Saturday, April 16, 2022

क्या दर्शा रहे है विधानसभा चुनाव का नतीजा?

 

कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश और पंजाब समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं। चुनाव जीतने के बाद आम आदमी पार्टी ने पंजाब में और उत्तर प्रदेश समेत बाकी चार राज्यों में बीजेपी ने सरकारें बना ली हैं। पंजाब में मतदान अप्रत्याशित तो था ही, उत्तर प्रदेश में भी बीजेपी के पक्ष में इतना मतदान की उम्मीद नहीं थी। पंजाब में वोटिंग विशेषज्ञों को झूठा साबित करते हुए सरकार बनाने की दावा करने वाली दो पार्टियां कांग्रेस और अकाली दल ने आम आदमी पार्टी की लहर में बह गए हैं। उत्तर प्रदेश में भी चुनाव प्रचार के दौरान मीडिया ने भविष्यवाणी की थी कि बीजेपी और सपा गठबंधन के बीच इस चुनाव में काटें के टक्कर होगी। यहां तक ​​कि कुछ पत्रकारों, जिन पर सपा के प्रति पक्षपाती होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता, उन्होंने भी सपा के जीतने की स्पष्ट संभावना देखी। लेकिन वैसा नहीं हुआ। हालांकि पिछली बार की तुलना में सीटों की संख्या में कमी आई है, लेकिन बीजेपी पर्याप्त बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब रही है। यहां तक ​​कि वे अपने पक्ष में मतदान भी बढ़ाने में सफल रहे हैं। अन्य तीन राज्यों में बहुमत वाली भाजपा को सरकार बनाने में कोई कठिनाई नहीं हुई।

बार-बार दोहराए जाने पर भी शुरुआत में एक सच्चाई का उल्लेख करना आवश्यक है। क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग के अग्रणी प्रतिनिधि के रूप में, हम वर्ग संघर्ष के विकास में रुचि रखते हैं। बुर्जुआ संसदीय व्यवस्था में मजदूर और किसान सहित मेहनतकश लोग इस व्यवस्था में ही थोड़ा बेहतर रहने की सोच से चुनाव में भाग लेते हैं। मौजूदा शोषक व्यवस्था से मुक्ति की रास्ता तलाशने की मकसद से उनका मतदान संचालित नहीं होता है। और अब जब मजदूर वर्ग की पार्टी अनुपस्थित है, जब वर्ग-सचेत मजदूरों की वाहिनी वास्तव में नहीं है या बहुत ही छोटी, कमजोर है, वैसे स्थिति में किसान और अन्य मेहनतकश लोग, यहाँ तक कि मजदूर भी, उनके अपनी वर्गीय भावना या प्रवृत्ति से मतदान में भाग नहीं लेते हैं। अक्सर मजदूर की पहचान से अधिक उनकी धार्मिक, सांप्रदायिक या जातिगत पहचान बढ़-चढ़कर सामने आ जाती है। वे किसको वोट देंगे यह इन पहचानों से निर्धारित होता है। इसलिए ऐसे स्थिति में चुनावों के परिणामों के माध्यम से मजदूरों की वर्ग चेतना का व्यक्त होना लगभग असंभव तो है ही, यहां तक ​​कि इस व्यवस्था के खिलाफ उनके स्वतःस्फूर्त विरोध भी विभिन्न बुर्जुआ विचार तले दबा रह जाता है। नतीजतन, इस चुनाव के परिणामों से मेहनतकश लोगों की वास्तविक वर्ग आकांक्षाओं का व्यक्त होने की संभावना तलाशना भूल होगी। फिर भी, चूंकि ये बुर्जुआ चुनाव एक राजनीतिक संघर्ष है जिसमें कुल मिलाकर मेहनतकश लोग अपनी स्वतंत्र सोच के आधार पर भाग लेते हैं, इसलिए इस वोट के माध्यम से उनके ऊपर जो भी सोच की प्रभाव है उसकी अभिव्यक्ति प्रकट होती है। साथ ही, चुनावी प्रचार के माध्यम से विभिन्न प्रतिद्वन्दी बुर्जुआ पार्टियों की नीतियों का कुछ संकेत मिलता है।

चुनाव प्रचार के दौरान, विभिन्न मीडिया की रिपोर्ट के जरिये उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के खिलाफ व्यापक विरोध की सुचना मिली थी। कोरोना अतिमारी की दूसरी लहर के दौरान, लोगों को चिकित्सा देखभाल प्रदान करने में विफलता को लेकर असंतोष था। बेरोजगारी और मूल्य वृद्धि जैसी दैनिक समस्याओं में सरकार की किसी भी सक्रिय भूमिका की कमी को लेकर लोगों द्वारा विरोध प्रदर्शन किया गया था। इसके अलावा, हालांकि शुरुआत में नहीं, लेकिन बाद में किसान आंदोलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी अच्छी तरह से फैल गया। विभिन्न क्षेत्रों में विशाल महापंचायतें हुई थीं। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों से पैदा हुआ हिंदू-मुस्लिम विभाजन से एक हद तक बाहर आकर हिंदु और मुसलमान दोनों समुदायों के किसानों ने मिलकर समान रूप से भाजपा सरकार के खिलाफ संगठित हो गए। फिर भी इन सबके बावजूद, बीजेपी ने न केवल जीती है, बल्कि 2017 के विधानसभा चुनावों की तुलना में सीटों की संख्या कम होने पर भी (312 से 255), उसका प्राप्त वोट का हिस्सा 39.7% से बढ़कर 41.3% हो गया है। अतः सवाल यह है कि इसके पीछे  वजह क्या है?

उत्तर प्रदेश की व्याप्त क्षेत्रों की ज़मीनी हकीकत समझने लायक किसी भी मजदूर वर्ग के संगठन के अभाव में मेहनतकशों की सोच की गतिशील प्रकृति को समझना मुश्किल है। केवल मीडिया रिपोर्टों के आधार पर सही निर्णय लेना बहुत कठिन है। हालांकि, उत्तर प्रदेश की राजनीति के पिछले इतिहास की निरंतरता में, भाजपा की जीत के पीछे कई कारकों की पहचान करना संभव लगता है।

पहला, हालांकि चुनाव प्रचार के दौरान बहुत स्पष्ट रूप से सामने नहीं आया, फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं है कि चरमपंथी हिंदुत्व की राजनीति ने भाजपा की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बीजेपी व संघ परिवार पिछले कुछ दशकों में पूरे भारत में और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में चरमपंथी हिंदुत्व की राजनीति के माध्यम से जिस हद तक सांप्रदायिक विभाजन करने में सक्षम हुए है उसका इस चुनाव पर भी बड़ा प्रभाव पड़ा है। गौरतलब है कि बाबरी मस्जिद की विवादित जमीन को राम जन्मभूमि मंदिर के लिए इसी सरकार के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से दी गई थी। भाजपा ने स्वाभाविक रूप से राम जन्मभूमि मंदिर के फैसले और उसके बाद के निर्माण को अपनी केंद्र और राज्य सरकारों के लिए एक बड़ी जीत बताया है। शायद यह समझना मुश्किल नहीं है कि इसका बहुत बड़ा असर होगा, खासकर उत्तर प्रदेश के हिंदू समुदाय के बीच। चुनाव के बाद विभिन्न समीक्षा से पता चला है कि भाजपा जनता में एक स्पष्ट विभाजन बनाने में कामयाब रही है और हिंदू मतदाताओं के एक बड़े तबके को जरुर आकर्षित किया है।

सवाल उठ सकता है कि यह सांप्रदायिक विभाजन कोई नई घटना नहीं है। राम जन्मभूमि मंदिर के शिलान्यास के समय से ही यह तीखा रूप लेने लगा। हालांकि तब भी इसके पश्चात कई सालों तक बीजेपी को विपक्ष के सीट पर हीं मजबूरन बैठना पड़ा। जब बीजेपी उस दौरान  बंटवारे की राजनीति करके सत्ता हांसिल नहीं कर पाए  तब आज वो कैसे संभव हो पा रही है? याद रहेगा की कि उस समय के चुनावों में भाजपा साम्प्रदायिक राजनीति का पूरा फायदा न उठा पाने का एक बड़ा कारण यह था कि उस समय भाजपा को पिछड़े वर्ग और दलित लोगों का वोट नहीं मिला था। हालांकि 2014 के बाद से एक बदलाव आना शुरू हो गया है। बसपा का दलित आधार आम तौर पे जाटव जाति में है। उस जाति को छोड़कर अन्य दलित जाती की संगठनों को भाजपा अपनी ओर आकर्षित करना शुरू किया था। इस बार भी देखा जा रहा है कि दलितों का एक बड़ा तबका बीजेपी के पक्ष  में चला गया है। मायावती का बसपा का वोट शेयर और उन्हें जितनी सीटें मिली हैं, वह पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में भी कम हो गया है। जहां 2017 में बसपा को 22.23% वोट मिले थे, वहीं इस चुनाव में बसपा को 12.88% वोट ही मिले हैं। दूसरे शब्दों में, बसपा को मिले वोटों के हिस्से में करीब 10 फीसदी की कमी आई है। बसपा की सीटों की संख्या 19 से घटकर 1 हो गई है। चुनाव के बाद के समीक्षाओं से भी पता चला है कि वोट का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के पक्ष में गया। नहीं तो बीजेपी के वोट में बढ़ोतरी की व्याख्या नहीं की जा सकती है।

भाजपा ने दलित लोगों के एक तबका का वोट कैसे जीता? पिछले कुछ चुनावों में यह देखा गया है कि सपा या बसपा जैसी पार्टी केवल जातिगत विवादों और बंटवारे के आधार पर निचली जाति के लोगों का वोट नहीं जीत पाती। उनके जीवन के विकास का सवाल इस हिस्से के लोगों के लिए महत्वपूर्ण होता जा रहा है, जहां वे देखते हैं कि सपा या बसपा सरकार के तहत भी उनके जीवन में सुधार नहीं हुआ है, यहां तक ​​कि जातिगत  उत्पीड़न का अंत भी नहीं हुआ है। इसके विपरीत बसपा ने अपने शासन काल में ब्राह्मणों के साथ गठबंधन किया था। इन घटनाओं और दूसरी ओर मोदी के 'विकास', 'अच्छे दिन' के नारों ने उन्हें भाजपा की ओर आकर्षित किया। इस चुनाव में भी, विभिन्न जनमत सर्वेक्षणों से पता चला है कि दलित लोगों के वोटों को भाजपा की ओर आकर्षित करने में 'विकास' के नाम पर गरीबों को, जिसमें दलित समुदाय एक बड़ा हिस्सा है, कुछ राहत देने का कार्यक्रम एक प्रमुख कारक रहा है। अधिकांश दलित लोग बेहद गरीब हैं। गरीब और विशेष रूप से दलित होने के कारण, राशन में चावल, आटा, मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन, आवास योजना के तहत घर आदि कराने के सरकार की कार्यक्रम ने उत्तर प्रदेश के इस हिस्से के लोगों को भाजपा की ओर आकर्षित करने में बड़ी भूमिका निभाई है।

वास्तव में, पिछले कुछ चुनावों ने दिखाया है कि लगभग हर राजनीतिक दल गरीब से गरीब जनता को आकर्षित करने के लिए इस तरह के राहत कार्यक्रम का वादा कर रहा है। वोट जीतने के लिए ये कार्यक्रम तेजी से महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं, खासकर गरीबों के लिए। पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के मामले में भी, हमने देखा है कि स्वास्थ्य-साथी, भोजन-साथी आदि के नाम पर इस तरह का राहत कार्यक्रम जमीनी स्तर की जीत के पीछे एक महत्वपूर्ण कारक बन गया। क्या यह सरकारी राहत गरीब लोगों की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम है? बिल्कुल भी नहीं। क्या सरकार वास्तव में उन्हें यह सरकारी राहत देकर उनके ज़रुरत से ज्यादा भरपाई कर पा रही है? बिल्कुल भी नहीं। अपना श्रम से बने सामानों के मामले में प्रत्यक्ष रूप से और परोक्ष रूप से आवश्यक वस्तुओं के कीमतों में वृद्धि के माध्यम से थोपे गए करों के तहत गरीब कामकाजी लोगों का जो शोषण चल रही है, उसकी तुलना में सरकारी राहत की राशि बहुत ही कम है। कहने का तात्पर्य यह है की  सरकारें गरीबों से हड़पे गए तमाम सम्पदा का एक बहुत छोटा सा हिस्सा ही उन्हें वापस देकर खुद को 'मसीहा' के रूप में दर्शा रही हैं। हालांकि, संघर्ष के अभाव में यह छलावा गरीब लोगों को  समझ में नहीं आ रहा है। अधिकार की भावना की कमी के कारण, यह थोड़ी सी राहत ही उनके लिए बड़ी प्रतीत होती जा रही है। इतना ही नहीं, जिस पार्टी की मदद से उन्हें यह राहत मिल रही है, उसे गरीबों का 'मसीहा' बनाया जा रहा हैं और उनके हीं पक्ष में जनता खड़े हो रहे हैं। दरअसल केवल उनका संघर्ष ही उनके अधिकार की भावना की सीमा को बढ़ा सकता है जो स्पष्ट रूप से उनके ऊपर चलने वाली शोषण की राज को उनकी चेतना में ला सकता है। कम से कम तब तक संसदीय राजनीतिक दल व्यापक पिछड़े जनता को राहत देने की इस कार्यक्रम में लपेट कर रखने की अपनी राजनीति जारी रखेंगे, जब तक कि यह कार्यक्रम बड़े पूंजीपतियों के हिफाज़त करने वाली अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा खतरा न बन जाए। और इस तरह वे जनता के साथ धोखाधरी करते जाएंगे।

आभासी तौर पर यह लग सकता है कि इस चुनाव में पिछले किसान आंदोलन का कोई खास असर होता नहीं दिख रहा था। उत्तर प्रदेश में क्या असर दिखा? मुजफ्फरनगर के आसपास गन्ने की खेती के क्षेत्र को छोड़कर, जो सरासर किसान आंदोलन से जुड़ा हुआ था, भाजपा ने पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अच्छा प्रदर्शन किया है। पंजाब में 32 किसान संगठनों में से 22 संगठनों ने संयुक्त संघर्ष मोर्चा के नाम से चुनाव में उम्मीदवार उतारे। वहां 94 में से 93 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई है। ऐसा क्यों हुआ? तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने के मोदी सरकार के फैसले से निश्चित तौर पर बीजेपी को काफी मदद मिली है। अगर उत्तर प्रदेश की चुनाव में किसान आंदोलन की उल्टा असर को अंदाजा लगाकर कृषि कानूनों को रद्द नहीं किया गया होता और अगर चुनाव के दौरान किसानों का धरना जारी रहता और केंद्र सरकार सहित हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारों के साथ हर दिन का टकराव जारी रहतीं तो भाजपा बड़ी मुसीबत में पड़ जाती। इसका उपरांत भी ऐसा नहीं है कि किसान आंदोलन का कोई असर नहीं हुआ। मुजफ्फरनगर के आसपास के इलाकों में बीजेपी के नतीजे अच्छे नहीं रहे। 2013 के दंगों के आयोजन में अहम भूमिका निभाने वाले भाजपा के तीन विधायक संगीत सोम, उमेश मालिक और सुरेश राणा सभी हार गए हैं। मुजफ्फरनगर, बागपत और शामली में भाजपा ने पिछले चुनावों में 10 सीटें जीती थी। इस बार 12 में से सिर्फ 4 सीटों पर जीत हासिल की है। मेरठ में इस बार बीजेपी ने 7 में से 3 में जीत हासिल की है, पिछले बार 7 में से 6 सीट पर जीत हासिल की थी। अतः यह समझा जा सकता है कि किसान आंदोलन के माध्यम से सामने आने वाली हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रभाव अभी भी सीमित है। यह भाजपा और संघ परिवार की हिंदुत्व की राजनीति को हराने के लिए काफी नहीं है। यह उग्रवादी हिंदुत्व की राजनीति को तब तक हरा नहीं पाएगा जब तक कि वर्ग संघर्ष के विकास के माध्यम से मजदूर वर्ग की वर्गीय चेतना से लैस वाहिनी का निर्माण नहीं हो जाता और उसके नेतृत्व में मेहनतकश लोगों की एकता का निर्माण नहीं हो जाता।

अंत में, भाजपा की जीत के पीछे के कारणों को पूरी तरह से तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि दो और कारणों का उल्लेख नहीं किया जाता है। पहला है  नरेंद्र मोदी के प्रति आकर्षण। मोदी ने 2014 में 'अच्छे दिन' का नारा लगाकर आम लोगों में झूठी उम्मीद जगाकर जो पागलपन पैदा किया था, वह पिछले 6-7 सालों के अनुभव में काफी कमजोर हो गया है। हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मोदी में आकर्षण अभी भी है और यह इस चुनाव में भी दिखाई दिया है।

दूसरा कारण यह है कि संसदीय राजनीति के क्षेत्र में भाजपा का कोई विकल्प नहीं है। लोगों को अन्य संसदीय विपक्षी राजनीतिक दल की सरकार का भी काफी अनुभव है। उनका भ्रष्टाचार, बाहुबली नीति, बेईमानी, और सबसे बढ़कर जनविरोधी नीतियां भाजपा की ओर आकर्षित होने का एक बड़ा कारण हैं। इसलिए बीजेपी के खिलाफ भले ही जनता का विरोध बढ़ गया हो, लेकिन जनता हर जगह इन सभी पार्टियों के पक्ष में नहीं जा रही है। एक हद तक इसका भी झलक उत्तर प्रदेश चुनाव में देखने को मिला। हालांकि, यह ज्यादातर पंजाब चुनाव में देखा गया। पंजाब में आप का उदय ने कांग्रेस और अकाली दल को पछाड़ दिया और दिखाया कि लोग विपक्षी राजनीतिक दलों पर भरोसा नहीं कर सकते। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि विभिन्न राज्यों में इन क्षेत्रीय दलों के भाजपा के विकल्प बनने की संभावना बिलकुल ही समाप्त हो गया है। उन सभी राज्यों में जहां भाजपा की सरकार है, वहां भी भाजपा का जनविरोधी नीति अनिवार्य रूप से लोगों के बीच विरोध को जन्म देगी और वे विरोध संसदीय राजनीति में इन विपक्षी दलों के इर्द-गिर्द घूमेंगे।

चुनाव में बीजेपी की जीत के पीछे यही वजह है। लेकिन, इसका परिणाम क्या हैं? इस जीत ने स्वाभाविक रूप से भाजपा का मनोबल बढ़ाया है। इसका परिणाम यह होगा कि आने वाले दिनों में भाजपा और संघ परिवार अपने उग्र हिंदुत्व की राजनीति को और मजबूती से उठाएंगे। मतदान के परिणाम के तुरंत बाद दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। एक, कर्नाटक हिजाब विवाद में, उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि सरकार का फैसला सही था। मतलब कर्नाटक में मुस्लिम छात्र स्कूल और कॉलेज में हिजाब नहीं पहन पाएंगे। दूसरा, उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय ने मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि मंदिर से सटे ईदगाह को स्थानांतरित करने का मामला उठाया है। इसमें कोई शक नहीं कि ये सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ाने और मुस्लिम समुदाय पर विभिन्न तरीकों से दबाव बनाने में भाजपा के औजार होंगे। इसका प्रमाण भाजपा शासित राज्य में देखा जा सकता है। कर्नाटक में हलाल मांस की बिक्री और मंदिर के आसपास मुस्लिम व्यापारियों के व्यापार को अवैध बताया जा रहा है, जिससे मुस्लिम व्यापारियों की जान खतरे में पड़ जाएगी। दिल्ली में कई नगर पालिकाओं ने नवरात्रि के बहाने सभी मछली और मांस की दुकानों को एक हफ्ते के लिए बंद करने का आदेश दिया है। रामनवमी के दिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रावास के मेस हॉल में एबीवीपी के गुंडों ने जबरन मांसाहारी खाना बंद करा दिया और इसे लेकर जमकर मारपीट हुई। हालांकि सबसे खराब स्थिति मध्य प्रदेश की रही। मुसलमानों को एक शहर में रामनवमी जुलूस पर दंगा करने के लिए दोषी ठहराया गया है, और संपत्ति के नुकसान के मुआवजे की मांग के बहाने कई मुस्लिम घरों को बुलडोजर से दहा दिया गया है। भाजपा और संघ परिवार के इस उग्र हिंदुत्व की आक्रामक राजनीति का मकसद न केवल चुनाव जीतने के लिए हिंदू जनता को एकजुट करना है, इसका वास्तविक मकसद हिंदू राष्ट्र बनाना है, जो अब संसदीय पथ पर ही आगे बढ़ रही है। एक शब्द में कहें तो भाजपा और आरएसएस का फासीवादी अभियान जोरदार तरीके से जारी रहेगा।

 दूसरी ओर संसदीय राजनीति के क्षेत्र में बीजेपी अपनी ताकत बढ़ा रही है। बड़े पूंजीपति भी इस वजह से उत्साहित हैं क्योंकि मोदी और भाजपा सरकारों के लिए जनता पर आर्थिक सुधारों के हमले को उतारना और आसान होगा। इसलिए इस चुनाव के बाद मीडिया में बड़े पूंजीपतियों के प्रवक्ता मोदी को अपने सुधार कार्यक्रम को तेज करने की सलाह दे रहे हैं। मज़दूरों और गरीबों पर सरकार और सत्ताधारी पूंजीपतियों के हमले बढ़ते जा रहे हैं और आने वाले दिनों में और तेज़ होंगे। यह हमला  मजदूर और आम लोगों के बीच विरोध को तेज करेगा और उनके बीच मोदी के प्रति जो मोह बचा है उसे तोड़ने में मदद करेगा। संघर्ष की कमी के कारण यह प्रक्रिया बहुत धीमी है, लेकिन आने वाले दिनों में अगर यह तेज गति लेती है तो मजदूर वर्ग में नए रास्ते तलाशने की चाहत भी बढ़ेगी। लिहाज़ा, एक ओर भारतीय राजनीति का दक्षिणपंथ की ओर झुकाव जैसे-जैसे मजबूत होता जाता है, वैसे-वैसे मजदूर व मेहनतकश लोगों के बीच एक नए संघर्ष की संभावना भी पैदा होगी।

यह दोहराना अप्रासंगिक नहीं होगा कि चुनावों में भाजपा की जीत का मतलब यह नहीं है कि मजदूर वर्ग व जनता में असंतोष संघर्ष के माध्यम से प्रकट नहीं होगा। बल्कि उसकी संभावना बढ़ जाएगी। हालांकि, हार के प्रभावों पर काबू पाकर मजदूरों के अग्रणी दस्ते की संगठित होने के साथ मजदूर वर्ग का संघर्ष के विकास की संभावना जुड़े हुए है। इसके अलावा, शासक वर्ग की बढ़ती आक्रामकता से मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता में स्वतःस्फूर्त प्रतिरोध की संभावना भी बढ़ जाएगी। पश्चिम बंगाल जैसे उत्तर प्रदेश में भी 'नो वोट टू बीजेपी’ यानी ‘भाजपा को वोट न दें' के नारे के साथ जो लोग कुछ संगठनों को एकजुट करके फासीवादी भाजपा को हराने का सपना देखने वाले थे उनको यह महसूस करना चाहिए कि शासक वर्ग के हमले का मुकाबला करने का असली राह वर्ग संघर्ष की मैदान पर ही है।

 

Wednesday, March 16, 2022

रूस-यूक्रेनी युद्ध और साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच शत्रुता का नया चरण

   

क्या रूस-यूक्रेन युद्ध महज एक क्षेत्रीय संघर्ष है?  नहीं। यह युद्ध दुनिया को आपस में बांटने के उद्देश्य से साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच बढ़ते अंतर्विरोध की एक क्षेत्रीय अभिव्यक्ति है। यह युद्ध खास तौर पर, वर्चस्व के लिए रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं के परिणामस्वरूप हुआ। इन साम्राज्यवादियों के स्वार्थों की लड़ाई की कीमत चुकानी पड़ रही है यूक्रेन के सामान्य, निर्दोष लोगों को, जो आज एक भयानक युद्ध की तबाही के शिकार हैं।

इसमें कोई शक नहीं है कि इस युद्ध में रूस हमलावर है। यूक्रेन के शासकों ने जो भी किया हों, किसी भी देश को किसी अन्य स्वतंत्र, संप्रभु देश पर कब्जा करने के लिए इस तरह के आक्रामक युद्ध छेड़ने का अधिकार नहीं है। हालांकि, आज, पश्चिमी यूरोप में एंग्लो-अमेरिकी साम्राज्यवादी और अन्य साम्राज्यवादी शक्तियां, जो यूक्रेन के लिए आंसू बहा रहे हैं, रूस के खिलाफ युद्ध में यूक्रेन की स्वतंत्रता की रक्षा के नाम पर यूक्रेन को हथियार उपलब्ध कराकर मदद कर रहे हैं, उनके हित-स्वार्थ भी हमारे लिए अज्ञात नहीं हैं। उपनिवेशवाद के इतिहास या पिछली सदी के पूर्वार्द्ध के दो विश्व युद्धों सहित अनगिनत युद्धों के इतिहास का बात छोड़ ही दी जाए, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ ही समय पहले, इराक और अफगानिस्तान की जनता पर संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों द्वारा उनके प्राकृतिक संसाधनों पर अंधाधुंध तरीके से हावी होने और लूटने के लिए बेरहमी से आक्रमण किया गया था। क्यूबा, चिली, बोलीविया से लेकर इराक-अफगानिस्तान तक, अनेक देशों को अपने कब्जे में रखने के लिए जिन्होंने साजिश रचने से लेकर खुली आक्रामकता को अंजाम दिया है, आज जब वे यूक्रेन पर रूस के आक्रमण का विरोध करते हैं, तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह उनके अपने स्वार्थ में है। नैतिकता, मानवता, लोकतंत्र, ये सभी साम्राज्यवादी देशों सहित हर देश के शासक वर्ग के लिए महज बहाने हैं। वे सभी अपने ही देश की पूंजीपति वर्ग के भू-राजनीतिक हितों के नजरिये से इस युद्ध को देख रहे है और उसी के अनुसार कार्य कर रहे हैं।

विभिन्न समाचार माध्यम इस बात को फैलाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह युद्ध पुतिन की मनमानी, साम्राज्य का विस्तार करने के लिए उस की अनुचित, अन्यायपूर्ण महत्वाकांक्षाओं का परिणाम है। लेकिन कितनी भी निरंकुश और तानाशाही शक्ति किसी एक व्यक्ति के पास क्यों न हो, क्या कभी सिर्फ एक व्यक्ति की इच्छा से ही इतना बड़ा युद्ध लड़ा जा सकता है? हरगिज नहीं। किसी एक पूंजीवादी देश का कोई भी शासक अपने निजी हित में या सत्ताधारी दल के हित में इतना महत्वपूर्ण निर्णय नहीं ले सकता है। देश के पूंजीपति वर्ग या उसके किसी हिस्से का वर्ग हित इसके पीछे काम करता है। उसी तरह, रूस और यूक्रेन के बीच इस टकराव का कारण इन दोनों देशों के शासक पूंजीपतियों के स्वार्थ में हैं। और आगे हम देखेंगे कि इसके पीछे न केवल इन दोनों देशों के शासक वर्ग के हित हैं, बल्कि दुनिया के बड़े बड़े साम्राज्यवादी देशों के भी स्वार्थ हैं। क्योंकि, वर्तमान दुनिया में पूंजीवाद एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था है, जिसकी श्रृंखला में प्रत्येक देश की पूंजीवादी व्यवस्था और शासक वर्ग जुड़े हुए हैं, जहां पूरा न भी, फिर भी ज्यादातर कठपुतली जैसे अदृश्य धागे से बंधे है जिनका नियंत्रण साम्राज्यवादी पूँजी के  हाथों में है।

यूक्रेन के साथ रूस के युद्ध के हालात वर्ष 2014 से ही चल रहे हैं। हालांकि इससे भी करीब ढाई दशक पहले के इतिहास में भी उस विरोध की जड़े है। 1990 के दशक की शुरुआत में सोवियत संघ के पतन और इसके विघटन के साथ यूक्रेन एक स्वतंत्र देश के रूप में पैदा हुआ था। सोवियत संघ के पतन के बाद से, संयुक्त राज्य अमेरिका ने पूर्व सोवियत ब्लॉक के विभिन्न देशों और यहां तक कि पूर्व सोवियत संघ के घटक देशों को भी अपने अधीन लाने के प्रयास शुरू कर दिए थे। 1999 से लेकर अलग अलग समय पर कई देश अमेरिका के नेतृत्व वाले सैन्य गठबंधन नाटो (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) में शामिल हुए हैं। इनमें चेक गणराज्य, हंगरी, पोलैंड, बुल्गारिया, रोमानिया जैसे पूर्व सोवियत ब्लॉक के कई देश शामिल हैं। इसके अलावा, एस्टोनिया, लाटविया और लिथुआनिया जैसे पूर्वतन सोवियत संघ के घातक देश भी नाटो में शामिल हुए हैं। पहले रूस की आर्थिक और सैन्य स्थिति इतनी कमजोर थी कि वह नाटो के माध्यम से अमेरिकी प्रभुत्व के प्रसार को रोक नहीं सका। उस दौर में ही, यूक्रेन के नाटो में शामिल होने पर कई बार चर्चा सामने आई है। और रूस ने हमेशा इसका विरोध किया है। रूसी शासक वर्ग ने तर्क दिया कि यूक्रेन एक अलग राष्ट्र नहीं है, बल्कि रूसी राष्ट्रीयता का हिस्सा था। इस तरह के रूसी चरमपंथी राष्ट्रवाद का प्रभाव रूसी जनता के एक बड़े हिस्से में हैं जिसका उपयोग रूसी शासक वर्ग करता है। दरअसल यूक्रेन की भौगोलिक या कहना चाहिए भू-रणनीतिक / भू-सामरिक स्थिति ऐसी है कि यूक्रेन के नाटो में शामिल होने का मतलब है कि अमेरिकी आधिपत्य/प्रभुत्व रूस के दरवाजे तक पहुँच जाना। अब तक नाटो में शामिल सभी पूर्वी यूरोपीय देशों में उपस्थित नाटो के सैन्य बलों ने  वास्तव में रूस को घेर रखा है। रूस की सीमा से सटे हुए अब महज तीन ही देश  बेलारूस, जॉर्जिया और यूक्रेन इससे बचे हुए है। इन देशों पर भी अमेरिका अपना वर्चस्व  विस्तार करने की कोशिश कर रहा है। यूक्रेन के नाटो में शामिल होने से इस क्षेत्र में अमेरिकी साम्राज्यवाद का दबदबा परिपूर्ण हो जाएगा।

अपने भू-रणनीतिक महत्व के अलावा, यूक्रेन का आर्थिक महत्व भी है, खासकर अपने प्राकृतिक संसाधनों के कारण। हालाँकि, यूरोपीय अर्थव्यवस्था के लिए भी यूक्रेन का एक विशेष महत्व है। वह है यूक्रेन के भीतर से एक पाइपलाइन के माध्यम से पश्चिमी यूरोप को रूसी गैस की आपूर्ति होती है। पश्चिमी यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था रूसी गैस पर निर्भर करती है। साथ साथ इस पाइपलाइन के जरिए यूक्रेन को रूस से बड़ी रकम भी मिलती है।

आरंभ में जब पूर्वी यूरोप में अमेरिकी साम्राज्यवाद नाटो का विस्तार कर रहा था, उस दौरान रूस अपनी कमजोरी के कारण इसे रोक नहीं सका। वह मौखिक या कूटनीतिक कार्रवाई के अलावा कुछ नहीं कर सकता था। हालांकि, धीरे-धीरे, रूस ने अपनी कमजोरियों पर काबू पा लिया और आर्थिक एवं सैन्य रूप से अपने आप को मजबूत करना शुरू कर दिया। तब से, रूसी साम्राज्यवाद इस अमेरिकी विस्तारवादी प्रयास को सैन्य रूप से विफल करने की कोशिश कर रहा है। इसका एक उदाहरण 2008 का रूस-जॉर्जिया युद्ध है। नाटो के वर्ष 2008 के बुखारेस्ट शिखर सम्मेलन में, नाटो ने जॉर्जिया और यूक्रेन को जोड़ने की योजना की घोषणा की। इसके छह महीने बाद ही रूस ने जॉर्जिया पर हमला किया। जॉर्जिया के मामले में भी, रूस ने वहां के दो क्षेत्रों की जनता का जॉर्जिया के शासक वर्ग के खिलाफ विद्रोह का इस्तेमाल किया है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि रूसी शासक वर्ग हमेशा से यूक्रेन पर कब्जा करना चाहता है और इसके लिए वे यूक्रेन में अपने आज्ञाकारी लोगों को स्थापित करना चाहते हैं। लेकिन क्या सिर्फ रूस ही अपने आज्ञाकारी लोगों को सत्ता में लाना चाहता है? क्या अमेरिका ऐसा नहीं चाहता है ? अमेरिका भी चाहता है। 2014 में, रूस समर्थक यूक्रेनी राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को एक बड़े विरोध के जरिए सत्ता से गिरा दिया गया था। कई लोगों का मानना है कि उस परिवर्तन में संयुक्त राज्य अमेरिका की महत्वपूर्ण भूमिका थी। तत्कालीन अमेरिकी सहायक विदेश मंत्री विक्टोरिया नुलैंड और यूक्रेन में अमेरिकी राजदूत के बीच फोन पर हुई बातचीत की रिकॉर्डिंग से यह सबूत मिला है कि यूक्रेन में सत्ता में कौन होगा, यह तय करने में अमेरिका सीधे तौर पर शामिल था।

दूसरी ओर, 2014 में, रूस ने भी यूक्रेन पर अपना प्रभुत्व बढ़ाना शुरू कर दिया। एक ओर, रूस ने रूसी बहुसंख्यक द्वीप क्रीमिया पर कब्जा कर लिया, और दूसरी ओर, पूर्वी यूक्रेन के रूसी-बहुसंख्यक क्षेत्रों में यूक्रेन-विरोधी विद्रोह की सीधे सहायता करना शुरू कर दिया। तब से, पूर्वी यूक्रेन के डोनबास और लुहान्स्क क्षेत्रों में रूसी विद्रोही यूक्रेनी सेना के विरुद्ध लड़ रहे हैं।

इस प्रकार यूक्रेन को लेकर रूसी साम्राज्यवाद और अमरीकी साम्राज्यवाद के बीच संघर्ष बढ़ गया है। इस हालिया वृद्धि के शायद दो कारण हैं। नंबर एक, यूक्रेन के साथ अपने विवाद के कारण गैस आपूर्ति के विषय में यूक्रेन पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए, रूस ने हाल ही में दो पाइपलाइनों का निर्माण पूरा किया है, नॉर्ड स्ट्रीम 1 और नॉर्ड स्ट्रीम 2, जिससे यूक्रेन को छोड़कर गैस की आपूर्ति की जा सकती है। नॉर्ड स्ट्रीम 2 को पिछले साल के अंत में पूरा किया गया था और इसके कुछ ही दिनों में चालू होने की बात थी। यदि यह पाइपलाइन चालू हो जाती है, तो यूक्रेन को बहुत अधिक राजस्व का नुकसान होगा, इसलिए यूक्रेन नहीं चाहता कि यह पाइपलाइन प्रभावी हो। फिर, बहुतों के अनुसार, अमेरिका को लगता है कि यदि यह पाइपलाइन खोली जाती है, तो पश्चिमी यूरोप के देश रूस पर निर्भर हो जाएंगे और इसलिए उन देशों के साथ रूस के संबंध घनिष्ठ होंगे। वह अमेरिकी साम्राज्यवाद के अनुकूल नहीं होगा। इसलिए अमेरिका भी नहीं चाहता है कि यह पाइपलाइन चालू हो। यह ध्यान देने योग्य है कि संयुक्त राज्य अमेरिका वर्तमान में रूस पर जो प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहा है, उनमें से एक प्रमुख मांग है नॉर्ड स्ट्रीम 2 को चालू न होने देना। नंबर दो, रूस के विरोध के बावजूद, संयुक्त राज्य अमेरिका यूक्रेन को नाटो में शामिल करने के लिए आगे बढ़ रहा है। शायद यही इस युद्ध की अंतिम चिंगारी है। जैसा कि विभिन्न पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के बिभिन्न संगठनों ने भी स्वीकार किया है कि यूक्रेन का नाटो में शामिल होना इस विवाद का मुख्य कारण है। इसका एक अन्य प्रमाण यह है कि पुतिन ने युद्ध समाप्त करने के लिए जो रखी हैं, उनमें से प्रमुख है नाटो में शामिल न होने के लिए यूक्रेन कानून में बदलाव करे। इसके अलावा, दो क्षेत्रों - डोनबास और लुहान्स्क - की स्वतंत्रता की मान्यता और रूस के हिस्से के रूप में क्रीमिया की मान्यता भी अन्य शर्तें है। दूसरे शब्दों में, रूस चाहता है जिन हिस्सों पर वह अपना प्रभुत्व विस्तार कर पाया है उसको मान्यता दी जाए और संयुक्त राज्य अमेरिका को यूक्रेन को नाटो में शामिल करने से रोकने के लिए कदम उठाना।

हालाँकि इस युद्ध में रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवाद के आपसी विरोध के भूमिका ही मुख्य है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि यूक्रेन के शासक वर्ग की कोई भूमिका नहीं है। उन्होंने भी खुले तौर पर अमेरिकी साम्राज्यवाद का पक्ष लिया है। और यह भी नहीं कहा जा सकता है कि यूक्रेन के शासक वर्ग ने लोकतंत्र के पक्ष में भूमिका निभाई है। यूक्रेन का दावा है कि यूक्रेन पर रूस का हमला यूक्रेन की स्वतंत्रता पर, यूक्रेन की संप्रभुता पर, लोकतंत्र पर हमला है। सही बात है। हालाँकि यह भी है कि यूक्रेन के पूर्व में जहाँ रूसी-अधिकृत क्षेत्र, डोनबास, यूक्रेन से अलग होना चाहता है, वहां यूक्रेनी शासक वर्ग इसे सैन्य जूतों के नीचे दबाकर रखना चाहता है। यूक्रेन की सेना 2014 से विद्रोहियों से लड़ रही है, जिसमें 14,000 लोग मारे गए हैं। जिस तरह यूक्रेनी लोगों का आत्मनिर्णय का अधिकार है, उसी तरह डोनबास में बसे हुए बहुसंख्यक रुसी लोगो को भी वह अधिकार चाहिए। यूक्रेनी शासक वर्ग द्वारा उन्हें सैन्य संगीन की नोक पर रखने के लिए जो रास्ता अपनाया गया है, वह किसी भी तरह से लोकतंत्र का रास्ता नहीं है। यह भी व्यापक रूप से माना जाता है कि यूक्रेनी सेना ने पूर्वी यूक्रेन में विद्रोहियों के साथ किए गए 2014 के युद्धविराम समझौते का पालन नहीं किया है।

संक्षेप में, इस युद्ध के लिए रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवाद तो मूलभूत रूप से जिम्मेदार हैं,  लेकिन समान स्तर पर न भी हो, यूक्रेन के शासक वर्ग भी जिम्मेदार है। रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवाद के बीच कब्जे की प्रतिद्वंद्विता के परिणामस्वरूप इस युद्ध का भयानक बोझ यूक्रेन के लोगों पर पड़ा है। जिस तरह रूस इस युद्ध में आक्रामक है, उसी तरह अमेरिकी साम्राज्यवाद भी अपनी आधिपत्यवादी नीतियों के चलते इस युद्ध के लिए जिम्मेदार है। यूक्रेन का शासक वर्ग इन दोनों पक्षों से अलग नहीं है और वास्तविक अर्थों में लोगों की संप्रभुता और स्वतंत्रता के लिए उसने कोई रुख अख्तियार नहीं किया है। साम्राज्यवादी देश ही नहीं, बल्कि तमाम देशों के शासक वर्ग अपने-अपने संकीर्ण स्वार्थों के अनुसार इस युद्ध में अपना-अपना पक्ष ले रहे हैं। भारत के शासक वर्ग ने भी अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए इस युद्ध में अपना रुख तय किया है। भारत के शासक वर्ग और सरकार ने न तो रूस और न ही अमेरिका का पक्ष लिया है। इसका मतलब यह नहीं है कि वे दोनों साम्राज्यवाद की नीतियों के विरोधी हैं। वे अवसरवादी नीति अपना रहे हैं, जिसके आधार पर वे यूक्रेन पर युद्ध का विरोध कर रहे है, लेकिन रूसी हमले का नहीं। ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि भारतीय शासक विभिन्न आर्थिक और सैन्य समझौतों के कारण काफी हद तक रूस पर निर्भर हैं। इस वजह से उनके लिए रूस के खिलाफ खड़ा होना संभव नहीं है। फिर, संयुक्त राज्य अमेरिका पर उनकी आर्थिक और सैन्य निर्भरता के कारण, उनके लिए रूस का पक्ष लेकर संयुक्त राज्य अमेरिका के खिलाफ सीधा रुख लेना भी संभव नहीं है। इसलिए वे संतुलन का यह खेल खेल रहे हैं, जिसे वे तटस्थता का सिद्धांत होने का दावा करते हैं, हालांकि इस आभासी तटस्थता के साथ उनका असली नैतिक स्थिति का कोई लेना-देना नहीं है। 

यूक्रेन में इस युद्ध का बोझ मेहनती लोगों द्वारा वहन किया जा रहा है और आगे भी करना पड़ेगा। यूक्रेन में आज हजारों निर्दोष लोग मौत का सामना कर रहे हैं। हजारों साधारण यूक्रेनियन लोगों ने पड़ोसी देशों में शरण ली है। फिलहाल यह पता नहीं है कि वे कब अपने देश लौट पाएंगे या कभी लौटने का मौका होगा कि नहीं । इस युद्ध का प्रभाव सिर्फ यूक्रेन के लोगों पर नहीं है। इस युद्ध के व्यापक क्षेत्र में फैलने का खतरा बहुत गहरा है। इसे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप में सबसे बड़ा युद्ध बताया जा रहा है। कई लोग इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि कहीं इस युद्ध से तीसरा विश्व युद्ध तो शुरू नहीं हो जाएगा। यदि ऐसा नहीं भी होता है, तो भी इसमें कोई शक नहीं कि इस युद्ध के नतीजे में विश्व की तमाम गरीब, मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी और भी असहनीय हो जायगी। इस युद्ध के परिणामस्वरूप, ईंधन की कीमतें पहले ही बढ़ने लगी हैं, जिसका बोझ अंततः गरीबों पर पड़ेगा। अगर व्यापार और वाणिज्य का संकट आता है, तो इसका बोझ मजदूरों और सभी मेहनती लोगों पर पड़ेगा। 

हालाँकि, इस युद्ध का महत्व यहीं तक सीमित नहीं है। 1980 के दशक के उत्तरार्ध में सोवियत गुट के पतन के बाद से, अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवादी देश अविकसित और विकासशील देशों के प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करना और दुनिया भर के मजदूर वर्ग के शोषण और उत्पीड़न को तेज करने का मकसद से हिंसक रूप लेकर कूद पड़े थे। हम भूमंडलीकरण के नाम पर साम्राज्यवादी पूंजी के उस क्रूर हमले से अच्छी तरह वाकिफ हैं। साम्राज्यवादी इराक सहित विभिन्न मध्य एशियाई देशों के तेल संसाधनों को लूटने के लिए हमलावर हो गए। इस हमले में वे इसलिए सक्षम हो गए क्योंकि एक और बड़ी शक्ति के रूप में, सोवियत संघ गिरने लगा और नतीजतन, अमेरिकी साम्राज्यवाद महान शक्तियों में से एक बन गया है। 

लेकिन एक और महत्वपूर्ण कारण यह है कि अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग का समाजवादी आंदोलन भी हार गया है। अब दुनिया भर में मजदूर वर्ग तितर-बितर, अव्यवस्थित है। उसकी अपनी कोई पार्टी नहीं है, कोई संगठित वर्ग संघर्ष नहीं है। नतीजतन, साम्राज्यवादी पूंजी के नेतृत्व में, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवाद और देश में घरेलू पूंजी के हमले का विरोध करना उनके लिए संभव नहीं है। विभिन्न देशों के शासक पूंजीपति पूरी दुनिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में साम्राज्यवादी शक्तियों के शिविरों में एकत्रित हुए। जो वास्तव में उनके हमलों का विरोध कर सकता था उस अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग की अनुपस्थिति में, उन्होंने एकतरफ़ा प्रभुत्व कायम किया ।

1990-91 में जब अमरीकी साम्राज्यवाद ने इराक पर आक्रमण किया, तो पूरा साम्राज्यवादी खेमा इसके पीछे सिर्फ एकत्रित ही नहीं था, बल्कि सक्रिय रूप से उसका मददगार हो गया था। सोवियत रूस के पतन के बाद, दुनिया को एकध्रुवीय कहा जाने लगा, जिसका एकमात्र नेता अमेरिकी साम्राज्यवाद था। 

करीब तीन दशक बाद आज दुनिया का नक्शा काफी बदल गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियों ने 1990 के दशक की शुरुआत में शुरू हुए वैश्वीकरण के काल में अंधाधुंध लूट का अपना शासन शुरू किया। इस स्तर पर, विशाल एकाधिकारी पूंजीपतियों ने चीन और तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में निवेश करना शुरू कर दिया। वे उन देशों के सस्ते श्रम का उपयोग करके भारी मुनाफा कमाते हैं। हालाँकि, इन तीन दशकों के वैश्वीकरण ने दुनिया की पूंजीवादी शक्तियों के संतुलन में कई बदलाव भी किए हैं। विशेषकर 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद से साम्राज्यवादी दुनिया में दूरगामी परिवर्तन होने लगे हैं। दुनिया का एकमात्र नेता, संयुक्त राज्य अमेरिका, साम्राज्यवादी आर्थिक संकट से जूझ रहा है। विश्व प्रभुत्व बनाए रखने में अमेरिकी साम्राज्यवाद की विफलता अफगानिस्तान में हाल की घटनाओं से समान रूप से स्पष्ट है। उससे मुकाबला करने के लिए अलग-अलग ताकतें सामने आई हैं। यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियाँ, संयुक्त राज्य अमेरिका के पुराने सहयोगी होने के बावजूद, जर्मनी के नेतृत्व में यूरोपीय संघ के रूप में अलग से संगठित हैं। ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर हो गया है। दूसरी ओर, चीन एक नई शक्ति, एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा है जो अब संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रबल विरोधी, प्रतिद्वंदी है। एक सैन्य शक्ति के रूप में, चीन ने आसपास के क्षेत्र में अपने प्रभुत्व का विस्तार करना शुरू कर दिया है। इस युद्ध के माध्यम से यह स्पष्ट हो गया कि जो रूस सोवियत संघ के पतन के बाद एक कमजोर ताकत बन गया था, वह भी अब अपनी कमजोरी को दूर कर एक दुर्जेय प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरना चाहता है। एक शब्द में कहें तो सोवियत संघ के पतन के बाद एकध्रुवीय दुनिया को जन्म देने के बाद दुनिया की साम्राज्यवादी ताकतें अब अलग-अलग शिविरों में बंट गई हैं और एकध्रुवीय दुनिया से बहुध्रुवीय दुनिया की ओर यात्रा शुरू हो गई है।

साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच इस संघर्ष का मूल कारण, निश्चित रूप से, आर्थिक है। दुनिया की पूंजी और उसके लूट के माल पर कौन या कौन सा गठबंधन नियंत्रण  करेगा, इसको लेकर ही विवाद छिड़े हुए हैं। नतीजतन, नए नए आर्थिक ब्लॉक बनाए जा रहे हैं। वैश्वीकरण की शुरुआत में शुरू हुआ मुक्त व्यापार और निवेश का दौर टूट रहा है। विभिन्न देश अपने देशों में आयात के खिलाफ विभिन्न किस्म के प्रतिबंध लगा रहे हैं।  नई संरक्षण नीतियां लागू की जा रही हैं। ये सब ही बाजार पर कब्जा करने या पुराने बाजार पर नियंत्रण बनाए रखने की कोशिश में है।

हालाँकि, साम्राज्यवादियों के बीच आर्थिक प्रतिस्पर्धा केवल अर्थव्यवस्था तक ही सीमित नहीं रह सकती। जैसे-जैसे आर्थिक प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, वैसे-वैसे सैन्य प्रतिस्पर्धा भी बढ़ती है। विभिन्न सैन्य ब्लॉक बनाए जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इन आर्थिक और सैन्य गुटों की उपस्थिति अभी भी बहुत स्थायी है, बल्कि यह कि वे विभिन्न गठन-विघटन के दौर से गुजर रहे हैं। विभिन्न प्रभावशाली देश अपने प्रभुत्व का विस्तार करने के लिए विभिन्न कदम उठा रहे हैं। एक शब्द में कहें तो साम्राज्यवादी ताकतों के बीच पूरी दुनिया के पुनर्विभाजन की तैयारी शुरू हो गई है। एक तरफ अमरीकी साम्राज्यवाद अपनी पुरानी शक्ति को कायम नहीं रख पा रहा है, लेकिन अपना प्रभुत्व कायम रखने की पूरी कोशिश कर रहा है। वहीं दूसरी ओर अन्य शक्तियां अपना प्रभुत्व बढ़ाने की ओर बढ़ रही हैं। यूक्रेन और रूस के बीच वर्तमान युद्ध रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच संघर्ष का परिणाम है, और इस तरह के संघर्ष दुनिया भर में खुद को अलग तरह से प्रकट कर रहे हैं। यही कारण है कि यूक्रेन और रूस के बीच वर्तमान युद्ध एक अलग युद्ध नहीं है, बल्कि उस समग्र स्थिति का प्रतिबिंब है जिसमें दुनिया भर में साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच संघर्ष बढ़ रहा है और आर्थिक प्रतिस्पर्धा और सैन्य संघर्ष के लिए बातचीत के दायरे से आगे बढ़ रहा है। इसका मतलब है कि निकट भविष्य में कई और क्षेत्रों में इस तरह के संघर्ष और युद्ध की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।

इसका मतलब यह हुआ कि साम्राज्यवादी ताकतें और स्थानीय शासक जनता पर और भी भारी बोझ डालने वाले हैं। अंतिम फैसले में इस युद्ध की कीमत जनता को ही चुकानी पड़ेगी। लेकिन, यह स्थिति का एक पहलू है। दूसरी ओर, मजदूर वर्ग और मेहनतकश लोग अपनी पुरानी स्थिति में नहीं रह पाएंगे। जीवन का संकट उन्हें संघर्ष के रास्ते पर धकेल देगा। जिस तरह पिछले साम्राज्यवाद के संघर्षों के कारण हुए दो विश्व युद्धों ने लाखों लोगों को एक अवर्णनीय दुख पहुंचाया, उसी तरह मजदूर वर्ग ने इन दो विश्व युद्धों के दौरान विभिन्न देशों में सत्ता हथियाने के लिए साम्राज्यवाद के बीच संघर्ष का फायदा उठाया और समाजवाद का रास्ते पर अग्रसर हुआ। यह बात सच है कि मजदूर वर्ग के संघर्ष की वर्तमान स्थिति उस समय से बिल्कुल अलग है। उस समय देश में मजदूर वर्ग की पार्टियां मौजूद थीं, मजदूर वर्ग का आंदोलन जारी था। आज हम मजदूर वर्ग के संघर्ष में करारी हार के बाद मजदूर वर्ग के विघटन की स्थिति में खड़े हैं। लेकिन, जैसे-जैसे दुनिया गर्म होती है, वैसे-वैसे मजदूर वर्ग और लोगों का संघर्ष भी बढ़ता जाता है। कम्युनिस्टों की भूमिका मज़दूर वर्ग के बढ़ते हुए विरोधों से उभरे मज़दूर वर्ग के हिरावल को संगठित करने और पूँजीवाद के विनाश के संघर्ष में उन्हें दिशा दिखाने की होगी। साम्राज्यवाद-पूंजीवाद का विनाश करना न केवल मजदूर वर्ग, शोषित मेहनतकश लोगों को मुक्त करने का रास्ता है, बल्कि दुनिया को इस युद्ध और इसके अवर्णनीय परिणामों से मुक्त कराने का रास्ता भी है।