उत्तर प्रदेश के हाथरस में 19 साल की दलित लड़की के साथ जिस तरह से सामूहिक बलात्कार किया गया और भयानक यातनाएँ दे कर हत्या किया गया, शायद ऐसा बहुत कम ही हुआ है । दिल्ली में निर्भया की आज से एक दशक पहले हुई घटना, , या पिछले साल हैदराबाद में एक युवती के साथ हुई बलात्कार के बाद जिंदा जलाने की घटना से भी शायद यह घटना ज्यादा क्रूर है । हाथरस की दलित लड़की के साथ न केवल सामूहिक बलात्कार किया गया, उसकी जीभ काट दी गई, उसका पूरा शरीर अंतहीन यातना के परिणामस्वरूप अपंग हो गया। 14 सितंबर की ये घटना के बाद जब परिवार के लोग लड़की को थाने ले गए, तब पुलिस ने बलात्कार का मामला दर्ज नहीं किया। बलात्कार का मामला 8 दिन बाद 22 सितंबर को दर्ज किया गया, जब सोशल मीडिया पर यह बात फैलने लगी। उस समय, पुलिस ने चार कथित ऊँची जाति के आरोपियों को गिरफ्तार किया। जहां कानून कहता है कि बलात्कार हुआ है या नहीं, यह साबित करने के लिए एक जाँच तुरंत होनी चाहिए, इसके बजाय बलात्कार के लिए फोरेंसिक जाँच घटना के 11 दिन बाद 25 सितंबर को आयोजित की जाती है। स्वाभाविक रूप से, इतने दिनों के बाद की गई फोरेंसिक जांच रिपोर्ट से बलात्कार का कोई सबूत मिलना मुश्किल है और अब उस फोरेंसिक रिपोर्ट का उपयोग करते हुए, पुलिस दावा कर रही है कि दलित लड़की के साथ बलात्कार नहीं हुआ था!
पुलिस की यह भूमिका उत्तर प्रदेश के पुलिस-प्रशासन में उच्च जातियों के वर्चस्व के कारण है। केवल उत्तर प्रदेश ही क्यों? भारत की राज्य व्यवस्था के विभिन्न हिस्सों में उच्च जाति का प्रभुत्व अभी भी कायम है। और, बलात्कार की शिकार युवती एक गरीब दलित परिवार की बेटी है। उसके उपरांत, यह परिवार वाल्मीकि समुदाय का है, जिसका स्थान भी दलित समुदाय के बीच काफी नीचे है जातिगत विचार से यह माना जाता है । वाल्मीकि समुदाय के लोग अभी भी मुख्य रूप से गंदगी सफाई संबंधित काम में लगे हुए हैं। लिहाजा, इतने गरीब, दलित समुदाय के महिलाओं के उत्पीड़न का क्या महत्व है उच्च जाति के वर्चस्य में रहे पुलिस प्रशासन के लिए ? उच्च जाति के लोगों के लिए दलित जीवन, दलित महिलाओं के सम्मान का मूल्य क्या है? इसीलिए उत्तर प्रदेश का पुलिस प्रशासन शुरू से ही इस घटना को दबाने के लिए तत्परता से लगा था। पुलिस अब यह साबित करने में व्यस्त है कि बलात्कार बिल्कुल ही नहीं हुआ। वे जितनी जल्दी हो सके सभी सबूतों को गायब करने में लगे हैं, ताकि जब शोर कम हो जायेगा, तब अपराधी गांव में वापस आ सकते हैं और उत्पीड़न जारी रख सकते हैं। इस मकसद से ही, युवती की मृत्यु के बाद, उसके शरीर को गांव में लाया गया और पुलिस-प्रशासन ने आनन फानन में रात के अंधेरे में गांव के खेत में अंतिम संस्कार के नाम पर शव को जला दिया है । जो पुलिस एक दलित महिला को सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकी थी उस दिन उनके ओर से गांव में एक विशाल पुलिस बल तैनात किया गया था । क्यों? ताकि गाँव और परिवार के लोग "कानून व्यवस्था को भंग न कर सकें"। पुलिस ने पीड़ित मृतक युवती के परिवार को घर में बंद कर दिया और अंतिम संस्कार के रीति रिवाजों के लिए पीड़ित परिवार को बिना कोई अवसर दिए खुद ही पेट्रोलियम पदार्थों का इस्तेमाल करके यह कृत्य किया।
इसी दौरान इस घटना से उत्तर प्रदेश की उच्च जातियों की प्रतिक्रिया भी दिखाई देने लगी है, जो उस समाज में उच्च जातियों के वर्चस्व, उनकी कथित उच्च जाति की मानसिकता को जोर-शोर से उजागर कर रही है। इस घटना के क्रूरता से शर्मिंदा होने के बजाय, उत्तर प्रदेश के कई कथित उच्च जाति संगठनों ने अपराधियों को बचाने के लिए प्रतिवाद-विरोध-ज्ञापन देना शुरू कर दिया है। ये दलितों को इंसान ही नहीं मानते हैं | उनके लिए दलितों के जीवन का कोई मूल्य नहीं है | दलित महिलाओं की इज्जत का कोई मूल्य नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार, उस गाँव के एक उच्च जाति के व्यक्ति ने टिप्पणी की, "ये दलित लोग ज्यादा हमारे सर पर चढ़ गये "। इसलिए, वे फिर से दलितों को अपने पैरों के नीचे लाने में व्यस्त हैं। यही है उत्तर प्रदेश में भाजपा और संघ परिवार के उदय के बाद जातियों के बदलते शक्ति संतुलन की असली तस्वीर।
हालाँकि इसके विपरीत, इस अत्याचार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी शुरू हुए हैं। लड़की वाल्मीकि समुदाय के होने के कारण वाल्मीकि समुदाय के लोग विरोध प्रदर्शन में भड़क उठे हैं। हिंदी पट्टी के राज्यों में, वाल्मीकि समुदाय के लोग शहर की नगर पालिकाओं में सफाई करने के काम में शामिल हैं। नगर निगम कर्मचारीगण कई शहरों में हड़ताल पर चले गए हैं। कई अन्य संगठन भी विरोध में शामिल हो रहे हैं। फिर भी, शायद एक सवाल को हम नज़रंदाज़ नहीं कर सकते है। घटना के लगभग दो हफ्ते बाद इस घटना को मीडिया में प्रचारित किया जाने लगा। उसके बाद ही विरोध शुरू होने लगा, मुख्यतः युवती की मौत के बाद । दिल्ली में निर्भया हत्याकांड के दौरान या कुछ साल पहले हैदराबाद में एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार के मामले में जो स्वतःस्फूर्त विरोध प्रदर्शन हुआ, वह इस बार नहीं देखा गया। अगर ये उत्तर प्रदेश के किसी दूरवर्ती गाँव में दलित लड़की का मामला नहीं होता, बल्कि भारत के एक बड़े शहर में एक उच्च या मध्यम वर्गीय परिवार की लड़की होता तो क्या ऐसा हो सकता था? क्या इससे दलित जीवन के प्रति दलितों पर सवर्णों का उत्पीड़न के प्रति, सवर्णों की उदासीनता नहीं दर्शा रही है ?
दूसरा, हम विरोध प्रदर्शन के मामले में भी एक ही तरह की थकाऊ पुनरावृत्ति देखते रहते हैं। विरोध प्रदर्शनों में सबसे आगे बुर्जुआ राजनीतिक दल हैं, जिनमें से सभी एक समय या किसी अन्य समय पर सत्ता में रहे हैं। जब वे दल सत्ता में थे, कांग्रेस को छोड़ ही दीजिये, यहां तक कि तथाकथित निम्न जाति का प्रतिनिधित्व करने की दावा करने वाले सपा, बसपा के रहते हुए भी दलितों की स्थिति नहीं बदली है। बलात्कार-हत्या-उत्पीड़न की वही घटना की पुनरावृत्ति हुई है। ये सभी राजनीतिक दल इन विरोधों का उपयोग अपनी सत्ता में जाने के लिए करेंगे और फिर वही बात बार-बार दोहराई जाती रहेगी ।
लेकिन ऐसा नहीं है कि, इस स्थापित पार्टी के अलावा, आम लोग अपना गुस्सा व्यक्त नहीं कर रहे हैं। पिछली घटना की तरह ही एक जैसे मांगों को दोहराया जा रहा है। कुछ कहते हैं कि अब सभी अपराधियों को फांसी दो, कुछ कहते हैं कि उनका एनकाउंटर या मुठभेड़ कर दो जैसा हैदराबाद में हुआ। किसी को कहना है इतनी सख्त सजा देना ताकि कोई इस अपराध को करने की सोच भी न सके। दशकों पहले निर्भया कांड के दौरान भी यही मांग उठी थी। उस समय विरोध के कारण कानून में कई बदलाव किए गए हैं। पुलिस ने हैदराबाद में भी मुठभेड़ की। लेकिन, क्या महिलाओं के खिलाफ अपराध में कोई बदलाव आया है? क्या बलात्कार की घटनाओं में कमी आई है? एक के बाद एक बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं, कोई अंत नहीं है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस घटना को सिर्फ बलात्कार की घटना के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, यह वास्तव में भारत में उच्च जातियों के उत्पीड़न की अभिव्यक्ति है। आजादी के 73 साल बीत चुके हैं। कानून निचली जातियों के ऊपर उच्च जातियों के उत्पीड़न पर पाबन्दी लगा रखा है। बार-बार वह कानून और भी सख्त किया गया है। लेकिन, ऊंची जातियों का उत्पीड़न बंद नहीं हुआ है, यह वास्तविक है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सवर्णों के इस वर्चस्व का असली आधार पुराने सामंती समाज के अवशेष हैं जो पूरे भारत में कहीं कम और कहीं ज्यादा टिकी हुई हैं। सवर्णों के लिए सत्ता का असली स्रोत अभी भी भूमि स्वामित्व में उनका लगभग समूचे प्रभुत्व में है। इसके आधार पर ही, ग्रामीण इलाकों में सत्ता के संतुलन में सवर्णों का वर्चस्व है, जिसके परिणामस्वरूप राज्य के हर स्तंभ में उच्च जातियों का वर्चस्व है। और वैचारिक रूप से उच्च जाति हिंदू समाज के पुराने रीति-रिवाजों और परंपराओं से अपनी ताकत निचोड़ता है, जहां ब्राह्मण और क्षत्रिय का सर्वव्यापी वर्चस्व हैं। अगर यह वर्चस्व नहीं तोड़ा जा सकता है, तो उच्च जातियों का उत्पीड़न बंद नहीं होगा।
यह सिर्फ एक सिद्धांत की बात नहीं है कि जाति विभाजन और उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए चुनाव द्वारा सरकार को बदलने से नहीं होगा | खासकर पिछले 40-50 वर्षों के अनुभव ने इस तथ्य को साफ़ तौर पर दर्शा दिया है | क्योंकि इस अवधि में हमने संसदीय स्तर पर निचली जाति के दलों के उदय का इतिहास को देखा है। एक ही रास्ता है - सामंती ताकतों को कुचलने का, उजाड़ने का। और यह सुधार के रास्ते पर नहीं, बल्कि मजदूर-किसान मेहनतकश जनता के क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष के ज़रिए होगा, जो क्रांतिकारी संघर्ष आज नहीं तो कल पूरे भारत में जागने वाला है | और दलित जनता अपनी पूरी ताकत से इसमें हिस्सा लेंगे | क्योंकि भारत के शोषित, उत्पीड़ित लोगों का बहुसंख्यक हिस्सा वे ही हैं। जो लोग जाति उत्पीड़न को समाप्त करने की सच्ची इच्छा रखते हैं, उनकी सोच को मौजूदा संसदीय प्रणाली की सीमाओं से बाहर निकल कर भारत में क्रांतिकारी परिवर्तन की ओर ले जाना होगा । केवल कुछ उच्च जाति के अपराधियों को फांसी देने से दलित पुरुषों और महिलाओं को उत्पीड़न से मुक्त नहीं किया जा सकेगा, फंसी में लटकाना होगा मौजूदा शासन संरचना को।
2 अक्टूबर, 2020 सर्वहारा पथ