Wednesday, November 15, 2023

साम्राज्यवादी ताक़तों की मदद से फ़िलिस्तीनी जनता के नरसंहार में लगे इसराइल का विरोध करें! अपनी आवाज़ उठाएँ- तमाम देश के मेहनतकश लोग फ़िलिस्तीनी लोगों के साथ हैं!


शायद ही कोई इससे अन्जान हो कि सात अक्टूबर को फिलिस्तीनी संगठन हमास द्वारा इसराइल पर अचानक हमले के बाद से फिलिस्तीन और इसरायल के बीच युद्ध का नया दौर शुरू हो गया है। इसराइल ने घोषणा की है कि वह इसका बदला लिए बिना चुप नहीं बैठेगा। उन्होंने ग़जा पट्टी को पूरी तरह से अवरुद्ध कर दिया है ताकि कोई भी भोज्य सामग्री, बिजली, ईंधन गैस, पीने का पानी आदि की सप्लाई ग़जा में न हो सके। इसराइल के सैन्य हमले में अब तक 10,000 से अधिक फ़िलिस्तीनी मारे जा चुके हैं। इसराइली सेना के हमले से महिलाएं और बच्चे भी नहीं बचे हैं। यहां तक कि घायल फ़िलिस्तीनियों के इलाज के लिए तय किए गए अस्पताल भी इसराइली सेना की बमबारी से बच नहीं पा रहे हैं। लाखों फिलिस्तीनी ग़जा से भाग रहे हैं, हालांकि उनके पास जाने के लिए कोई जगह नहीं है। फ़िलिस्तीन के लोगों पर दुःस्वप्न की एक अवर्णनीय रात आ गई है, जिसका कोई अंत नहीं दिख रहा है।

हमास के हमले के तुरंत बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रतिनिधि राष्ट्रपति जो बाइडेन, ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक और यहाँ तक कि हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक शब्द में कहा कि इसराइल को अपनी आत्मरक्षा का अधिकार है, जिसका साफ़ अर्थ है कि इसराइल द्वारा ग़जा पट्टी पर किया जा रहा हमला पूरी तरह से ज़ायज़ है। उनके साथ-साथ मीडिया भी, जिसकी दक्षिणपंथ की ओर यात्रा लगभग पूरी हो चुकी है, फ़िलिस्तीन विरोधी प्रचार में लगी हुई है।

साम्राज्यवाद व इसरायली शासक-वर्ग एवं उनके भारतीय अनुचरों जैसे कई लोग हमें बता रहे हैं कि 'इस्लामी आतंकवादी' हमास का यह हमला इसरायल-हमास विवाद की शुरुआत है। फ़िलिस्तीनियों पर इसराइली सरकार के हमलों और अत्याचारों का मानो कोई पिछला इतिहास नहीं है। मानो अपने जन्म से लेकर अब तक इसराइल हिटलर के विनाश और जनसंहार से पीड़ित असहाय यहूदी लोगों के लिए शरण का देश मात्र था। लेकिन, यह पूरा प्रचार साम्राज्यवाद और इसराइली शासक-वर्ग द्वारा रचित एक बड़े झूठ के अलावा और कुछ नहीं है। और इस झूठ के कुछ खास पहलू हैं। हमें उन विशेष पहलुओं के इतिहास को बहुत संक्षेप में जानने की आवश्यकता है।

1948 में इसराइल देश की स्थापना फ़िलिस्तीनी क्षेत्र में हुआ। फ़िलिस्तीनियों को खदेड़कर यह क्षेत्र यहूदियों को सौंप दिया गया था। दक्षिणपंथी लोग तर्क देंगे कि--सताये गये यहूदियों को भी तो अपने वतन की ज़रूरत थी। अगर उन्हें 2000 साल पहले बसे हुए भूखंड में रहने की इज़ाज़त दिया जाता है तो उसमें ग़लती कहां है? जो यहूदी ज़र्मन नाज़ी सेनाओं के दमन के कारण अलग-अलग देशों में बिखरे हुए थे, उन्हें एक अपने भूखंड की ज़रूरत तो होगी, है न? बहुत अच्छी बात है। तो फिर फ़िलिस्तीनी लोग कहाँ जायेंगे? आज, यदि अमेरिका भूखंड की मूलनिवासी अमेरिकन-इंडियन लोग उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका को यूरोपीय लोगों के हाथों से वापस लेना चाहते हैं, तो क्या वे उस भूखंड को लौटा देंगे? वह इतिहास तो 2000 साल पुराना नहीं बल्कि महज 400 साल ही पुराना है। यदि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को यहूदियों से इतना ही प्रेम था तो उन्होंने उनके बसने लिए भूखंड यूरोप में ही क्यों नहीं चुना? इसराइल में बसने वाले सभी यहूदी यूरोप से आये थे। 1948 में ब्रिटिश साम्राज्यवाद और नवगठित संयुक्त राष्ट्र ने किस अधिकार से यह निर्णय लिया कि वे स्वतंत्र फ़िलिस्तीन की भूखंड इसराइल को सौंप देंगे? क्या यह जबरदस्ती नहीं है?

आप जानते हैं कि इससे भी अधिक महत्वपूर्ण और एक बात है? इसराइल की स्थापना की योजनाएँ हिटलर द्वारा यहूदियों के जनसंहार के बाद शुरू नहीं हुईं। बल्कि इसकी शुरुआत बहुत पहले, प्रथम विश्व युद्ध के ठीक बाद हुई थी। प्रथम विश्व युद्ध के बाद, राष्ट्र संघ (संयुक्त राष्ट्र के पूर्ववर्ती निकाय) द्वारा भूतपूर्व ऑटोमन साम्राज्य के क्षेत्र को ब्रिटिश साम्राज्यवाद को सौंप दिया गया था। फ़िलिस्तीन को छोड़कर उस क्षेत्र के सभी देशों को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। वर्ष 1917 में ही ब्रिटिश सरकार द्वारा बाल्फोर घोषणा के माध्यम से, फिलिस्तीन को यहूदियों की वतन के रूप में स्थापित करने की बात हुई। उस समय हिटलर और उसके द्वारा यहूदियों का सफाया कहां हुआ था? प्रथम विश्व युद्ध के समय से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध तक भारी संख्या में यहूदियों ने फ़िलिस्तीन में बसना शुरू किया और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समर्थन से फिलिस्तिनियो को उजाड़ना शुरू कर दिया।

दरअसल ब्रिटिश साम्राज्यवाद का मक़सद दूसरा कुछ था। वे जानते थे कि कभी न कभी उन्हें यह क्षेत्र छोड़कर जाना होगा। लेकिन, वे इस ईंधन तेल समृद्ध क्षेत्र को छोड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकते। इसलिए इस क्षेत्र में अपना वर्चस्य बनाए रखने के लिए उन्हें एक ऐसी ताक़त की ज़रूरत थी जो पश्चिमी साम्राज्यवाद के समर्पित वफादार हो। यही भूमिका इसराइल ने ले ली है। और इसीलिए चारो ओर व्यापक संख्या में अरब आबादी के विशाल समुद्र में छोटे से टापू की तरह इसराइल को बने रहने के लिए जबरन फिलिस्तीनी जनता और अरबों के बीच निरंतर युद्ध चलता रहा। इसके लिए इसराइल ने साम्राज्यवाद के प्रत्यक्ष समर्थन से, एक ओर, खुद को भारी पैमाने पर सैन्य हथियारों से सुसज्जित किया है, और साथ ही अपनी अर्थव्यवस्था को भी बड़े पैमाने पर विकसित किया है। दरअसल साम्राज्यवाद ने यहूदियों के प्रति सहानुभूति के कारण नहीं, बल्कि तेल-समृद्ध क्षेत्र में अपना वर्चस्य बनाए रखने के लिए इसराइल को एक भरोसेमंद अड्डे के रूप में बनाये रखा।

1948 में जब इसराइल का स्थापना हुई, तब संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन क्षेत्र सम्बन्धी ब्रिटिश शासनादेश के अनुसार उस क्षेत्र को इसराइल और फिलिस्तीन में दो बराबर भागों में विभाजित करने का प्रस्ताव रखा। और उनका प्रस्ताव था कि यरूशलेम अंतर्राष्ट्रीय शहर बना रहेगा। लेकिन, उस समय इसराइल ने इसे स्वीकार नहीं किया और इसके बजाय लड़ाई लड़ी और शासनादेश अनुसार घोषित फिलिस्तीन क्षेत्र के भी 77 प्रतिशत हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया। उस युद्ध में जॉर्डन और मिस्र के अधीन  फिलिस्तीन शासनादेश के जो दो हिस्से शामिल थे, उन दोनों हिस्से पर भी 1967 के युद्ध में इसराइल ने क़ब्ज़ा कर लिया था। ये दोनों हिस्से वेस्ट बैंक और ग़जा पट्टी हैं - दो बहुत छोटे क्षेत्र। कुल फ़िलिस्तीनियों में से अधिकांश जनता लेबनान, जॉर्डन, मिस्र आदि देशों में शरणार्थी के रूप में शिविरों में अपने निर्वासन के दिन काटती आ रही है। पिछली तीन पीढ़ियों से, लाखों फिलिस्तीनियों का जन्म और मृत्यु शरणार्थी शिविरों में होता आ रहा है।

1970 के दशक से लेकर 1990 के दशक की शुरुआत तक, यासर अराफात के नेतृत्व में फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन--पीएलओ) ने फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष का नेतृत्व किया। वर्ष 1993 में ओस्लो शहर में एक समझौता हुआ जिसमें इसराइल के तहत पीएलओ ने फिलिस्तीनी प्राधिकरण नाम के एक (नाम-के-वास्ते) फिलिस्तीनी क्षेत्र बनाने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। उसके बाद, पीएलओ के पुराने नेताओं ने भ्रष्ट और जनविरोधी भूमिका निभानी शुरू कर दी। और जल्द ही उन्होंने फ़िलिस्तीनी लोगों का समर्थन खोना शुरू कर दिया। हमास ने इस खालीपन की भरपाई किया। इसके पश्चात् के इतिहास में, हमास ने इसराइल विरोधी संघर्ष का नेतृत्व दिया है।

साल 1993 के दौरान इस तरह नाम-के-वास्ते एक फ़िलिस्तीन क्षेत्र तय होने पर भी उस छोटे से क्षेत्र में फ़िलिस्तीनी जनता इसरायली सेना के लगातार हमलों से बच नहीं पायी। एक इसराइली मानवाधिकार संगठन द्वारा वर्ष 2010 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2000 और 2010 के बीच, दोनों पक्षों के बीच संघर्ष में 6,371 फिलिस्तीनी मारे गए, जिनमें 1,317 बच्चे भी शामिल थे, जबकि इन 6,371 में से कम से कम 2,996 ने किसी भी संघर्ष में भाग नहीं लिया। वे सभी निर्दोष सामान्य फ़िलिस्तीनी थे। इसके विपरीत, फ़िलिस्तीनियों के हाथों 1,083 इसराइली मारे गए, जिनमें 124 बच्चे और 741 निर्दोष नागरिक शामिल थे (स्रोत: https://www.jhttps://www.jpost.com/israel/btselem-since-2000-7454-israelis-palestinians-killed )। लिहाज़ा इस जानकारी से यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि शुरू से ही कौन असली हमलावर रहा है। इतना ही नहीं, इसराइल ने 1993 के शांति समझौते में निर्धारित फ़िलिस्तीनी क्षेत्रों के रूप में जाने जाने वाले दो पूरी तरह से बिछड़े हुए क्षेत्रों--ग़जा और वेस्ट बैंक--में, विशेष रूप से वेस्ट बैंक क्षेत्र में, एक के बाद एक इसरायली बस्तियाँ जबरन स्थापित की हैं। 2009 में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, तब तक कम से कम 500,000 इसराइली को वेस्ट बैंक में बसाये गये थे; दूसरी ओर, अप्रैल 2010 में इसराइली सेना द्वारा घोषित एक आदेश के अनुसार, वे चाहें जिस भी फ़िलिस्तीनी को चाहें 'घुसपैठिए' के रूप में चिन्हित कर वेस्ट बैंक से बाहर निकाल सकते हैं। वर्ष 2007 से ग़जा से निकलने का एक मार्ग छोड़कर सभी निकास मार्ग बंद कर दिये गये हैं। तब से इसराइल के प्रत्यक्ष आदेशों के तहत ग़जा पट्टी को प्रभावी ढंग से अवरुद्ध कर दिया गया है, आयात और निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, वहां जो भी कारखाने थे, लगभग सभी बंद हो गये, बेरोज़गारी आसमान छू रही है, अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई है। इऩ सबसे यह स्पष्ट है कि इस हालिया हमले की घटना से कितने समय पहले से ही, इसराइल ने फिलिस्तीनी जनता को सभी प्रकार के हमलों और दमन के माध्यम से अधिक से अधिक कठिन परिस्थिति की ओर धकेलते आये हैं।

इसलिए, आज इस स्थिति में हम जो कुछ भी देख रहे हैं, वह सही या ग़लत रास्ता जो भी हो, वास्तव में वही आज साम्राज्यवाद की सीधी साजिश के कारण अपने भूखंड से उजड़ने और लम्बे समय से चलने वाली क्रूर हमलों के ख़िलाफ़ पिछले 75 वर्षों के फिलिस्तीनी जनता की मुक्ति संघर्ष का एक विशेष रूप या अभिव्यक्ति ही है। फ़िलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष के इस इतिहास को ही भुलाने के लिए आज अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में साम्राज्यवादी दुनिया और उनके वफादार मोदी जैसे डींगें हांकने वाले नेता इसराइल की पक्ष में खड़े होकर इस युद्ध की सारी जिम्मेदारी हमास के कंधों पर डाल रहे हैं।

इसमें भी, इन साम्राज्यवादी राजनेताओं का पाखंड अब इस मुकाम पर पहुंच गया है कि जब पूरा गाजा शहर इसराइली मिसाइल हमलों से मलबे में तब्दील हो रहा है (इंटरनेट पर कुछ उपग्रह चित्र प्रकाशित किए गए हैं, जिसमें इसराइली हमले से पहले और बाद के ग़जा की दोनों तस्वीरें दिखाई गई हैं और उस तस्वीर से यह साफ़ ज़ाहिर है कि इसराली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के घोषित निर्णय के अनुसार ग़जा शहर पहले ही व्यावहारिक रूप से जमींदोज हो चुका है), तब उस तबाही के ऊपर खड़े होकर एक तरफ वे कह रहे हैं कि वे फिलिस्तीनियों के अधिकारों का समर्थन करते हैं जबकि वे दूसरी ओर इसराइल को स्पष्ट शब्दों में यह नहीं कह पा रहे हैं कि ग़जा पर तत्काल सैन्य हमला पूरी तरह से रोका जाना चाहिए, बल्कि इसके विपरीत वे इसराइल को भी पूरा समर्थन दे रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र ने इसराइल से यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया कि ग़जा के "आम नागरिकों" की रक्षा की जाए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि मानवीय सहायता के नाम पर फिलिस्तीनियों को कुछ भीख जैसी राहत भेजी जाए! संयुक्त राष्ट्र के पाखंड का उत्स देखिए कि अपने इसी बयान में आगे कहता है कि, यह भी निर्णय लिया गया है कि इसराइल चाहे तो संयुक्त राष्ट्र के इस अनुरोध (गैर-बाध्यकारी) को अस्वीकार भी कर सकता है!

और हमारे देश की सरकार! वे न केवल "आतंकवादी" फ़िलिस्तीनियों पर इसराइली हमलों का समर्थन करते हैं, बल्कि हमारे सरकारी प्रतिनिधि संयुक्त राष्ट्र के इस तरह की छोटे-छोटे फैसलों पर भी मतदान करने से बचते हैं। अब कौन समूचे फिलिस्तीनी जनता को "आतंकवादी" करार दे रहा है ? जो उनके सरकार के खिलाफ़ कोई भी प्रतिवाद होने पर प्रदर्शनकारियों को "राष्ट्र-विरोधी" चिन्हित कर यूएपीए जैसे क्रूर क़ानून में क़ैद करने के लिए तंत्र का दुरुउपयोग कर रहा है। असल में "आतंकवाद" केवल किसी संगठन द्वारा ही नहीं किया जाता है, बल्कि राज्यसत्ता भी अत्यधिक आतंक को अंजाम दे सकता है, और अंजाम दे भी रहा है - "राज्यसत्ता का आतंक" नामक एक शब्द भी है,  इस बात को हमारे देश के वर्तमान शासकों ने खुद भुला दिया है।

अतः  यह स्पष्ट है कि यह फिलिस्तीन की जनता नहीं, बल्कि साम्राज्यवाद, इसराइल का वर्चस्ववादी शासक वर्ग और मोदी जैसे उनके वफादार नेता हैं जिन्होंने इस क्षेत्र में संघर्ष को अंजाम दिया है। फ़िलिस्तीनी जनता पर जो क्रूर हमला चल रहा है उसके बारे में आज उनके पक्ष में वस्तुतः कोई नहीं है। यहां तक कि जो अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग वास्तव में इस गैर-बराबर युद्ध में फ़िलिस्तीनी जनता के साथ खड़ा हो सकता था, और उनको नेतृत्व भी दे सकता था, पर वह स्वयं ही पूरी तरह से बिखरे हुए हैं। फिर भी, इस छोटे से फ़िलिस्तीन ने हार नहीं माना। उनका मुक्ति संग्राम अभी भी ज़ारी है। ऐसे गैर-बराबर युद्ध में यह स्वाभाविक है कि पीड़ित-प्रताड़ित लोग अलग-अलग तरीकों से संघर्ष करेंगे। यह सच है कि जिस तरह सुधारवादी पीएलओ के नेतृत्व में भी फ़िलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष की जीत हासिल नहीं हुई, उसी तरह हमास द्वारा दिखाये गए रास्ते के तहत भी आज उनकी मुक्ति संभव नहीं है। इसके लिए सभी फ़िलिस्तीनी और इसरायली आम जनता के एकजुट जन-आंदोलन की ज़रूरत है, जो फ़िलिस्तीनी समस्या के समाधान की ओर बढ़ने का एकमात्र तरीका है। यह एक सच्चाई है कि जब तक अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग अपनी हार से उबर कर खड़ा नहीं हो पाता और फिलिस्तीनी जनता सहित सभी उत्पीड़ित जनता को उनकी सच्ची मुक्ति का रास्ता नहीं दिखाता, तब तक फिलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष की पूर्ण जीत संभव नहीं है। लेकिन इसलिए क्या आज हम शांत बैठें रहेंगे? ऐसा नहीं हो सकता। इस स्थिति में भी, आइए आज हम आम फ़िलिस्तीनी लोगों के पक्ष में खड़े हो जाए, अपने ताक़त अनुसार उन पर साम्राज्यवाद और इसराइली शासक वर्ग के क्रूर हमलों और अत्याचारों का विरोध करें।