Saturday, October 10, 2020

हाथरस: दलित उत्पीड़न का एक और क्रूर उदाहरण

 उत्तर प्रदेश के हाथरस में 19 साल की दलित लड़की के साथ जिस तरह से सामूहिक बलात्कार किया गया और भयानक यातनाएँ दे कर हत्या किया गया, शायद ऐसा बहुत कम ही हुआ है । दिल्ली में निर्भया की आज से एक दशक पहले हुई घटना, , या पिछले साल हैदराबाद में एक युवती के साथ हुई बलात्कार के बाद जिंदा जलाने की घटना से भी शायद यह घटना ज्यादा क्रूर है । हाथरस की दलित लड़की के साथ न केवल सामूहिक बलात्कार किया गया, उसकी जीभ काट दी गई, उसका पूरा शरीर अंतहीन यातना के परिणामस्वरूप अपंग हो गया। 14 सितंबर की ये घटना के बाद जब परिवार के लोग लड़की को थाने ले गए, तब पुलिस ने बलात्कार का मामला दर्ज नहीं किया। बलात्कार का मामला 8 दिन बाद 22 सितंबर को दर्ज किया गया, जब सोशल मीडिया पर यह बात फैलने लगी। उस समय, पुलिस ने चार कथित ऊँची जाति के आरोपियों को गिरफ्तार किया। जहां कानून कहता है कि बलात्कार हुआ है या नहीं, यह साबित करने के लिए एक जाँच तुरंत होनी चाहिए, इसके बजाय बलात्कार के लिए फोरेंसिक जाँच घटना के 11 दिन बाद 25 सितंबर को आयोजित की जाती है। स्वाभाविक रूप से, इतने दिनों के बाद की गई फोरेंसिक जांच रिपोर्ट से बलात्कार का कोई सबूत मिलना मुश्किल है और अब उस फोरेंसिक रिपोर्ट का उपयोग करते हुए, पुलिस दावा कर रही है कि दलित लड़की के साथ बलात्कार नहीं हुआ था! 

पुलिस की यह भूमिका उत्तर प्रदेश के पुलिस-प्रशासन में उच्च जातियों के वर्चस्व के कारण है। केवल उत्तर प्रदेश ही क्यों? भारत की राज्य व्यवस्था के विभिन्न हिस्सों में उच्च जाति का प्रभुत्व अभी भी कायम है। और, बलात्कार की शिकार युवती एक गरीब दलित परिवार की बेटी है। उसके उपरांत, यह परिवार वाल्मीकि समुदाय का है, जिसका स्थान भी दलित समुदाय के बीच काफी नीचे है जातिगत विचार से यह माना जाता है । वाल्मीकि समुदाय के लोग अभी भी मुख्य रूप से गंदगी सफाई संबंधित काम में लगे हुए हैं। लिहाजा, इतने गरीब, दलित समुदाय के महिलाओं के उत्पीड़न का क्या महत्व है उच्च जाति के वर्चस्य में रहे पुलिस प्रशासन के लिए ?  उच्च जाति के लोगों के लिए दलित जीवन, दलित महिलाओं के सम्मान का मूल्य क्या है? इसीलिए उत्तर प्रदेश का पुलिस प्रशासन शुरू से ही इस घटना को दबाने के लिए तत्परता से लगा था। पुलिस अब यह साबित करने में व्यस्त है कि बलात्कार बिल्कुल ही नहीं हुआ। वे जितनी जल्दी हो सके सभी सबूतों को गायब करने में लगे हैं, ताकि जब शोर कम हो जायेगा, तब अपराधी गांव में वापस आ सकते हैं और उत्पीड़न जारी रख सकते हैं। इस मकसद से ही, युवती की मृत्यु के बाद, उसके शरीर को गांव में लाया गया और पुलिस-प्रशासन ने आनन फानन में रात के अंधेरे में गांव के खेत में अंतिम संस्कार के नाम पर शव को जला दिया है । जो पुलिस एक दलित महिला को सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकी थी उस दिन उनके ओर से गांव में एक विशाल पुलिस बल तैनात किया गया था । क्यों? ताकि गाँव और परिवार के लोग "कानून व्यवस्था को भंग न कर सकें"। पुलिस ने पीड़ित मृतक युवती के परिवार को घर में बंद कर दिया और अंतिम संस्कार के रीति रिवाजों के लिए पीड़ित परिवार को बिना कोई अवसर दिए खुद ही पेट्रोलियम पदार्थों का इस्तेमाल करके यह कृत्य किया। 

इसी दौरान इस घटना से उत्तर प्रदेश की उच्च जातियों की प्रतिक्रिया भी दिखाई देने लगी है, जो उस समाज में उच्च जातियों के वर्चस्व, उनकी कथित उच्च जाति की मानसिकता को जोर-शोर से उजागर कर रही है। इस घटना के क्रूरता से शर्मिंदा होने के बजाय, उत्तर प्रदेश के कई कथित उच्च जाति संगठनों ने अपराधियों को बचाने के लिए प्रतिवाद-विरोध-ज्ञापन देना शुरू कर दिया है। ये दलितों को इंसान ही नहीं मानते हैं | उनके लिए दलितों के जीवन का कोई मूल्य नहीं है | दलित महिलाओं की इज्जत का कोई मूल्य नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार, उस गाँव के एक उच्च जाति के व्यक्ति ने टिप्पणी की, "ये दलित लोग ज्यादा हमारे सर पर चढ़ गये "। इसलिए, वे फिर से दलितों को अपने पैरों के नीचे लाने में व्यस्त हैं। यही है उत्तर प्रदेश में भाजपा और संघ परिवार के उदय के बाद जातियों के बदलते शक्ति संतुलन की असली तस्वीर। 

हालाँकि इसके विपरीत, इस अत्याचार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी शुरू  हुए हैं। लड़की वाल्मीकि समुदाय के होने के कारण वाल्मीकि समुदाय के लोग विरोध प्रदर्शन में भड़क उठे हैं। हिंदी पट्टी के राज्यों में, वाल्मीकि समुदाय के लोग शहर की नगर पालिकाओं में सफाई करने के काम में शामिल हैं। नगर निगम कर्मचारीगण कई शहरों में हड़ताल पर चले गए हैं। कई अन्य संगठन भी विरोध में शामिल हो रहे हैं। फिर भी, शायद एक सवाल को हम नज़रंदाज़ नहीं कर सकते है। घटना के लगभग दो हफ्ते बाद इस घटना को मीडिया में प्रचारित किया जाने लगा। उसके बाद ही विरोध शुरू होने लगा, मुख्यतः युवती की मौत के बाद । दिल्ली में निर्भया हत्याकांड के दौरान या कुछ साल पहले हैदराबाद में एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार के मामले में जो स्वतःस्फूर्त विरोध प्रदर्शन हुआ, वह इस बार नहीं देखा गया। अगर ये उत्तर प्रदेश के किसी दूरवर्ती गाँव में दलित लड़की का मामला नहीं होता, बल्कि भारत के एक बड़े शहर में एक उच्च या मध्यम वर्गीय परिवार की लड़की होता तो क्या ऐसा हो सकता था? क्या इससे दलित जीवन के प्रति दलितों पर सवर्णों का उत्पीड़न के प्रति, सवर्णों की उदासीनता नहीं दर्शा रही है ? 

दूसरा, हम विरोध प्रदर्शन के मामले में भी एक ही तरह की थकाऊ पुनरावृत्ति देखते रहते हैं। विरोध प्रदर्शनों में सबसे आगे बुर्जुआ राजनीतिक दल हैं, जिनमें से सभी एक समय या किसी अन्य समय पर सत्ता में रहे हैं। जब वे दल सत्ता में थे, कांग्रेस को छोड़ ही दीजिये, यहां तक कि तथाकथित निम्न जाति का प्रतिनिधित्व करने की दावा करने वाले सपा, बसपा के रहते हुए भी दलितों की स्थिति नहीं बदली है। बलात्कार-हत्या-उत्पीड़न की वही घटना की पुनरावृत्ति हुई है। ये सभी राजनीतिक दल इन विरोधों का उपयोग अपनी सत्ता में जाने के लिए करेंगे और फिर वही बात बार-बार दोहराई जाती रहेगी ।

लेकिन ऐसा नहीं है कि, इस स्थापित पार्टी के अलावा, आम लोग अपना गुस्सा व्यक्त नहीं कर रहे हैं। पिछली घटना की तरह ही एक जैसे मांगों को दोहराया जा रहा है। कुछ कहते हैं कि अब सभी अपराधियों को फांसी दो, कुछ कहते हैं कि उनका एनकाउंटर या मुठभेड़ कर दो जैसा हैदराबाद में हुआ। किसी को कहना है इतनी सख्त सजा देना ताकि कोई इस अपराध को करने की सोच भी न सके। दशकों पहले निर्भया कांड के दौरान भी यही मांग उठी थी। उस समय विरोध के कारण कानून में कई बदलाव किए गए हैं। पुलिस ने हैदराबाद में भी मुठभेड़ की। लेकिन, क्या महिलाओं के खिलाफ अपराध में कोई बदलाव आया है? क्या बलात्कार की घटनाओं में कमी आई है? एक के बाद एक बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं, कोई अंत नहीं है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस घटना को सिर्फ बलात्कार की घटना के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, यह वास्तव में भारत में उच्च जातियों के उत्पीड़न की अभिव्यक्ति है। आजादी के 73 साल बीत चुके हैं। कानून निचली जातियों के ऊपर उच्च जातियों के उत्पीड़न पर पाबन्दी लगा रखा है। बार-बार वह कानून और भी सख्त किया गया है। लेकिन, ऊंची जातियों का उत्पीड़न बंद नहीं हुआ है, यह वास्तविक है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सवर्णों के इस वर्चस्व का असली आधार पुराने सामंती समाज के अवशेष हैं जो पूरे भारत में कहीं कम और कहीं ज्यादा टिकी हुई हैं। सवर्णों के लिए सत्ता का असली स्रोत अभी भी भूमि स्वामित्व में उनका लगभग समूचे प्रभुत्व में है। इसके आधार पर ही, ग्रामीण इलाकों में सत्ता के संतुलन में सवर्णों का वर्चस्व है, जिसके परिणामस्वरूप राज्य के हर स्तंभ में उच्च जातियों का वर्चस्व है। और वैचारिक रूप से उच्च जाति हिंदू समाज के पुराने रीति-रिवाजों और परंपराओं से अपनी ताकत निचोड़ता है, जहां ब्राह्मण और क्षत्रिय का सर्वव्यापी वर्चस्व हैं। अगर यह वर्चस्व नहीं तोड़ा जा सकता है, तो उच्च जातियों का उत्पीड़न बंद नहीं होगा। 

यह सिर्फ एक सिद्धांत की बात नहीं है कि जाति विभाजन और उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए चुनाव द्वारा सरकार को बदलने से नहीं होगा | खासकर पिछले 40-50 वर्षों के अनुभव ने इस तथ्य को साफ़ तौर पर दर्शा दिया है | क्योंकि इस अवधि में हमने संसदीय स्तर पर निचली जाति के दलों के उदय का इतिहास को देखा है। एक ही रास्ता है - सामंती ताकतों को कुचलने का, उजाड़ने का। और यह सुधार के रास्ते पर नहीं, बल्कि मजदूर-किसान मेहनतकश जनता के क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष के ज़रिए होगा, जो क्रांतिकारी संघर्ष आज नहीं तो कल पूरे भारत में जागने वाला है | और दलित जनता अपनी पूरी ताकत से इसमें हिस्सा लेंगे | क्योंकि भारत के शोषित, उत्पीड़ित लोगों का बहुसंख्यक हिस्सा वे ही हैं। जो लोग जाति उत्पीड़न को समाप्त करने की सच्ची इच्छा रखते हैं, उनकी सोच को मौजूदा संसदीय प्रणाली की सीमाओं से बाहर निकल कर भारत में क्रांतिकारी परिवर्तन की ओर ले जाना होगा । केवल कुछ उच्च जाति के अपराधियों को फांसी देने से दलित पुरुषों और महिलाओं को उत्पीड़न से मुक्त नहीं किया जा सकेगा, फंसी में लटकाना होगा मौजूदा शासन संरचना को।

2 अक्टूबर, 2020               सर्वहारा पथ 

 



बाबरी मस्जिद विध्वंस का फैसला: इंसाफ या इंसाफ के नाम पर स्वांग ?

 बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में न्याय के नाम पर जो स्वांग रचा गया वह अनापेक्षित नहीं था। भारत में करोड़ों लोगों की आंखों के सामने, सुप्रीमकोर्ट के आदेश को ठेंगा दिखाकर सभी कानूनों का धज्जियां उड़ाकर खुलेआम बाबरी मस्जिद का विशाल ढांचा ध्वस्त कर दिया गया था । न्याय के नाम पर स्वांग का पहला अध्याय तब लिखा गया जब खुलेआम अंजाम दिए गए इस मामले में फैसला आने में ही कुल 28 साल लग गये । बुर्जुआ (मतलब पूंजीवादी) कानूनी दायरे में भी एक कहावत चलता है - न्याय में देरी न्याय न मिलने के बराबर है - justice delayed is justice denied। उस पैमाने पर भी 28 साल के बाद हुआ फैसला कोई न्यायसंगत फैसला नहीं है। लेकिन, 28 साल की लंबी अवधि के बाद भी, अन्याय इस देरी तक ही सीमित नहीं रहा | लगातार दो तीन साल पूरे देश में खूनी, सांप्रदायिक प्रचार चलाया गया और इसके माध्यम से चरमपंथी हिंदू साम्प्रदायिकता को उकसाकर लाखों कारसेवकों को एकजुट कर सभी की आँखों के सामने संघ परिवार के नेताओं ने एक ढांचा को गिरा  दिया। लेकिन, सीबीआई अदालत इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहरा सका। कितना अजीब न्याय! सभी आरोपियों को 'सम्मान' के साथ रिहा कर दिया गया है। मस्जिद ध्वस्त होने के लिए कोई भी जिम्मेदार नहीं है, कहते हैं यह एक स्वतःस्फूर्त  घटना थी। अगर इसे न्याय का स्वांग  नहीं कहा जाता है, तो इसके अलावा और क्या हो सकता है। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद गठित लिब्रहान आयोग के एक न्यायाधीश मनमोहन सिंह लिब्रहान ने भी टिप्पणी की - यह घटना बिल्कुल भी स्वतःस्फूर्त नहीं थी | उनके पास पर्याप्त सबूत हैं कि संघ परिवार के नेताओं ने काफी योजनाबद्ध तरीके से बाबरी मस्जिद के विध्वंस करने के घटना को अंजाम दिया हैं। वह इस बात पर टिप्पणी नहीं करना चाहते थे कि सीबीआई अदालत उन सबुतों का परवाह नहीं की या उसे अदालत में पेश किया गया था या नहीं। ऐसे ही कुछ लोगों ने खेद के साथ टिप्पणी की है कि - किसी ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त नहीं किया, यह अपने आप गिर गया!

जब सुप्रीम कोर्ट ने विवादित भूमि को राम जन्मभूमि मंदिर के लिए ट्रस्ट को सौंप दिया, तब शीर्ष अदालत ने भी कहा था कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस एक आपराधिक कृत्य (criminal act)  था। उस समय अनेक बुर्जुआ (पूंजीवादी) पर्यवेक्षकों/विवेचकों ने फैसले के उस हिस्से को दिखाते हुए साबित करने की कोशिश की थी की सुप्रीम कोर्ट के फैसला में  दोनों पक्षों को ही देखा गया है। अब हमें नहीं पता कि फैसले के किस हिस्से में वे संतुलन की तलाश करेंगे। सीबीआई अदालत ने शायद उनके लिए कोई रास्ता खुला नहीं छोड़ा। इन दो फैसलों के साथ, भारतीय न्यायपालिका अपनी आपेक्षिक निष्पक्षता की पर्दा को अपने हाथ हटाकर ऐलान कर रही है कि वे वास्तव में किसके साथ खड़े हैं।

हालाँकि, इस फैसले का वास्तविक महत्व केवल यह नहीं है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए जिम्मेदार लोगों को, जिन्हें उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक कृत्य घोषित किया है, उस अपराध के लिए दंडित नहीं किया गया। इस निर्णय का वास्तविक महत्व इस तथ्य में निहित है कि यह निर्णय यह साबित करता है कि संघ परिवार का फासीवादी अभियान कहाँ तक बढ़ गया है जहाँ वे लोग न्यायपालिका सहित राष्ट्र के विभिन्न हिस्सों पर अपना वर्चस्व लगभग पूरा कर लिया है। संघ परिवार के इस फासीवादी अभियान का लक्ष्य सिर्फ बाबरी मस्जिद को गिराना और राम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण करना नहीं है, यह कभी नहीं था। यह बहुसंख्यक हिंदू लोगों के बीच सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाने और देश भर में सांप्रदायिक विभाजन पैदा करके देश को हिंदू राष्ट्र की ओर ले जाने का एक अवसर है। इस फासीवादी हिंदू राष्ट्र का लक्ष्य केवल अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना ही नहीं है, बल्कि सभी उत्पीड़ित लोग जो थोड़ा कुछ लोकतांत्रिक अधिकार का लाभ उठाते थे उसे भी छीन कर भारत को ऐसे एक राष्ट्र में तब्दील करना, जहां लोकतंत्र बिल्कुल भी मौजूद  नहीं रहेगा | आर्थिक तौर पर शोषित वर्गों पर शासक बड़े बुर्जुआ के नेतृत्व में मुख्यतः बड़े बुर्जुआ यानी पूंजीपति वर्ग और उनके साथ ग्रामीण शोषकों का अंधाधुंध शोषण का राज मौजूद रहेगा और सामाजिक रूप से मुख्य रूप से हिंदी पट्टी के उच्च जाति के हिंदुओं का वर्चस्व रहेगा, | बाकी सब उनके पैर तले दबे होंगे। मजदूर वर्ग सहित सभी मेहनतकशों के लिए ख़तरे की बात यह है कि संघ परिवार और भाजपा वास्तव में स्वार्थ रक्षा कर रही है साम्राज्यवाद के ऊपर भरोसेमंद बड़े बुर्जुआ (पूंजीपतियों) का और वे शासक बुर्जुआ के स्वार्थ में मजदूर वर्ग पर हमला कर रहे हैं और करते रहेंगे । इस काम में भाजपा अपनी स्वयं की फासीवादी शक्ति का उपयोग कर रही है और इस कारण शासक वर्ग के अन्य राजनीतिक प्रतिनिधियों की तुलना में मज़दूर वर्ग और जनता पर अधिक आक्रामक तरीके से हमला करने में सक्षम हो रही है । मुंह से चाहे जितना ही शोर शराबा क्यों न करे, सभी स्थापित राजनीतिक दल प्रत्यक्ष तौर पर न होने पर भी अप्रत्यक्ष रूप से इस अभियान में उनको मदद किये हैं और अभी भी कर रहे हैं । उनके पास संघ परिवार के फासीवादी अभियान को रोकने की चाहत या ताकत कुछ भी इन लोगों का नहीं है। वे लोग ज्यादा से ज्यादा सत्ता में जाने के लिए भाजपा के खिलाफ लोगों के विरोध का उपयोग करने की कोशिश करेंगे। संघ परिवार के फासीवादी अभियान को, तमाम मेहनतकश लोगों को संगठित कर मजदूर वर्ग को ही रोकना होगा । वह ताकत शायद अभी तक नहीं देखी जा सकी है। लेकिन, सिर्फ मज़दूर वर्ग के पास ही वह ताकत है। तथाकथित कम्युनिस्ट नामधारी सुधारवादी पार्टियों ने मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र ताकत को जगाने के बजाय उन लोगों को पार्टी के पेटीबुर्जुआ (यानी निम्न पूंजीपति वर्ग) नेतृत्व का अनुयायी कर रखे थे। उस नेतृत्व के विश्वासघात के परिणामस्वरूप, मजदूर वर्ग अब बिखरी हुई है। मज़दूर वर्ग को खुद आज अपनी स्वतंत्र ताकत को जगाना होगा, जिसके बल पर वह न केवल फासीवाद के अभियान का विरोध करेगा, बल्कि समाज को शोषण से मुक्ति के मार्ग पर ले जाएगा। बाबरी मस्जिद के फैसले ने इस आह्वान को अगुवा सर्वहारा के समक्ष पेश कर रहे है - उठो, जल्दी से खड़े हो जाओ, खुद एकजुट हो, तमाम मजदूरों को संगठित करो, फासीवाद के इस अभियान का सामना करने के लिए तैयार हो जाओ।

2 अक्टूबर, 2020                                 



Saturday, April 11, 2020




करोना-वायरस महामारी व लॉक-डाउन से उपजे संकट: मजदूर वर्ग का नज़रिया से 

करोना-वायरस के कारण उपजी महामारी और उसे नियंत्रित करने के मकसद से घोषित देशव्यापी लॉक-डाउन मजदूर, गरीब किसान, खेतिहर मजदूर सहित तमाम मेहनतकशों की ज़िंदगी में एक अभूतपूर्व संकट लायी है। हजारों की तादाद में काम काज खोए, निर्धन, असहाय मजदूरों की मीलों पैदल चल कर घर लौटने का मंजर तमाम गरीब मेहनतकशों के ज़िंदगी की मौजूदा संकट की दयनीय स्थिति प्रकट हुई है। पूरे देश में जिस तरह करोना से जानें गई वैसे ही कई मजदूर लॉन्ग मार्च के दौरान भूख और प्यास या सड़क हादसों में जानें गँवाई। ये वाकिये दर्शा रहे हैं कि इस लॉक-डाउन ने मजदूर, गरीब मेहनतकशों के ज़िंदगी में जिस कदर अनिश्चितता और मुसीबत पैदा की है वो कोरोना महामारी से किसी तरह कम नहीं है। वह ये भी साबित कर रहा है कि किसी भी प्राकृतिक आपदा को जितना भी वर्ग शोषण से अलग करके दर्शाने की कोशिश क्यों न हो, वह एक सफ़ेद झूठ है। वर्ग विभाजित समाज में किसी भी प्राकृतिक आपदा में शोषित वर्ग ही सबसे ज्यादा नुकसान का शिकार होते है एवं उनके जीवन में ही सबसे ज्यादा संकट पैदा होता है।
मजदूर, गरीब मेहनतकशों की ज़िंदगी लेकर सरकार व प्रशासन को कत्तई कोई भी सिरदर्द नहीं है ये प्रवासी मजदूरों पर थोपे गए संकट से ही साफ ज़ाहिर है। लॉक-डाउन करने के पहले इन प्रवासी मजदूरों का क्या होगा इसके बारे में सरकार की कोई भी सोच-विचार नहीं था। अब जब ये मजदूर जीने की बेपरवाह कोशिश में पैदल चलकर गांवों की ओर लौटने की कोशिश में मीलों की दूरी तय करना शुरू किए हैं तब भी ये अमीरों की तमाम सरकारें उनके जीवन को लेकर चिंतित नहीं है बल्कि उनकी चिंता सिर्फ संक्रमण की सम्भावना को लेकर है। जबकि विदेशों से अमीर लोगों द्वारा ये संक्रामक बीमारी ले आने के वक़्त सरकार ने उनको बेरोक-टोक आने-जाने व इधर-उधर घूमने दिया है। अब सरकार गरीब मजदूरों को किसी तरह रोकने की फिराक में है एवं उनके साथ जानवरों का तरह वर्ताव भी किया जा रहा है। कैसे ये मजदूर इन्सान की तरह जियेंगे उसे लेकर उनको रत्ती भर भी चिंता नहीं है।
सिर्फ ये प्रवासी मजदूर ही नहीं, सभी मजदूर सहित तमाम मेहनतकश लोग लॉक-डाउन के नतीजे में तीव्र संकट में है। लॉक-डाउन के नतीजे में पूरे देश में उत्पादन व उससे जुड़े सभी कार्य ठप्प होने की कारण करोड़ों मजदूर व मेहनतकश हाल-फिलहाल अपना काम -काज गँवा चुका हैं। पूंजीपति व ठेकेदारों ने कह दिया है कि वे असंगठित क्षेत्र में उत्पादन से जुड़े लाखों मजदूरों को तो ज़रूर यहां तक कि कारखानों में ठेका में नियुक्त मजदूरों को भी इस अवधि की कोई मजदूरी भुगतान नहीं करेगा। वे यहाँ तक कि ज्यादातर निजी क्षेत्र में नियुक्त स्थायी मजदूरों को भी वेतन नहीं दे पायेगें यह कह दिया है। जब पूंजीपति वर्ग उत्पादन चालू रहते वक़्त ही ठीक-ठाक वेतन, सहूलियतें भुगतान नहीं करते, तब आज ये मजदूरों को वेतन नहीं देगा ये कोई नई या चौकानेवाली बात नहीं है। सरकार भी उनको वेतन भुगतान करने के लिए सिर्फ अनुरोध तक ही किया है। इसके अलावा कोई ठोस कदम नहीं लिया। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि सरकार नियोक्ता मालिकों को जो अनुरोध किया है वे महज बात-की-बात ही है। पूंजीपति व जमींदार-सूदखोर जैसा ग्रामीण शोषकों के शोषण के नतीजे में मजदूर सहित किसी भी गरीब इंसान को ही आर्थिक बचत लगभग न के बराबर होता है। इस वजह से कोई काम न रहने के कारण वे और भी अनिश्चितता के कगार पर पहुँच चुके हैं। अब से आने वाले भविष्य तक कैसे ये लोग अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी का इन्तेजाम करेंगे इसका उत्तर उनके पास नहीं है।
इस स्थिति में सरकार 1 लाख 70 हज़ार रुपये की एक राहत पैकेज की घोषणा की है। इस पैकेज के तहत जो ठोस राहत-कार्यक्रम की घोषणा की गई है वह बहुत ही तुच्छ है। खास कर मजदूर गरीब इन्सान अपना काम-कमाई गँवाकर जिस संकट में उलझ गए हैं वह इस राहत के तुलना में अपर्याप्त है। इस राहत से उनकी थोड़ी सी भी ज़रुरत पूरी नहीं होगी। जबकि इस आपदा के समय सरकार की जिम्मेदारी थी सभी नागरिकों की, खास कर गरीबों के लिए खाद्य, आश्रय, व इलाज की पूरी जिम्मेदारी लेना, तब वह काम न करके महज दिखावे भर के संकुचित कदम उठाकर सरकार अपनी जिम्मेदारी से हाथ खींचना चाह रही है। इस घटना ने एक बार फिर से ये साफ ज़ाहिर कर दिया है कि शोषण आधारित समाज में सरकार व प्रशासन मेहनतकश, गरीब जनता के लिए नहीं सोचते, न ही महत्व नहीं देते है। इससे भी बड़ी बात है कि तमाम सरकारों ने जितने भी राहत के इन्तेजाम किए हैं वह भी बाँटने की जिम्मेदारी वही नौकरशाह प्रशासन पर है, जो आम तौर पर भ्रष्टाचार से ग्रस्त है एवं गरीबों के जीवन की समस्या व मुसीबतों के बारे में एकदम ही उदासीन हैं। अतः ये राहत का कितना हिस्सा आखिरकार निचले तबके की जनता के पास पहुंचेगा उस विषय में संदेह है। ऐसे संकट के दौरान मजदूर मेहनतकश जनता को खतरे से सही मायने में बचा सकते थे मेहनतकश जनता के बीच में से बनी जनता कमेटियां। ये कमेटी मेहनतकश जनता के साथ रहके लिए उनके लिए बराबर ही राहत पंहुचाते और देश के दूसरे तबके की तरह उनके बराबर जीने के लिए ज़रूरी सामान ले जाते, इलाज का इन्तेजाम करते। ज़रूरी होता तो इसलिए अमीरों पर अतिरिक्त कर थोप के या उनसे पैसो का इन्तेजाम कर काम की अंजाम तक ले जाते। लेकिन ऐसा इस व्यवस्था में मुमकिन नहीं है, मुमकिन होता अगर मजदूर-किसान का राज होता।
अभी तक करोना-वायरस का संक्रमण शहर में एवं ऊँचे तबके के लोगों में ही मूलतयः सीमित है। लेकिन भविष्य में अगर इस वायरस का संक्रमण शहर के गरीब, निचले तबके की इलाकों में फ़ैल जाए तब उसका नतीजा और खतरनाक होगा। शहर के गरीब, मेहनतकश जनता का बसा हुआ इलाका बहुत ज्यादा भीड़ भरा व अस्वास्थ्यकर है। इस वायरस का कोई टीका न होना एवं काफी ज्यादा संक्रामक होने के कारण गरीब मोहल्लों में ये संक्रमण बहुत जल्दी फैलने की सम्भावना काफी अधिक है। पूंजीपति व अन्य शोषकों के तीब्र शोषण के नतीजे में मजदूर व मेहनतकशों को किसी किस्म का इन्तेजाम करना ही दुष्कर है। लिहाज़ा इस तरह की महामारी का इलाज करना भी उनके क्षमता से बाहर है। गरीब इन्सान को तो लगभग पूरा ही सरकारी स्वास्थ्य-व्यवस्था पर निर्भर करना पड़ता है। इसके अलावा उनके पास और कोई चारा नहीं है। अब सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का क्या हाल है ये सभी जानते हैं। वैसे ही उसका बहुत बुरा हाल है। इसके उपरांत पिछले कुछ दशकों से सरकारों द्वारा वैश्वीकरण नीति के चलते जैसे प्रत्येक क्षेत्र को निजीकरण के रास्ते धकेल दिया गया है उससे सरकारी स्वास्थ्य सेवाओ सहित  तमाम सार्वजनिक सेवा क्षेत्रों को और चरमरा गई है। विकसित व आधुनिक इलाज अब मुख्यतः निजी क्षेत्र में प्राप्त होता है, जोकि गरीबों के पंहुच से बाहर है। कोरोना के चलते वैसे भी एक तंगहाली की स्थिति बनी हुई है। अगर कोरोना संक्रमण देश भर में व्यापक स्तर पर फ़ैल जाता है तब कितना गरीब लोगों को बिना इलाज जान गंवाना पड़ेगा ये भविष्य ही बता पायेगा। कोरोना के लिए अस्पतालों में दाखिल कर इलाज कराने के लिए आवश्यक बेड या उपकरण का बात तो छोड़ ही देते है, अभी तक टेस्ट किट के अभाव में सरकार व्यापक मात्रा में जाँच ही नहीं कर पा रहे है। जो कर पाने से ये महामारी रोकने के लिए एक असरदार कदम लिया जा सकता। जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की जिम्मेदारी तो सरकार की है। इसलिए जनता से बड़ी रकम में सरकार कर भी वसूल लेती है। करों का वह पैसा कहाँ जाता है? जनता से कर बाबत जो पैसा सरकार वसूल लेती है वह पैसा वो पूंजीपतियों को तरह तरह की सुविधा मुहैय्या कराने के लिए, पुलिस-सेना-नौकरशाह को पालने के लिए एवं आम तौर पर अमीरों के लिए तथा समाज की सुविधाभोगी ऊँचे तबके के लिए व्यय करते हैं। आम मेहनतकश जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि क्षेत्रों से सरकार ने धीरे धीरे हाथ खींच लिया है। शासक वर्ग की नीति के चलते जनता को आज किस स्थिति पर ला कर खड़ा कर दिया गया है यह इस संकट से ही साफ ज़ाहिर है | 
कोरोना-वायरस से उपजे लॉक-डाउन होने के पहले से ही समूची दुनिया की आर्थिक स्थिति के साथ भारत की आर्थिक स्थिति भी एक गहरे आर्थिक मंदी से गुजर रही थी।  कोरोना महामारी एवं लॉक-डाउन अर्थव्यवस्था को और गहरे संकट में ले जायेगा ये दिन के उजाले की तरह साफ है। मंदी की वजह से जो पूंजीपति संस्थाएं मजदूरों को छंटनी करना चाह रही थी वे इस मौके का इस्तेमाल कर रहे हैं। लॉक-डाउन को जब वापस लिया जायेगा तब कितने मजदूर व कर्मचारी नौकरी गंवाएंगे, कितने छोटे कारोबार उजड़ जायेंगे उसकी आशंका ही हम अभी कर सकते हैं, उसका पूरा अनुमान लगाना मुमकिन नहीं है। हालाँकि ऐसी स्थिति व्यापक मात्रा में पैदा होगी यह अभी से ही कहा जा सकता है। दूसरा बात है, उत्पादन कार्य व बिक्री लगभग पूरी ही बंद रहने के वजह से सरकार की आमदनी घट गई है। इसके उपरांत पूंजीपति इस संकट से मुकाबला करने के लिए सरकार से आर्थिक मदद मांग रहे हैं। इस मकसद से हाल ही में सरकार ने कुछ कदम उठाया है। आने वाले कल में और कुछ कदम लेंगे। पूंजीपतियों व सरकार के इस संकट का बोझ आने वाले समय में सरकार द्वारा और भी नए करों के व अन्य कदमों के तहत मजदूर व मेहनतकश जनता पर थोपा जायेगा। 
मजदूर व मेहनतकश जनता के उपर संकट का बोझ जैसे सिलसिलेवार रूप में उतरा  आयेगा उतना ही उन लोगों के साथ पूंजीपति वर्ग व सरकार का विरोध बढ़ना तय है। ताकि मजदूर व मेहनतकश जनता को इस बात का एहसास हो सके कि यह संकट कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है, इस संकट का मूल स्रोत है पूंजीपति-जमींदारों का शोषण और उसके लिये उनके बीच में जितना हद तक हो सके प्रचार करना चाहिये। यह प्रचार उनके  जिन्दगी के अनुभव से मिलाकर इस तरह करना होगा ताकि वे इस संकट के साथ इस शोषण आधारित समाज के सम्बन्ध को समझ सकें। साथ साथ मजदूर व मेहनती जनता अपने जायज अधिकारों की मांग लेकर पूंजीपति व सरकार के खिलाफ संघर्ष का निर्माण कर सके इसलिये उनके बीच प्रचार अभियान चलाना व उनको संगठित करने की मकसद से मजदूर वर्ग का अगुवा दस्ता व कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को हर संभव प्रयास करना होगा।
इस प्रचार के साथ साथ इस कठिन स्थिति मे खास कर आसपास उपस्थित मजदूर व गरीब किसान, खेतिहर मजदूर साथियों में, जो लोग खतरे में होंगे, उनके पास में अगुआ वर्ग सचेत मजदूरों को खड़ा होना होगा। हर संभव मदद के लिए हाथ बढ़ाना होगा। इस कठिनाई की घडी में अगर उनके पक्ष में अगुआ वर्ग सचेत मजदूर व कम्युनिस्ट कार्यकर्ता खड़े न हो सके तब सभी राजनैतिक प्रचार ही उनको बेमतलब लगेगा। हालाँकि मजदूर वर्ग का अगुआ दस्ता व कम्युनिस्टों का मुख्य काम अवश्य ही उनको राहत देना नहीं है, बल्कि मुख्य काम है इस शोषण आधारित समाज ने उन लोगों को किस तरह इस संकट में डाल दिया है उसके बारे में उन्हें सचेत करना व समूचे व्यवस्था के खिलाफ सघर्ष के लिये उन लोगों को सचेत व एकजुट करना।
चूँकि वैज्ञानिक अभी तक करोना-वायरस का कोई टीका आविष्कार नहीं कर पाये हैं, वे लोग और विभिन्न देश के शासकों ने सामाजिक दूरी बनाये रखने को ही इस महामारी के रोकथाम का एकमात्र रास्ता दिख रहा है। यानी, सभी को कहा जा रहा है दूसरे लोग से दूर रहने के लिए। करोना-वायरस के संक्रमण की संभावना को रोकने के लिये शारीरिक दूरी बनाये रखना अवश्य ही जरूरी है। लेकिन, इन्सान तो दरअसल सामाजिक जीव है। आपसी सहयोग बगैर कोई भी इन्सान जी नहीं सकता है। पूंजीवाद आमतौर पर यह विचारधारा का प्रचार करते है कि -`खुद जियो। इस बुर्जुआ विचारधारा का असर ही जब अभी हावी है तब सामाजिक दूरी बनाये रखने की यह प्रचार लोगो में आपसी सहयोग के नाते को पीछे धकेल दे सकता है, जिससे आपसी सहयोगिता की जगह लेगा स्वार्थी मानसिकता व स्व-केन्द्रिकता। इस सोच का विरोध हम लोगों को जरूर करना होगा।
करोना-वायरस की यह महामारी चीन से शुरु होकर कई महीनों में दुनिया के काफी देशों तक फैलकर पूरी दुनिया के संकट के रूप में उभरा है। दरअसल यह महामारी पूरे मानव सभ्यता के खिलाफ एक हमले के रूप में सामने आया है, जिसे पूरे मानव जाति को एकजुट होकर मुकाबला करना होगा। लेकिन, मानव समाज आज अनेक पूंजीवादी देश में बंटा हुया है जहाँ कुछ साम्राज्यवादी भीमकाय एकाधिकारी संस्था की अगुवाई में विभिन्न देश के पूँजीपति वर्ग शासक वर्ग के हैसियत से है। यह पूंजीवादी संस्था समूह हर समय उनके मुनाफे के स्वार्थ में अपने बीच के तीव्र प्रतिस्पर्धा में शामिल है। दुनिया के करीब सभी वैज्ञानिक खोज के विषय इन बहुराष्ट्रीय पूंजीवादी संस्था व साम्राज्यवादी देश समूह नियंत्रण करते है। वे उन सभी क्षेत्रो में ही खोज करते हैं जो इन साम्राज्यवादी पूंजी सहित बड़े बड़े पूंजीपतियो के पास अहमियत रखते हैं। या तो उन लोगों को युद्ध हथियारों की जरुरत पूरा करता है या उन लोगों का मुनाफा के स्वार्थ में काम आता है। उनके लिए मजदूर सहित गरीब मेहनतकश लोगों का जीना मरना कोई भी अहमियत नहीं रखता है। फलस्वरुप, कोरोना-वायरस का टीका आविष्कार का काम भी उनके मुनाफा कमाने के स्वार्थ से जुड़ा हुया है। अगर पूरी दुनिया के सभी वैज्ञानिक लोग आपसी सहयोग के तहत और पूंजीपतियो के स्वार्थ पर ध्यान न रखकर, पूरे मानव जाति के हित-हिफाज़त के लिए एक ही केन्द्र के अधीन रहकर प्रतिषेधक आविष्कार का प्रयासरत होते थे तब यह कहना अधिक न होगा की उनका इस प्रयास सफल होने का संभावना कई गुना बढ़ जाती। हालाँकि आज के इस पूंजीवादी दुनिया में वह संभव नही है। इस पहलू से कोरोना-वायरस का हमला इस पूंजीवादी शासन को खत्म कर समाजवाद की ओर यात्रा की ज़रुरत को हमारे समक्ष और जोर-शोर के साथ उपस्थित कर दिया है।
एक ही साथ आज यह भी गौर करने वाली बात है की कोरोना संक्रमण के समय इस देश में हिन्दुत्ववादी, फासिस्ट ताकतों के संरक्षण में गोमूत्र खाने जैसा तरह तरह के अवैज्ञानिक, अंधविश्वास से ग्रस्त काम काज चल रहा है। ऐसे ताकत समूह आमतौर पर जिन अवैज्ञानिक सोच विचार का प्रचार-प्रसार करता है, कोरोना महामारी केन्द्रित कर उसका प्रचार भी उसी का हिस्सा है। आमतौर पर सभी धर्म के कट्टरवादी ताकत ही इस तरह के विविध अवैज्ञानिक, अंधविश्वास से ग्रस्त सोच का प्रचार करते हैं। आज इस महामारी के खिलाफ सामूहिक रूप से जनता द्वार सचेत भूमिका लेने के परिप्रेक्ष्य में यह अवैज्ञानिक सोच विचार एक बड़ा रोड़ा है। इस तरह के अवैज्ञानिक, अंधविश्वास से ग्रस्त सोच-विचार हमारी समाज का पिछड़े सामाजिक आर्थिक आधार पर टिका हुआ है। स्वाभाविक तौर पर हमारी जैसा पिछड़ा देश के लिए समाजवाद के दिशा में आगे बढ़ने के रास्ता में यह पुराना उत्पादन संबंध के अवशेष को मिटाने सवाल भी काफी अहम है जो ज़रुरत को करोना महामारी सामने लाया है।
इन्सान जीने के लिये प्रकृति पर निर्भर है। प्रकृति पर इन्सान अपने श्रम द्वारा कार्य के तहत अपना जीने का इन्तेजाम करते है। इन्सान और प्रकृति का सम्बन्ध सामंजस्य व आपसी सहयोग पर आधारित है। जब भी कभी इन्सान प्रकृति पर आक्रामक तेवर अपनाते है, उसको नष्ट करने के लिए उतारू होते है, तब प्रकृति भी मानव जाति पर पलटवार करते हैं। कोरोना-वायरस का हमला भी प्रकृति पर इन्सान का आक्रामक तेवर के खिलाफ प्रकृति का प्रत्याघात का उदाहरण है। प्रकृति के इस हमले के सामने इंसान कितना लाचार है यह कोरोना-वायरस के महामारी का संकट फिर एक बार दर्शा दिया। इस घटना ने यह भी दिखा दिया कि अंतिम विचार में इन्सान और प्रकृति के इस विरोध में प्रकृति मूख्य भूमिका में रहता है। इस तरह के संकट से बचने के लिये प्रकृति व इन्सान का आपसी सहयोगपूर्ण सम्बन्ध व सामंजस्य को वापस लाना ज़रुरी है। यह काम हालिया पूंजीवादी व्यवस्था के अन्दर संभव नही है, इसे संभव करने के लिये पहले ही हालिया पूंजीपति वर्ग को उखाड़ फेंकना होगा, जो उनके मुनाफा के उग्र लालच में प्रकृति के ऊपर एक खौफनाक, विनाशकारी हमला चलाते आ रहे है एवं जिसका खामियाजा उठाना पड़ रहा है करोड़ों मेहनतकश लोगों को। इस वजह से करोना-वायरस का यह हमला इस पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंक कर समाजवाद की ओर बढ़ने की जरूरत को सामने ला रहे है और इस काम में नेतृत्व जो दे सकता है उस मजदूर वर्ग का ऐलान कर रहे है उनकी ऐतिहासिक भूमिका पालन करने के लिये।
                                                              31 मार्च,2020