केंद्र सरकार द्वारा अधिनियमित तीन कृषि
कानूनों की वापसी को लेकर वर्तमान में जारी किसान आन्दोलन जैसा कोई दूसरा आन्दोलन
पिछले कई दशकों से देखने को नहीं मिला था | पंजाब से शुरू हुआ यह संघर्ष कुछ अन्य
राज्यों में भी फ़ैल गया है | दिल्ली की सीमाओं पर अनेक प्रवेश बिन्दुओं पर जारी यह
विशाल प्रदर्शन इस आलेख के प्रकाशन के समय पर डेढ़ सौ दिन पुरे कर चूका है | पाशविक लाठी चार्ज और पानी की तेज बौछारों सहित
राजसत्ता द्वारा अत्यधिक दमन, भाजपा के गुंडों के अत्याचार, दिल्ली के अत्यधिक
प्रतिकूल मौसम के बीच दिल्ली पुलिस के मंसूबों और मनमानीपूर्वक की गई गिरफ्तारियों
के बावजूद आन्दोलन में न तो कमी आई है और न ही इसकी ऊर्जा कम हुई है | आन्दोलन में
फूट डालने के मकसद से कुछ किसान संगठनों को बहलाने-फुसलाने का मोदी सरकार का दाव
भी सफल नहीं हुआ है | इसके विपरीत हजारों की तादाद में फार्मर और किसान अपना धरना
जारी रखे हुए है | महिलाएं भी घरेलु दासता की बेड़ियों को तोड़ते हुए भारी तादाद में
इस आन्दोलन में शामिल हो रही है | अनेक आन्दोलनकारियों ने अपने प्राणों की आहुति
दी है | इस सब के बावजूद वे अपनी एकमात्र मांग पर डटे हुए है – कानून वापिस नहीं
तो घर वापसी नहीं |
2019 में पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापसी
के बाद से मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने आर्थिक सुधारों के नाम पर जनता पर
बेलगाम आक्रमण छेड़ रखा है | निःसंदेह ये सुधार साम्राज्यवादी और घरेलु बड़ी पूँजी
के हित में है | भाजपा सरकार के पिछले कार्यकाल के तुलना में इस बार यह अधिक
तीव्रता और आक्रामकता के साथ किया जा रहे है | सभी विद्यमान श्रम कानूनों को हटा
कर चार नए श्रम कानून बनाये गए है | इस नए श्रम कोड ने श्रमिक वर्ग के थोड़े बहुत
बचे-खुचे श्रम अधिकारों में और अधिक कटौती कर दी है | पूंजीपतियों को ‘हायर और
फायर’ (मनमाने तरीके से नौकरी पर रखने और हटाने) सहित बेलगाम अधिकार दे दिए गए है
| मुट्ठी भर कंपनियों को छोड़कर अनेक सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में बेचा जा
रहा है | बिजली सब्सिडी को घटाया जाएगा और बिजली की कीमतों में बृद्धि की जाएगी |
इस सम्बन्ध में एक नया कानून तैयार किया जा रहा है | और यह सब करके अर्थव्यवस्था
के बिभिन्न क्षेत्रों को साम्राज्यवादी और एकाधिकारी घरेलु पूँजी के हवाले करने का
रास्ता साफ किया जा रहा है | यह सूची काफी लम्बी है | काफी कुछ किया जा चूका है और
भविष्य में और अधिक किया जाना बाकी है | साम्राज्यवादी और घरेलु बड़े पूंजीपति अभी
तक ‘संपन्न कार्य’ की सूची पर लगातार निगाह रखे हुए है और अब वे शेष कार्यों को
शीघ्र पूरा करने के लिए सरकार को प्रेरित कर रहे है |
साम्राज्यवादी
और एकाधिकारी घरेलु पूँजी के लिए कृषि क्षेत्र को खोलना शासक वर्ग के इस आक्रामक
मिशन में एक अत्यधिक महत्वपूर्ण कदम है | या अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो
वास्तव में यह कृषि क्षेत्र को मात्र ‘खोलना’ नहीं है बल्कि ‘और आगे खोलना’ है |
क्योंकि पिछले तीन दशकों के दौरान कृषि क्षेत्र को क्रमबद्ध तरीके से खोलने की
प्रक्रिया पहले से ही जारी है | इस बार मकसद है कि यह काम बैलगाड़ी या हद से हद
घोड़ागाड़ी की सुस्त रफ़्तार के मुकाबले बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से किया जाए | लेकिन
मौजूदा कोशिशों का कड़ा विरोध किया जा रहा है जिसकी न तो उम्मीद थी और जैसा अभी तक
कभी हुआ भी नहीं था | सरकार द्वारा विदेशी और घरेलु बड़े पूंजीपतियों के हितों में
किये जा रहे हमलों का विरोध करने के लिए फार्मर और किसान डट कर मैदान में आ खड़े
हुए है | नतीजा यह है कि यह संघर्ष सरकार
के लिए एक बड़ा सिरदर्द बन गया है | बड़े व्यापारिक समूहों के साथ साथ भाजपा को
अत्यधिक चिंता है कि यदि मौजूदा संघर्ष इस हमले को रोक पाने में सफल हो जाता है तो
समाज के अन्य असंतुष्ट तबकों को भी इससे प्रेरणा मिल सकती है | इस कारण, वे इस
आन्दोलन का दमन करने पर कमर कसे हुए है | किसानों की ही तरह, श्रमिक भी साम्राज्यवादी
और घरेलु बड़ी पूँजी के हित में केंद्र सरकार द्वारा किये जा रहे इसी तरह के हमलों
का सामना कर रहा है और इसलिए उसे निश्चित रूप से फार्मरों और किसानों के वर्तमान
संघर्ष के पक्ष में खड़ा होना चाहिए | परन्तु कुछ महत्वपूर्ण सवाल सामने खड़े है –
श्रमिक वर्ग के अगुआ तबके के समर्थन की प्रकृति क्या हो और मौजूदा फार्मरों के
संघर्ष द्वारा मात्र एकजुटता के अलावा श्रमिक वर्ग का अन्य किस प्रकार की
महत्वपूर्ण भूमिका की मांग सामने आई है |
इन तीन कृषि
कानूनों की विषय-वस्तु क्या है ?
हाल के महीनों में तीन कृषि कानूनों के
बारे में इतनी अधिक चर्चा हो चुकी है कि अधिकांश लोगों को उनके बारे में मोटे तौर
पर जानकारी है | [ इस सम्बन्ध में रूचि रखने वाले पाठक सर्वहारा पथ (https://sarvaharapath.blogspot.com/) की ब्लॉग पर “मोदी सरकार का नया कृषि कानून - किसके हित में? ” शीर्षक
से प्रकाशित लेख पढ़ सकते है ] | परन्तु फिर भी वर्तमान विमर्श के सन्दर्भ में हम
इस विषय में इन कानूनों के मुख्य बिन्दुओं की संक्षेप में चर्चा करना चाहेंगे |
मंडी बाईपास कानून
जिस कानून ने किसानों के बीच सर्वाधिक
आक्रोश उत्पन्न किया है और जिसका सर्वाधिक प्रतिरोध किया जा रहा है वह कृषि
उत्पादों के विपणन से जुड़ा हुआ है | इसका शीर्षक है ‘कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य
अधिनियम (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020’ | संक्षेप में इसे मंडी बाईपास विधेयक
भी कहा जा सकता है क्योंकि इसमें पूंजीपतियों को सरकार द्वारा विनियमित विद्यमान
मंडियों को बाईपास यानी दरकिनार कर अपनी पसंद व सुविधा अनुसार किसी भी क्षेत्र से
कृषि उत्पाद खरीदने का अधिकार दिया गया है | सरकारी मंडियों के नियमों के विपरीत
पूंजीपतियों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीदने की बाध्यता नहीं है |
इसके अलावा उन्हें संबंधित राज्य सरकारों को कर भुगतान से भी छूट है | पिछले दो
दशकों में इस कानून के संबंध में राज्यों के स्तर पर अनेक बदलाव किये गए है जो
पूंजीपतियों के अनुकूल है | इसे कृषि उत्पाद बाज़ारों में आईटीसी, रिलायंस, अदानी,
बिडला जैसे बड़े घरानों और अन्य घरेलु व विदेशी कंपनियों की बढ़ती उपस्थिति से देखा
जा सकता है | केंद्र सरकार का वर्तमान कानून उपर्युक्त प्रवृत्ति को और तेज करेगा
| बड़े पूंजीपति-कॉरपोरेट घराने अपनी एकाधिकारी हैसियत के बूते पर किसानों से खरीद का
मूल्य स्वयं निर्धारित करेंगे, उत्पादों की जमाखोरी करेंगे और मोटा मुनाफा कमाने
के लिए घरेलु या अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बेचेंगे | विपणन के लिए सभी अंतर्राज्यीय
प्रतिबंध समाप्त कर दिए गए हैं ताकि समूचे देश में कृषि उत्पादों का बेरोकटोक
व्यापार हो सके | ‘फार्मरों का उत्पादक संगठन’ (एफपीओ) जैसे संगठन बनाए जा रहे है
जो बड़े पूंजीपतियों के लिए छोटे किसानों से फसल की खरीद करेंगे | निःसंदेह यह
कानून देश में कृषि उत्पादों पर देशी और विदेशी बड़ी पूँजी का दृढ़ और पूर्ण
नियंत्रण स्थापित करने के लिए बनाया गया है |
ठेका (कॉन्ट्रैक्ट) कृषि
कानून
एक अन्य कानून कॉन्ट्रैक्ट कृषि के
सम्बन्ध में पारित किया गया है जिसका शीर्षक है ‘कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत
आश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020’ | निश्चय है यह कोई अपनी तरह का पहला
कानून नहीं है जो कॉन्ट्रैक्ट कृषि को विस्तारित करता है | अनेक राज्यों में मंडी
कानूनों के दायरे में इसके लिए कुछ प्रावधान थे | शायद केवल एक राज्य (पंजाब ) का
इस संबंध में अलग कानून था | इससे पहले जिस कानून की चर्चा की गई है वह कारपोरेट
घरानों को कृषि उत्पाद खरीदने और उससे मुनाफा कमाने का अवसर प्रदान करता है जबकि
यह नया कानून उन्हें कृषि उत्पादन के एकदम केंद्र में प्रवेश करने का मौका देता है
| इस कानून की मदद से आरंभ में वे किसानों से अपनी पसंद के कृषि उत्पादों की अपने
द्वारा तय कीमतों पर खेती करा सकेंगे | इसके जरिये वे किसानों को अपने नियंत्रण के
अधीन कर सकेंगे | इसके लिए भी बड़े कॉरपोरेट घरानों द्वारा ‘फार्मर उत्पादक संगठनों’ का इस्तेमाल किया
जाएगा | ये संगठन सिर्फ नाम के लिए ही ‘स्वतन्त्र किसान सहकारिताएं’ हैं | वे बड़ी
पूँजी के हितों की ही सेवा करेंगे | ये आशंकाएं बेबुनियाद नहीं है कि हालाँकि बड़े
पूंजीपति आरंभ में छोटे किसानों को ठेका कृषि कानून के अधीन लाएंगे और उनसे अपने
निर्देशानुसार खेती कराएँगे लेकिन अंततोगत्वा वे उन ज़मीनों को हड़प कर स्वयं खेती
कराना शुरू करेंगे | और किसान शायद जीवन निर्वाह की मजबूरी में उनके नियंत्रण में
खेतिहर मजदूरों में रूपांतरित हो जाएंगे | हाल ही में अमरीका में रह रहे कुछ
अनिवासी भारतीयों ने अम्रीका में कृषि की स्थिति पर विस्तृत अध्ययन कराए हैं |
उनके अनुभव ये दर्शाते हैं कि किस तरह से बड़े कॉरपोरेट घरानों ने छोटे किसानों
को अपनी ज़मीनों को बेचने पर मजबूर किया है | उनमें से अधिकांश किसान अब अपनी ही
ज़मीन पर खेतिहर मजदूर बन गए हैं | लेखक के शब्दों में –“जैसे जैसे भूमिहीन किसान
ठेका कृषि की दूभर शर्तों के अधीन काम करने लगे, बिग एजी (यानी बड़े कृषि
व्यापारियों) ने उनकी ज़मीनों को हड़प लिया और इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं था |
विशालकाय निगमों ने अपनी वित्तीय शक्तियों का इस्तेमाल कर बाज़ार को नियंत्रित
किया, कृषि उत्पादों की कीमत गिराई, मिटटी के मोल आधारभूत ढांचा ख़रीदा और लागत को
इस हद तक बढ़ा दिया कि छोटे फार्मों पर खेती करना लगभग असंभव हो गया” | [How ‘Big
Ag’ ate up America’s small farms, Bedabrata Pain, Times of India, Kolkata
Edition, March 8, 2021 ]
आवश्यक वस्तु अधिनियम का संशोधन
यह अधिनियम निर्णायक रूप से यह सिद्ध कर
देता है कि सरकार की इन कानूनों के जरिये, किसानों की स्थिति में सुधार करने की
कोई मंशा नहीं है | इस कानून में किये गए संशोधन न केवल गरीब किसानों को तवाह कर
देंगे बल्कि श्रमिक वर्ग और मेहनतकश जनता के बहुलांश को भी दुःख झेलना पड़ेगा | इसमें
दो संशोधन किये गए है | पहले में कहा गया है कि सूखा, युद्ध, कीमतों में अत्यधिक
वृद्धि अथवा प्राकृतिक आपदा जैसे अत्यधिक गंभीर परिस्थितियों में ही सरकार आवश्यक
वस्तुओं की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप करेगी | यह स्पष्ट रूप से
इसकी पुष्टि कर देता है कि सामान्य परिस्थिति में सरकार आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति
सुनिश्चित नहीं करेगी | इसका अर्थ क्या है ? पहले सरकार आयत बढाकर अथवा निर्यात पर
प्रतिबंध लगाकर खाद्यान्न की आपूर्ति सुनिश्चित कर कीमतों को विनियमित करने की
कोशिश करती थी | वैसे हमारे अनुभव हमें यह भी बताते है कि इस प्रकार के प्रयास
हमेशा सफल नहीं होते थे | कभी तेल की कीमतें अनियंत्रित रूप से बढ़ने लगती है तो
कभी प्याज की कीमते आसमान छूने लगती हैं | लेकिन अब तो सरकार ने साफ़ कर दिया है –
वह कीमतों को विनियमित करने की कोशिश ही नहीं करेगी | दूसरा संशोधन है कि सरकार
व्यापारियों को कृषि उत्पाद के भण्डारण अथवा जमाखोरी से नहीं रोकेगी | भण्डारण की
अधिकतम सीमा समाप्त कर दी गई है | सरकार बाज़ार में केवल तभी हस्तक्षेप करेगी जब
ख़राब हो सकने योग्य खाद्यान्न की कीमतों में 100 प्रतिशत की वृद्धि हो जाए और ख़राब
न होने वाली खाद्य फसलों की कीमतों में 50 प्रतिशत की वृद्धि हो जाए | इस कानून को
दो अन्य अधिनियमों के साथ पढने पर इस बारे में कोई संदेह नहीं रह जाता है कि सरकार
ने ऐसी स्थिति बना दी है जिसमें बड़ी पूंजी किसानों से कम दाम पर उसके उत्पाद खरीद
सकेगी, अपनी इच्छा अनुसार उनका भण्डारण करेगी और मोटा मुनाफा कमाने के लिए कमी के
समय में बाज़ार में बेचेगी |
सरकार
का दावा है कि ये सुधार किसानों के हित में है | यह अनोखी बात है | क्या गरीब
किसान अपने उत्पाद को लम्बे समय तक रोक कर रख सकता है ताकि अत्यधिक मांग के समय
बाज़ार में बेच कर मोटा मुनाफा कम सके ? यह पूरी तरह से साफ़ है कि यह कानून बड़े
कार्पोरेट घरानों के लिए बनाया गया है जिनके पास यह शक्ति है कि वे कृषि उत्पादों
को फसल कटाई के समय कम कीमतों पर खरीद कर उनका भण्डारण कर लें और फिर कमी के समय
पर उन्हें बाज़ार में बेचकर मोटा मुनाफा कमा लें | इसका अर्थ है कि अब से बड़े कॉरपोरेट घरानों की भूमिका भी
फसलों के साथ उसी तरह से जुआ खेलने की हो जाएगी जैसी भूमिका का निर्वाह अभी तक
व्यापारी और जमाखोर करते रहे है | कुछ हद तक धनी किसानों को भी इस कानून से लाभ हो
सकता है जो बड़ी मात्र में उत्पादन करते है और जिनके पास अपने उत्पादों को रोक कर
रखने की क्षमता है |
अतः
यह सुस्पष्ट है कि यह कानून सिर्फ कृषि क्षेत्र में संलग्न देशी और साम्राज्यवादी
पूंजीपतियों के हितों की ही सेवा करेंगे जो अंततोगत्वा कृषि क्षेत्र पर कब्ज़ा कर
लेंगे |
मोदी सरकार का नहीं बल्कि शासक
वर्ग का कार्यक्रम
संघर्षरत किसानों के अलावा विपक्षी दल,
पूंजीवादी अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता ‘मोदी सरकार’ के कृषि कानूनों के
खिलाफ अपने विरोध को स्वर दे रहे है | उनमें से अनेक मोदी के ‘दो कॉर्पोरेट
मित्रों’ अम्बानी और अदानी को निशाना बना रहे है जिससे ऐसा लगता है मानों ये कानून
अनन्य रूप से सिर्फ उन्हीं के हितों के लिए बनाये गए है | यह सच नहीं है | यह मोदी
सरकार की नहीं बल्कि शासक वर्ग की कार्यसूची है | समूची नीति अविमोचनीय रूप से
साम्राज्यवादी पूँजी और उस पर निर्भर देशी बड़े पूंजीपतियों से जुडी हुई है | यह
सिर्फ अम्बानी और अदानी के हितों की सेवा के लिए नहीं है | प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष
रूप में ये सुधार बड़े पूंजीपतियों के समूचे वर्ग की स्वार्थ सिद्धि के लिए है |
और
ऐसा भी नहीं है कि इन कानूनों की योजना हाल ही में बनाई गयी है या 2014 में मोदी के सत्ता में आने के समय से ही शुरू हुई है | यह योजना तो पिछले बीस वर्षों
से भी अधिक समय से चल रही है | 2003 और 2017 में दो बार मॉडल अधिनियम बना कर राज्य
सरकारों को कहा गया था कि वे अपने कृषि कानूनों को बड़ी पूँजी के हितों के अनुकूल बना
लें | इस मामले में केंद्र की पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकार और पूर्ववर्ती भाजपा
सरकार ने पहल की थी और कई राज्य सरकारों ने अपने राज्यों के कानूनों में बदलाव
किये थे | लेकिन इन सब को लागु करने की रफ़्तार बहुत धीमी रही थी और अलग अलग
राज्यों में इसे अलग अलग हद तक लागु किया गया था | और यह घोंघे की धीमी गति बड़े
पूंजीपतियों को पसंद नहीं थी | मोदी सरकार ने यह कार्य एक ही बार में निर्णायक चोट
कर संपन्न कर दिया है | उन्होंने राज्य, सरकारों के हाथ से नियंत्रण अपने हाथों
में ले लिया है और एक ही बार में सम्पूर्ण आक्रमण कर दिया है | इसका एकमात्र मकसद
है कि कॉरपोरेट जगत द्वारा ‘समूचे’ देश में कृषि अर्थव्यवस्था पर कब्ज़ा
किये मोदी सरकार को जिम्मेवार ठहराने के संकीर्ण नजरिये से देखा जाए तो इन नीतियों
के महत्व को समझना मुश्किल होगा | इस सब के लिए सिर्फ मोदी सरकार को जिम्मेवार मानने
का अनिवार्य निष्कर्ष यह होगा कि हम सोचने लगेंगे कि सिर्फ मोदी सरकार को सत्ता से
हटाकर इन नीतियों से छुटकारा मिल जायेगा |
यह एक भ्रान्ति होगी | ऐसी सोच से इन सुधारों के विरुद्ध जारी संघर्ष में फूट
पड़ेगी और यह मात्र सरकार बदलाव का संघर्ष बन कर रह जायेगा जिससे अंततोगत्वा शासक
वर्गों के हाथ ही मजबूत होंगे | चूँकि जनता सरकार परिवर्तन के संघर्ष में लग
जायेगा, शासक वर्गों की योजना बिना किसी अवरोध के चलती रहेंगी और सामने से सरकारें
एक आवरण बनी रहेंगी |
दो महत्वपूर्ण बिंदु
शासक वर्गों के समूचे मंसूबों को समझना
बेहद ज़रूरी है | इसके लिए हमे अधिक गहराई से छानबीन करनी होगी | लेकिन अभी हम अपनी
चर्चा को उस तक सीमित रखेंगे जो फ़िलहाल समझा जा सकता है | इसमें जाने से पहले हम
संक्षेप में दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं की चर्चा करना चाहेंगे |
1.
क्या फार्मर और किसान समानार्थक हैं ?
सरकारी कानूनों, दस्तावेजों, समाचार
माध्यमों और इससे जुड़े विश्लेषणों में ‘फार्मर’ शब्द का किसान के रूप में प्रयोग
किया जा रहा है | सवाल है की फार्मर का अर्थ किसान है ? मार्क्सवादी साहित्य में
हमेशा उसे ही किसान कहा गया है जो अपनी ज़मीन जोतता है, फार्मर को नहीं | भारत में
भी, पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशकों तक पूंजीवादी पत्र-पत्रिकाएं भी ज़मीन को
जोतने वाले को किसान कहती थी | किसान की बजाय फार्मर शब्द के इस्तेमाल से क्या
परेशानी है ? दोनों के बीच एक अंतर है | फार्मर वह है जो कृषि फार्म का स्वामी है
| फार्मर अपने फार्म पर कार्य कर भी सकता है | साथ ही ऐसा भी हो सकता है कि वह स्वयं
खेती का कार्य करने की जगह केवल श्रमिकों से खेती कराएँ | क्या ज़मीन के ऐसे मालिक
को किसान कहा जा सकता है जो खुद श्रम किये बिना खेती का सारा काम शत प्रतिशत
श्रमिकों से कराता है | निश्चित रूप से नहीं | ऐसा इसलिए है क्योंकि किसान शब्द का
मतलब ही उस व्यक्ति से है जो ज़मीन की जुताई करता है और इस प्रकार खेती के लिए अपना
श्रम लगाता है | सच तो यह है कि जब तक वे
जमींदार अथवा जोतदार के अधीन काम करते थे उन्हें किसान कहा जाता था | फार्मर शब्द
पिछली सदी के सत्तर के दशक से उस समय प्रचलन में आया जब जमींदार वर्ग के शोषण के
विरुद्ध संघर्ष के स्थान पर फसल के दामों में बृद्धि, सिंचाई सुविधाओं आदि की
मांगे उठाई जाने लगी | मौजूदा संघर्ष में (अतीत के इस जैसे अन्य आंदोलनों की तरह)
एक ऐसा तबका है, जिसका आकार भले ही जो भी हो, जो बड़ी बड़ी जोत के स्वामित्व वाले एक
सशक्त समूह का प्रतिनिधित्व करता है | उनके पास इतनी बड़ी बड़ी ज़मीनें होती है कि उन पर
स्वयं अपने श्रम से खेती करना असंभव होता है | वे सम्पूर्ण उत्पादन कार्य श्रमिकों
के द्वारा कराते हैं | उन्हें किसान नहीं कहा जा सकता है | क्या उनके लिए
‘पूंजीवादी भूस्वामी’ या ‘पूंजीवादी फार्मर’ शब्द का प्रयोग उपयुक्त नहीं होगा ?
वे अपने फार्म उत्पाद के मालिक भी है और बाज़ार में अपना उत्पाद बेचते हैं | इसलिए
वे भी इन कानूनों से प्रभावित होंगे | इसके अलावा एक अन्य शक्तिशाली तबका है धनी
किसानों का | उनके पास भी बड़ी बड़ी जोतें हैं और वे बड़ी संख्या में श्रमिकों से
कार्य कराते हैं | लेकिन वे पहले तबके से इस मायने में अलग हैं कि वे किसान हैं
जिसका अर्थ है कि वे खेती में अपना श्रम भी लगाते है | इसलिए यह कहने की आवश्यकता
नहीं है कि पहले तबके की ही तरह ये भी ग्रामीण क्षेत्रों में मुख्यतः खेतिहर
मजदूरों के शोषक हैं | माओ त्से तुंग के शब्दों में “औसत किसानों की तुलना में धनी
किसान के पास सामान्यतया अधिक और बेहतर उत्पादन के उपकरण होते हैं और तरल पूंजी भी
होती है, वह अपना श्रम लगता है, परन्तु अपनी आय के आंशिक अथवा प्रमुख भाग के लिए हमेशा
शोषण पर निर्भर करता है |” [How to Differentiate The Classes in the Rural
Areas,1933 (ग्रामीण क्षेत्रों में वर्ग विभेद कैसे करें)]
इस
आन्दोलन में छोटे किसान (जो प्रत्यक्ष रूप से स्वयं अपनी ज़मीन पर खेती करते हैं और
दूसरों के शोषण में शामिल नहीं हैं), धनी किसान और ‘पूंजीवादी भूस्वामी/फार्मर’
शामिल हैं | ये बाद वाले तबके न केवल आन्दोलन में शामिल हैं वरन वे एक महत्वपूर्ण
अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं | वे अपनी उपज का एक बड़ा हिस्सा बाज़ार में बेचते हैं
और ज्यादातर वे अपना उत्पाद सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम् एस पी) पर बेचते
हैं | इसलिए वे एमएसपी समाप्ती के विरुद्ध और एमएसपी वृद्धि के सर्वाधिक मुखर
समर्थक है | हालाँकि वर्तमान आन्दोलन में वे छोटे/मझौले किसानों के साथ खड़े हैं यह
अवश्य स्वीकार किया जाना चाहिए कि उनके हित एक समान नहीं है | अन्यथा सर्वहारा के
समुचित दृष्टिकोण अथवा उसकी भूमिका का निर्धारण नहीं हो सकता है |
2.
क्यों यह
आन्दोलन कुछ राज्यों तक सीमित है ?
तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध पंजाब से
शुरू हुआ यह आन्दोलन अब हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ भागों
तक फ़ैल चूका है | कर्नाटक, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से भी किसान प्रतिनिधि इसमें
शामिल हैं | लेकिन इन राज्यों में यह आन्दोलन उतना तेज नहीं है जितना तेज यह
पंजाब, हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में है | कुछ अन्य राज्यों में तो इस
आन्दोलन का प्रभाव और भी कम है | सरकार और उसके पक्षधर पूंजीवादी अर्थशास्त्रीयों
का मत है कि ये आन्दोलन मात्र पंजाब और हरियाणा के किसानों का है क्योंकि यही वे
राज्य हैं जहाँ से बड़ी मात्रा में खाद्यान्न को सरकारी एजेंसियों द्वारा एमएसपी पर
ख़रीदा जाता है और इसी कारण यहाँ के किसान मंडियों को समाप्त किये जाने के इतने
मुखर विरोधी हैं | निश्चित रूप से पंजाब और हरियाणा के किसानों की भागीदारी का यह
एक कारण है लेकिन यह एकमात्र कारण नहीं है | और फिर अन्य राज्यों के किसानों की
भागीदारी भी इस कारण नहीं हो सकती है |
उन सभी राज्यों में एक समानता है जहाँ यह
आन्दोलन कमोबेश तेज है | ये वे राज्य है जहाँ पर कृषि अर्थव्यवस्था में पूंजीवादी
विकास अपेक्षाकृत अधिक हुआ है | यहां पर
पूंजीवादी फार्मर और धनी किसानों का भी उदय हुआ है | यही वे क्षेत्र है जहाँ
मुख्यतया बाज़ार का ध्यान में रखकर पूंजीवादी कृषि के नियमानुसार फार्म उत्पादन
किया जा रहा है | वैसे तो नए कृषि कानून सभी राज्यों की लगभग समूची आबादी को
प्रभावित करेंगे, लेकिन इनका सर्वाधिक प्रभाव उन क्षेत्रों की जनता पर पड़ेगा जहाँ
पूंजीवादी कृषि के तरीके काफी हद तक विकसित हुए है और अधिकाधिक उत्पादन बाज़ार को ध्यान
में रख कर किया जा रहा है |
हमारे देश में कृषि में पूंजीवाद का विकास
ऊपर से किये गए सुधारों के जरिये हुआ है | पुराणी सामंती-भूस्वामी प्रणाली के
उन्मूलन के लिए सामंती जमींदार-जोतदार की भूमि जब्त कर उसे किसानों में वितरित
करने जैसे अमूल-चूल भूमि सुधार कार्यक्रम की आवश्यकता थी | परन्तु भारत में बड़े
पूंजीपति वर्ग ने बड़े भूस्वामियों के साथ गठजोड़ से सत्ता ग्रहण की थी | अतः उसके
लिए सामंती भूस्वामियों को हटाना संभव नहीं था | शासक वर्ग ने बेहद ही संकीर्ण और
आंशिक तरीके से भूमि वितरण कार्यक्रम चलाया | भूमि हदबंदी कानून पारित किये गए
जिनके जरिये अतिरिक्त भूमि का किसानों के बीच वितरण किया गया था | यह कार्य अलग
अलग राज्यों में अलग अलग हद तक किया गया | ततपश्चात् उन्होंने सिंचाई प्रणाली पर
सब्सिडी, नियंत्रित मूल्यों पर अधिक उपज वाले बीजों की आपूर्ति, कृषि ऋण, न्यूनतम
समर्थन मूल्य, एमएसपी पर कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद आदि के जरिये कृषि में
पूंजीवाद विकसित करने के प्रयास किये | उस वक्त कृषि के विकास में साम्राज्यवाद की
बड़ी भूमिका थी | पिछली सदी में साठ के दशक में अधिक उपज वाली किस्मों (एचवाईवी) के
बीजों के इस्तेमाल से उत्पादन वृद्धि के कार्यक्रम में, जो बाद में हरित क्रांति
के नाम से प्रसिद्ध हुआ, साम्राज्यवाद की रूचि भी थी और भूमिका भी | स्वाभाविक रूप
से यह विकास हरेक स्थान पर एक समान रूप से नहीं हुआ बल्कि कुछेक राज्यों तक सीमित
था | जिन स्थानों पर पूंजीवादी विकास हुआ वहां पर धनी किसानों और पूंजीवादी
भूस्वामियों/फार्मरों के एक तबके का उदय हुआ |
अन्य राज्यों में भूमि सुधारों के बावजूद
अधिकांश किसानों को भूमि नहीं मिली और अनुपस्थित भूस्वामित्ववाद काफी हद तक कायम
रहा | इन इलाकों में किसान आज भी अधिकतर जीवन निर्वाह भर की खेती करते है | गरीब
किसानों की बड़ी संख्या के कृषि उत्पाद का ऐसा कोई अनिश्चित उत्पादन नहीं होता है
जिसे बेचा जा सके | परिणामस्वरूप इन क्षेत्रों में उस हद तक कृषि बाज़ार अभी विकसित
नहीं हो पाया है जैसा पंजाब और हरियाणा में हुआ है और इसलिए विकसित क्षेत्रों में पेश
आ रही समस्याएं यहाँ उतनी स्पष्ट नहीं है |
यह उल्लेखनीय है कि यह आन्दोलन मुख्यतः उन
राज्यों में सुस्पष्ट है जहाँ अन्य क्षेत्रों की तुलना में कृषि में पूंजीवादी
उत्पादन विकसित हुआ है |
बहुराष्ट्रीय और देशी बड़ी पूंजी के लिए कृषि बाजार को खोला जाना: उत्तर ‘91 काल
अब सवाल उठता है – आखिर शासक वर्ग ने इस समय कृषि
क्षेत्र को बड़े कॉरपोरेट जगत के लिए खोलने का क़दम क्यों उठाया है? निकट से
देखने पर पता चलता है कि 1991 से शासक वर्ग ने अपनी कृषि नीतियों में बदलाव शुरू
कर दिया था। 1991 से साम्राज्यवादी और देशी बड़ी पूंजी की हित पूर्ति के
लिए अर्थव्यवस्था में उदारीकरण व वैश्वीकरण की नीतियां अपनाई गई थी। कृषि क्षेत्र
मे भी अनेक क़दम उठाए गए थे।
सब्सिडी में कटौती और
साम्राज्यवादी व देशी बड़ी पूंजी
का शोषण
नव उदारवादी नीतियों के अनुसरण में बिजली और उर्बरक पर सब्सिडी
घटा दी गई और उसके परिणामस्वरूप इन आगतों (इनपुट) की क़ीमतों में वृद्धि शुरू हो
गई। किसानों और फार्मरों को बीज की ऐसी नई किस्मों का प्रयोग
करने के लिए प्रोत्साहित किया गया जिनका उत्पादन बहुराष्ट्रीय कंपनिया करती थी और
जिनका उनके पास बौद्धिक संपदा अधिकार था। इस तरह से किसानों/फार्मरों को
ऊंची क़ीमतों पर बीज खरीदने के लिए विवश किया गया। बीजों की इन किस्मों
के लिए कीटनाशकों और रासायनिक उर्बरकों की बड़ी तादाद में ज़रूरत होती है। किसान/फार्मर
दोनो ओर से फंस गए। एक ओर तो सरकार ने सब्सिडी घटा दी, दूसरी ओर बीज, उर्बरक,
कीटनाशक आदि के रूप में कृषि में आगतों का लागत अत्यधिक बढ़ गई। स्पष्ट रूप से
बहुराष्ट्रिकों के द्वारा शोषण के कारण फ़सलों की उत्पादन लागत अधिकाधिक बढ़ने लगी ।
देश भर में किसान/फार्मर फ़सल उत्पादन की लागत में इस वृद्धि को महसूस करने लगे।
सरकार के प्रभाव में किसान/फार्मर खाद्यान्न फ़सलों से हट कर
कपास, सोयाबीन, तिलहन, सब्ज़ियां, फूल आदि जैसी नक़दी फ़सलों की खेती करने लगे।
ऐसा उन राज्य में विशेष रूप से अधिक हुआ जँहा पूंजीवादी
खेती अधिक होने लगी थी। इस प्रकार की खेती करने वाले किसानों के
लिए समस्यायें उठनी शुरू हो गई। चूंकि आगम लागत अधिक थी तो किसानों को निवेश कँहा
से मिलता ? पूंजीवादी फार्मर या धनी किसानों के पास स्वयं की बड़ी बड़ी ज़मीनें थी
और वे ऐसा निवेश वहन कर सकते थे। उन्हें कहीं कम दर पर बैंकों
से क़र्ज़ भी मिल सकता है और वे उसे कृषि में निवेश कर
सकते हैं। कई बार ऋण माफ़ी के कारण भी उन्हे बिना किसी बोझ के फ़ायदा हो जाता है।
लेकिन किसानों का निचला तबका जिसके पास स्वयं की ज़मीन नहीं है और जो बटाई के आधार
पर दूसरों से ज़मीन ले कर खेती करते हैं उसे ऐसे ऋण नहीं मिल पाते है। सार्वजनिक
क्षेत्र के बैंक ग़रीब किसानों को ऋण देने में अनिच्छुक होते है। उन्हे मुख्यतया स्थानीय
सूदख़ोरो से उच्च ब्याज दरों पर क़र्ज़ लेने पर बाध्य होना पड़ता है। परिणाम
स्वरूप उनकी उत्पादन लागत बढ़ जाती है।
कृषि
बाज़ार का वैश्विक बाज़ार में एकीकरण
लागत में वृद्धि होने के कारण अब बिक्री मूल्य बढ़ना चाहिए।
इसलिए अब लागत मूल्य की वसूली की समस्या उठने लगी। उस समय तक साम्राज्यवादी
एजेंसियों के दबाव में भारत के देशी कृषि बाज़ार का वैश्विक बाज़ार के साथ एकीकरण
हो गया था। परिणाम स्वरूप मुख्यतः वैशिक बाज़ार मूल्यों के अनुसार
और बाज़ार के अन्तर्निहित नियमों के कारण फ़सलों की क़ीमतों में
उतार-चढ़ाव आने लगे। अब किसानों के सामने दो कारणों से समस्या
थी। जब ख़राब मौसम या कीटों के कारण उत्पादन की क्षति हो, तो किसान को घाटा उठाना
पड़ता है। दूसरी ओर, अधिक उत्पादन होने की स्थिति में, अति-उत्पादन और
मांग में कमी के कारण बाजार दाम गिर जाता है।
विड़ंबना यह है कि फ़सल की निम्न कीमतों का फायदा
उपभोक्ता
को नहीं मिलता है। जब शहरों में प्याज का बिक्री मूल्य 50 रूपये प्रति किलोग्राम
होता है, तो किसान को उसका दाम मात्र 5 रूपये प्रति किलोग्राम मिलता है अथवा हताश
हो कर वह अपनी फ़सल को नष्ट कर देता है। और ऐसा इस लिए होता है क्योंकि बाजार पर
काबिज़ बिचौलिए अति-उत्पादन का बहाना बना कर गरीब किसानों
को अपनी उपज कौड़ियों के दाम पर बेचने पर मजबूर कर देते है। ग़रीब किसान के पास
अपनी उपज को लंबे समय तक रोक रखने की सामर्थ्य नहीं होती है। अत: उसे कृषि
उपज व्यापारियों या बिचौलियों द्वारा रखी गई क़ीमत पर अपनी फ़सल बेचने को विवश
होना पड़ता है। सच्चाई यह है कि उपभोक्ता को भी कोई फ़ायदा नहीं
होता है क्योंकि व्यापारी या बिचौलिए मोटा मुनाफ़ा कमाते हैं। और फिर अति-उत्पादन
वास्तव में अति-उत्पादन नहीं होता है। अति-उत्पादन का तर्क बाज़ार मांग के संदर्भ
में होता है, उपभोक्ता के वास्तविक मांग के संदर्भ में नहीं। जनता के एक बड़ा
हिस्सा इतना ग़रीब होता है कि अपनी ज़रूरत के बावजूद वह ख़रीद नहीं पाता है। इस
कारण बाज़ार सिकुड़ जाता है। इन सब कारणों के कुल परिणाम स्वरूप पूंजीवादी
विकासवाले क्षेत्रों में किसान नई समस्याओं में फंस जाते है – उपज
का कम मूल्य, घाटा, बढ़ता क़र्ज़, परिणाम स्वरूप आत्महत्याएं आदि।
उन क्षेत्रों का
समस्यायें जँहा पूंजीवादी विकास अपेक्षाकृत कम हुआ है
जिन राज्यों में पूंजीवादी विकास अपेक्षाकृत कम रहा है, वहाँ भी
सुधार के इन नीतियों के कारण किसानों की समस्याएं बढ़ी है हालांकि
उस हद तक नहीं। और इसका कारण तलाश करना भी मुश्किल नहीं है। यहाँ के किसान बाज़ार
को ध्यान में रख कर नहीं, वरन स्वयं के उपभोग के लिए उत्पादन करते हैं। इस कारण
बाज़ार में कीमतों का उतार-चढ़ाव का उन पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है।
इन राज्यों के किसान पहले से ही अनुपस्थित भूस्वामित्ववाद और पुराने समय के अनेक
प्रकार के शोषण के कारण उत्पीड़न के शिकार रहे हैं। इन राज्यों में कुपोषण, भुख और
भुखमरी की समस्याएं अधिक गंभीर है। आत्महत्या की घटनाएं यहां
कम
है। यहां की हक़ीक़त मृत्यु की ओर एक धीमी और पीड़ादायक
यात्रा है।
शासक
वर्ग का समाधान
बुर्जुआ अर्थशास्त्री इस कृषि संकट के ऐसा हल पेश कर रहे हैं जो
शासक वर्ग के हित में सरकारी नीतियों का मुख्य आधार है। इन नीतियों की मुख्य
विषयवस्तु है
:
1.
किसान को लाभकारी मूल्य तभी मिलेगा जब कृषि बाज़ार
को बहुराष्ट्रीय और देशी बड़ी पूंजी के लिए पूर्णतया खोल दिया जाएगा;
2.
देशी और बहुराष्ट्रीय बड़ी पूंजी द्वारा
निवेश का सुनिश्चित करना क्योंकि निवेश के बिना आधुनिक तकनीक को लागू नहीं किया जा
सकता है और कृषि उत्पादन में वृद्धि नहीं की जा सकती है;
3.
कृषि पर निर्भर जनसंख्या को कम करना |
कृषि
बाज़ार को बड़ी पूंजी के लिए खोलना
शासक वर्ग और सरकार के चाटुकार अर्थशास्त्रियों के मतानुसार
किसानों/फार्मरों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिलना चाहिए। अच्छी बात है। लेकिन
यह कैसे होगा ? घरेलु बाज़ार सिकुड़ा हुआ है – यह भी वे
अच्छी तरह से जानते हैं। इसका असली हल है निर्धनता का पूर्ण उन्मूलन और आमूल-चूल
भूमि सुधार। ये अर्थशास्त्री ऐसा हल कैसे सुझा सकते हैं ? मूल
(रेडिकल) सामाजिक परिवर्तन का डर उन्हे ऐसा नुस्खा सुझाने से रोकता है। इसलिए वे
अपने हल को निम्नलिखित तक सीमित रखते हैं। वे यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि
किसान/फार्मर अपनी उपज उच्च मध्य वर्ग के देशी बाज़ार और
वैश्विक बाज़ार में बेच सके। इन बाज़ारों में साधारण किस्म
के
चावल/गेंहू नहीं बिक सकता है। इस लिए वासमती चावल आदि जैसी नई प्रकार के फ़सलों
को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि किसानों/फार्मरों का एक बड़ा तबका पूंजी न होने के कारण
स्वयं इस प्रकार के उत्पादन में असमर्थ है। इसलिए कृषि बाज़ार में कॉरपोरेट जगत का
प्रवेश होता है। वे निवेश करेंगे, फार्मरों से उनकी फ़सल ख़रीदेंगे और अंत
में आकर्षक क़ीमतों पर उसे देशी और वैश्विक बाज़ार में बेच देंगे। किसानों/फार्मरों
को कॉरपोरेट क्रेताओं से बेहतर क़ीमत प्राप्त होगी जो वर्तमान समय में उन्हे
स्थानीय व्यापारियों या बिचौलियों से नहीं मिलती है।
लेकिन बहुराष्ट्रिकों और देशी बड़ी पूंजी की
शर्त है कि कृषि उत्पाद की क़ीमत सिर्फ़ बाज़ार द्वारा किया जाना चाहिए। और ऐसा
कोई उपाय नहीं किया जाना चाहिए जो क़ीमतों को प्रभावित करें या उनके शर्तों के
अनुसार जो क़ीमतों को विकृत करें। यह निहायत ही बेतुकी बात है।
एकाधिकारी पूंजी की तो मौजूदगी ही बाज़ार को मुक्त नहीं रहने देती है और वह ‘मुक्त
बाज़ार’ से छेड़छाड़ न करने की बात कर रही है। सरल शब्दों
में इसका अर्थ है – एकमात्र उन्हे ही बाज़ार पर निर्बाध और निरंकुश प्रभाव रखने की
छूट होनी चाहिए। इसके निहितार्थ स्पष्ट है – कृषि उपज की
सरकारी ख़रीद का उन्मूलन और एमएसपी का अंत।
सरकार भी इस बारे में अति उत्साहित है।
एकबार सरकारी ख़रीद का अंत हो जाए तो फिर भारतीय खाद्य निगम जैसे संगठनों द्वारा
खाद्यान्न की खरीद, भंडारण और रखरखाव पर
खर्च होनेवाली
राजसहायता की ज़रूरत नहीं रह जाएगी। लेकिन फिर ग़रीबों के रोष को केंद्र में रखकर
उनके लिए सब्सिडी पर खाद्यान्न वितरण की योजनाओं का क्या होगा ? क्या
इसकी ज़रूरत ख़त्म हो गई है ? या उन्होने इसके लिया
किसी अन्य व्यवस्था पर विचार किया है? अब ग़रीबों को सीधे-सीधे खाद्यान्न
नहीं दिया जायेगा बल्कि उन्हे ‘खाद्य टिकट’ दिए जाएंगे, जिनसे वे खुले बाज़ार से खरीद
कर
सकेंगे। लेकिन खरीद की मात्रा पूर्वनिर्धारित होंगे। और सरकार फ़सलों
के लिए एक ‘न्यूनतम मूल्य’ घोषित करेगी लेकिन उसके अनुसार ख़रीद
नहीं करेगी। यदि किसी किसान को अपनी उपज न्यूनतम मूल्य से कम पर बेचने में बाध्य
होना पड़ता है तो क़ीमत के इस अंतर की राशि उस किसान के बैंक खाते
में सीधा जमा करा दी जाएगी। यह एक पहेली ही है कि किसानों को इतनी बड़ी तादाद को
इस तरीके से कैसे क्षतिपूर्ति की जाएगी। शायद इस नए तरीके से सब्सिडी पाने वाले
किसानों की तादाद को सब्सिडी के भार को कम करने के लिए धीरे-धीरे कम कर दिया जाएगा।
संक्षेप में, कृषि बाज़ार को पूर्णतया नियंत्रण मुक्त कर
बहुराष्ट्रिकों और देशी कॉरपोरेट घराना द्वारा पूर्णतया नियंत्रित ‘मुक्त
बाज़ार’ के लिए खोल दिया जाएगा। एमएसपी समाप्त कर दिया
जाएगा। इसी के साथ खाद्य सुरक्षा अथवा सार्वजनिक वितरण प्रणाली की भी दुखद मृत्यु
हो जाएगी।
कृषि
उत्पादन में बड़ी पूंजी का निवेश
बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों के अनुसार किसानों की मुख्य समस्या
यह है कि किसानों की जोत का आकार छोटा होने के कारण आधुनिक
तकनीकों को इस्तेमाल कर उन्नत खेती नहीं की जा सकती है। परिणाम स्वरूप भूमि पर
प्रति ईकाई पैदावार बहुत कम है। यदि उनके लिए उत्पादन में सुधार का कोई उपाय सोचा
भी जाता है, तो उसके लिए अपेक्षित निवेश ऐसे किसानों के सामर्थ्य से परे है। तो इस
समस्या का क्या समाधान है
?
यहां भी मुख्य युक्ति कृषि
उत्पादन में कॉरपोरेट घरानों के प्रवेश का रास्ता खोलने की है। इसी कारण से ठेका
कृषि का क़ानून लाया गया है। ठेका खेती कानून से लैस
कॉरपोरेट संगठन किसानों से अपनी इच्छानुसार खेती करा सकेंगे। किसान अधिकाधिक उन पर
निर्भर होते जाएंगे। हालांकि अभी तक ठेका कृषि क़ानून में किसानों के ज़मीन के हस्तांतरण
अथवा पट्टे पर देने का प्रावधान नहीं है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से एक अन्य क़ानून
पर काम चल रहा है जिसका लक्ष्य है विद्यमान भूमिपट्टा क़ानून को शिथिल करना। अतीत
में भूमि हदबंदी क़ानून के ज़रिए ज़मींदारों जोतदारों के स्वामित्ववाली ज़मीनों के
सीमा तय कर अतिरिक्त ज़मीन को सरकारी नियंत्रण में ले लिया जाता था। अब इस अधिकतम
सीमा को बढ़ाने के लिए इसमें परिवर्तन करने का विचार है। ऐसा इस लिए किया जा रहा
है ताकि धनी किसान/
पूंजीवादी भूस्वामी कानूनी रूप से अधिक भूमि
के स्वामी बन रह सके। इन सबको चलते कृषि को कॉरपोरेट के हाथों में सौंपे जाने की
प्रक्रिया तेज़ होगी।
किसानों की
विशाल आबादी को कृषि से हटाना
बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों का यह स्पष्ट मत है कि देश की कृषि
अर्थव्यवस्था इतनी विशाल जनसंख्या का भार वहन करने में असमर्थ है। इसे कम करने की
ज़रूरत है। लेकिन यह काम कैसे किया जाए ? अधिक संख्या में औद्योगिक रोज़गार
सृजन की ज़रूरत है। यह कैसे किया जाएगा ? उनका नुस्खा है कि
औद्योगिक उत्पादन को वैश्विक उत्पादन शृंखला से जोड़ा जाए, जिसका अर्थ है कि बहुराष्ट्रिकों
का उत्पादन यहाँ पर हो। लेकिन वे यहाँ पर उत्पादन कार्य क्यों करेंगे ? इसे संभव करने के लिए ज़रूरी है कि श्रमिक कम मज़दूरी पर कार्य करें।
दूसरे शब्दों में, वे अतिरिक्त आबादी को बहुराष्ट्रीय निगमों के प्रभुत्व के अधीन
सौंपने की पैरवी कर रहे है ताकि वे उनका अत्यधिक शोषण कर मोटा मुनाफ़ा कमा सके।
कृषि में पूंजीवाद विकास के संबंध में शासक वर्ग की नीतियों का
मर्म यह है कि पहले कृषि में निवेश का एक बड़ा हिस्सा राज्य का होता था; अब से
ग़ैरसरकारी पूंजी का निवेश होगा। सरकार की योजना जो भी हो, यह अभी भविष्य की ही
बात है कि देशी और बहुराष्ट्रीय निगम कृषि अर्थव्यवस्था में कैसे और किस हद तक
प्रवेश करेंगे। स्पष्ट रूप से पहला निशाना वह इलाके होंगे जहाँ पर कृषि में
पूंजीवाद का पर्याप्त विकास हो चुका है। अल्प विकसित क्षेत्रों में सरकारी नीतियों
के प्रभाव का निकटता से अध्ययन कर समझने की ज़रूरत है।
शासक वर्ग की योजना का
प्रभाव
किसानों पर
भारत में किसान कोई एक समान सामाजिक समूह
नहीं है | उनके बीच भिन्न-भिन्न आर्थिक स्तर है | परिणामस्वरूप उन पर इन नीतियों
के निहितार्थ भी भिन्न-भिन्न होंगे |
प्रथम, गरीब किसानों पर क्या प्रभाव होगा
? गरीब किसानों से हमारा अर्थ किसानों का वह समूह है जिसके पास अपनी ज़मीन नहीं है
अथवा इतनी कम है कि उससे उनका गुज़ारा नहीं हो सकता है | अपनी भूमि पर खेती करने के
साथ ही अनेक बार उन्हें खेतिहर मजदूर का
काम भी करना होता है | ये गरीब किसान अपनी उपज का अपेक्षाकृत एक छोटा भाग ही बेच
पाता है क्योंकि उनका अतिरिक्त उत्पादन नगण्य ही होता है |वे अपनी उपज मंडी नहीं
ले जा पाते है | चूँकि उन्हें अपनी फसल कटाई के तुरंत बाद ही बेचनी होती है, अतः
उन्हें कही कम कीमत पर उपज बेचने पर विवश होना पड़ता है | यदि कॉर्पोरेट घराने उनसे
उनकी उपज खरीद भी लें तो भी उन्हें कोई बेहतर दाम नहीं मिलेगा क्योंकि कॉर्पोरेट
कृषि व्यापार में परोपकार के लिए नहीं वरन मुनाफे के लिए आ रहे है | एक बार फसलों
पर उनका प्रभुत्व हो जाए, फिर फसलों की दाम बढ़ेंगे | आवश्यक वस्तु अधिनियम में
किये गए संशोधन में ऐसी गतिविधि के लिए पर्याप्त गुंजाईश है | इसलिए छोटे किसान का
कॉर्पोरेट से हुई थोड़ी बहुत आमदनी के मुकाबले बाद में उन्हीं से उत्पाद खरीदने पर
कही अधिक मूल्य अदा करना पड़ेगा | एक दुसरे पहलु को भी समझने की आवश्यकता है कि
पहले से ही गरीब किसान अपनी ज़मीनों से बेदखल हो रहे हैं | शासक वर्ग का वर्तमान कार्यक्रम
इसे और अधिक प्रबल करेगा | वे अधिकाधिक अपनी ज़मीनों से हाथ धो बैठेंगे और चंद बड़े
भूस्वामियों और कॉर्पोरेट घरानों की हाथों में भूमि का केन्द्रीकरण होगा |
दुसरे, खेतिहर मजदूरों की दशा और भी अधिक
ख़राब होगी | गरीब किसानों की भूमि से बेदखली के परिणामस्वरूप, खेतिहर मजदूरों की
तादाद में बढ़ोतरी होगी | आधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल से पहले ही खेतिहर मजदूरों का
रोजगार कम हो रहा है | यह कार्यक्रम कृषि में रोजगार के अवसरों को और कम करेगा और
वे रोजगार की तलाश में शहरों की ओर प्रव्रजन के लिए मजबूर होंगे | उन्हें कहीं कम
मजदूरी पर ठेका मजदूर के रूप में कार्य करने पर विवश होना पड़ेगा | शहरी बेरोजगार
श्रमिकों की आरक्षित सेना में यह बृद्धि रोजगार की तलाश को और अधिक प्रतियोगी बना
देगी जिससे मजदूरी की दर और अधिक कम हो जाएगी | दूसरी ओर, आवश्यक वस्तु अधिनियम
में संशोधन और कृषि उत्पादों पर कॉर्पोरेट जगत की बढ़ती पकड़ के कारण विशेष कर
खाद्यान्नों की कीमतों में तेज वृद्धि होगी | चूँकि औद्योगिक मजदूरों के खर्च का
एक बड़ा हिस्सा खाद्यान्न खरीदने पर खर्च होता है इसलिए वे और मेहनतकशों के अन्य
तबके इससे सर्वाधिक पीड़ित होंगे |
धनी किसानों, पूंजीपति-भूस्वामियों,
फार्मरों पर प्रभाव
इन तबकों पर उतना अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा
जिसके बारे में ऊपर चर्चा की गई है | बल्कि इनमें से कुछ कानूनों से उन्हें कुछ हद
तक लाभ होगा | ये वे तबके है जो बड़ी मात्रा में उत्पादन करते है और जो उपज को
भंडार में रख सकते है | वे भण्डारण की अधिकतम सीमा को हटाये जाने और किसी भी कीमत
पर बेचने की स्वतंत्रता से लाभान्वित होंगे | आवश्यक वस्तु अधिनियम में इसी प्रकार
के संशोधन किये गए है | कॉर्पोरेट जगत से प्रतियोगिता उन्हें मुश्किल में डाल सकती
है लेकिन यदि घरेलु या अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से आकर्षक लाभ मिलता है तो उन्हें भी
उसका हिस्सा मिलेगा | वर्तमान किसान आन्दोलन के एक नेता योगेन्द्र यादव पहले ही यह
कह चुके हैं कि आवश्यक वस्तु अधिनियम अब पुराना पड़ चूका है और वे इसमें संशोधन के
विरुद्ध नहीं है –“कृषि उत्पादों के व्यापार पर लगे अनेक प्रतिबंधों को हटाए जाने
की ज़रुरत थी ताकि खाद्य बाज़ार में स्थिरता आए और कृषि विकास में मदद मिले
|....आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन ऐसा कर रहा है और इसलिए उसका स्वागत किया
जाना चाहिए | ‘जमाखोरी’ पर प्रतिबंध 1950 के दशक के खाद्य संकट की विरासत थे | अब
घरेलु खाद्य आपात स्थिति के अलावा हमें उनकी ज़रुरत नहीं है | इन्हें हटाने से
व्यापारियों और भंडार करने वालों की मदद होगी और शायद कृषि उत्पादों की कीमतों को
गिरने से रोकने में इससे मदद मिलेगी |” (“मोदी सरकार द्वारा जल्दबाजी में लाये गए
अध्यादेशों से कृषि की मदद होगी, किसानों की नहीं” –योगेन्द्र यादव )
एमएसपी
की समाप्ति के कारण इन तबकों को सर्वाधिक क्षति पहुंचेगी | वे एमएसपी पर सरकारी
खरीद की प्रणाली से सर्वाधिक लाभान्वित हुए है | इसीलिए वे एमएसपी वृद्धि की बार
बार मुखर होकर मांग करते हैं | अन्य राज्यों की तुलना में धान और गेंहू की खरीद की
यह व्यवस्था पंजाब और हरियाणा में काफी मजबूत है | इन राज्यों में गेंहू और धान की
उपज का एक बड़ा हिस्सा मंडी व्यवस्था के एक विस्तृत नेटवर्क के जरिये सरकार द्वारा
ख़रीदा जाता है | इसलिए स्वाभाविक है कि मंडी बाईपास कानून के सम्बन्ध में वे
अत्यधिक आंदोलित हैं क्योंकि उन्हें आशंका है कि यह उन्हें मिल रहे लाभ का अंत
होगा |
धनी किसानों, पूंजीवादी
भूस्वामियों और फार्मरों की मांग
वे भी घरेलू और वैशिक पूंजी के शोषण के
कारण पीड़ित ही | पिछले कुछ दशकों में उनके कृषि पर होने वाले व्यय में कई गुना
वृद्धि हुई ही | फिर भी वे इस शोषण को रोकने में बहुत ज्यादा रूचि नहीं दिखा रहे
है| वे इसका प्रतिरोध कैसे कर सकते है| खेतिहर मजदूरों का शोषण उनकी आय का प्रमुख
स्रोत है | फिर वे सूदखोरी के कारोबार में भी लगे हुए है | कई जगह वे बीज, ऊर्वरक
और कीटनाशकों के व्यवसाय में भी है |
धनी किसानों और पूंजीवादी भूस्वामियों व
फार्मरों की प्रमुख मंशा यही है कि उन्हें अपनी पैदावार की अच्छी कीमत मिले, जिससे
उन्हें मुनाफे की गारेंटी हो | कारपोरेट जगत के झूठ के सामने एमएसपी प्रणाली ही
उनका प्रधान सुरक्षा कवच है | अब उन्हें लग रहा है कि सरकार एमएसपी प्रणाली को
ख़त्म करने वाली है | इसलिए वे तीन कृषि कानूनों की वापसी की मांग के साथ ही एमएसपी
को क़ानूनी वैधता प्रदान करने की मांग कर रहे है |
लेकिन सवाल यह है कि क्या एमएसपी को क़ानूनी मान्यता देने की मांग गरीब किसानों
की भी मांग हो सकता है ? एक शब्द में इसका
जवाब है, नहीं | क्यों? पहली बात तो गरीब किसान मुश्किल से ही एमएसपी का फायदा ले
पाते है | दुसरे वे जितनी उपज बेचते है उसके मुकाबले उन्हें कही ज्यादा खुले बाजार
से खरीदना होता है | अतः उनके लिए इसका अर्थ है मुनाफे की बजाए कही ज्यादा नुकसान
| यह स्पष्ट है कि फसल की कीमतों में वृद्धि से सर्वाधिक कठिनाई खेत मजदूरों,
श्रमिकों और अन्य मेहनतकशों को होती है | (इस पर और विस्तार से चर्चा “मजदूर वर्ग एमएसपी की कानूनी मान्यता के सवाल को किस नजरिया से देखेगा ?” https://sarvaharapath.blogspot.com/2021/01/blog-post.html शीर्षक आलेख में की गई
है)
क्या
इन तीन कृषि कानूनों को वापिस लिए जाने मात्र से
गरीब
किसानों की दशा में सुधार होगा?
इन कानूनों के गरीब किसानों पर होने वाले
प्रतिकूल प्रभाव के बारे में हम पहले ही चर्चा कर चुके है | इन कानूनों से उनका
संकट और अधिक गहरा जाएगा | इसीलिए वे इन कानूनों को वापिस लिए जाने की मांग कर रहे
है | एमएसपी के लिए वैधानिक मान्यता उनकी मांग नहीं हो सकती है | लेकिन इस सब के बीच
मूलभूत प्रश्न यह है कि क्या इन कानूनों की वापसी से गरीब किसानों की निर्धनता और
अभाव की जिन्दगी बदल जाएगी ? क्या इससे
उनके जीवन और आजीविका की ज्वलंत समस्याएं समाप्त हो जाएगी ?
इसका
जोरदार जवाब है – नहीं | ऐसा इसलिए है कि उनकी और ग्रामीण निर्धनों की समस्याओं का
मूल कारण साम्राज्यवादियों, बड़े पूंजीपतियों और कृषि में अन्य शोषक वर्गों की
मौजूदगी है | आइये एक बार याद कर ले कि इससे पूर्व क्या वर्णन किया गया है |
पहले हम अपेक्षाकृत कम विकसित इलाकों की
समस्याओं पर विचार करें|
जैसा कि हमने देखा है कृषि में इस्तेमाल
की जाने वाली चीजों/सामग्री की लागत में वृद्धि हो रही है, लेकिन फार्मरों,
किसानों को पर्याप्त मुनाफा नहीं मिलता है | क्या कारण है ? एक ओर तो देशी और
वैशिक पूंजी के लिए मोटा मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए लागत बढ़ रही है ; दूसरी ओर
इन कारपोरेट के हितों की सेवा के लिए सरकारी सब्सिडी में अत्यधिक कटौती कर दी गई
है | इसका मतलब है कि फार्मर/किसान बड़ी पूंजी के शोषण के अधीन है | दुसरे पंजाब
जैसे राज्य में भी यह सुनने में आता है कि अनुपस्थित भूस्वामी अपनी जमीनों को
पट्टे पर देकर मोटा मुनाफा कमाते है | हम यह नहीं जानते है कि इस संबंध में समाचार
पत्रों में प्रकाशित ख़बरें कितनी प्रामाणिक है, लेकिन कुछ रिपोर्टो में दाबा किया
गया है कि खेती न करने वाले भूस्वामी अपनी जमीनों को पट्टे पर देकर प्रति वर्ष
30000 से 50000 रूपये प्रति एकड़ की आमदनी करते है | इनमें मुख्यतः अनुपस्थित
भूस्वामी है | कुछ इलाकों में तो यह दर 55000 रुपये से 60000 रुपये तक है ( द
ट्रिब्यून, जून 2017 और द इंडियन एक्सप्रेस 13 मार्च,2020)| इसलिए बाजार में
बिक्री के लिए उत्पादन करने वाले इन किसानों को उपज की बिक्री से हुई आमदनी में से
इतने अधिक किराए का भी भुगतान करना होता है | इसलिए उनकी उत्पादन लागत में यह भी
जुड़ जाता है |
तीसरे,
गरीब, मध्यम और बटाई पर खेती करने वालों पर अनौपचारिक बाजार के सूदखोरों से लिए गए
कर्ज पर अदा किये जाने वाले ब्याज के भार को भी उत्पादन लागत में शामिल किया जाना
चाहिए | इस तरह से हम देखते है कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से साम्राज्यवादी और
देशी बड़ी पूंजी, अनुपस्थित भूस्वामियों और सूदखोरों के शोषण के कारण उत्पादन लागत
बढ़ रही है | दूसरी ओर, गरीब और मध्यम किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य क्यों
नहीं मिल रहा है ? बिचौलिए और स्थानीय व्यापारी उन्हें अपनी पैदावार बहुत कम कीमत
पर बेचने को विवश कर देते है | कई अनुमानों के अनुसार असली उत्पादक को बिक्री
मूल्य का मात्र 30% ही प्राप्त होता है |
इस सबके अलावा अत्यधिक उत्पादन की स्थिति
में संकीर्ण बाजार मांग के कारण फसल की कीमतें गिर जाती है | इसी स्थिति में भी
किसानों को भारी घाटा उठाना पड़ता है | बाजार की मांग क्यों नही बढ़ रही है ? ऐसा
ठहराह क्यों है ? अत्यधिक शोषण के कारण करोड़ों मेहनतकशों की ऐसी वित्तीय स्थिति
नहीं है कि उनकी आवश्यक क्रय शक्ति हो | इसलिए अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की ही तरह
कृषि उत्पादों के बाजार का भी विस्तार नहीं हो रहा है | हम जो अतिउत्पादन देखते है
वह वस्ताविक आवश्यकता के दृष्टिकोण से नहीं वरन बाजार की मांग के सन्दर्भ में होता
है |
मेहनतकश किसान समुदाय इस तरह के अत्यधिक
शोषण के शिकार है और गरीब किसान इससे सर्वाधिक ग्रस्त है |
इन
सबके साथ, इन विकसित क्षेत्रों में खेत मजदूरों का प्रत्यक्ष रूप से धनी किसानों,
बड़े पूंजीपति-भूस्वामियों और फार्मरों द्वारा शोषण किया जाता है | इसके अतिरिक्त
चूँकि ये तबके उधार देने और अन्य कारोबारों में भी लगे है, इसलिए गरीब किसान भी
इनके हाथों शोषण के शिकार होते है | और फिर उत्पादन के अन्य क्षेत्रों की तरह कृषि
क्षेत्र में भी आधुनिकीकरण हो रहा है | परिणामस्वरूप खेत मजदूर अपनी नौकरियां खो
रहे है | यह संकटपूर्ण स्थिति गरीब किसानों के भूमिहीन किसान बनने और खेत मजदूरों
की कतार में शामिल होने की प्रक्रिया से और अधिक गंभीर हो रही है | औद्योगिक
क्षेत्र बेरोजगार कृषि मजदूरों की इतनी भारी तादाद को रोजगार देने में असमर्थ है |
अतः उन्हें गावों में ही रह कर या तो अत्यधिक कम मजदूरी पर काम करना पड़ता है या वे
किसी प्रकार अर्द्ध भुखमरी बेरोजगारी की अवस्था में गुजर-बसर करते है |
दूसरी ओर, देश के अन्य हिस्सों में जहां
पूंजीवादी खेती का कम विकास हुआ है,
वहां भूस्वामी अपनी भूमि को भूमिहीन किसानों को पट्टे या बटाई पर देकर किराए के
रूप में मोटी राशि हड़प जाते है |
इन पिछड़े इलाकों में, अनुपस्थित भूस्वामी
प्रमुख शोषक है | इनके अलावा, सूदखोरी, जमाखोरी और बिचौलियों के रूप में भी शोषण विद्यमान
है | साम्राज्यवादियों और देशी बड़ी पूंजी द्वारा शोषण भी मौजूद है लेकिन इन
क्षेत्रों में कुछ कुछ अप्रत्यक्ष है |
निष्कर्ष
के रूप में कहा जा सकता है कि इस देश के ग्रामीण गरीबों की बड़ी संख्या अर्थात गरीब
किसान और खेत मजदूर साम्राज्यवादियों, अनुपस्थित भूस्वामियों, सूदखोरों, जमाखोरों,
आढ़तियों और व्यापारियों के एकीकृत नेटवर्क के जरिए किए जा रहे शोषण के शिकार है |
इसके रूप और प्रकार में स्थानीय भिन्नता हो सकती है लेकिन ग्रामीण गरीबों का संकट
इन्ही के शोषण के कारण हैं | शासक वर्ग द्वारा अपनाया गया वर्तमान कार्यक्रम इस
विद्यमान शोषण में कोई बड़ा बदलाव नहीं लाएगा, बल्कि यह साम्राज्यवाद और देशी बड़ी
पूंजी के शोषण और प्रभूत्व को और अधिक तेज करेगा |
तब, गरीब किसानों की क्या मांग होनी चाहिए
?
स्पष्ट है कि गरीब किसानों को तमाम तरह के
शोषण से मुक्ति की मांग करनी चाहिए | बटाईदारों को अनुपस्थित भूस्वामित्ववाद के
उन्मूलन की मांग करनी चाहिए ताकि परजीवी भूस्वामी बटाईदारों की मेहनत की पैदावार
का बड़ा हिस्सा न हड़प पाएं | गरीब किसानों को सूदखोरी और व्यापारिक पूंजी के शोषण
की समाप्ती की मांग करनी चाहिए क्योंकि ये
शोषक गरीब और मध्यम किसानों को ललचा कर उन्हें कर्ज के जाल में फंसा लेते है और
फिर उन्हें अत्यधिक कम कीमत पर अपने पैदावार बेचने पर मजबूर कर देते है और कई बार
उन्हें उनकी जमीन से बेदखल कर उन्हें खेतिहर मजदूर बना देते है | गरीब किसानों को
बड़ी पूंजी ( साम्राज्यवादी और देशी ) की समाप्ती की भी मांग करनी चाहिए क्योंकि
उनका शोषण और सरकार द्वारा उन पर थोपे गये कर उन्ही के हितों की सेवा करते है और
गरीबों को और ज्यादा गरीब बनाते है | ये मांगे सिर्फ गरीब किसानों की ही नहीं
बल्कि गांवों के सभी गरीबों की मांगे है | वास्तव में, ये खेत मजदूरों और तमाम
अन्य मेहनतकशों की मांगे है जोकि ग्रामीण आबादी के बहुलांश है |
धनी किसान, पूंजीपति-भूस्वामी और फार्मर
स्वयं ऐसे मुद्दे नहीं उठाते है | न ही वे इन्हें उठाने में समर्थ है | ऐसा इसलिए
है क्योंकि वे स्वयं शोषक तबकों का हिस्सा है | सच तो यह है कि जिन क्षेत्रों में
कृषि में पूंजीवाद का विकास हुआ है, वहां धनी किसान और पूंजीवादी फार्मर ग्रामीण
समाज के शोषकों के अत्यधिक प्रभावी तबके का प्रतिनिधित्व करते है | बड़ी पूंजी से
अपनी अंतर्विरोध के बावजूद, उनके बीच समझौते का रिश्ता है | लेकिन जब वे सरकारी
नीतियों या बड़ी पूंजी के विरुद्ध लड़ते है, तब वे गरीब और मध्यम किसानों को अपने
हित में साथ में खींच लाते है | जिन क्षेत्रों में कृषि में पूंजीवाद उतना मजबूत
नहीं है, वहां धनी किसान भी इतना विकसित नहीं हुए है; यहां के धनी किसान हालांकि
स्वयं शोषक है लेकिन साथ ही वे ग्रामीण समाज के प्रभावी तबके अनुपस्थित
भूस्वामियों द्वारा शोषित है | अतः उनका अनुपस्थित भूस्वामी के साथ अंतर्विरोध है
|
फिर गरीब किसानों और खेत मजदूरों की
मुक्ति का मार्ग कौन सा होना चाहिए ? अनुपस्थित भूस्वामियों की तमाम जमीनों को
जब्त कर किसानों और खेत मजदूरों के बीच वितरित किया जाना चाहिए | सूदखोरी और
व्यापारिक पूंजी का अंत होना चाहिए | यह सवाल उठाया जा सकता है कि – इनती छोटी-छोटी
जोतों के साथ वे निर्धनता से कैसे छुटकारा पा सकते है ? भूमि के ऐसे छोटे-छोटे
टुकड़ों पर आधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग नहीँ बढाई जा सकती है | एक बात स्पष्ट रूप
से समझ में आनी चाहिए – भूमि के टुकड़े उनकी गरीबी का वास्तविक कारण नहीं है !
मुख्य कारण है सर्वव्यापी शोषण | इसलिए शोषण का अंत निश्चित रूप से उनके जीवन के
हालात को बेहतर बनाएगा | दुसरे, यदि छोटे किसान स्वेच्छा से सहकारी समितियों में
एकजुट होते है, तो वे आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल कर उत्पादकता बढ़ा सकते है और
सामूहिक उत्पादन को अपने बीच वितरित कर निर्धनता से ऊपर उठ सकते है | मौजूदा
प्रणाली के भीतर भी बुर्जुआ राज्य कभी-कभी सहकारिताएं गठित करने का प्रयास करता है
| लेकिन ऐसे सहकारी संगठनों का वास्तविक नियंत्रण गरीब किसानों के हाथों में नहीं,
अपितु वुर्जुआ राज्य के नौकरशाहों के हाथों में होता है, अर्थात अप्रतक्ष रूप से
यह नियंत्रण बड़े बुर्जुआ के हाथ में ही रहता है | अतः ऐसे सहकारी संगठनों का
उद्देश्य किसानों को निर्धनता से उबारना अथवा उन्हें स्वावलंबी बनाना नहीं अपितु
उनका शोषण करना होता है | गरीब किसानों का सच्चा सहकारी संगठन तभी बन सकता है जब
बड़े बुर्जुआ और बड़े भूस्वामियों के शासन को सत्ता से उखाड़ फेंका जाएगा और किसानों
के संश्रय से सर्वहारा सत्ता के शीर्ष पर होगा | यह जनता की जनवादी क्रांति का
मार्ग है |
लेकिन
गरीब किसान और भूमिहीन मजदूर इतनी दूरी तक स्वयं अपने बूते नहीं जा सकते है |
निश्चय ही वे अपनी तात्कालिक और आंशिक मांगो के लिए संघर्ष कर सकते है | लेकिन
तमाम तरह के शोषण का अंत करने के लिए नए समाज की स्थापना का संघर्ष जरुरी है |
गरीब किसान और खेत मजदूर ऐसे संघर्ष का नेतृत्व करने में असमर्थ है; सर्वहारा वह
अकेला वर्ग है जो ऐसे संघर्ष का नेतृत्व कर सकता है | वास्तव में गरीब किसान और
खेत मजदूर या तो समस्त प्रकार के शोषण के उन्मूलन के लिए इस संघर्ष में सर्वहारा
के नेतृत्व में भाग ले सकता है अथवा इसी व्यवस्था के भीतर अपने हालात सुधारने के
लिए बुर्जुआ के नेतृत्व के अधीन प्रयास कर सकता है | गरीब किसानों और खेत मजदूरों
का असली वर्ग हित सर्वहारा के नेतृत्व में साम्राज्यवादियों, देशी बड़ी पूंजी और
अनुपस्थित भूस्वामियों के शोषण के तमाम रूपों का उन्मूलन है |
वर्तमान संघर्ष में गरीब
किसानों की क्या भूमिका होनी चाहिए ?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि इन तीन कृषि
कानूनों से देशी और साम्राज्यवादी बड़ी पूंजी को कृषि अर्थव्यवस्था पर अपनी पकड़
मजबूत करने में मदद मिलेगी और इसके द्वारा गरीब और भूमिहीन किसानों की दशा और अधिक
ख़राब होगी | गरीब किसान भूमि से बेदखल होंगे, खेत मजदुर बेरोजगार हो जाएँगे और
खाद्य पदार्थों की कीमतें असमान छूने लगेंगी | संक्षेप में, उन्हें और अधिक
कठिनाईयों का सामना करना पड़ेगा | इसलिए बड़े बुर्जुआ के हित में मोदी सरकार द्वारा
बनाए गए इन नए कृषि कानूनों का अवश्य ही विरोध और प्रतिरोध किया जाना चाहिए |
यह पूछा जा सकता है कि यदि इन कानूनों की
वापसी से उनकी निर्धनता और दुःखों का अंत नहीं होता है तो वे क्यों इनके विरुद्ध
संघर्ष करें | पहली बात तो, यह कि इन कानूनों के लागु होने के साथ ही उन्हें और
अधिक शोषण और कठिनाईयों का सामना करना पड़ेगा | इसका प्रतिरोध करने के लिए उन्हें
इन कानूनों के विरुद्ध संघर्ष करना होगा | दुसरे, यदि इस संघर्ष के माध्यम से गरीब
किसान स्वयं अलग से एकजुट और संगठित होते है तो उन्हें तमाम प्रकार के शोषण से
मुक्ति के लिए भावी संघर्ष के लिए ताकत जुटाने में मदद मिलेगी | इस दृष्टि से
मौजूदा संघर्ष उनके लिए बेहद अहम् है | लेकिन उनके हित और धनी किसानों व पूंजीपति
भूस्वामी-फार्मरों के हित एक समान नहीं है | इसलिए इस संघर्ष में भागीदारी करते
हुए उन्हें पूर्ण मुक्ति के संघर्ष के लिए अवश्य ही स्वयं को तैयार करना होगा |
धनी किसान, पूंजीपति-भूस्वामी और फार्मर
अपने हिस्से के मुनाफे को बढ़ाने के लिए मौजूदा प्रणाली के भीतर ही प्रयास करते है
| इसके विपरीत, गरीब किसानों और खेत मजदूरों का हित अनिवार्य रूप से वर्तमान शोषणकारी
प्रणाली के तख्ता पलट से जुड़ा हुआ है | इस नजरिए से, इन दो वर्गों के हित परस्पर
विरोधी है | क्या इसका अर्थ है कि इन नए कृषि कानूनों के खिलाफ एकजुट संघर्ष में
गरीब किसान और धनी किसान एक साथ नहीं आ सकते है ? निश्चित रूप से वे एक साथ आ सकते
हैं | लेकिन गरीब किसानों को अवश्य ही अपने हितों की रक्षा करनी होगी | अतः उन्हें
ऐसी किसी मांग का साथ नहीं देना चाहिए जो सारतः उनके हितों के विरुद्ध हो | उदाहरण
के तौर पर, वे एमएसपी की वैध्यानिक गारंटी की मांग के लिए संघर्ष नहीं करेंगे
क्योंकि यह उनके हितों के विरुद्ध है | उनके लिए अधिक महत्वपूर्ण यह है कि वे इस
संघर्ष के जरिए न केवल कृषि कानूनों की वापसी के लिए संगठित हो बल्कि अपने असली
दुश्मनों और शोषण से मुक्ति के सही मार्ग की पहचान करें |
धनी किसानों और पूंजीपति भूस्वामी के अनेक
संगठन इस संघर्ष में प्रमुख और नेतृत्वकारी भूमिका में है | तथापि यहाँ गरीब और
मध्यम किसान भी भारी तादाद में मौजूद है और उनके बिना यह आन्दोलन इतने लम्बे समय
तक नहीं चल सकता था | इसी तरह ‘कानून वापस नहीं, तो घर वापसी नहीं ‘ नारा भी इतनी
प्रमुखता नहीं ले पाता | और जैसा कि हम सब जानते है, मुख्यतः मध्यम और गरीब
किसानों के बीच आधार वाले कुछ संगठन भी इस आन्दोलन के महत्वपूर्ण घटक है | इसलिए
इन कानूनों की वापसी के संघर्ष में वे अधिक जुझारू और दृढ़ संकल्पबद्ध है | इसके
अलावा ये संगठन कुछ क्रांतिकारी संगठनों से भी प्रभावित है | इस आन्दोलन से दूर
बैठकर, इन संगठनों की भूमिका पर टिप्पणी करना हमारे लिए उचित नहीं होगा | लेकिन एक
बात उल्लेखनीय है | यदि वे वर्तमान संघर्ष के भ्रूण का सही मायने में लालन-पालन और
पूरे दिल से उसका विकास करते है, तो वे सच्चे अर्थ में क्रांतिकारी संगठन की
भूमिका का प्रतिनिधित्व करेंगे; गरीब किसानों के वर्ग हित का प्रतिनिधित्व करेंगे
|
कई लोग इसे एक महत्वपूर्ण परिघटना मान रहे
है कि वर्तमान संघर्ष में शामिल किसान/फार्मर संगठन स्थापित राजनीतिक दलों का
विरोध करते हुए उनसे दुरी बनाए रखने का प्रयास कर रहे हैं | उनका मानना है कि इससे
इन दलों के दायरे से बाहर एक स्वतंत्र शक्ति के उदय की संभावना उत्पन्न हुई है |
सर्वहारा का अगुवा तबका इस हकीकत को अनदेखा नहीं कर सकता है कि इस आन्दोलन में शामिल
धनी किसानों, पूंजीपति भूस्वामियों, फार्मरों का नेतृत्व भले ही स्थापित राजनीतिक
दलों से कितना ही स्वतंत्र क्यों ने प्रतीत हो, वे सभी बुर्जुआ वर्ग के अंग है |
अंतिम विश्लेषण में, वास्तव में वे बुर्जुआ विचारधारा और राजनीति के ही प्रतिनिधि
है | यदि परिस्थितियों की मांग होगी, तो उन्हें मुख्यधारा की बुर्जुआ पार्टियों का
साथ देने या उनके साथ गठजोड़ बनाने में कोई संकोच नहीं होगा | जब हम मजदूर वर्ग की
स्वतंत्र अवस्थिति की बात करते है तो हमारा आशय एक पूर्णतया अलग और स्वतंत्र
अवस्थिति से होता है जो बुर्जुआ राजनीति और विचारधारा से मुक्त हो | धनी किसानों,
पूंजीवादी भूस्वामियों और फार्मरों के नेतृत्व वाला कोई भी संगठन मुख्यधारा के
दलों से स्वतंत्र रहने के बावजूद असली विश्लेषण में कभी भी सही मायने में स्वतंत्र
अवस्थिति नहीं अपना सकता है |
ये संघर्ष सर्वहारा को क्या सन्देश दे रहे
है ?
गरीब किसान और खेत मजदूर शोषण से मुक्ति
के लिए अपने स्वतंत्र संघर्ष और प्रयास द्वारा संघर्ष करने में असमर्थ है | केवल
मजदूर वर्ग ही ऐसे संघर्ष का नेतृत्व कर सकता है | स्पष्ट शब्दों में – एक
वास्तविक मजदूर वर्ग, मजदूर वर्ग के स्वतंत्र वर्ग संघर्ष पर आधारित वर्ग चेतना से
लैस हिरावल दस्ता | यह कहना गलत नहीं होगा कि ऐसी पार्टी की अनुपस्थिति में गरीब
किसानों और खेत मजदूरों का अपने वर्गीय हित में संगठित होना असंभव है | ऐसा इसलिए
है क्योंकि या तो वे इस प्रणाली के भीतर अपने हालात में सुधार लाने के लिए बुर्जुआ
नेतृत्व में कुछ सुधारों के जरिए प्रयास कर सकते है या अपनी वास्तविक मुक्ति के
लिए शोषण से मुक्ति हेतु संघर्ष के लिए स्वयं को सर्वहारा के नेतृत्व में संगठित
कर सकते है | कोई अन्य विकल्प नहीं है |
वर्तमान
में यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जबकि फार्मर और किसान शासक वर्ग के आक्रमण के विरुद्ध
सशक्त प्रतिरोध प्रस्तुत कर रहे है, इसी तरह के हमलों के विरुद्ध मजदूर वर्ग कोई
प्रतिरोध खड़ा नहीं कर पाया है | जब पूंजीवादी शासक वर्ग ने तमाम विद्यमान श्रम
कानूनों को समाप्त कर नया लेबर कोड थोप दिया तो मजदूर वर्ग असहाय दर्शक की तरह बस
देखता रहा, हालाँकि पुराने श्रम कानूनों में भी बहुत थोड़े श्रम अधिकार बचे हुए थे|
मजदूर वर्ग न केवल इन्हें रोक पाने में असमर्थ रहा, बल्कि वह देश में इसके खिलाफ
कोई आक्रोष-आन्दोलन भी नहीं खड़ा कर पाया | पराजय के इस प्रहार ने उन्हें इस मुकाम
पर पहुंचा दिया है जहां उन्हें अपनी ही शक्ति पर विश्वास नहीं है | साम्राज्यवादी
और देशी बड़े पूंजीपति और उनकी सरकारों के लगातार जारी हमलों से वे बार-बार
प्रताड़ित हो रहे है | उन से अपेक्षा थी कि वे सिर्फ स्वयं पर होने वाले हमलों का
ही प्रतिरोध नहीँ करेंगे, वरन समाज के अन्य तबकों के तमाम जनवादी संघर्षों का भी
नेतृत्व करेंगे | उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वे साम्राज्यवाद और घरेलू बड़ी पूंजी
और भूस्वामियों के विरुद्ध इन तमाम संघर्षों को अपने नेतृत्व में एकजुट करेंगे और
तमाम प्रकार के शोषण से मुक्ति की दिशा में अग्रसर होंगे | आज किसान स्वयं पर हो
रहे हमलों के खिलाफ उठ खड़े हो रहे है, और सिर्फ इतना ही नहीं, डट कर मुकाबला कर
रहे है | लेकिन मजदूर वर्ग अपनी भूमिका अदा करने में असमर्थ है | मजदूर वर्ग की इस
अयोग्यता को देखते हुए, यह स्वाभाविक है कि गरीब किसान धनि-पूंजीवादी भूस्वामी,
फार्मर नेतृत्व के अधीन एकत्र हो रहे है | जहां मजदूर वर्ग अनुपस्थित हो, वहां
शासक वर्ग के हमलों के खिलाफ गरीब किसानों के स्वतंत्र संघर्ष की कल्पना करना
निरर्थक है|
हाल के समय में, यह देखा गया है कि यद्यपि
मजदूर वर्ग संघर्ष के मैदान में गैर हाजिर है, समाज के कई अन्य तबके अपने
लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए संघर्षरत है | यह अत्यधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि
मजदूर वर्ग संघर्ष के मैदान से नदारद है; उसकी अपनी कोई पार्टी नहीं है जिसकी
भूमिका न केवल मजदूर वर्ग का नेतृत्व करने की होनी चाहिए अपितु उसका दायित्व है कि
वह शोषित- वंचितों के तमाम समूहों का नेतृत्व करे जिससे इन सभी तबकों की आकांक्षाएं
पूरी करने वाले एक नए समाज निर्माण हेतु आमूल-चूल परिवर्तन हो | इसलिए ये सभी
संघर्ष मजदूर वर्ग का आह्वान कर रहे है कि वह उठे, एक वर्ग के रूप में संगठित हो,
अपनी स्वतंत्र वर्ग पार्टी बनाए और समाज के सभी उत्पीडित तबकों का नेतृत्व करे |
यदि क्रांतिकारी अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा करना चाहते है तो उन्हें एक वास्तविक
मजदूर वर्ग की पार्टी बनाने के लिए पूरी ताकत और उत्साह से प्रयास करने चाहिए |
वर्तमान परिस्थितियों में सर्वहारा का
संगठित अगुवा तबका, भले ही कितना भी दुर्बल क्यों न हो, क्या वह किसानों के मौजूदा
संघर्ष के समर्थन में बिना किसी शर्त के समर्थन जूता कर उसके साथ एकजुट हो सकता है
? यदि वह ऐसा करता है, तो वह वर्ग संघर्ष के विकास की भावी संभावनाओं में अवरोध
खड़ा करेगा | अतः मजदूर वर्ग के अगुवा तबके का कार्यभार यह होना चाहिए कि वह कृषि
में बड़ी पूंजी के प्रभुत्व को, और अधिक बढ़ाने वाली नीतियों के प्रतिरोध में मौजूदा
किसान संघर्ष के साथ समर्थन में खड़ा हो | लेकिन उनका कार्यभार इतने तक सीमित
नहीं रहना चाहिए | उन्हें गरीब किसानों के
आन्दोलनकारी तबकों को यह समझाने का प्रयास करना चाहिए कि इन कृषि कानूनों की वापसी
मात्र से उनकी समस्याए हल नहीं होगी | उनकी मुक्ति अनुपस्थित भूस्वामियों,
सूदखोरों, जमाखोरों और बिचौलिये व्यापारियों को उखाड़ फैंकने में है | ये सभी उसके
शोषक है | धनी किसान-पूंजीवादी भूस्वामी, बड़े फार्म मालिक न तो उनके साथ खड़े होंगे
और न ही उन्हें इन शोषकों के विरुद्ध अपने संघर्ष को आगे बढ़ाने देंगे | इस बड़े
लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्हें वर्गीय शोषण के विरुद्ध अलग से और स्वतंत्र रूप
से संगठित होना होगा | भावी संघर्ष के भ्रूण और उसके विकास की राह का संरक्षण करना
ही असली कार्यभार है |
अप्रैल 2021