Tuesday, January 19, 2021

मजदूर वर्ग एमएसपी की कानूनी मान्यता के सवाल को किस नजरिया से देखेगा ?


मजदूर वर्ग एमएसपी की कानूनी मान्यता के सवाल को किस नजरिया से देखेगा ? 

वर्तमान किसान आंदोलन की एक महत्वपूर्ण मांग है कि फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी को कानूनी मान्यता दी जाए। जो किसान बाजार को ध्यान रखते हुए फसलों का उत्पादन करते हैं, खासकर अमीर किसान, वे विगत वर्षों में बार बार विभिन्न फसलों के एमएसपी में वृद्धि और कर्ज माफी की मांग लेकर सड़कों पर उतरे हैं। वे यह समझ कर ही मांग कर रहे हैं कि मोदी सरकार द्वारा लागू किया गया नया कृषि कानून एमएसपी और एमएसपी पर खरीदने की व्यवस्था को निरस्त करने वाला है। सरकार चाहे जितना भी इनकार करे इसमें कोई शक नहीं है कि एमएसपी और एमएसपी पर खरीदने की जो सरकारी व्यवस्था चालू है उसे आने वाले दिनों में सरकार ख़त्म करना चाहती है। यह साफ़ तौर पर ज़ाहिर है कि सरकार ने कृषि क्षेत्र को बड़े देशी विदेशी कंपनियों या कॉर्पोरेट को सौंपने के लिए ही ये तीन कानून पारित किए हैं। और ये कंपनियां कृषि फसलों के मूल्य को बाजार द्वारा तय करना चाहती हैं। बाजार को एक अवैयक्तिक यानी किसी व्यक्ति से सम्बन्ध न रखनेवाली प्रणाली के रूप में जितना भी माना जाए, मगर बाजार पूरी तरह से कोई अवैयक्तिक प्रणाली नहीं है। आम लोग, आम किसान, यहां तक ​​कि छोटे उत्पादक और यहां तक ​​कि छोटे पूंजीपति भी इस बाजार के लिए सिर्फ खिलौने हैं - इन्हें बाजार की धुन पर महज नाचना होता है । लेकिन, जिनके हाथों में अधिक पूंजी है, जिनके पास पूंजी का एकाधिकार है, उनके पास एक हद तक बाजार को नियंत्रित करने की क्षमता होती है। बाजार फसल की कीमत निर्धारित करेगा इसके असली मायने हैं कि बड़े कॉर्पोरेट कंपनियां फसल की कीमत तय करेंगी। यह संभव नहीं हो पायेगा अगर एमएसपी मौजूद रहेगा और अगर एमएसपी दर पर फसलों की सरकारी खरीद चालू रहती है। नतीजतन, सरकार को धीरे-धीरे एमएसपी प्रणाली को समाप्त करना होगा या इसके प्रभाव में कटौती करनी होगी ताकि यह खुले बाजार की कीमतों को प्रभावित न करे।

आंदोलनकारी किसानों ने इस बात को महसूस किया और शुरु से ही मांग कर रहे हैं कि एमएसपी और सरकारी खरीद की पूरी प्रणाली को बनाए रखा जाना चाहिए और इस संबंध में सरकार का मौखिक या लिखित आश्वासन भी पर्याप्त नहीं है। जितनी आसानी से सरकारें वादे करती हैं, उतना ही आसानी से वे उन्हें तिलांजलि भी देती हैं। इसलिए किसान एमएसपी की कानूनी मान्यता चाहते हैं - जिसका अर्थ है कि सरकार को एमएसपी के तहत फसल खरीदना है, और इसके उपरांत एमएसपी के नीचे फसल खरीदना अवैध और दंडनीय जुर्म घोषित करना होगा। अगर इस संबंध में कोई कानून बनाया जाता है, तब कोई भी सरकार अपना मर्जी से कानून को बदल कर एमएसपी को निरस्त नहीं कर सकेगी। सरकार स्वाभाविक रूप से ऐसा न करके अपने कार्पोरेट परस्त जिद पर अँड़ी हुई है। क्योंकि ऐसा करने का मतलब है कि बड़ी पूंजी के हित में जो सुधार हो रहे है वह तो होगा नहीं, बल्कि इसके विपरीत उनके लिए और एक अड़चन पैदा होगा।

यही कारण है कि सरकार और उसके सहयोगी - पत्रकार, अर्थशास्त्री और अन्य विशेषज्ञ एमएसपी के खिलाफ सवाल उठा रहे हैं। सरकार का एक बड़ा तर्क यह है कि किसानों के एक छोटे हिस्से को एमएसपी मिलता है, केवल 6% किसानों को, स्वाभाविक रूप से बड़े अमीर किसानों को। यह तथ्य भाजपा नेता शांता कुमार की अध्यक्षता में सरकार द्वारा गठित एफसीआई के पुनर्गठन पर एक समिति द्वारा 2015 की रिपोर्ट से उपजी जानकारी है | इसलिए इस रिपोर्ट को शांताकुमार रिपोर्ट भी कहा जाता है। उन्हें यह जानकारी कैसे मिली? 2012-13 में, कुल किसान परिवारों का 5.8% किसान सरकार को धान और गेहूं बेचा था । केवल एक वर्ष के धान और गेहूं की बिक्री के आंकड़ों से क्या यह कहना संभव है कि केवल 6% किसानों को एमएसपी का लाभ मिलता है? जबकि 23 फसलों पर एमएसपी लागू है | इन 23 फसलों में कपास शामिल है, जिसे भारत के कपास निगम द्वारा खरीदा जाता है और गन्ना का न्यूनतम मूल्य भी चीनी मिल मालिकों द्वारा भुगतान करने की घोषणा की जाती है। हालाँकि अधिकांश समय वे किसानों को उस कीमत का भुगतान नहीं करते हैं। जाहिर है 6% से अधिक किसान सरकारी खरीद के माध्यम से अपनी फसल एमएसपी पर बेचते हैं।

लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भले ही सरकार सभी किसानों की फसलों को न ख़रीदे, लेकिन जब सरकार एमएसपी में फसलों को खरीदती है तो खुले बाजार की फसलों की कीमत भी बढ़ जाती है, जिसका लाभ अन्य किसानों को मिलता है जो अपनी फसल सरकारी संस्थाओं को नहीं बेच पाते हैं। नतीजतन, केवल 6% किसानों को एमएसपी में लाभ मिलता है यह सच नहीं है। ऐसे किसानों की हिस्सेदारी थोड़ी अधिक है।
हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि मुख्य रूप से अमीर किसानों और पूंजीवादी किसानों द्वारा सरकार को फसल बेची जाती है। यहाँ तक कि अगर एमएसपी के कारण खुले बाजार में फसल की कीमत बढ़ता है, उसका मुख्य लाभार्थी वही किसान है जो इकट्ठे काफी ज्यादा फसल बेच सकते हैं। बेशक गरीब किसान तो है ही, यहां तक ​​कि मध्यम किसानों के पास बेचने के लिए कम फसलें होती हैं। इसके उपरांत वे स्थानीय व्यापारियों या विचौलियों से कर्ज लेते हैं और उन पर इतना निर्भर होते हैं कि वे मूल रूप से इन स्थानीय व्यापारियों, या विचौलियों को उनके निर्धारित मूल्य पर फसल बेचने के लिए मजबूर होते हैं।

हालाँकि, गरीब किसानों की दुर्दशा का तर्क देते हुए सरकार ने वस्तुतः संपूर्ण एमएसपी प्रणाली को समाप्त कर बड़े पूंजीपतियों को कृषि फसलों की बाजार सौंप दिया है | और इससे सरकार ऐसा ढोंग कर रही है कि मानो वे गरीब या मध्यम वर्ग के किसानों की दुर्दशा से बहुत चिंतित हैं। अगर सरकार को सचमुच ही लगता है कि सभी किसानों को एमएसपी का लाभ नहीं मिल रहा है, तो सरकार को सभी किसानों की फसलों को खरीद कर देश भर में सरकारी दुकानों द्वारा एकत्रित फसलों को बेचना चाहिए। तब किसान को भी फायदा होगा, और उपभोक्ता भी कम कीमत पर फसल खरीद सकेगा। लेकिन, सरकार ऐसा कैसे करेगी? तब तो सभी आढ़तिये और विचौलिये उजड़ जायेंगे । देशी विदेशी बड़े पूँजीपति और बड़े व्यापारी किसानों की फ़सल पर कब्ज़ा करके लाभ नहीं कमा पाएंगे! सीधे शब्दों में कहें तो केवल 6% किसानों को एमएसपी का लाभ मिलता है – यह तर्क सरकार बड़ी पूंजी के हित में दे रही है, गरीब या मध्यम किसानों के हित में नहीं।

दूसरी बात, यह भी सच है और सरकार भी यह स्वीकार कर रही है कि किसान के लिए खेती करके अपना जीवन निर्वाह करना नामुमकिन हो रहा हैं। साल दर साल, दिन-प्रतिदिन, खेती की लागत बढ़ती जा रही है। लेकिन ज्यादातर समय किसानों को कीमत नहीं मिल रही है। यहां तक सुनने में ​​आता है कि किसान खेती न कर खाली जमीन छोड़ रखे हैं। यही सब कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी को साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा करना पड़ा है और इसके लिए सरकारी बड़ी समितियां बनी हैं। उन सभी समितियों ने भी मोटी रिपोर्ट तैयार की है। यह भी देखने को मिल रहा है कि जिस कीमत पर किसानों को अपनी फसल बेचनी होती है वह अक्सर खेती की लागत को भी पूरा करने में असमर्थ होते हैं। कई मामलों में, जब बम्पर उत्पादन किया जाता है, तो फसल की कीमत इतनी घट जाती है कि किसानों को बड़े नुकसान में फ़सल बेचना पड़ता है। मतलब अक्सर किसानों की फसल उत्पादन की लागत और फसल बेचने की कीमत के बीच एक विसंगति होती है। लेकिन क्या इस समस्या को हल करने के लिए एमएसपी बढ़ाने या एमएसपी को कानूनी मान्यता देने की मांग मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता के हितों का प्रतिनिधित्व करती है?

हम पहले ही देख चुके हैं कि अमीर किसान ही मुख्य रूप से एमएसपी में वृद्धि या संपूर्ण एमएसपी और सरकारी खरीद की मौजूदा प्रणाली से लाभान्वित हो रहे हैं। अगर गरीब किसान कुछ फसल बेचते भी हैं, तो भी वे दरअसल फसलों के शुद्ध खरीदार होते हैं - यानी वे जितना भी बेचते हैं उससे कहीं अधिक खरीदते हैं। और खेत मजदूरों और शहर के मजदूरों और अन्य मेहनती लोगों को भी फसलें खरीदकर खाना पड़ता है। अमीरों को भी खाने के लिए फसलें खरीदनी पड़ती हैं, लेकिन उनकी आमदनी बहुत ज्यादा होती है और उस आमदनी का एक छोटा हिस्सा खाने पर खर्च होता है। लेकिन, मजदूर व कामकाजी लोगों की आय का मुख्य हिस्सा भोजन पर खर्च होता है। इसीलिए अगर फसल की कीमत बढ़ी तो खाने की कीमत बढ़ जाएगी और उसकी मार सबसे ज्यादा इन्ही गरीब मजदूर कामकाजी वर्ग के जीवन में पड़ती है । अगर सरकार द्वारा घोषित एमएसपी में वृद्धि की जाती है, तो स्वाभाविक है कि इसका एक असर भोजन की कीमत में परिलक्षित होगा और यह मजदूरों, खेत मजदूरों, गरीब किसानों सहित शहर के कामकाजी लोगों पर अतिरिक्त बोझ डालेगा। नतीजतन, एमएसपी में लगातार वृद्धि कर किसानों को लाभकारी मूल्य देने का यह तरीका मजदूरों-गरीब किसानों-खेतिहर मजदूरों और कृषि से बाहर अन्य मेहनतकशों के लिए एक वांछनीय तरीका नहीं है, उनके हितों के लिए नहीं।

तब इस समस्या का हल क्या है? अगर किसान अपनी फसल बेचकर लाभ नहीं कमाएगा, तो उनका भी गुज़ारा कैसे होगा? क्या हम किसान को बता सकते हैं कि आप फसल को नुकसान में बेचो ? यह साफ़ ज़ाहिर है कि यह नहीं कहा जा सकता है, या इस तरह से कोई उत्पादन जारी नहीं रह सकता है। जो खुद को मजदूर वर्ग का संगठन मानते हैं या घोषित करते हैं, उन लोगों के एक बड़े हिस्से के लिए एमएसपी को बढ़ाना ही इस समस्या का एकमात्र समाधान है, और उन्हें यह एहसास नहीं है कि एमएसपी मजदूर और व्यापक मेहनतकशों के हितों के खिलाफ है। इस कारण से वे एमएसपी में वृद्धि या फसल के उचित मूल्य की मांग का समर्थन करने में संकोच नहीं करते हैं, बल्कि वे अक्सर ही इसे अपने अभियानों में मेहनती लोगों की मांग के रूप में भी सामने लाते हैं। हालाँकि, कुछ अन्य संगठन यह स्वीकार करने के लिए मजबूर हैं कि एमएसपी में बढ़ोतरी की इस मांग के साथ मजदूरों और खेतिहर मजदूरों के हितों का टकराव है। तो, वे उस टकराहट की हल करने का कौन सा तरीका बता रहे है? वे इस टकराहट के समाधान के रूप में कह रहे हैं - एक तरफ एमएसपी बढ़ाना, इसे कानूनी मान्यता देना और दूसरी तरफ गरीबों को सस्ता भोजन वितरित करना होगा। लेकिन ये तो शासक वर्ग द्वारा गरीबों के शोषण को बरक़रार रखने के साथ थोडी सी राहत का इन्तेजाम करने की प्रणाली को समर्थन करना हुआ? क्या जो कम्युनिस्ट क्रांतिकारी होने का दावा करते हैं वे ऐसा दावा कर सकते हैं?

किसान खेती कर गुज़ारा क्यों नहीं कर पा रहा है ? क्या यह केवल उच्च या लाभदायक मूल्य न प्राप्त कर पाने की वजह से है? फायदेमंद तरीके से खेती न कर पाने की वजह, सही कीमत न मिलने के कारण के अलावा और एक बड़े कारण से है वे इसे ध्यान में नहीं लाते हैं। यानी खेती की लागत लगातार बढ़ती जा रही है। जो लोग खेती की समस्या के बारे में थोड़ा सा भी विचार रखते हैं, वे जानते हैं कि उदारीकरण के इस चरण में खेती की लागत कितनी बढ़ गई है। सच कहा जाए तो हरित क्रांति के चरण के बाद से ही खेती की लागत काफी बढ़ गई है। इसके पीछे दो कारण हैं। पहला, शासक वर्ग ने किसानों को फसल उत्पादन की जो विधि अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया है उसके नतीजे में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल बहुत बढ़ गया है । दूसरे शब्दों में, खेती के लिए आवश्यक उर्वरकों और कीटनाशकों की मात्रा बहुत बढ़ गई है।

दूसरा, पिछले कुछ दशकों में शासक वर्ग के उदारीकरण की नीति के चलते उर्वरकों और कीटनाशकों की कीमतों में भी कई गुना वृद्धि की गई है। इन्हें विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा बेचा जाता है और उनके मुनाफे का रास्ता भी इस तरीके से खोल दिया गया है। यहाँ तक कि हाल के दशकों में बीजों पर भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वर्चस्व बढ़ा है। कई बीजों को साल-दर-साल बहुराष्ट्रीय कंपनियों से खरीदना पड़ता है और वे इन बीजों से भारी मुनाफा कमा रहे हैं। दो टूक शब्दों में कहें तो, उर्वरक, कीटनाशक, बीज और सिंचाई की लागत मात्रा और मूल्य दोनों में वृद्धि के कारण पहले से खर्च कहीं अधिक बढ़ गई है। इसके दो कारण हैं - एक, कृषि में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शोषण में बड़े पैमाने पर वृद्धि, और दो, उर्वरकों पर सब्सिडी कम करने के लिए शासक वर्ग की नीति, आदि, जो कि बड़े देशी और विदेशी पूंजी के हित में किया गया है। संक्षेप में, बड़ी पूंजी के शोषण के कारण खेती की लागत बढ़ गई है।

खेती की लागत बढ़ने के पीछे एक और कारण है- साहूकारों की पूंजी का शोषण | सरकार किसानों को ऐसे लाभदायक खेती के लिए मजबूर कर रही है या उन्हें लुभा रही है जिसके लिए बहुत अधिक निवेश की आवश्यकता है। गरीब या मध्यम वर्ग के किसानों के पास उतना निवेश करने की क्षमता नहीं है। इसी कारण उन्हें खेती की लागत उठाने के लिए कर्ज लेना पड़ता है। लेकिन सरकारी बैंक गरीब या मध्यम वर्ग के किसानों को कर्ज नहीं देना चाहते हैं। इसलिए उन्हें गाँव के सूदखोर, साहूकारों के पास पहुँचना पड़ता है। उन्हें उच्च ब्याज दरों पर उनसे कर्ज लेना पड़ता है, और खेती की लागत भी उस कर्ज के ब्याज और मूलधन को पूरा करने के लिए बढ़ जाती है।

एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि क्या किसान उस मूल्य या मूल्य का ज्यादा अनुपात प्राप्त कर रहे हैं जिस मूल्य पर उपभोक्ता फसलों या खाद्य पदार्थों को खरीदते हैं? सरकार ने बार-बार कहा है कि बिचौलिए और दलाल किसानों को मिलने वाला ज्यादा हिस्सा निगल रहे हैं। सरकार का आकड़ा ही बताता है कि उपभोक्ता द्वारा भुगतान की गई कीमत का केवल 30% ही किसान को मिलता है। बाकी को बिचौलियों, आढतियों द्वारा हड़पा जाता है।

सरकार इस नए कृषि कानून के माध्यम से बिचौलियों, आढ़तियों के स्थान पर बड़ी पूंजी को बैठाने की कोशिश कर रही है। अगर बड़ी कॉरपोरेट संस्थाएं फसल व्यवसाय का पूर्ण नियंत्रण लेती हैं, तब वे बाजार से पुराने बिचौलियों, आढ़तियों के एक हिस्से को हटा देंगी। लेकिन, क्या किसानों को इसका लाभ मिलेगा? बिल्कुल नही। वर्तमान में आढतिये, जमाखोर जो लाभ गबन कर रहे है उतना पूर्ण रूप से या उससे भी ज्यादा बड़े कॉर्पोरेट कंपनियां गबन करेंगी। क्या वे भी वास्तव में बिचौलिए या दलाल नहीं हैं? क्योंकि जो लोग किसान की फसल सीधे उपभोक्ता को बेच रहे हैं वे खुद इसमें कोई मूल्य नहीं जोड़ रहे हैं। लेकिन एकाधिकार का लाभ उठाते हुए, वे कम कीमत पर खरीदेंगे और अधिक कीमत पर बेचेंगे। मतलब, आभासी तौर पर खेती की लागत वहन करने में सक्षम नहीं होने की वजह सही दाम न मिलना है, ऐसा प्रतीत होने पर भी वह वास्तविक समस्या नहीं है। असली समस्या है किसानों पर खेती के लिए औजार आदि सामग्री बनाने वाली बड़ी देशी विदेशी पूंजी के शोषण, सूदखोर पूंजी के शोषण, और जमाखोर व्यापारियों का शोषण है। इसके साथ वर्त्तमान में इसमें जुड़े है कृषि विपणन में शामिल बड़ी पूंजी या कृषि फसलों में व्यापार करने वाली बड़ी पूंजी के शोषण। और इन सबसे ऊपर बड़ी पूंजी की हिफाज़त करने वाली सरकार है जो बड़ी पूंजी को विभिन्न टैक्स में छूट दे रही है, लेकिन किसानों को आवश्यक सुविधाएं नहीं दे रही है। इन शोषकों का शोषण न केवल गरीब और मध्यम किसानों को नुकसान पहुंचा रहा है, बल्कि कृषि उत्पादन में वृद्धि या सामान्य रूप से कृषि में सुधार को भी बाधित कर रहा है। क्योंकि ये शोषक जो शोषण करके हड़प रहे हैं, वह कृषि में वापस नहीं आ रहा है। दूसरी ओर, वे किसानों से किसानों का अधिशेष भी छीन रहे हैं जो अगर उन किसानों के हाथ में होता तो वे कृषि में निवेश कर सकते थे और कृषि में विकास कर सकते थे।

हालांकि, अमीर किसानों के आंदोलन में इन शोषणों को रोकने की मांग कभी नहीं उठी। क्योंकि किसी न किसी रूप में अमीर किसान भी इस तरह के शोषण में शामिल हैं। कई बार गाँव में उनके द्वारा ही उर्वरकों, कीटनाशकों और बीजों का व्यवसाय किया जाता है। वे साहूकार के व्यवसाय में भी शामिल हैं। नतीजतन, वे उस शोषण के उन्मूलन के बारे में क्या कह सकते हैं जिसमें वे खुद जुड़े हुए हैं? इसीलिए उन्होंने हमेशा सरकार से फसलों की कीमत बढ़ाने की मांग की है और अब भी कर रहे हैं। जो क्रांतिकारियों इस मांग का समर्थन कर रहे हैं, पहले तो वह व्यावहारिक रूप से मजदूरों, किसानों और मेहनतकश जनता पर महंगाई के बोझ को बढ़ाने में मदद कर रहे हैं। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वे किसानों पर खेती करने के लिए औजार-सामग्रियों के उत्पादक देशी-विदेशी बड़े पूंजी के शोषण, बड़े जमींदारों-गैरकिसान मालिकों के शोषण, साहूकारी पूंजी के शोषण और व्यापारिक पूंजी के शोषण पर पर्दा डाल रहे है | अगर इस शोषण की आड़ में रखकर गरीबों को कम कीमत पर कृषि फसलें बेचने की मांग की जाती है, तब क्या यह सरकार की सुधार नीति का समर्थन करना नहीं होगा? क्या यह उन लोगों के लिए उचित होगा जो अपने आप को कम्युनिस्ट क्रांतिकारी होने का दावा करते हैं? इसलिए, एमएसपी में वृद्धि या एमएसपी की कानूनी मान्यता की मांग कभी भी मजदूर वर्ग के प्रतिनिधियों द्वारा समर्थित नहीं हो सकती है। वास्तव में, वर्तमान बड़े पूंजीपति बड़े जमींदारों के शासन ढांचे में इस समस्या का कोई समाधान नहीं है जो मजदूर वर्ग सहित मेहनतकश जनता के हित में एवं निचले तबके के किसानों की आज की समस्या को हल कर सकता है। भारत में मेहनती किसानों का न केवल बड़ी देशी और विदेशी पूंजी द्वारा शोषण किया जा रहा है, करोड़ों गरीबों और मध्यम किसानों पर पुराने जमींदारों या गैर-किसान मालिकों द्वारा शोषण किया जा रहा है, साहूकारी पूंजी का शोषण किया जा रहा है, व्यापारी पूंजी का शोषण किया जा रहा है – देशी और विदेशी बड़ी पूंजी का शोषण के साथ। शासक वर्ग की कृषि में पूँजीवादी सुधार की नीति इस शोषण को न तो मिटा पाई है और न ही कर पायेगा ।

किसानों को इस शोषण से मुक्त किए बिना उनके जीवन की समस्याओं से मुक्ति नहीं हैं | और वर्तमान शासक वर्गों को सत्ता से हटाए बिना और मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मजदूर-किसानों की सत्ता स्थापित किए बिना इस शोषण को मिटाना संभव नहीं है। यह मार्ग कृषि क्रांति का मार्ग है। जो लोग खुद को क्रांतिकारी मानते हैं वे आज इस सवाल का सामना कर रहे हैं कि क्रांतिकारियों का आज का कार्यभार क्या हैं? क्या ये एमएसपी में वृद्धि करके और गरीब लोगों को सार्वजनिक खाद्य वितरण प्रणाली द्वारा सस्ते में भोजन के राहत देने के साथ इस समस्या को हल करने का तरीका खोजने में है ? जिस राह में इस समस्या से बाहर निकलने का कोई रास्ता तो नहीं है, बल्कि जिससे मजदूर, खेतिहर मजदूर, गरीब किसान सहित कामकाजी लोगों की पीड़ा बढ़ जाएगी? या फिर मजदूरों और किसानों को इस शासन व्यवस्था के अन्दर इस समस्या के समाधान के सपने को न दिखाकर साम्राज्यवाद व बड़े पूंजी की शोषण सहित गैर-किसान मालिकों के शोषण, साहूकारों के शोषण एवं व्यापारी पूंजी के शोषण से मुक्त हुए बिना उनके जीवन की वास्तविक समस्याओं से मुक्त करना नामुमकिन है इसी बात को जोर-शोर से उजागर करना ही उनका काम है? इस सवाल के जवाब पर निर्भर करेगा कि क्या वे अपनी क्रांतिकारी वजूद को जीवित रखने में कामयाब हो रहे या नहीं ।

13 जनवरी, 2021