और अमीर किसानों की खेती की गति के साथ प्रतिस्पर्धा में, दिन--दिन उनकी कर्ज बढ़ता जा रहा है और उन्हें अपनी जमीनें छोड़ने के लिए मजबूर कर रहा है (या तो ज़मीन बेचकर या पट्टे की पेशकश करके) और भूमिहीन मजदूरों की कतार में धकेला जा रहा है। पंजाब के बटाईदार किसान लगभग लुप्त हो गये हैं। वे भी खेतिहर मजदूरों की कतार में शामिल हो गये हैं।

 

एक ओर खेतिहर मजदूरों की संख्या बढ़ रही है, दूसरी ओर मजदूरों की आवश्यकता कम हो रही है। पूँजी प्रधान कृषि के लगातार बढ़ते उपयोग जैसे ट्रैक्टर, पंप सेट, कोईता के उपयोग से मानवीय श्रम की आवश्यकता कम हो रही है। अब मुख्य रूप से केवल बुआई के लिए मजदूरों की आवश्यकता होती है। इसलिए मजदूरों की आह“भगवान महान है, बुआई की मशीनें अभी तक नहीं आई हैं, इसलिए, हालांकि गंभीर कठिनाई के तहत, हम अभी भी मौजूद हैं”, समझना काफी आसान है।

 

जैसा कि पहले कहा गया है, पंजाब में लगभग 98% ज़मीन पर उच्च उपज वाले बीजों की खेती की जाती है। वे बहुत तेजी से बढ़ते हैं। उत्पादकों को जल्द-से-जल्द बुआई करने की अत्यधिक आवश्यकता रहता है। बहुत हद तक फ़ैक्टरी उत्पादन के समान स्वाभाविक रूप से मजदूरों को अत्यधिक दबाव में काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। श्रमिकों की विशाल आरक्षित वाहिनी की उपलब्धता उन्हें 10 से 15 दिनों के भीतर बुआई कार्य पूरा करने में सक्षम बनाती है। यह केवल पंजाब के लिए सच है, बल्कि पश्चिम बंगाल जैसे क्षेत्र के लिए (जो बहुत पीछे है) भी यह बात लागू होती है। बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों की उपस्थिति ज़मीन मालिकों को कम मजदूरी दर पर अनुबंध के आधार पर अपना काम करने में सक्षम बनाती है। भूमि मालिकों के बहुत अधिक नियंत्रण में होने और अधिक श्रम समय प्रदान करने के लिए मजबूर होने के कारण, प्रवासी मजदूरों को स्थानीय लोगों की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है। इसलिए, बुआई के मौसम में भी स्थानीय मजदूरों की बेरोजगारी अब बहुत आम बात हो गई है। ऐसी स्थिति को देखते हुए, मजदूरों के पास अपनी मजदूरी बढ़ाने की मांग उठाने का बहुत कम या कोई भी मौका नहीं है। बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों की उपस्थिति मजदूरी दर को स्थिर या कम कर देती है, इसलिए स्थानीय लोगों के साथ प्रतिद्वंद्विता बढ़ती जा रही है। केंद्रीय श्रम मंत्रालय द्वारा 2019-20 में किए गए सर्वेक्षण से पता चलता है कि पंजाब में बेरोजगारी का आश्चर्यजनक आंकड़ा 7.4% है, जबकि राष्ट्रीय औसत 4.8% है।

 

ये है पंजाब में खेतिहर मजदूरों की असली हालत । तीन सर्वेक्षण रिपोर्टों से उनकी दयनीय स्थिति उजागर हुई है। पहला प्रोफेसर अनुपमा (पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला) द्वारा है, जिन्होंने कृषि मजदूरों के बारे में विस्तार से चर्चा की है, दूसरा रणजीत सिंह घुमन, इंद्रजीत सिंह और लखिंदर देव सिंह द्वारा है (पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के अर्थशास्त्र विभाग की ओर से 2007 में एक सर्वेक्षण) और तीसरा भटिंडा क्षेत्र के पंजाब खेत मजदूर यूनियन द्वारा किया गया 2017 का सर्वेक्षण है। इन सर्वेक्षणों के परिणाम नीचे दिए गए हैं ।

 

इंद्रजीत सिंह और दूसरों के निबंधों से पता चलता है कि 2007 में, 51.91% खेतिहर मजदूरों की मासिक पारिवारिक आय 500 रुपये से 1000 रुपये के बीच थी, 38.57% की मासिक आय 1000 रुपये से 1500 रुपये के बीच थी। केवल 9.50% की आय 1500 रुपये से अधिक थी। दैनिक मजदूरी के एक चौंकाने वाले आँकड़े की सूचना मिली थी --- दोआबा से 75.30 रुपये, मालवा से 61.12 रुपये, जहां उच्चतम दैनिक मजदूरी 76.12 रुपये थी। यदि उनके नतीज़े जमीनी हकीकत को दर्शाते हैं, तो कोई भी उनके दयनीय स्थितियों के बारे में सोचकर कांप उठेगा।

प्रोफ़ेसर अनुपमा का मानना ​​है - घृणित निम्न आय मजदूरों को अमीर ऊँची जाति के परिवारों से पैसे उधार लेने के लिए मजबूर करती है। खेतिहर मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा दलित वर्ग का है। वे कई मायनों में अमीर उच्च जाति के परिवारों पर निर्भर हैं ।

 

मानसा के बुढलाडा उपमंडल के गांव राला के सुखपाल सिंह को अपनी दो बेटियों की शादी के लिए पैसे की जरूरत थी। वो चार बेटियों और एक बेटे के पिता हैं, जिन्हें 75,000 रुपये में पूरे एक साल के लिए गांव के जमींदार के साथ काम करने के लिए मजबूर किया। उनका कहना है कि उनके कॉन्ट्रैक्ट में कोई समय सीमा नहीं थी। उन्हें जरुरत के हिसाब से पूरे दिन और रात खेत में काम करना होता था

 

ऐसे मजदूरों की संख्या में बढ़त हुई है और जमींदार कभी-कभी अनुबंध राशि का भुगतान करने से भी बचते हैं। कुछ गैर सरकारी संगठनों की मदद से कई मामले दर्ज किए गए हैं लेकिन उचित दस्तावेजों के अभाव में वे एक भी मामला जीतने में असफल रहे।

 

मजदूरों के मुद्दों पर काम करने वाले मानसा स्थित संगठन 'मजदूर मुक्ति मोर्चा' के स्थानीय कार्यकर्ता भोला सिंह कहते हैं कि यहां के गांवों में गरीब मजदूरों को कर्ज में फंसाना और फिर सस्ती मजदूरी की आड़ में उन्हें वर्षों तक बंधुआ रखना आम बात है।

 

यहां एक अजीब जबरदस्ती की प्रथा की ओर ध्यान आकर्षित किया जा सकता है - मजदूर के मासिक वेतन से ब्याज सहित मूलधन काट लिया जाता है, जब तक कि पूरा ऋण चुका नहीं दिया जाता; हालाँकि इस अवधि के लिए उसे वेतन में कोई वृद्धि किए बिना उसी दर पर काम करना होगा। मजदूरों को इस हद तक निम्न मानव माना जाता है कि उन्हें गेहूं की कटाई के दौरान खेत से पानी पीने के लिए मजबूर किया जाता है। कहने की जरूरत नहीं है, फार्म साइट का पानी पीने योग्य पानी के मानक से बहुत नीचे होने के कारण कई स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं, यहां तक ​​कि यह कैंसर का कारण भी बनता है।

 

इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित एक बहस हेतु एक लेख में बताया गया है कि परंपरागत रूप से अधिकांश खेतिहर मजदूर दलित समुदाय के हैं और वे जाट ज़मीन मालिकों के अधीन काम करते हैं। वे लंबे समय तक एक ही भूमि मालिक के अधीन काम करते हैं, जो एक पारंपरिक किस्म का बधुआ मजदूर है। स्थानीय भाषा में इन्हें साझीस (sajhis) और सिरिस (siris) कहा जाता है।

 

कम से कम यह तो कहा जा सकता है कि खेतिहर मजदूरों का जीवन स्तर खतरनाक है। वे बिना बिजली और पानी के कनेक्शन के कच्चे घरों में रहते हैं। इसके विपरीत, पूंजीवादी किसानों, धनी किसानों और बड़े भुस्वामिओं की आय और मुनाफा लगातार बढ़ रहा है। असमानता दिन--दिन बढ़ती जा रही है।

 

इसमें कोई दो राय नहीं है कि भूमिधारी किसानों की समस्याएं भी बढ़ती जा रही हैं। उनकी उत्पादन लागत बढ़ती जा रही है। बीज, खाद, कीटनाशक, डीजल, बिजली आदि की कीमतें बढ़ रही हैं। यही हाल विभिन्न मशीनों और सबमर्सिबल पंपों की लागत का भी है। कुल मिलाकर उत्पादन लागत बढ़ती जा रही है। समस्या के मूल में राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय बड़े कॉरपोरेट्स और सरकार के बीच का अपवित्र गठजोड़ है। इनपुट लागत में इस बढ़त को स्वीकार करने के बावजूद यह तर्क देने की आवश्यकता है कि इनपुट लागत कम करने के संबंध में अमीर किसानों और बड़े भूमि मालिकों की क्या भूमिका है? बिजली की कीमत कम करने के लिए कुछ छिटपुट और कमजोर मांग उठाई गई है। लेकिन कुल मिलाकर, समस्या की विकरालता के कारण जिस तरह की मांग और आंदोलन की आवश्यकता थी, उसका बुरी तरह अभाव है। वे उत्पादन की लागत को कम करने के लिए कृषि मजदूरों की मजदूरी दर को कम या स्थिर करने और उन्हें अधिक मेहनत करने के लिए मजबूर करने, उनका भरपूर शोषण करने की उसी पुरानी प्रथा का सहारा ले रहे हैं। यह सभी स्थानों के धनी किसानों और बड़े भू-स्वामियों की सामान्य विशेषता है - पंजाब तो इसका दर्पण मात्र है। जैसा कि पहले बताया गया है, हमने सर्वेक्षण रिपोर्टों में यह देखा है। आइए अब हाल की कुछ घटनाओं को याद करें जो इन वर्गों के मजदूर विरोधी चरित्र को मजबूती से सामने लाती हैं।

 

कोरोना महामारी के दौरान, परिवहन की कमी और लॉकडाउन की स्थिति के कारण प्रवासी मजदूर पंजाब नहीं सके। परिणामस्वरूप पंजाब के किसानों को बुआई के समय स्थानीय मजदूरों पर ही निर्भर रहना पड़ा । स्थानीय मजदूरों ने अपेक्षाकृत लाभप्रद स्थिति प्राप्त करते हुए खुद को एकजुट किया और अधिक मजदूरी की मांग की। कई गांवों में मजदूरों की हड़ताल देखी गई। हमले स्वतंत्र रूप से शुरू किए गए थे। पिछले वर्ष प्रवासी मजदूरों द्वारा धान बुआई की दर 2600 रूपये/हेक्टेयर थी। स्थानीय लोगों ने 3500 रुपये प्रति हेक्टेयर की मांग की। भूस्वामियों सहित धनी किसानों ने एकजुट होकर आंदोलन का विरोध किया। धनी किसानों द्वारा नियंत्रित पंचायतें उनके साथ खड़ी थीं। उन्होंने बढ़ी हुई मजदूरी दर की मांग को स्वीकार करने में अपनी अनिच्छा की घोषणा की। उन्होंने यहां तक ​​सख्ती कर दी कि अगर कोई किसान बढ़े हुए रेट पर बोवनी कराएगा तो उसे 50 हजार रुपये जुर्माना देना होगा। जमीन मालिक सिर्फ 200 रुपये प्रति हेक्टेयर रेट बढ़ाने पर राजी हुए । कुछ गांवों में तो झगड़ा मारपीट तक पहुंच गया। पंजाब खेत मजदूर यूनियन के नेता लछमन सिंह सेवेवाला ने मजदूरों की मांग की पुष्टि की। उन्होंने तर्क दिया - ठेकेदार प्रवासी मजदूरों को लंबे समय तक काम करने के लिए मजबूर करते हैं, एक एकड़/दिन में केवल 3 मजदूरों को बुआई करने के लिए मजबूर करते हैं, और मजदूरी को यथासंभव कम रखते हैं। स्थानीय कृषि मजदूरों को एक ही काम के लिए कम से कम 6 से 7 व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। स्वाभाविक रूप से, स्थानीय लोगों के लिए इतनी कम दर पर काम करना असंभव है। उन्होंने मजदूरों की मजदूरी निर्धारित करने की कोशिश में भी पंचायतों की आलोचना की, पंचायत  कभी भी ऐसी भूमिका नहीं निभाई थी।

 

अंततः 55 से 70% किसानों ने मजदूरों की मांग को नजरअंदाज करते हुए डीएसआर (ड्रम बीज) तकनीक अपनाई। लेकिन लगभग 45 लाख एकड़ भूमि में बुआई स्थानीय मजदूरों द्वारा की गयी।

इस घटना ने कुछ सच्चाईयों को उजागर कर दिया। सबसे पहले, अमीर किसानों और ज़मीन  मालिकों ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बड़े कॉर्पोरेटों और सरकार के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी है, लेकिन दूसरी ओर, उन्होंने अपनी विशिष्ट वर्ग स्थिति के कारण अनिवार्य रूप से मजदूर विरोधी भूमिका निभाई  है। दूसरी बात यह है कि आज तक पंजाब के धनी किसानों का तर्क है कि स्थानीय लोगों की अक्षमताओं ने उन्हें प्रवासी मजदूरों को लाने के लिए मजबूर किया है। स्थानीय मजदूरों ने दिखाया कि तर्क कितना अजीब था। प्रवासी मजदूरों को कम वेतन पर काम पर लाने का सच सामने आया। अंततः यह भी स्पष्ट हो गया कि प्रवासी मजदूरों की आमद स्थानीय मजदूरों की मजदूरी दरों की वृद्धि में बाधा बन रही है।

 

अब हम पंजाब के ज़मीन मालिकों और खेतिहर मजदूरों के बीच एक और विरोधाभास पर ध्यान केंद्रित करेंगे। पंजाब के धनी किसान और भूमि मालिक आम तौर पर जाट हैं, जो एक उच्च जाति वर्ग है। खेतिहर मजदूर मुख्य रूप से निचली दलित जाति से आते हैं। पंजाब लगभग 31% दलितों का घर है, जो किसी भी अन्य राज्य की तुलना में बहुत अधिक है। उन्नत कृषि अर्थव्यवस्था को देखते हुए, जिसमें वे भाग लेते हैं, निरंतर जातीय संघर्ष काफी अजीब है। उत्पादन के उन्नत तरीके उन्नत चेतना पैदा करने में विफल रहे हैं। जातिगत संघर्ष ने किस प्रकार वर्ग अंतर्विरोध पर अपनी छाया डाली है, यह हम देख चुके हैं। किसान आंदोलन के सबसे प्रमुख नेताओं में से एक, बीकेयू (उगराहां) के जोगिंदर सिंह उगराहां ने अपना अनुभव इस प्रकार साझा किया है - “जाति और वर्ग संघर्ष का सह-अस्तित्व शासक वर्ग के खिलाफ एक सामान्य एकता बनाने के रास्ते में रहा है। लेकिन हमें हिम्मत हारने की जरूरत नहीं है, हमें कोशिश करनी होगी और इससे लड़ना होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि उनका ऐसा अहसास नवीनतम किसान संघर्ष को नेतृत्व प्रदान करने का परिणाम है।

 

पंजाब के दलितों पर पुराने ज़माने से ही उच्च जाति के जाटों द्वारा विभिन्न प्रकार से अत्याचार और शोषण किया जाता रहा है। पूरी व्यवस्था ने उन्हें समाज के सबसे निचले पायदान पर धकेल दिया है। प्रशासन, पुलिस, कानून अदालतें उनके साथ दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में व्यवहार करती हैं। आज भी वे सरकारी सब्सिडी, राशन से वंचित हैं जिसके वे वैध हकदार हैं। देश में दलित महिलाओं पर अत्याचार भी बढ़ रहे हैं, पंजाब भी इससे अछूता नहीं है।

 

आइए हम एक मीडिया रिपोर्ट से एक भयानक उदाहरण का हवाला देते हैं। मानसा के हसनपुर गांव के खेतिहर मजदूर गुरमेल सिंह को अब भी याद है कि कैसे दो साल पहले उनके मालिक ने उन्हें सिर्फ इसलिए पीटा था क्योंकि वह अपने परिवार में मौत के कारण सिर्फ एक दिन काम पर नहीं आए थे। उनके रिश्तेदार की मृत्यु हो गई और वह अपने गांव से दूर धार्मिक संस्कार करने में शामिल हुए थे दुःख और सदमे की वजह से वो जल्दबाज़ी में निकल गए और अपने भूस्वामी को सूचित नहीं कर पाए यही उनका  'अपराध' था। इतनी सी बात पर उनके भूस्वामी ने उन्हें अपने घर में ले जाकर जमकर पीटा। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि ऐसी सामंती प्रथाएँ पंजाब में अभी भी प्रचलित हैं, वह भूमि जहाँ आधुनिक पूँजीवादी कृषि व्यापक रूप से की जाती है!

 

वर्तमान में ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी (ZPSC) दलितों को उनके वैध और कानूनी अधिकार प्राप्त करने के लिए संगठित कर रही है। उनके एक नेता, गुरमुख सिंह ने एक व्यापक साक्षात्कार में बताया कि कैसे पुलिस के साथ मिलकर गुंडे उनके आंदोलन में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं।

 

गुरमुख सिंह कहते हैं, ''पंजाब में छुआछूत की समस्या नहीं है लेकिन जाति व्यवस्था मौजूद है। आज भी हमारे यहां दलितों के लिए अलग गुरुद्वारे हैं। जब हम दलितों के लिए ज़मीन वापस लेने की कोशिश करते हैं तो जाट लोगों ने हम पर हमला कर देते हैं। आप खुलेआम जमीन की मांग नहीं कर सकते, हमें गुप्त तरीकों का सहारा लेना होगा।

 

पंजाब में दो तरह की ज़मीन है जिस पर दलित क़ानूनी रूप से हक़दार हैं। लेकिन सदियों से जाट दलितों के हक की जमीनों का जबरन उपभोग कर रहे हैं। सरकारी संस्थाएं और न्यायपालिका मूकदर्शक बनी रहती है, सब जाटों से मिले हुए हैं, वे जाट जैसे विकट दुश्मन से कैसे लड़ेंगे।

 

पंजाब में दलितों को दो प्रकार की भूमि का अधिकार प्राप्त है। एक है नजूल भूमि। पंजाब के राजा ने एक कानून पारित किया जिसके द्वारा वह ऐसे परिवारों की ज़मीन हड़प सकता है जिनके कोई संतान नहीं है। हमारी आजादी के दौरान उन जमीनों को अलग रखा गया था। आज़ादी के कुछ समय बाद, उन्हें सहकारी आधार पर खेती करने के लिए दलितों के बीच वितरित किया गया था। लेकिन अंततः जाटों ने उन्हें बलपूर्वक कब्जा में ले लिया। वे आज भी उन नजूल भूमियों का उपभोग कर रहे हैं। ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी (ZPSC) ने इसे पुनः प्राप्त करने का आह्वान किया है।

 

ऊपर बताई गयी जमीनों के अलावा भी पंचायतों के पास जमीनें हैं। उस जमीन के 33 फीसदी हिस्से पर दलितों का हक है। नीलामी प्रक्रिया के माध्यम से उन जमीनों पर केवल दलितों का ही अधिकार है। जाटों ने कानून को ताक पर रखकर उन जमीनों पर कब्जा भी कर लिया है। ZPSC उन जमीनों को वापस पाने का भी प्रयास कर रहा है।

 

सबसे पहले उन्होंने एक या दो गांवों से शुरुआत की। बाद में यह आंदोलन 25 से 30 गांवों तक फैल गया। दलितों के नाम पर जाटों ने नीलामी प्रक्रिया में भाग लिया और दलितों की पहुंच से परे ऊंची कीमतें मांगी और आसानी से उन पर कब्जा कर लिया। ZPSC नामक उक्त संगठन ने एक उदाहरण स्थापित करने के लिए धन जुटाना शुरू किया कि वे जाटों से जमीन छीनने में सक्षम थे। 2014 में, बलदकलां गांव में उन्होंने नीलामी में हिस्सा लिया और कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से जमीन हासिल करने में सफल रहे। इसका गहरा असर हुआ। दलितों ने खुद को संगठित किया, तीसरे साल तक यह आंदोलन लगभग 40 से 45 गांवों तक फैल गया।

 

जाटों ने चुनौती स्वीकार की। वे समझ गए कि दलित संगठित हो रहे हैं। उन्होंने अपने अधिकारों के लिए लड़ना शुरू कर दिया है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो भविष्य में वे केवल अधिक वेतन की मांग करेंगे बल्कि सभी प्रकार के सामाजिक अन्यायों का विरोध करने का प्रयास करेंगे। इसे शुरुआत में ही ख़त्म किया जाना चाहिए और इसलिए वे दलितों पर टूट पड़े।

 

2016 में ज़ुलु गांव एक ऐसी ही घटना का गवाह बना था। जाटों ने दलितों द्वारा वैध रूप से प्राप्त होने योग्य भूमि देने से इनकार कर दिया। उन्होंने दलितों की ज़मीनों पर बुआई शुरू कर दी। दलित विरोध करने में असफल रहे। दलितों ने फसल के समय शुरू किए जाने वाले प्रतिरोध आंदोलन की तैयारी शुरू कर दी। जाटों को पहले ही अंदेशा था और उन्होंने गुंडों, पुलिस और जमींदारों के साथ मिलकर दलितों पर हमला कर दिया। दलितों ने अस्थायी रूप से हमले का शिकार हुए, कई घायल हो गए, एक महिला की मृत्यु हो गई। यह 2016 में हुआ था। हालांकि, दलितों ने पूरी तरह से लड़ाई नहीं छोड़ी। उन्होंने सरकारी कार्यालय में संगठित धरना आंदोलन किया। बीकेयू (उगराहां), कीर्ति किसान यूनियन, बीकेयू (डकौंडा) जैसे कई वामपंथी किसान संगठन आंदोलन में शामिल हुए और बड़ी संख्या में भाग लिया। इसने जातिगत संघर्ष के बदसूरत परिदृश्य को उजागर किया जो पंजाब में अभी भी कायम है।

 

गुरमुख सिंह ने पहले संदर्भित साक्षात्कार में बताया था-“बीकेयू (उग्राहन) का आधार ऊँची जाति के किसानों के बीच है (अन्य किसान संगठन भी इसी प्रकार के हैं) ज़ुलु के जिन किसानों ने दलितों पर हमला किया, वे उनके संगठन का हिस्सा थे। संगठन ने किसानों से मामले को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाने पर जोर दिया, जिसे ऊंची जाति के किसानों ने अस्वीकार कर दिया। उन्होंने उस संगठन को भी छोड़ दिया क्योंकि वह दलितों के लिए खड़ा था और अन्य दक्षिणपंथी संगठनों में शामिल हो गए। समझौते पर पहुंचने के लिए दलित दो शर्तें लेकर आए। एक मांग थी जुर्माने की, दूसरी मांग थी माफ़ी मांगने की। हालांकि किसानों ने जुर्माने की मांग तो स्वीकार कर ली, लेकिन दलितों के सामने माफी मांगने की मांग को सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने माफी मांगने के बदले दंड राशि बढ़ाने की भी पेशकश की। दलितों ने करारा जवाब दिया- हम जुर्माने की मांग छोड़ सकते हैं लेकिन किसानों को माफी मांगनी होगी। गतिरोध अभी भी मौजूद है जब गुरमुख सिंह से बड़े कॉरपोरेट्स के खिलाफ लड़ाई के संबंध में उनकी स्थिति के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने जवाब दिया, “हम आंदोलन के पक्ष में हैं, एक बार हमने दिल्ली सीमा पर धरने में शामिल होने का फैसला किया था। हमने सिंघु बॉर्डर के पास KMP रोड को ब्लॉक करने का भी सोचा। लेकिन हमारे पास वाहनों की कमी है। हमने सदस्यता बढ़ाने की कोशिश की लेकिन असफल रहे। इसलिए हम ZPSC की ओर से सिंघू सीमा पर पहुंचे, लेकिन हमें बोलने और अपनी मांगों को उठाने की अनुमति नहीं दी गई। आख़िरकार हमें कीर्ति किसान यूनियन के लिए आवंटित समय में से बोलने की अनुमति दी गई। यहां तक ​​कि हमें अपने संगठन का नाम लेने से भी रोका गया, यहां तक ​​कि कोई भी हमारे दलित साथियों से बातचीत करने को तैयार नहीं था।'' ज़रा उस जातिगत विरोध के बारे में सोचें जो अभी भी पंजाब के समाज को चिंहित करता है।

 

ZPSC की मांग भूमि स्वामित्व का एक तिहाई हिस्सा दलित भूमिहीन मजदूरों को हस्तांतरित करने की है। शेष 2/3 हिस्सा गरीबों और छोटे किसानों के लिए आवंटित किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा – “हमारा दृढ़ विश्वास है कि भूमिहीन मजदूर केवल गरीब किसानों के साथ ही मित्रता कर सकते हैं। आज वे हमारे साथ गठबंधन कर रहे हैं या नहीं, यह असल सवाल नहीं है। भविष्य में यह गठबंधन अनिवार्य रूप से बनेगा और हमें इसे मूर्त रूप देने के लिए कमर कस लेनी चाहिए। पहले से ही गरीब किसान बड़े किसानों को छोड़कर हमारे साथ विरोध प्रदर्शन में भाग ले रहे हैं। जहां बड़े किसानों द्वारा गरीब किसानों को चरागाह भूमि से वंचित कर दिया गया है, वहीं भूमिहीन मजदूरों ने उनकी मदद के लिए हाथ बढ़ाया है।”

 

इस लेख में हमने जातियों और वर्ग के बीच तीव्र संघर्ष देखा है, जिस तरह से दलित मजदूरों को बेहद कम मजदूरी दर पर काम करने के लिए मजबूर किया जाता है, जिस तरह से उन्हें बंधुआ मजदूर में बदल दिया जाता है, जाटों द्वारा उन पर किए गए अत्याचार, उनकी धनी किसान, पूंजीवादी किसान और बड़े ज़मींदार, किसी से भी एकता को रोकते हैं। किसान आंदोलन में खेतिहर मजदूरों की अनुपस्थिति इस कड़वी सच्चाई का अचूक सबक बनकर खड़ी है।

 

                                   सितम्बर 2022

 

Sources:

1.     “Its time to make Punjab agriculture great again. But how to do so?” by Siraj Hussain

https://thewire.in/agriculture/punjab-agriculture-reforms-roadmap-montek-panel

2.     “Agrarian Crisis and Depeasantisation in Punjab: Status of Small/Marginal Farmers Who Left Agriculture”, by Karam Singh, Sukhpal Singh and H.S. Kingra, http://ageconsearch.umn.edu

3. “A Longitudinal Study of Three Decades : Punjab’s Agricultural Labourers in Transition”, by Sukhpal Singh / Shruti Bhogal, EPW, 07 July, 2020

4. The Punjab state farmers commission, Government of Punjab, SAS, Nov 2007

5. “The Agrarian crisis in Punjab and making of Anti farm law protests”, by Shreya Sinha https://www.theindiaforum.in/article/agrarian-crisis-punjab-and-making-anti-farm-law-protests

6. “Punjab: What the Rift Between Farmers and Workers Over Wages Tells Us About Agrarian Distress”, by Pawanjot Kaur https://thewire.in/agriculture/agriculture-labour-wages-worker-farmer-unity-protests

7. An interview with ZPSC’s Gurmukh Singh –the war is won in the farmers struggle, the struggle goes on—Edesh Amar Publication

8. Survey Report, Punjab Khet Mazdoor Union, 2017

9. Observation of Punjab Khet Mazdoor Union, Bhatinda Unit

10. “How Punjab dalit labourers are trapped to live bonded life”, Vivek Gupta, https://thewire.in/labour/how-punjabs-dalit-labourers-are-trapped-to-live-a-bonded-life

11. “Agriculture labourers in Punjab : Struggling for survival”, CPIML liberation report, 2009 https://cpiml.net/liberation/2009/07/agricultural-labourers-punjab-struggling-survival