Monday, November 8, 2021

इस देश की कट्टर हिंदू साम्प्रदायिकता की ख़िलाफ़त किए बगैर बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों पर साम्प्रदायिक दंगे का विरोध पूरा नहीं हो सकता

 

हाल ही में बांग्लादेश के विभिन्न इलाकों में अल्पसंख्यक हिन्दू समुदाय के लोगों पर मुस्लिम कट्टरपंथी साम्प्रदायिक ताकतों का जो नंगा नाच चला उसमें 6 निर्दोष हिन्दुओ की मौत हो गई है। कई दुर्गा पूजा मंडपों में तोडफोड़ की गई है, कई लोगों के घर लूटे गए हैं । लोकतंत्र की एक मूलभूत शर्त है हर धार्मिक समुदाय के धर्माचरण की आज़ादी। सांप्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों का पूजा पंडालों और मंदिरों पर हमला दिखाता है भारत की ही तरह बांग्लादेश का लोकतंत्र भी कितना सीमित है। इस देश के काफी लोग हिंदुओं पर हमले को लेकर मुखर हुए हैं। लेकिन, यह हमला क्या सिर्फ हिंदुओं पर ही है। या यह हमला लोकतंत्र पर है ? इस हमले में क्या सिर्फ हिंदुओं को नुकसान हुआ ? बिल्कुल नहीं।  इस तरह देखने का मायने दरअसल इस घटना को एक दूसरे, विपरीत सांप्रदायिकता के चश्मे से देखना है । असल खामियाज़ा तो ग़रीब मेहनतकश लोगों को ही उठाना पड़ रहा है चाहे वे किसी भी धर्म के हों । इस तरह की घटना समाज में साम्प्रदायिकता को भड़काएगी। इसके फलस्वरुप मेहनतकश लोगों की ज़िन्दगी की जो असली समस्या – यानी उनका रोज़ी-रोटी का समस्या, उनके ऊपर चल रहे पूंजीपति और जमींदारों के शोषण का समस्या, उन समस्यायों के जड़ में जो कारण है उसे तलाशने के लिए मेहनतकश लोगों का जो नजरिया अपनाना पड़ता है, वह नजरिया ही धुंधला हो जाता है। साम्प्रदायिकता एक धर्म के लोगों को सिखाता है उसके शोषक नहीं, बल्कि दूसरे धर्म के गरीब मेहनतकश लोग ही उनके दुश्मन है और इस तरह सांप्रदायिकता शोषण मुक्ति की लड़ाई के रास्ते पर रोड़े डालता है। बांग्लादेश के हाल के दंगो का दो तरह से विरोध किया जा सकता है। या तो, लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य से और मजदूर वर्ग के दृष्टिकोण से, सभी गरीब लोगों के स्वार्थ की जगह से, चाहे वे किसी भी धर्म के क्यों न हो। और नहीं तो हिंदू साम्प्रदायिकतावादियों की स्थिति से जिसका अर्थ है एक साम्प्रदायिकता के विरोध के नाम पर दूसरी साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देना।

   सही में यह अंतिम काम ही कर रही है आरएसएस-भाजपा जैसे चरम हिंदू साम्प्रदायिक लोग जो लोग बांग्लादेश में अल्पसंख्यको के उत्पीड़न के इस घटना को हिंदू साम्प्रदायिकता बढ़ाने के हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं ।  जो लोग इस देश में मुस्लिम सहित भिन्न भिन्न अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों पर लगातार हमले का षडयंत्र चला रहे हैं, जो लोग विभिन्न तरीकों से अल्पसंख्यक लोगों का अधिकार छीनने की साजिश रच रहे हैं, यहाँ तक की सीएए-एनआरसी जैसे भेदभावपूर्ण कानून लागू कर उन लोगों की नागरिकता के अधिकार भी छीनने की साजिश रच रहे हैं । अब वही लोग फिर जब दूसरे देशों में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का विरोध करते हैं तब उनकी साजिश का असली मक़सद समझने में कोई दिक्कत नहीं होती है।

एक तरफ इस देश में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के अनगिनत घटना को बांग्लादेश सहित विभिन्न जगहों के मुस्लिम कट्टरपंथी व साम्प्रदायिक ताकतें हिंदुओ के विरोध करने के लिए इस्तेमाल कर रहे है, और  दूसरी तरफ कट्टर हिंदू साम्प्रदायिक ताकत बांग्लादेश सहित विभिन्न जगहों में मुस्लिम कट्टरपंथी व सांप्रदायिक ताकतों के हरकत को अपने हथकंडे के औज़ार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं । इससे यह उजागर हो रहा है कि हिंदू व मुस्लिम यह दोनों साम्प्रदायिकता एक दूसरे की दुश्मन नहीं है, बल्कि एक दूसरे के करीबी दोस्त हैं। दोनों का ही मकसद है समाज में सांम्प्रदाय़िक विभाजन को बढ़ाना और इसमें एक का काम दूसरे को मदद करती है।

हमलोग यह बात जानते हैं कि बांग्लादेश की साम्प्रदायिकता और कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ संघर्ष की एक उज्ज्वल परंपरा रही है। बांग्लादेश के जन्म के पहले भी ऐसे धारा थी, बांग्लादेश के जन्म के समय तो पूर्वी पाकिस्तान की बंगाली जनता ने इस्लामी कट्टरपंथियों के ख़िलाफ़ एक घातक संघर्ष किया था, संघर्ष करने वालों में हर धर्म के लोग थे। इसी सिलसिले में कुछ दिन पहले ढाका के शाहबाग चौक में 1971 के युद्ध अपराधियों, कट्टरपंथी नेताओं को सजा की मांग लेकर वे एक जबरदस्त संघर्ष खड़ा किया गया । उस शाहबाग आंदोलन के दबाव की वजह से अवामी लीग सरकार कई पुराने युद्ध अपराधियों को फांसी तक देने के लिए मजबूर हुयी थी। आज भी बांग्लादेश का छात्र-बुद्धिजीवी तबका राज मार्ग पर उतर कर हालिया सांप्रदायिक हमले के ख़िलाफ़ ज़ोरदार आंदोलन कर रहे हैं। वे लोग इस सांम्प्रदायिक हमले से जुड़े कट्टरपंथी, साम्प्रदायिक ताकतों के लिए मिसाल क़ायम करने वाली सजा की मांग कर रहे हैं। इस्लाम धर्म बांग्लादेश का राज्य धर्म है – इसको भी खत्म करने का मांग वे उठा रहे हैं । जुलूस से आवाज़ बुलंद हो रहा है--`जिसका धर्म उसके पास, राजसत्ता का क्या कहना

यह एक क्रूर मजाक है कि जिस देश के साम्प्रदायिक नेता गुजरात नरसंहार को अंजाम देने के अपराध में, अदालत द्वारा उम्रकैद के फैसले के बाद भी खुले आसमान के नीचे बेफ़िक्र घूम रहे हैं, जो लोग भारत में जितना भी छिटपुट धर्मनिरपेक्षता का पर्दा है उसे भी उखाड़ फेंक कर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए खुल्लम खुल्ला साजिश चला रहे हैं, आज वही लोग यह बात समझाने में लगे हैं कि बांग्लादेश के सभी मुस्लिम साम्प्रदायिक हैं, बांग्लादेश में हिंदुओं की कोई सुरक्षा नहीं है और इसलिए वे लोग इतना चिंतित है एवं सीएए-एनआरसी जैसे साम्प्रदायिक कानून लागू किए हैं । सांप्रदायिक दंगों के खून से सना हिंदू साम्प्रदायिक ताकतों को बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यकों के ऊपर उत्पीड़न का विरोध करने का कोई हक़ नहीं है। इस देश के हिंदुओ को, खास कर बंगाली हिंदू आम मेहनतकश लोगों को यह बात समझना होगा कि आरएसएस – भाजपा सहित हिंदू साम्प्रदायिक तत्वों का अल्पसंख्यकों के लिए आंसू बहाने के पीछे साम्प्रदायिक नफ़रत बढ़ाने की साजिश छिपी हुई है।

यह सच है कि बांग्लादेश में साम्प्रदायिकता और कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ संघर्ष की एक धारा है, लेकिन उस देश में इस्लामी  कट्टरपंथ व साम्प्रदायिक ताक़त समूह भी लंबे समय से ही काफी हद तक सक्रिय रहे है। कई बार ऐसे ताक़त को उभरते देखा गया है। इन कट्टरपंथियों का हमला का शिकार सिर्फ़ अल्पसंख्यक हिंदू लोग ही नहीं है, लोकतंत्र के लिए संघर्ष कर रहे हैं ऐसे बुद्धिजीवी उनके हमले का शिकार हुए हैं। उनके हमला का शिकार हुए हैं ब्लॉग चलाने वाले नास्तिक लोग। ठीक जैसे इस देश में कट्टर हिंदूत्व के निशाने में सिर्फ अल्पसंख्यक मुस्लिम लोग ही नहीं, लोकतंत्र के पक्ष में संघर्ष में शामिल छात्र-बुद्धिजीवी या यहाँ तक कि नरेन्द्र दाभोलकर या गौरी लंकेश जैसे तर्कशील, प्रतिवादी लोग भी हैं। भाजपा-आरएसएस खुद को आईने के सामने खड़ा करेगी तो खुद की परछाई में बांग्लादेश के इन कट्टरपंथी- साम्प्रदायिक तत्वों का साया देख पायेगी । हालाँकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत के मजदूर किसान सहित लोकतांत्रिक लोगों के समक्ष कट्टर हिंदुत्व विचारधारा के धारक यह सारे संगठन कई ज्यादा ख़तरनाक है। क्योंकि ये सारे संगठन सिर्फ़ साम्प्रदायिक राजनीति का ही अनुसरण नहीं कर रहे हैं, उनकी फासीवादी राजनीति भारत को और ख़तरनाक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है।

बांग्लादेश में साम्प्रदायिकता विरोधी आन्दोलन की मौजूदगी के बावजूद, कट्टरपंथी व साम्प्रदायिक ताक़तों का पनपने का सबसे ख़तरनाक पहलू यह है कि वे लोग खास कर गरीब, मेहनतकश जनता के अन्दर काफी हद तक जड़े जमा ली है। गरीब मेहनतकश लोगों के अन्दर साम्प्रदायिकता का प्रभाव बढ़ जाने के पीछे कई कारण है।

पहला तो, बांग्लादेश ही कहे या भारत या पाकिस्तान कहे, भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में साम्प्रदायिकता की जड़ें अविभाजित भारत में है। उसी के नतीजे में, साम्प्रदायिक विभाजन के आधार पर और एक ख़ौफनाक खूनी दंगे के आधार पर ही देश का विभाजन हुआ था। उस साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने के पीछे औपनिवेशिक शासकों का बड़ा, या यूं कहा जा सकता है, मुख्य भूमिका थी।

दूसरी बात, उस साम्प्रदायिक इतिहास को मिटाने के बजाय इन सभी देशों के शासक वर्ग साम्प्रदायिकता को बरकरार रखने, उसके पनपने में मदद की है। साम्प्रदायिकता का टिके रहने और फलने-फूलने का एक बड़ा कारण है पिछड़ी हुई उत्पादन प्रणाली और उसके आधार पर खड़ा हुआ पुराना समाज, जिसको जड़ से उखाड़ फेंकने के बदले शासक वर्ग समूह ने उसे बरकरार रखा है। इक्कीसवीं सदी में भी व्यापक लोगों के अंदर, या सामाजिक जीवन में धर्म का प्रभाव, पुराने पिछड़े हुए धार्मिक मूल्य, रूढ़िवादिता, कट्टरपंथी विचारों का प्रभाव, अंधविश्वास व साम्प्रदायिक मानसिकता के टिके रहने का मुख्य कारण है समाज में मौजूद पिछड़ा हुआ उत्पादन संबंध । सिर्फ यही नहीं, शासकवर्ग और उनके प्रतिनिधि विभिन्न राजनीतिक दल, जो लोग सत्ता में काबिज थे, उन सभी ने जनता के ऊपर धर्म व साम्प्रदायिकता के प्रभाव को खुद के स्वार्थ में इस्तेमाल भी किया है। बांग्लादेश में भी सभी सत्ताधारी दल कमोवेश साम्प्रदायिक राजनीति को अपने संकीर्ण स्वार्थ में इस्तेमाल किया है। इस कारण ही राष्ट्रीयता के संघर्ष से बना बांग्लादेश खुद को शुरु में धर्मनिरपेक्ष घोषित करने के बावजूद 1980 के दशक के अंत में इस्लाम को देश का राज्य  धर्म घोषित किया। बांग्लादेश युद्ध के समय राजाकार वाहिनी के जिन  साम्प्रदायिक, कट्टरपंथी नेताओं ने स्वतंत्रता-प्रेमी लोगों की अंधाधुंध हत्या किया था, जो  लोग बांग्लादेश गठन के बाद देश छोड़ कर भाग गये थे, शासक दलों के मदद से वही लोग फिर आहिस्ता आहिस्ता लौट कर नए सिरे से फिर नफ़रत और सांप्रदायिक विभाजन की नींव डालना शुरु किए। कट्टरपंथी, साम्प्रदायिक तत्व सिर्फ़ बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) में ही भीड़ लगाए थे बात ऐसा नहीं है, अवामी लीग ने भी उनलोगों का इस्तेमाल किया है। इस बार के इस दंगा में सत्तापक्ष के नेताओं के शामिल होने का आरोप काफ़ी ज़ोरदार था।

तीसरी बात, 1980 के दशक के अंतिम चरण से साम्प्रदायिकता के बढ़ते प्रभाव का एक प्रमुख कारण है विश्व सर्वहारा की समाजवाद के संघर्ष के पराजय की घटना। 1960 या सत्तर के दशक में साम्प्रदायिकता का प्रभाव कुछ हद तक दबे हुए रहने पर भी अस्सी के दशक के अंत से साम्प्रदायिकता फिर से उभरना शुरु हुआ। यह जैसे भारत में देखने को मिला, वैसे ही बांग्लादेश में । यह कोई संयोग नहीं है कि विश्व सर्वहारा संघर्ष के पराजय की घटना भी उसी दौरान सोवियत रशिया सहित पूर्वी यूरोप के पतन के मध्य से प्रकट हुआ। समाजवाद की विचारधारा ने एक समय करोड़ों मेहनतकश लोगों को रास्ता दिखाया था। लेकिन, सर्वहारा समाजवादी आंदोलन की पराजय के नतीजे में समाजवाद की विचारधारा ने मजदूर सहित मेहनतकश लोगों के पास अपना आकर्षण खोना शुरु कर दिया । विचारधारा की दुनिया में इस खालीपन को साम्प्रदायिकता, कट्टरता जैसी सोच ने भरना शुरु किया। यह घटना सिर्फ उपमहाद्वीप के देशों का ही मामला नहीं है। मुस्लिम बहुसंख्यक देशों में कट्टरपंथी ताकतों का उदय हुआ । यूरोप और अमेरिका के देशों में चरम दक्षिणपंथी, नस्लवादी ताकते बढ़ी है। इस समय साम्राज्यवादियों के नेतृत्व में मजदूर, किसान सहित मेहनतकश लोगों के ऊपर पूंजीपतियों का हमला बेरहमी से बढ़ गया है। सर्वहारा संघर्ष के पराजय के फलस्वरूप, मजदूर वर्ग की पार्टी न रहने के कारण इस हमला का मुकाबला मजदूर सहित मेहनतकश जनता न कर पायी, न कर पा रही है। वर्ग संघर्ष की कमजोरी के कारण साम्राज्यवाद व इजारेदार पूंजी के इस हमले के ख़िलाफ़ मजदूर व मेहनतकश लोग निस्सहाय रूप में मार खा रहे हैं। जीवन के इस घोर संकट से बचने की चाहत उनलोगों को, खासकर पिछड़े, शोषित जनता को ज्यादा से ज्यादा कट्टरपंथियो के चंगुल में धकेल रहा है। इसके नतीजे में व्यापक शोषित, उत्पीड़ित लोगों को साम्प्रदायिकता, कट्टरपंथ प्रभावित कर पा रहा है, उनकी चेतना को कुंद कर पा रहा है।

बुद्धिजीवियों के अंदर से साम्प्रदायिकता व धार्मिक कट्टरपंथ के ख़िलाफ़, लोकतंत्र के पक्ष में जो जोरदार आवाज़ बुलंद हो रहा है यह काफ़ी अहम है, लेकिन जिस लोकतंत्र के दायरे के अंदर ही उनलोगों का विरोध सीमित है, जिस लोकतंत्र के पक्ष में वे लोग आवाज़ उठा रहे हैं, वह लोकतंत्र आज के समय का बुर्जुआ लोकतंत्र है, और वह लोकतंत्र कितना सीमित, सिमटा हुआ है वह तो हमलोग अपने रोजाना अनुभव से समझ रहे हैं। इस लोकतंत्र में सभी लोगों का समानाधिकार संभव नहीं है। इस लोकतंत्र में असली धर्मनिरपेक्षता यानी राज्य-राजसत्ता से धर्म का पृथक्करण संभव नहीं है। इस लोकतंत्र में सभी धर्म का समान अधिकार, धर्माचरण का स्वतंत्रता भी संभव नहीं है। सच्चा लोकतंत्र तभी कायम हो सकता है जब मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मेहनतकश जनता सत्ता पर काबिज़ होकर देश का संचालन करेगा। यह रास्ता ही साम्प्रदायिकता व कट्टरपंथ से मुक्ति का असली रास्ता है। जबतक शोषित और मेहनतकश जनता को साम्प्रदायिकता और कट्टरपंथा के प्रभाव से मुक्त नहीं किया जा सकेगा, तब तक साम्प्रदायिकता व कट्टरपंथ को शिकस्त देना संभव नहीं है। एकमात्र वर्ग संघर्ष का विकास ही शोषित, मेहनतकश जनता को साम्प्रदायिकता व कट्टरपंथ के प्रभाव से मुक्त कर सकता है। उस वर्ग संघर्ष के निर्माण के लक्ष्य, साम्प्रदायिकता और कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ संघर्ष में नेतृत्व देने के लिए हमलोग आह्वान करेंगे बांग्लादेश के अगुवा मजदूरों को। सिर्फ़ बांग्लादेश ही नहीं, भारत और उपमहाद्वीप के हर देश के अगुवा मजदूरों का कट्टरपंथ और साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ संघर्ष तैयार करने का, उस संघर्ष में नेतृत्व देने का जिम्मेदारी है। हमलोगों का विश्वास है कि एक न एक दिन इस उपमहाद्वीप के सभी देश के मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता कंधा में कंधा मिलाकर क्रान्तिकारी लड़ाई तैयार कर दमनकारी शासकवर्ग को उखाड़ फेकेंगे और पुराने उत्पादन प्रणाली के सभी अवशेषों को समाज से हटा कर समाज को साम्प्रदायिकता व कट्टरपंथ से मुक्त करेंगे। उस लक्ष्य में मजदूर वर्ग को जागरूक करना होगा उन लोगों के अगुवा दस्ता को संगठित करना होगा। यही धार्मिक कट्टरपंथ साम्प्रदायिकता को रोकने का एकमात्र उपाय है।

अक्टूबर 2021                                   सर्वहारा पथ

 

Monday, September 20, 2021

पेगासस जासूसी और मोदी सरकार

 

              पेगासस जासूसी और मोदी सरकार

विभिन्न सरकारों के ख़िलाफ़ असहमति रखने वालों के गुप्त विचार-विमर्श को जानने के लिए उनके फोन की जासूसी करवाने के आरोप अतीत में भी लगाये गये हैं। ऐसा कई बार साबित भी हो चुका है। आज से पचास साल पहले अमेरिका की सियासत में तूफान लाने वाला वाटरगेट कांड फोन पर जासूसी करने की कुख्यात घटनाओं में से एक थी। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन के ख़िलाफ़ डेमोक्रेटिक पार्टी के कार्यालय और उसके नेताओं के फोन पर जासूसी करने के आरोप सामने आये थे। निक्सन प्रशासन द्वारा सैकड़ों प्रयासों के बावजूद उस घोटाले को छुपाया नहीं जा सका। अंततः निक्सन को इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा  और इस घटना में शामिल कई सरकारी अधिकारियों को सजा दिया गया।

हालांकि, इस बार सरकार द्वारा जासूसी कराने का आरोप फोन पर जासूसी से कहीं ज्यादा गंभीर है। इस बार आरोप फोन से सारी जानकारी चुराने का है। एमनेस्टी इंटरनेशनल और कई स्थानीय और विदेशी समाचार संगठनों ने संयुक्त रूप से दावा किया है कि एनएसओ नामक एक इजरायली कंपनी ने विभिन्न देशों की सरकारों को पेगासस नामक जासूसी कंप्यूटर सॉफ्टवेयर बेचा है और उस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करके सरकार विरोधी राजनीतिक नेताओं, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के स्मार्टफोन से जानकारी चुराकर उनपर निगरानी कर रहे हैं। उनका दावा है कि उनके पास 50,000  फोन नंबरों की सूची है जो निगरानी के संभावित शिकार हैं। 'संभावित' शब्द का अर्थ है कि वे फोन नंबरों की सूची में तो थे,  लेकिन यह निश्चित नहीं है कि उन पर नज़र रखी गई या नहीं। वास्तव में निगरानी हुयी की नहीं यह जानने के लिए फोन की जांच करना पड़ेगा। कुछ फोनों की जांच से पेगासस द्वारा निगरानी के सबूत सामने आये हैं। इन सभी फोन वार्तालापों को पेगासस के माध्यम से रिकॉर्ड किया गया है। यहां तक ​​कि कौन किसको क्या मैसेज भेज रहा है, इसकी भी जानकारी फोन से चोरी हो गई है। यह सॉफ्टवेयर इतना शक्तिशाली है कि उसके लिये कोड को तोड़कर छिपे हुए संदेशों को पढ़ना भी मुश्किल नहीं है।  भारत में भी पेगासस को लेकर काफी बवाल मचा है। पेगासस के मुद्दे पर विपक्षी दलों ने वार्तालाप की मांग को लेकर संसद को निष्क्रिय कर रखा है,  लेकिन सरकार ऐसा करने से इंकार कर रही है। इस जासूसी से भारत सरकार का क्या लेना-देना है ? जिनके पास उन फोनों की सूची है,  उन्होंने दावा किया है कि सूची में भारत के करीब 1000 फोन नंबर हैं,  जिन पर नज़र रखी जा सकती है। वे डेढ़ सौ से अधिक फोन के मालिकों की पहचान करने में सफल रहे हैं। इसमें विपक्षी नेताओं, सरकार के आलोचकों के रूप में जाने जाने वाले पत्रकारों और विरोध करने वाले कार्यकर्ताओं के नाम शामिल हैं, जिनमें से कई को सरकार द्वारा झूठे आरोपों में पहले ही गिरफ्तार और जेल में डाल दिया गया है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस सूची में कुछ उद्योगपतियों,  नौकरशाहों और यहाँ तक कि संघ परिवार के सदस्यों के नाम भी शामिल हैं। सॉफ्टवेयर बेचने वाली इजरायली कंपनी एनएसओ ने साफ कर दिया है कि वह सॉफ्टवेयर सिर्फ़ सरकारों को ही बेचती है, किसी व्यक्ति या गैर-सरकारी संगठन को नहीं।  इतना ही नहीं इस सॉफ्टवेयर और इसे इस्तेमाल करने लायक कंप्यूटर सिस्टम के लिए काफी खर्च होता है और इसे चालू रखने में भी अरबों रुपये खर्च होते हैं, जो कि सरकार के बिना किसी भी व्यक्ति या संगठन के लिए मुश्किल है। अगर यह सच है तो इन लोगों के फोन की निगरानी का काम मोदी सरकार के अलावा किसी और नहीं कर सकते। इसके अलावा, सूची पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि भारत के जिन लोगों के नाम उस सूची में है लगभग वे सभी लोग भाजपा और संघ परिवार के कट्टर विरोधी माने जाते हैं। इस कारण से  इस निगरानी के पीछे उनके हितों को समझना मुश्किल नहीं है। इस मुद्दे पर सरकार के बयान से शक़ कम होने के बजाय और ज्यादा संदेह पैदा किया है। केंद्र सरकार के नए आईटी मंत्री ने संसद में एक बयान में कहा है कि केंद्र सरकार ने अनधिकृत तरीके से कोई निगरानी नहीं की है। इससे एक चीज तो यह स्पष्ट है कि सरकार ने अधिकृत निगरानी की होगी।  इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार ने पेगासस सॉफ्टवेयर ख़रीदा है या नहीं,  इस ठोस सवाल को बार-बार पूछा गया है, लेकिन सरकार ने कभी यह स्पष्ट नहीं किया है कि उन्होंने पेगासस सॉफ्टवेयर को खरीदा या इस्तेमाल नहीं किया।  दो दिन पहले रक्षा मंत्रालय ने लोकसभा में कहा था कि उसने एनएसओ के साथ कोई लेन-देन नहीं किया है। अगर यह सच है, तो किसी अन्य मंत्रालय ने ऐसा नहीं किया, इस बयान से यह सिद्थ नहीं हो रहा है। क्या सरकार की यह भ्रमित करने वाली स्थिति उनके खिलाफ संदेह को मजबूत करने में मदद नहीं करती है?

पेगासस सॉफ्टवेयर के मालिक इजरायली कंपनी एनएसओ ने ऐसे घातक जासूसी सॉफ्टवेयर की बिक्री की सफाई में कहा है कि उसने आम जनता की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आतंकवादियों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने के लिए इसे विकसित किया है।  सच में ही ऐसा है क्या?  लेकिन, सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किसके ख़िलाफ़ किया जा रहा है?  राजनीतिक नेता, विरोध करने वाले कार्यकर्ता या पत्रकार! यानी वास्तव में इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल में आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं है। सरकार का असली मकसद विरोध करने वाले पर नज़र रखना है।  विरोध करने वाले पर नज़र रखने के कई कारण हैं। उदाहरण के लिए, विरोध करने वाले को चोरी छुपे सुन कर उनकी योजना जानने से तो शासक दल इसके बारे में पहले से सतर्क हो सकते हैं और अग्रिम कार्रवाई कर सकते हैं। और अगर इस बातचीत से कोई जानकारी लीक होती है जिसका इस्तेमाल उनके खिलाफ किया जा सकता है,  तो वह तो सोने पे सुहागा है। फिर, उन्हें ब्लैकमेल करके सरकार के लिए काम करने के लिए मजबूर करना संभव है। जानकारी लीक करने वाले मीडिया की स्रोतों ने यह भी कहा है कि कर्नाटक में जद (एस)-कांग्रेस गठबंधन सरकार को हटाने के लिए पेगासस द्वारा कई विधायकों के फोन पर नज़र रखी जा रही थी।

लेकिन,  स्मार्टफोन या कंप्यूटर पर जासूसी करना अब एक घातक प्रयोग होता जा रहा है। इस तरह के स्पाई सॉफ्टवेयर की मदद से यूजर यानी व्यवहारकर्ता की जानकारी के बिना उनके स्मार्टफोन या कंप्यूटर में दस्तावेज डाले जा सकते हैं, जो उनका बिल्कुल भी नहीं है, लेकिन वह उनका ही है ऐसा दावा करके उन्हें फंसाया जा सकता है। हाल ही में पता चला है कि भीमा कोरेगांव मामले में दो प्रतिवादियों के ख़िलाफ़ ठीक ऐसा ही किया गया था। सरकार और जांचकर्ताओं ने दावा किया है कि इन लोगों ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रची थी  और उनके कंप्यूटर पर पाए गए कुछ पत्रों की एक श्रृंखला को इसके सबूत के तौर पे पेश किया गया।  एक अमेरिकी कंप्यूटर फोरेंसिक एजेंसी ने जेल में बंद दो लोगों की कंप्यूटर के हार्ड डिस्क प्रतियों की जांच की और कहा कि सबूत के रूप में इस्तेमाल किए गए कई पत्र उनके कंप्यूटर पर कभी नहीं लिखे गए थे। तो, वे पत्र उस कंप्यूटर तक कैसे पहुंचे? अमेरिकी कंप्यूटर एजेंसी ने कहा कि पत्रों को गुप्त रूप से एक जासूस या जासूसी सॉफ्टवेयर के माध्यम से उन दोनों के कंप्यूटरों में बाहर से डाला गया था। इस घटना के लीक होने से पहले कितने लोगों ने कल्पना की होगी कि तकनीक के इस्तेमाल से ऐसा फंसाया जा सकता है?

स्मार्टफोन, कंप्यूटर आदि अब लोगों के जीवन से इस कदर जुड़े हुए हैं कि उनके निजी जीवन की लगभग सभी गोपनीय जानकारी उनके स्मार्टफोन या कंप्यूटर पर पाई जा सकती है - वे किन लोगों से संपर्क रखते हैं,  क्या बात करते हैं,  उन्हें क्या पत्र लिखते हैं, उनके बीच किन पत्रों का आदान-प्रदान होता है आदि। उनकी इंटरनेट उपयोग की जानकारी से भी उनकी ज़रूरतों और इच्छाओं के बारे में बहुत कुछ जानना संभव है, जिसके बारे में व्यक्ति स्वयं पूरी तरह से अवगत नहीं हो सकता है, लेकिन इसे अनजाने में अपने इंटरनेट उपयोग की जानकारी के माध्यम से कब्ज़ा किया जा सकता है। नतीजतन, फोन या कंप्यूटर पर निगरानी का मतलब है उस व्यक्ति के हर पल की निगरानी करना, यहां तक ​​कि सबसे निजी पल की भी। ठीक यही सरकार या राज्य अब अपने विरोधियों के मामले में कर रही है - पेगासस सॉफ्टवेयर के बारे में लीक हुई जानकारी इस तथ्य को दर्शाती है। सरकार या राजसत्ता  की ख़ुफ़िया तंत्र इस स्तर पर पहुंच गई है कि वे किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के जीवन के हर पल को अपनी इच्छानुसार अपनी निगरानी में रख सकते हैं। आज शायद  सरकारें दुनिया भर में 50,000  लोगों के जिंदगी पर नज़र रख रही हैं।  लेकिन, अगर ऐसा ही चलता रहा तो भविष्य में लाखों-करोड़ों लोगों के जीवन पर नज़र रखना संभव होगा। क्योंकि  ऐसे कंप्यूटर सिस्टम की कीमत में तेजी से गिरावट आने के कारण अब निगरानी करने की जो खर्च हो रही है उसके समान खर्च में ही अरबों लोगों की निगरानी करना संभव होगा।

अगर निगरानी के साथ विभिन्न जांच एजेंसियों को विपक्ष के पीछा करने की रणनीति से जोड़ दिया जाए तो सरकार की मंशा साफ हो जाती है। अगर कोई मोदी सरकार का विरोध करता है और यह उनके लिए ख़तरनाक हो जाता है, तो उनके पीछे प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), आयकर विभाग और सबसे बढ़कर सीबीआई जैसे सरकारी औजारों का इस्तेमाल करके सरकार की पक्ष में बोलने के लिए मजबूर किया जा रहा है। ये छोड़कर भी राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, आईटी अधिनियम, यूएपीए और संविधान के अनुच्छेद 124  अर्थात् राजद्रोह का धारा आदि है। हाल ही में, नए आईटी नियमों को इस सूची में जोड़ा गया है, जो सरकार के उत्पीड़न के उपकरण को और मजबूत किया है। इन कानूनों का दायरा इतना व्यापक है कि लगभग किसी भी कृत्य पर आतंकवाद,  देशद्रोह,  राजद्रोह या शांति भंग करने का आरोप लगाया जा सकता है। हालांकि आरोपों को साबित करना संभव नहीं होने से भी, गिरफ्तार होने पर जमानत मिलना बहुत मुश्किल है और इसीलिए झूठे आरोपों में कुछ महीने जेल में ही नहीं यहां तक ​​कि बिना मुक़दमे के सालों-साल बंद रखना संभव है। सभी दलों की सरकार ने इसी तरह विरोध करने वाले को परेशान करने और उन्हें चुप कराने की कोशिश की है। हालांकि मोदी सरकार के दौरान इसका स्तर काफी बढ़ गया है। आर्टिकल 14  नाम के एक वेब पोर्टल के मुताबिक 2010  से अब तक 816  देशद्रोह के मामलों में 11,000  लोगों पर आरोप लगाए गए हैं। इनमें से ज्यादातर मामले 2014  के बाद मोदी के कार्यकाल में हुए हैं।  इन 11,000 प्रतिवादियों में से 65 प्रतिशत पर 2014 के बाद आरोप लगाया गया है। 2010  से 2014  तक, प्रति वर्ष दर्ज किए गए राजद्रोह के मामलों की औसत संख्या 62 थी, लेकिन 2014  के बाद यह बढ़कर 79.8 या लगभग 80  हो गई है। यह धारा भाजपा शासित राज्यों में ही अधिक लागू की जा रही है। इस धारा का प्रयोग इतना व्यापक है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह प्रश्न उठाया है कि इस धारा को रखा जाए या नहीं। आईटी अधिनियम की धारा 66 (ए) भी है, जिसके आधार पर इंटरनेट पर कुछ संदेशों का आदान-प्रदान करने के लिए कई लोगों को परेशान किया जा रहा है। 2015  में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस धारा को निरस्त करने के बावजूद, विभिन्न सरकारें इस धारा को लागू करके लोगों को परेशान करना जारी रखीं हैं। असहमति रखनेवालों के गुप्त वार्ता उन्हें दंडित करने के लिए सरकार के लिए बहुत उपयोगी होगी - सरकार की निगरानी को उसी के अनुसार आंकना होगा।

भाजपा शासन की एक और विशेषता यह है कि न केवल पुलिस प्रशासन राज्य के इन कानूनों को लागू करके विपक्ष को परेशान करने का काम कर रहा है, बल्कि भाजपा या संघ परिवार की अपना वाहिनी भी हमेशा ऐसा कोशिश कर रही हैं। एक तरफ भाजपा का आईटी सेल है, जो इंटरनेट की निगरानी कर रहा है- कौन संघ परिवार की चरमपंथी हिंदुत्व विचारधारा का विरोध करते हैं,  कौन भाजपा सरकार या उसके नेताओं और मंत्रियों के अन्याय के खिलाफ बोलने की हिम्मत करते हैं। दूसरी तरफ संघ परिवार की दस्तें या वाहिनी हैं,  जो आम लोगों पर नज़र रखने के लिए हमेशा सड़कों पर गश्त करती रहती हैं। वे गोरक्षा अधिनियम या लव-जिहाद अधिनियम के तहत किसको फंसाया जा सकता  इस पर कड़ी नज़र रख रहे हैं  और कभी पुलिस के साथ, कभी पुलिस के बिना ही अपराधियों को दंडित करने के लिए उतरे है । इसके चलते न सिर्फ उच्च वर्ग के लोगों पर बल्कि आम लोगों पर भी नज़र रखी जा रही है। जासूसी सॉफ्टवेयर ही निगरानी का एकमात्र तरीका नहीं है।

जबकि निगरानी का स्तर मोदी की भाजपा सरकार के दौरान या भाजपा शासित राज्यों में बहुत अधिक है, यह कतई भी नहीं सोचना चाहिए कि सिर्फ़ भाजपा या संघ परिवार ही निगरानी करता है। निगरानी तंत्र किसी भी पार्टी की सरकार द्वारा चलाई जाती है। वस्तुत: एक ओर मुट्ठी भर शोषकों और दूसरी ओर बहुसंख्यक शोषित, गरीब जनता में बँटा हुआ है, जो समाज शोषण-उत्पीड़न-वंचन पर टिका हुआ है, एक तरफ धन के पहाड़ जमा करने वाला समाज और दूसरे पर अनंत गरीबी। जिस समाज में विभिन्न प्रकार के दमन व्याप्त हैं और जिसमें शासक मुट्ठी भर शोषकों के हितों को देखते हैं, वहाँ अनगिनत शोषित, वंचित, उत्पीड़ित लोगों के बीच शासकों के ख़िलाफ़ हमेशा तीव्र विरोध जमा होता रहता है – इस विरोध कभी तीव्र, कभी भूमिगत होता है।  ऐसे समाज में शोषण, दमन द्वारा लाभ कमाने की व्यवस्था, मुट्ठी भर धनी लोगों की अकूत संपत्ति की रक्षा के लिए निगरानी की आवश्यकता होती है । यह निजी संपत्ति को बनाए रखने का एक अनिवार्य तरीका है।

 इसलिए किसी भी बुर्जुआ लोकतंत्र में सभी शासक नागरिकों पर निगरानी रखते हैं। लोकतंत्र का मतलब अगर हम यह समझ लें कि सभी को समान अधिकार हैं, तो बुर्जुआ लोकतंत्र में वह लोकतंत्र संभव नहीं है। यहां लोकतंत्र सिर्फ शासक पूंजीपति के लिए ही है। जो लोग यह सोचते हैं,  पूंजीवाद में ही वास्तविक लोकतंत्र संभव है, अगर वे आखों पर पट्टी बांधना नहीं चाहते है तो यह निगरानी की इस घटना उनकी आखें खुलने में मदद कर सकती है। दमन के बिना, शोषित लोगों को उनके अधिकारों से वंचित किए बिना, उनकी निगरानी के बिना, मुट्ठी भर शोषक बहुसंख्यक शोषितों पर शासन नहीं कर सकते। इसलिए, बुर्जुआ लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र,  बुर्जुआ वर्ग के लिए लोकतंत्र,  आम लोगों के लिए लोकतंत्र नहीं। सच्चा लोकतंत्र - यानी बुर्जुआ लोकतंत्र में सभी लोगों की हर तरह से समानता असंभव है। लोकतंत्र का प्रसार बहुसंख्यक जनता, मजदूरों और किसानों के शासन में ही हो सकता है। चूँकि उस समाज में सत्ताधारी लोग बहुसंख्यक हैं, करोड़ों लोगों की निगाह शोषित लोगों की उस राजसत्ता को बचाने के लिए मुट्ठी भर शोषकों पर लगी रहती है। इसलिए निगरानी चलाने के लिए फोन टैपिंग कर छुप छुप कर सुनना या जासूसी के लिए स्पाई सॉफ्टवेयर जैसे अलग से व्यवस्था की ज़रूरत नहीं है।

किसी भी बुर्जुआ लोकतंत्र में शोषित वर्गों में लोकतंत्र नहीं होता बल्कि वे बहुत संकीर्ण होते हैं,  यह तो एक पहलू है। एक और पहलू यह है कि शासक वर्ग के प्रतिनिधि विभिन्न दलों ने सरकार में सत्ता हथियाने के लिए हमेशा अपने बीच लड़ते और झगड़ते रहते हैं। सरकार में जो शासक दल है वे हमेशा विपक्षी दलों से सावधान रहते हैं, जो वर्तमान शासकों को उखाड़ फेंकने और अपने दम पर सत्ता हथियाने की कोशिश करते हैं। शासक हमेशा यह महसूस करते हुए सतर्क रहते हैं  कि अभी ही विपक्ष ने उनके ख़िलाफ़ साजिश रची और उन्हें सत्ता से हटा दिया। नतीजतन, शासक कभी भी अपनी सत्ता पर चैन से नहीं रह सकते। इसलिए वे हमेशा विपक्ष पर निगरानी जारी रखे हुए हैं।

अगर बुर्जुआ लोकतंत्रों में निरंकुश प्रवृत्तियाँ या फासीवादी प्रवृत्तियाँ बढ़ती रहती हैं, तो बुर्जुआ जनवादी अधिकार सिकुड़ते हैं, यहाँ तक कि विपक्षी बुर्जुआ राजनीतिक दलों के लोकतंत्र भी सिकुड़ते हैं। मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के दौरान यही हो रहा है। यह एक ऐसा पहलू है जिसमें सत्ताधारी बड़े पूंजीपति के स्वार्थ में मजदूरों और किसानों सहित मेहनतकश लोगों पर अधिक से अधिक हमले कर रहे हैं। एक और पहलू यह है कि संघ परिवार की विचारधारा को समाज में स्थापित करने के लिए वे समाज के विभिन्न वर्गों पर हमला कर रहे हैं, जो उनकी चरमपंथी हिंदुत्ववादी विचारधारा के विरोधी हैं, ताकि उनकों अपने पैरों के नीचे रखकर चरमपंथी हिंदुत्व की विजय का रथ को तेज गति से आगे बढ़ा सकें। वे अपने चरमपंथी हिंदुत्व की राजनीति का विरोध करने वाले बुर्जुआ पत्रकारों, बुर्जुआ बुद्धिजीवियों पर भी हमला कर रहे हैं। यही कारण है कि वे मेहनतकश लोगों के ख़िलाफ़ दमन के औजारों को न केवल तेज कर रहे हैं, बल्कि पूंजीपति वर्ग के अन्य हिस्सों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने के लिए उन्हें बढ़ा रहे हैं, साथ ही उनकी निगरानी भी बढ़ा रहे हैं। पेगासस इसका प्रमाण है।

हालांकि, इसका एक दूसरा पहलू भी है। शासकों को जनता या विपक्ष पर अपनी निगरानी कब बढ़ानी होती है ? जब वे डरने लगते हैं, वे घबराने लगते हैं उनके ख़िलाफ़ विद्रोह होने की संभावना से। जितना अधिक वे अपने हमलों को बढ़ाते हैं, उतना ही उनके ख़िलाफ़ विरोध बढ़ता है और जब विरोध बढ़ता है, तो शासक इसकी  अंदाज़ा लगा पाते हैं। आज यह सच है कि मोदी सरकार के ख़िलाफ़ मजदूरों और किसानों सहित मेहनतकशों का विरोध बढ़ने लगा है, लेकिन अभी तक तेज नहीं हुआ है। लेकिन, ऐसा नहीं है कि विरोध नहीं हो रहा है। पिछले कुछ समय से छात्रों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के बीच चरमपंथी हिंदुत्व की राजनीति का विरोध बढ़ रहा है, जिससे संघ परिवार और भाजपा चिंतित हैं। दूसरी ओर, जब पहली बार मोदी सरकार सत्ता में आई थी, तो लोगों का उन पर जो दृढ़ भरोसा और विश्वास रखा था, वह आज टूटने लगा है । मेहनतकशों के बीच विरोध भी बढ़ने लगा है। संघ परिवार और भाजपा को एहसास हो रहा है कि उनका नियंत्रण ढीला होता जा रहा है। जितना अधिक वे यह महसूस करते हैं, जितना अधिक वे चिंतित हैं, उतना ही वे अपने दमन के साधनों को तेज कर रहे हैं, उतना ही वे निगरानी बढ़ा रहे हैं। जब शासक लोगों के समर्थन पर खड़े होते हैं, वह किसी भी कारण से हो, तब उन्हें निगरानी या दमन की आवश्यकता नहीं होती है। केवल जब वे अपने भविष्य के बारे में चिंतित हों तब उन्हें निगरानी और दमन को बढ़ाने की जरूरत है। इस कारण से, उनकी निगरानी, ​​दमन के उपकरण को और तेज करना, जैसे उनकी भयानक राक्षसी चेहरा को दर्शाती है वैसे साथ साथ उनकी कमजोरी को भी प्रकट करती है। आपको इसे सिर्फ एक तरफ से देखने से ही नहीं होगा, इसे दोनों तरफ से देखना है - नहीं तो यह गलत होगा।

 

 10 अगस्त 2021