Wednesday, March 16, 2022

रूस-यूक्रेनी युद्ध और साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच शत्रुता का नया चरण

   

क्या रूस-यूक्रेन युद्ध महज एक क्षेत्रीय संघर्ष है?  नहीं। यह युद्ध दुनिया को आपस में बांटने के उद्देश्य से साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच बढ़ते अंतर्विरोध की एक क्षेत्रीय अभिव्यक्ति है। यह युद्ध खास तौर पर, वर्चस्व के लिए रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं के परिणामस्वरूप हुआ। इन साम्राज्यवादियों के स्वार्थों की लड़ाई की कीमत चुकानी पड़ रही है यूक्रेन के सामान्य, निर्दोष लोगों को, जो आज एक भयानक युद्ध की तबाही के शिकार हैं।

इसमें कोई शक नहीं है कि इस युद्ध में रूस हमलावर है। यूक्रेन के शासकों ने जो भी किया हों, किसी भी देश को किसी अन्य स्वतंत्र, संप्रभु देश पर कब्जा करने के लिए इस तरह के आक्रामक युद्ध छेड़ने का अधिकार नहीं है। हालांकि, आज, पश्चिमी यूरोप में एंग्लो-अमेरिकी साम्राज्यवादी और अन्य साम्राज्यवादी शक्तियां, जो यूक्रेन के लिए आंसू बहा रहे हैं, रूस के खिलाफ युद्ध में यूक्रेन की स्वतंत्रता की रक्षा के नाम पर यूक्रेन को हथियार उपलब्ध कराकर मदद कर रहे हैं, उनके हित-स्वार्थ भी हमारे लिए अज्ञात नहीं हैं। उपनिवेशवाद के इतिहास या पिछली सदी के पूर्वार्द्ध के दो विश्व युद्धों सहित अनगिनत युद्धों के इतिहास का बात छोड़ ही दी जाए, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ ही समय पहले, इराक और अफगानिस्तान की जनता पर संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों द्वारा उनके प्राकृतिक संसाधनों पर अंधाधुंध तरीके से हावी होने और लूटने के लिए बेरहमी से आक्रमण किया गया था। क्यूबा, चिली, बोलीविया से लेकर इराक-अफगानिस्तान तक, अनेक देशों को अपने कब्जे में रखने के लिए जिन्होंने साजिश रचने से लेकर खुली आक्रामकता को अंजाम दिया है, आज जब वे यूक्रेन पर रूस के आक्रमण का विरोध करते हैं, तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह उनके अपने स्वार्थ में है। नैतिकता, मानवता, लोकतंत्र, ये सभी साम्राज्यवादी देशों सहित हर देश के शासक वर्ग के लिए महज बहाने हैं। वे सभी अपने ही देश की पूंजीपति वर्ग के भू-राजनीतिक हितों के नजरिये से इस युद्ध को देख रहे है और उसी के अनुसार कार्य कर रहे हैं।

विभिन्न समाचार माध्यम इस बात को फैलाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह युद्ध पुतिन की मनमानी, साम्राज्य का विस्तार करने के लिए उस की अनुचित, अन्यायपूर्ण महत्वाकांक्षाओं का परिणाम है। लेकिन कितनी भी निरंकुश और तानाशाही शक्ति किसी एक व्यक्ति के पास क्यों न हो, क्या कभी सिर्फ एक व्यक्ति की इच्छा से ही इतना बड़ा युद्ध लड़ा जा सकता है? हरगिज नहीं। किसी एक पूंजीवादी देश का कोई भी शासक अपने निजी हित में या सत्ताधारी दल के हित में इतना महत्वपूर्ण निर्णय नहीं ले सकता है। देश के पूंजीपति वर्ग या उसके किसी हिस्से का वर्ग हित इसके पीछे काम करता है। उसी तरह, रूस और यूक्रेन के बीच इस टकराव का कारण इन दोनों देशों के शासक पूंजीपतियों के स्वार्थ में हैं। और आगे हम देखेंगे कि इसके पीछे न केवल इन दोनों देशों के शासक वर्ग के हित हैं, बल्कि दुनिया के बड़े बड़े साम्राज्यवादी देशों के भी स्वार्थ हैं। क्योंकि, वर्तमान दुनिया में पूंजीवाद एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था है, जिसकी श्रृंखला में प्रत्येक देश की पूंजीवादी व्यवस्था और शासक वर्ग जुड़े हुए हैं, जहां पूरा न भी, फिर भी ज्यादातर कठपुतली जैसे अदृश्य धागे से बंधे है जिनका नियंत्रण साम्राज्यवादी पूँजी के  हाथों में है।

यूक्रेन के साथ रूस के युद्ध के हालात वर्ष 2014 से ही चल रहे हैं। हालांकि इससे भी करीब ढाई दशक पहले के इतिहास में भी उस विरोध की जड़े है। 1990 के दशक की शुरुआत में सोवियत संघ के पतन और इसके विघटन के साथ यूक्रेन एक स्वतंत्र देश के रूप में पैदा हुआ था। सोवियत संघ के पतन के बाद से, संयुक्त राज्य अमेरिका ने पूर्व सोवियत ब्लॉक के विभिन्न देशों और यहां तक कि पूर्व सोवियत संघ के घटक देशों को भी अपने अधीन लाने के प्रयास शुरू कर दिए थे। 1999 से लेकर अलग अलग समय पर कई देश अमेरिका के नेतृत्व वाले सैन्य गठबंधन नाटो (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) में शामिल हुए हैं। इनमें चेक गणराज्य, हंगरी, पोलैंड, बुल्गारिया, रोमानिया जैसे पूर्व सोवियत ब्लॉक के कई देश शामिल हैं। इसके अलावा, एस्टोनिया, लाटविया और लिथुआनिया जैसे पूर्वतन सोवियत संघ के घातक देश भी नाटो में शामिल हुए हैं। पहले रूस की आर्थिक और सैन्य स्थिति इतनी कमजोर थी कि वह नाटो के माध्यम से अमेरिकी प्रभुत्व के प्रसार को रोक नहीं सका। उस दौर में ही, यूक्रेन के नाटो में शामिल होने पर कई बार चर्चा सामने आई है। और रूस ने हमेशा इसका विरोध किया है। रूसी शासक वर्ग ने तर्क दिया कि यूक्रेन एक अलग राष्ट्र नहीं है, बल्कि रूसी राष्ट्रीयता का हिस्सा था। इस तरह के रूसी चरमपंथी राष्ट्रवाद का प्रभाव रूसी जनता के एक बड़े हिस्से में हैं जिसका उपयोग रूसी शासक वर्ग करता है। दरअसल यूक्रेन की भौगोलिक या कहना चाहिए भू-रणनीतिक / भू-सामरिक स्थिति ऐसी है कि यूक्रेन के नाटो में शामिल होने का मतलब है कि अमेरिकी आधिपत्य/प्रभुत्व रूस के दरवाजे तक पहुँच जाना। अब तक नाटो में शामिल सभी पूर्वी यूरोपीय देशों में उपस्थित नाटो के सैन्य बलों ने  वास्तव में रूस को घेर रखा है। रूस की सीमा से सटे हुए अब महज तीन ही देश  बेलारूस, जॉर्जिया और यूक्रेन इससे बचे हुए है। इन देशों पर भी अमेरिका अपना वर्चस्व  विस्तार करने की कोशिश कर रहा है। यूक्रेन के नाटो में शामिल होने से इस क्षेत्र में अमेरिकी साम्राज्यवाद का दबदबा परिपूर्ण हो जाएगा।

अपने भू-रणनीतिक महत्व के अलावा, यूक्रेन का आर्थिक महत्व भी है, खासकर अपने प्राकृतिक संसाधनों के कारण। हालाँकि, यूरोपीय अर्थव्यवस्था के लिए भी यूक्रेन का एक विशेष महत्व है। वह है यूक्रेन के भीतर से एक पाइपलाइन के माध्यम से पश्चिमी यूरोप को रूसी गैस की आपूर्ति होती है। पश्चिमी यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था रूसी गैस पर निर्भर करती है। साथ साथ इस पाइपलाइन के जरिए यूक्रेन को रूस से बड़ी रकम भी मिलती है।

आरंभ में जब पूर्वी यूरोप में अमेरिकी साम्राज्यवाद नाटो का विस्तार कर रहा था, उस दौरान रूस अपनी कमजोरी के कारण इसे रोक नहीं सका। वह मौखिक या कूटनीतिक कार्रवाई के अलावा कुछ नहीं कर सकता था। हालांकि, धीरे-धीरे, रूस ने अपनी कमजोरियों पर काबू पा लिया और आर्थिक एवं सैन्य रूप से अपने आप को मजबूत करना शुरू कर दिया। तब से, रूसी साम्राज्यवाद इस अमेरिकी विस्तारवादी प्रयास को सैन्य रूप से विफल करने की कोशिश कर रहा है। इसका एक उदाहरण 2008 का रूस-जॉर्जिया युद्ध है। नाटो के वर्ष 2008 के बुखारेस्ट शिखर सम्मेलन में, नाटो ने जॉर्जिया और यूक्रेन को जोड़ने की योजना की घोषणा की। इसके छह महीने बाद ही रूस ने जॉर्जिया पर हमला किया। जॉर्जिया के मामले में भी, रूस ने वहां के दो क्षेत्रों की जनता का जॉर्जिया के शासक वर्ग के खिलाफ विद्रोह का इस्तेमाल किया है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि रूसी शासक वर्ग हमेशा से यूक्रेन पर कब्जा करना चाहता है और इसके लिए वे यूक्रेन में अपने आज्ञाकारी लोगों को स्थापित करना चाहते हैं। लेकिन क्या सिर्फ रूस ही अपने आज्ञाकारी लोगों को सत्ता में लाना चाहता है? क्या अमेरिका ऐसा नहीं चाहता है ? अमेरिका भी चाहता है। 2014 में, रूस समर्थक यूक्रेनी राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को एक बड़े विरोध के जरिए सत्ता से गिरा दिया गया था। कई लोगों का मानना है कि उस परिवर्तन में संयुक्त राज्य अमेरिका की महत्वपूर्ण भूमिका थी। तत्कालीन अमेरिकी सहायक विदेश मंत्री विक्टोरिया नुलैंड और यूक्रेन में अमेरिकी राजदूत के बीच फोन पर हुई बातचीत की रिकॉर्डिंग से यह सबूत मिला है कि यूक्रेन में सत्ता में कौन होगा, यह तय करने में अमेरिका सीधे तौर पर शामिल था।

दूसरी ओर, 2014 में, रूस ने भी यूक्रेन पर अपना प्रभुत्व बढ़ाना शुरू कर दिया। एक ओर, रूस ने रूसी बहुसंख्यक द्वीप क्रीमिया पर कब्जा कर लिया, और दूसरी ओर, पूर्वी यूक्रेन के रूसी-बहुसंख्यक क्षेत्रों में यूक्रेन-विरोधी विद्रोह की सीधे सहायता करना शुरू कर दिया। तब से, पूर्वी यूक्रेन के डोनबास और लुहान्स्क क्षेत्रों में रूसी विद्रोही यूक्रेनी सेना के विरुद्ध लड़ रहे हैं।

इस प्रकार यूक्रेन को लेकर रूसी साम्राज्यवाद और अमरीकी साम्राज्यवाद के बीच संघर्ष बढ़ गया है। इस हालिया वृद्धि के शायद दो कारण हैं। नंबर एक, यूक्रेन के साथ अपने विवाद के कारण गैस आपूर्ति के विषय में यूक्रेन पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए, रूस ने हाल ही में दो पाइपलाइनों का निर्माण पूरा किया है, नॉर्ड स्ट्रीम 1 और नॉर्ड स्ट्रीम 2, जिससे यूक्रेन को छोड़कर गैस की आपूर्ति की जा सकती है। नॉर्ड स्ट्रीम 2 को पिछले साल के अंत में पूरा किया गया था और इसके कुछ ही दिनों में चालू होने की बात थी। यदि यह पाइपलाइन चालू हो जाती है, तो यूक्रेन को बहुत अधिक राजस्व का नुकसान होगा, इसलिए यूक्रेन नहीं चाहता कि यह पाइपलाइन प्रभावी हो। फिर, बहुतों के अनुसार, अमेरिका को लगता है कि यदि यह पाइपलाइन खोली जाती है, तो पश्चिमी यूरोप के देश रूस पर निर्भर हो जाएंगे और इसलिए उन देशों के साथ रूस के संबंध घनिष्ठ होंगे। वह अमेरिकी साम्राज्यवाद के अनुकूल नहीं होगा। इसलिए अमेरिका भी नहीं चाहता है कि यह पाइपलाइन चालू हो। यह ध्यान देने योग्य है कि संयुक्त राज्य अमेरिका वर्तमान में रूस पर जो प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहा है, उनमें से एक प्रमुख मांग है नॉर्ड स्ट्रीम 2 को चालू न होने देना। नंबर दो, रूस के विरोध के बावजूद, संयुक्त राज्य अमेरिका यूक्रेन को नाटो में शामिल करने के लिए आगे बढ़ रहा है। शायद यही इस युद्ध की अंतिम चिंगारी है। जैसा कि विभिन्न पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के बिभिन्न संगठनों ने भी स्वीकार किया है कि यूक्रेन का नाटो में शामिल होना इस विवाद का मुख्य कारण है। इसका एक अन्य प्रमाण यह है कि पुतिन ने युद्ध समाप्त करने के लिए जो रखी हैं, उनमें से प्रमुख है नाटो में शामिल न होने के लिए यूक्रेन कानून में बदलाव करे। इसके अलावा, दो क्षेत्रों - डोनबास और लुहान्स्क - की स्वतंत्रता की मान्यता और रूस के हिस्से के रूप में क्रीमिया की मान्यता भी अन्य शर्तें है। दूसरे शब्दों में, रूस चाहता है जिन हिस्सों पर वह अपना प्रभुत्व विस्तार कर पाया है उसको मान्यता दी जाए और संयुक्त राज्य अमेरिका को यूक्रेन को नाटो में शामिल करने से रोकने के लिए कदम उठाना।

हालाँकि इस युद्ध में रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवाद के आपसी विरोध के भूमिका ही मुख्य है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि यूक्रेन के शासक वर्ग की कोई भूमिका नहीं है। उन्होंने भी खुले तौर पर अमेरिकी साम्राज्यवाद का पक्ष लिया है। और यह भी नहीं कहा जा सकता है कि यूक्रेन के शासक वर्ग ने लोकतंत्र के पक्ष में भूमिका निभाई है। यूक्रेन का दावा है कि यूक्रेन पर रूस का हमला यूक्रेन की स्वतंत्रता पर, यूक्रेन की संप्रभुता पर, लोकतंत्र पर हमला है। सही बात है। हालाँकि यह भी है कि यूक्रेन के पूर्व में जहाँ रूसी-अधिकृत क्षेत्र, डोनबास, यूक्रेन से अलग होना चाहता है, वहां यूक्रेनी शासक वर्ग इसे सैन्य जूतों के नीचे दबाकर रखना चाहता है। यूक्रेन की सेना 2014 से विद्रोहियों से लड़ रही है, जिसमें 14,000 लोग मारे गए हैं। जिस तरह यूक्रेनी लोगों का आत्मनिर्णय का अधिकार है, उसी तरह डोनबास में बसे हुए बहुसंख्यक रुसी लोगो को भी वह अधिकार चाहिए। यूक्रेनी शासक वर्ग द्वारा उन्हें सैन्य संगीन की नोक पर रखने के लिए जो रास्ता अपनाया गया है, वह किसी भी तरह से लोकतंत्र का रास्ता नहीं है। यह भी व्यापक रूप से माना जाता है कि यूक्रेनी सेना ने पूर्वी यूक्रेन में विद्रोहियों के साथ किए गए 2014 के युद्धविराम समझौते का पालन नहीं किया है।

संक्षेप में, इस युद्ध के लिए रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवाद तो मूलभूत रूप से जिम्मेदार हैं,  लेकिन समान स्तर पर न भी हो, यूक्रेन के शासक वर्ग भी जिम्मेदार है। रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवाद के बीच कब्जे की प्रतिद्वंद्विता के परिणामस्वरूप इस युद्ध का भयानक बोझ यूक्रेन के लोगों पर पड़ा है। जिस तरह रूस इस युद्ध में आक्रामक है, उसी तरह अमेरिकी साम्राज्यवाद भी अपनी आधिपत्यवादी नीतियों के चलते इस युद्ध के लिए जिम्मेदार है। यूक्रेन का शासक वर्ग इन दोनों पक्षों से अलग नहीं है और वास्तविक अर्थों में लोगों की संप्रभुता और स्वतंत्रता के लिए उसने कोई रुख अख्तियार नहीं किया है। साम्राज्यवादी देश ही नहीं, बल्कि तमाम देशों के शासक वर्ग अपने-अपने संकीर्ण स्वार्थों के अनुसार इस युद्ध में अपना-अपना पक्ष ले रहे हैं। भारत के शासक वर्ग ने भी अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए इस युद्ध में अपना रुख तय किया है। भारत के शासक वर्ग और सरकार ने न तो रूस और न ही अमेरिका का पक्ष लिया है। इसका मतलब यह नहीं है कि वे दोनों साम्राज्यवाद की नीतियों के विरोधी हैं। वे अवसरवादी नीति अपना रहे हैं, जिसके आधार पर वे यूक्रेन पर युद्ध का विरोध कर रहे है, लेकिन रूसी हमले का नहीं। ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि भारतीय शासक विभिन्न आर्थिक और सैन्य समझौतों के कारण काफी हद तक रूस पर निर्भर हैं। इस वजह से उनके लिए रूस के खिलाफ खड़ा होना संभव नहीं है। फिर, संयुक्त राज्य अमेरिका पर उनकी आर्थिक और सैन्य निर्भरता के कारण, उनके लिए रूस का पक्ष लेकर संयुक्त राज्य अमेरिका के खिलाफ सीधा रुख लेना भी संभव नहीं है। इसलिए वे संतुलन का यह खेल खेल रहे हैं, जिसे वे तटस्थता का सिद्धांत होने का दावा करते हैं, हालांकि इस आभासी तटस्थता के साथ उनका असली नैतिक स्थिति का कोई लेना-देना नहीं है। 

यूक्रेन में इस युद्ध का बोझ मेहनती लोगों द्वारा वहन किया जा रहा है और आगे भी करना पड़ेगा। यूक्रेन में आज हजारों निर्दोष लोग मौत का सामना कर रहे हैं। हजारों साधारण यूक्रेनियन लोगों ने पड़ोसी देशों में शरण ली है। फिलहाल यह पता नहीं है कि वे कब अपने देश लौट पाएंगे या कभी लौटने का मौका होगा कि नहीं । इस युद्ध का प्रभाव सिर्फ यूक्रेन के लोगों पर नहीं है। इस युद्ध के व्यापक क्षेत्र में फैलने का खतरा बहुत गहरा है। इसे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप में सबसे बड़ा युद्ध बताया जा रहा है। कई लोग इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि कहीं इस युद्ध से तीसरा विश्व युद्ध तो शुरू नहीं हो जाएगा। यदि ऐसा नहीं भी होता है, तो भी इसमें कोई शक नहीं कि इस युद्ध के नतीजे में विश्व की तमाम गरीब, मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी और भी असहनीय हो जायगी। इस युद्ध के परिणामस्वरूप, ईंधन की कीमतें पहले ही बढ़ने लगी हैं, जिसका बोझ अंततः गरीबों पर पड़ेगा। अगर व्यापार और वाणिज्य का संकट आता है, तो इसका बोझ मजदूरों और सभी मेहनती लोगों पर पड़ेगा। 

हालाँकि, इस युद्ध का महत्व यहीं तक सीमित नहीं है। 1980 के दशक के उत्तरार्ध में सोवियत गुट के पतन के बाद से, अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवादी देश अविकसित और विकासशील देशों के प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करना और दुनिया भर के मजदूर वर्ग के शोषण और उत्पीड़न को तेज करने का मकसद से हिंसक रूप लेकर कूद पड़े थे। हम भूमंडलीकरण के नाम पर साम्राज्यवादी पूंजी के उस क्रूर हमले से अच्छी तरह वाकिफ हैं। साम्राज्यवादी इराक सहित विभिन्न मध्य एशियाई देशों के तेल संसाधनों को लूटने के लिए हमलावर हो गए। इस हमले में वे इसलिए सक्षम हो गए क्योंकि एक और बड़ी शक्ति के रूप में, सोवियत संघ गिरने लगा और नतीजतन, अमेरिकी साम्राज्यवाद महान शक्तियों में से एक बन गया है। 

लेकिन एक और महत्वपूर्ण कारण यह है कि अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग का समाजवादी आंदोलन भी हार गया है। अब दुनिया भर में मजदूर वर्ग तितर-बितर, अव्यवस्थित है। उसकी अपनी कोई पार्टी नहीं है, कोई संगठित वर्ग संघर्ष नहीं है। नतीजतन, साम्राज्यवादी पूंजी के नेतृत्व में, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवाद और देश में घरेलू पूंजी के हमले का विरोध करना उनके लिए संभव नहीं है। विभिन्न देशों के शासक पूंजीपति पूरी दुनिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में साम्राज्यवादी शक्तियों के शिविरों में एकत्रित हुए। जो वास्तव में उनके हमलों का विरोध कर सकता था उस अंतरराष्ट्रीय मजदूर वर्ग की अनुपस्थिति में, उन्होंने एकतरफ़ा प्रभुत्व कायम किया ।

1990-91 में जब अमरीकी साम्राज्यवाद ने इराक पर आक्रमण किया, तो पूरा साम्राज्यवादी खेमा इसके पीछे सिर्फ एकत्रित ही नहीं था, बल्कि सक्रिय रूप से उसका मददगार हो गया था। सोवियत रूस के पतन के बाद, दुनिया को एकध्रुवीय कहा जाने लगा, जिसका एकमात्र नेता अमेरिकी साम्राज्यवाद था। 

करीब तीन दशक बाद आज दुनिया का नक्शा काफी बदल गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियों ने 1990 के दशक की शुरुआत में शुरू हुए वैश्वीकरण के काल में अंधाधुंध लूट का अपना शासन शुरू किया। इस स्तर पर, विशाल एकाधिकारी पूंजीपतियों ने चीन और तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में निवेश करना शुरू कर दिया। वे उन देशों के सस्ते श्रम का उपयोग करके भारी मुनाफा कमाते हैं। हालाँकि, इन तीन दशकों के वैश्वीकरण ने दुनिया की पूंजीवादी शक्तियों के संतुलन में कई बदलाव भी किए हैं। विशेषकर 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद से साम्राज्यवादी दुनिया में दूरगामी परिवर्तन होने लगे हैं। दुनिया का एकमात्र नेता, संयुक्त राज्य अमेरिका, साम्राज्यवादी आर्थिक संकट से जूझ रहा है। विश्व प्रभुत्व बनाए रखने में अमेरिकी साम्राज्यवाद की विफलता अफगानिस्तान में हाल की घटनाओं से समान रूप से स्पष्ट है। उससे मुकाबला करने के लिए अलग-अलग ताकतें सामने आई हैं। यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियाँ, संयुक्त राज्य अमेरिका के पुराने सहयोगी होने के बावजूद, जर्मनी के नेतृत्व में यूरोपीय संघ के रूप में अलग से संगठित हैं। ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर हो गया है। दूसरी ओर, चीन एक नई शक्ति, एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा है जो अब संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रबल विरोधी, प्रतिद्वंदी है। एक सैन्य शक्ति के रूप में, चीन ने आसपास के क्षेत्र में अपने प्रभुत्व का विस्तार करना शुरू कर दिया है। इस युद्ध के माध्यम से यह स्पष्ट हो गया कि जो रूस सोवियत संघ के पतन के बाद एक कमजोर ताकत बन गया था, वह भी अब अपनी कमजोरी को दूर कर एक दुर्जेय प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरना चाहता है। एक शब्द में कहें तो सोवियत संघ के पतन के बाद एकध्रुवीय दुनिया को जन्म देने के बाद दुनिया की साम्राज्यवादी ताकतें अब अलग-अलग शिविरों में बंट गई हैं और एकध्रुवीय दुनिया से बहुध्रुवीय दुनिया की ओर यात्रा शुरू हो गई है।

साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच इस संघर्ष का मूल कारण, निश्चित रूप से, आर्थिक है। दुनिया की पूंजी और उसके लूट के माल पर कौन या कौन सा गठबंधन नियंत्रण  करेगा, इसको लेकर ही विवाद छिड़े हुए हैं। नतीजतन, नए नए आर्थिक ब्लॉक बनाए जा रहे हैं। वैश्वीकरण की शुरुआत में शुरू हुआ मुक्त व्यापार और निवेश का दौर टूट रहा है। विभिन्न देश अपने देशों में आयात के खिलाफ विभिन्न किस्म के प्रतिबंध लगा रहे हैं।  नई संरक्षण नीतियां लागू की जा रही हैं। ये सब ही बाजार पर कब्जा करने या पुराने बाजार पर नियंत्रण बनाए रखने की कोशिश में है।

हालाँकि, साम्राज्यवादियों के बीच आर्थिक प्रतिस्पर्धा केवल अर्थव्यवस्था तक ही सीमित नहीं रह सकती। जैसे-जैसे आर्थिक प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, वैसे-वैसे सैन्य प्रतिस्पर्धा भी बढ़ती है। विभिन्न सैन्य ब्लॉक बनाए जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इन आर्थिक और सैन्य गुटों की उपस्थिति अभी भी बहुत स्थायी है, बल्कि यह कि वे विभिन्न गठन-विघटन के दौर से गुजर रहे हैं। विभिन्न प्रभावशाली देश अपने प्रभुत्व का विस्तार करने के लिए विभिन्न कदम उठा रहे हैं। एक शब्द में कहें तो साम्राज्यवादी ताकतों के बीच पूरी दुनिया के पुनर्विभाजन की तैयारी शुरू हो गई है। एक तरफ अमरीकी साम्राज्यवाद अपनी पुरानी शक्ति को कायम नहीं रख पा रहा है, लेकिन अपना प्रभुत्व कायम रखने की पूरी कोशिश कर रहा है। वहीं दूसरी ओर अन्य शक्तियां अपना प्रभुत्व बढ़ाने की ओर बढ़ रही हैं। यूक्रेन और रूस के बीच वर्तमान युद्ध रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच संघर्ष का परिणाम है, और इस तरह के संघर्ष दुनिया भर में खुद को अलग तरह से प्रकट कर रहे हैं। यही कारण है कि यूक्रेन और रूस के बीच वर्तमान युद्ध एक अलग युद्ध नहीं है, बल्कि उस समग्र स्थिति का प्रतिबिंब है जिसमें दुनिया भर में साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच संघर्ष बढ़ रहा है और आर्थिक प्रतिस्पर्धा और सैन्य संघर्ष के लिए बातचीत के दायरे से आगे बढ़ रहा है। इसका मतलब है कि निकट भविष्य में कई और क्षेत्रों में इस तरह के संघर्ष और युद्ध की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।

इसका मतलब यह हुआ कि साम्राज्यवादी ताकतें और स्थानीय शासक जनता पर और भी भारी बोझ डालने वाले हैं। अंतिम फैसले में इस युद्ध की कीमत जनता को ही चुकानी पड़ेगी। लेकिन, यह स्थिति का एक पहलू है। दूसरी ओर, मजदूर वर्ग और मेहनतकश लोग अपनी पुरानी स्थिति में नहीं रह पाएंगे। जीवन का संकट उन्हें संघर्ष के रास्ते पर धकेल देगा। जिस तरह पिछले साम्राज्यवाद के संघर्षों के कारण हुए दो विश्व युद्धों ने लाखों लोगों को एक अवर्णनीय दुख पहुंचाया, उसी तरह मजदूर वर्ग ने इन दो विश्व युद्धों के दौरान विभिन्न देशों में सत्ता हथियाने के लिए साम्राज्यवाद के बीच संघर्ष का फायदा उठाया और समाजवाद का रास्ते पर अग्रसर हुआ। यह बात सच है कि मजदूर वर्ग के संघर्ष की वर्तमान स्थिति उस समय से बिल्कुल अलग है। उस समय देश में मजदूर वर्ग की पार्टियां मौजूद थीं, मजदूर वर्ग का आंदोलन जारी था। आज हम मजदूर वर्ग के संघर्ष में करारी हार के बाद मजदूर वर्ग के विघटन की स्थिति में खड़े हैं। लेकिन, जैसे-जैसे दुनिया गर्म होती है, वैसे-वैसे मजदूर वर्ग और लोगों का संघर्ष भी बढ़ता जाता है। कम्युनिस्टों की भूमिका मज़दूर वर्ग के बढ़ते हुए विरोधों से उभरे मज़दूर वर्ग के हिरावल को संगठित करने और पूँजीवाद के विनाश के संघर्ष में उन्हें दिशा दिखाने की होगी। साम्राज्यवाद-पूंजीवाद का विनाश करना न केवल मजदूर वर्ग, शोषित मेहनतकश लोगों को मुक्त करने का रास्ता है, बल्कि दुनिया को इस युद्ध और इसके अवर्णनीय परिणामों से मुक्त कराने का रास्ता भी है।


पहला पड़ाव पूरा करने के बाद किसानों का संघर्ष – सुरख लीह के टिप्पणियों पर जोड़ने के लिए और कुछ

 हाल ही के फार्मरों का संघर्ष (केवल किसानों का ही नहीं) ने अपना पहला महत्वपूर्ण पड़ाव पूरा कर लिया है। इस संघर्ष ने कॉर्पोरेट-सरकार के खिलाफ दृढ़ता से विद्रोह का झंडा बुलंद किया।. जिसके परिणाम स्परूप प्रधानमंत्री को 19  नवंबर को पीछे हटना पड़ा और कृषि कानूनों को रद्द करना पड़ा। हालांकि भाजपा के लिए आने वाले चुनाव बहुत महत्वपूर्ण था तो जाहिर तौर पर ऐसा लग सकता है कि कई राज्यों में होने वाले चुनावी संघर्ष ने इस पर अपनी छाया डाली थी । फिर भी निस्संदेह रूप से प्रधानमंत्री के पीछे हटने का मूल कारण दृढ़ किसान संघर्ष ही था। 

लेकिन बडे पूंजीपति वर्ग व सरकार का गठबंधन और एक मौके की प्रतीक्षा में है। यह बात कुछ दिनों बाद ही कृषि मंत्री के बयान से पूरी तरह से स्पष्ट हो गयी थी - हम दो कदम आगे बढ़ने के लिए एक कदम पीछे चले गए हैं। हकीकत भी यह है कि सरकार ने मुद्दों को सुलझाने के लिए एक समिति बनाने की बात की है। इसके मतलब कॉरपोरेट या बड़ी एकाधिकारी पूंजी के खिलाफ संघर्ष अभी पूरा नहीं हुआ है।

इसके बारे में कई अन्य सवालों पर भी विचार किया जाना बाकी है। एक साल से अधिक समय पहले 23  दिसंबर 2020 को एक कम्युनिस्ट क्रांतिकारी संगठन के मुखपत्र सुरख लीह ने, एक फेसबुक पोस्ट में इस फार्मर आंदोलन के बारे में एक बहुत ही महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किया। किसान आंदोलन के उस शुरुआती दौर में एक पोस्ट में सुरख लीह ने किसान आंदोलन की एक कमी के बारे में आगाह किया था—“मौजूदा किसान संघर्ष को मजदूर वर्ग के दृढ़ समर्थन के अभाव का सामना करना पड़ रहा है। अगर मजदूर वर्ग खुद संघर्ष कर रहा होता तो किसानों का संघर्ष कई गुना मजबूत होता।“ “मजदूर वर्ग ही था जो मोदी सरकार के खिलाफ टक्कर देने वाले दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों के लिए एक बड़ा उत्प्रेरक साबित होता”। इस प्रकार सुरख लीह ने बड़े, एकाधिकारी पूंजीपतियों के पक्ष में बनाए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ अपने हालिया संघर्ष में किसानों के साथ मजदूर वर्ग के संघर्ष के संबंध की आवश्यकता और महत्व को सामने रखा।

इसकी गहराई में जाने से पहले, पहला सवाल यह है कि क्या घरेलू और साम्राज्यवादी बड़ी इजारेदार पूंजी के खिलाफ संघर्ष केवल इन कृषि कानूनों को हराने और निरस्त करने का सवाल है? वास्तव में कानूनों के बिना भी पूंजीवादी सुधार की प्रक्रिया बेरोकटोक जारी है। छोटे किसानों को जमीन से बेदखल करना, व्यापारियों, बिचौलियों के माध्यम से धन का शासन, खेतिहर मजदूरों का मामूली मजदूरी पर शोषण, ठेका खेती ग्रामीण इलाकों में जारी है। इन सबसे बढ़कर, इन वर्षों मे सरकार द्वारा, बड़े पूंजीपति घरानों द्वारा फसलों के व्यापार पर अधिकाधिक कब्जा, निजी गोदामों और अन्न भंडारों की स्थापना, खेती की प्रक्रिया में मशीनीकरण के परिणामस्वरूप बढ़ती बेरोजगारी को लगातार आगे बढ़ाया जा रहा है और उनके लिए रास्ता तैयार किया जा रहा है। हाल ही में अडानी कपिटल ने कृषि मशीनरी हेतु किसानों को ऋण देने के लिए एन.बी.एफ.सी एजेंट (गैर बैंकिंग वित्तिय संस्था) के रूप में कार्य करने के लिए स्टेट बैंक आफ इंडिया के साथ एक समझौता किया है।

उल्लेखनीय रूप से, कृषि कानूनों को समाप्त करने के साथ फार्मर व किसानों का संघर्ष समाप्त होने के तुरंत बाद, किसानों के घर वापस आने से पहले ही पंजाब के कई क्षेत्रों में एक और संघर्ष छिड़ गया। यह खेतिहर मजदूरों, भूमिहीन और गरीब किसानों और ग्रामीण गरीबों का संघर्ष था, जो हमेशा भारी गरीबी में, बिना रोजगार के, बिना जमीन के जीवन जीते है। चूंकि उनके मुद्दे उन किसानों और फार्मरों से अलग हैं,  वे जमीन की मांगों के साथ-साथ, सूदखोरी और कर्ज-जाल, नियमित काम की गारंटी, तथा पीडीएस, आदि मुद्दों के लिए अलग संघर्ष में लगे हुए थे। अपने अस्तित्व के हालातों के कारण वे ग्रामीण शोषकों-पूंजीवादी फार्मरों, जमींदारों,  धनी किसानों और विभिन्न प्रकार के सामंती शोषकों जैसे अनुपस्थित जमींदारों, साहूकारों, आढ़तियों और व्यापारियों द्वारा अपनी आजीविका पर सबसे चरम प्रकार के हमले के शिकार हैं। इसलिए कानूनी हो या बिना कानून के, पूंजीवादी शोषण,सरकार द्वारा अपनाए गए अनेकों उपायों के माध्यम से फैल रहा है और उत्पीड़क सामंती अवशेष अभी भी मौजूद हैं। पूंजीपति-जमींदार शासक वर्ग और उनकी सरकार ने केवल एक कानून को ही रद्द किया है,  अर्थव्यवस्था के हर दूसरे क्षेत्र के साथ कृषि पर बड़ी पूंजी का वर्चस्व और नियंत्रण स्थापित करने की नीति को नहीं त्यागा। इस प्रकार हरित क्रांति के क्षेत्रों से भी, जहां से हाल के फार्मरों का संघर्ष का उदय हुआ, वहां अन्य हिस्सा अपने अलग-अलग संघर्षों में न केवल तीन कृषि कानूनों के खिलाफ बल्कि अपने ग्रामीण इलाकों में पहले से मौजूद पूंजीवादी और सामंती शोषण के खिलाफ भी थे। उस संघर्ष के लिए उनके अपने अलग संगठन भी हैं।

पश्चिमी यूपी, हरियाणा, पंजाब और महाराष्ट्र जैसे हरित क्रांति बेल्ट में ऐसे क्षेत्रों के अलावा कुछ अन्य राज्यों के लाखों किसान, बटाईदार, भूमिहीन गरीब हैं, जो भी इस पूंजीवादी-जमींदार व्यवस्था द्वारा उत्पीड़ित हैं। वे मुख्यतः धीमे पूंजीवादी विकास के बीच सामंती अवशेषों की मजबूत उपस्थिति से उत्पीड़ित हैं। जहां, पूंजीवादी विकास की कमी ने इन जनता को खेती की पिछड़ी परिस्थितियों के बीच फंसा रखा है। वहीं यह पूंजीवादी व्यवस्था उन सामंती अभिजात वर्ग के साथ हाथ मिलाकर उनका जीवन बर्बाद कर देती है। अनुपस्थित जमींदार,  बेनामी भू-स्वामी जिनके पास कई अधिक मात्रा में भूमि है, जो अमीर, गैर-किसान वर्ग के रूप में अभी भी मौजूद हैं वे गरीबी में गुजर बसर करने वाले गरीब और बड़े पैमाने पर भूमिहीन बटाईदारों की मेहनत को निचोड़ कर जीवन यापन कर रहे हैं। सरकार के भूमि सुधार कार्यक्रम अपने आप में ही सीमित हैं। इन सीमित सुधारों को भी रोक दिया गया है। गरीब, भूमिहीन, बटाईदारों की एक बड़ी भीड़ बेरोजगार रहने के लिए मजबूर होती है या कम वेतन वाले मनरेगा या अन्य विषम नौकरियों में कम से कम कुछ दिनों के लिए काम करते है। अनुदान अर्थात 100दिनों के लिए मनरेगा और अन्य तथाकथित सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर ग्रामीण अभिजात वर्ग के निहित स्वार्थों द्वारा कब्जा कर लिया गया है। इस प्रकार, यद्यपि पूँजीपति वर्ग मौजूदा शासन व्यवस्था में अग्रणी वर्ग है जो पूरे देश में, जनता का शोषण और दमन करता है, ग्रामीण इलाकों में यह कई तरह से दमनकारी सामंती अभिजातों के साथ बंधा हुआ है और सामंती अभिजातों के हितों को ध्यान में रखते हुए पूंजीवादी उत्पादन में परिवर्तन की धीमी, दर्दनाक प्रक्रिया को अपना रहा है।

देहात क्षेत्र में शोषण की विभिन्न प्रकृति के इस विविध परिदृश्य की तुलना में, हालिया फार्मरों का संघर्ष केवल तीन कानूनों के खिलाफ  व घरेलू और साम्राज्यवादी बड़ी, एकाधिकारी पूंजी के कृषि क्षेत्र की खेती पर नियंत्रण व कब्ज़ा लेने की योजना के खिलाफ था। इसलिए इस संघर्ष में प्रमुख मांगें एमएसपी की कानूनी गारंटी, सरकारी मंडी और खरीद प्रणाली को खत्म करने के विरोध तक सीमित थीं।  ये वे मुद्दे हैं जिनसे बड़े अतिरिक्त फ़सल उत्पादक अमीर किसान और उनके ऊपरी वर्ग को फायदा हुआ। यह संघर्ष समग्र रूप से ग्रामीण गरीब मेहनतकश जनता के शोषण के सभी प्रकार के पूंजीवादी और सामंती रूपों के खिलाफ नहीं था। मेहनतकश किसानों, खेतिहर मजदूरों और ग्रामीण गरीबों पर हमले,  सत्ता में बैठे पूंजीपति-जमींदार शासक वर्गों के संपूर्ण हमले का एक हिस्सा मात्र हैं। इस तरह के हमलों को हमेशा के लिए रोकने के लिए इस शासन व्यवस्था को ध्वस्त करना होगा। केवल तभी ग्रामीण शोषित वर्गों के लिए एक निर्णायक जीत हासिल की जा सकती है।

इस फार्मरों के संघर्ष में न तो मेहनतकश किसानों और न ही ग्रामीण गरीबों के सभी वर्ग शामिल थे,  बल्कि इसके विपरीत इसके भीतर कई अलग-अलग प्रवृत्तियाँ मौजूद थीं। इससे पहले हम खेतिहर और ग्रामीण मजदूरों के संघर्ष को देख चुके हैं जो कई महीनों से किसान संघर्ष के दृश्य के पीछे अलग से जारी था। यहां तक कि गरीब किसान भी इसमें शामिल थे, जो अपने छोटे भूखंडों के अलावा, वर्ष के अधिकांश समय खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करने के लिए मजबूर होते हैं।

किसान संघर्ष के भीतर फार्मर, जमींदार, यहाँ तक कि धनी किसान भी, जो शोषण के पूँजीवादी व अन्य पुराने रूपों से मुनाफा कमाते हैं, वे भी कृषि कानूनों के खिलाफ इस संघर्ष में शामिल हो गए क्योंकि कॉर्पोरेट बड़ी पूंजी द्वारा ग्रामीण अर्थव्यवस्था और शोषण पर नियंत्रण के लिए उनके स्थान को हथियाने के प्रयास से वे क्षुब्द हो गए थे। ये ग्रामीण अमीर शोषण पर अपनी पकड़ बनाए रखना चाहते थे और अपने लाभ के साधनों को सुरक्षित रखना चाहते थे। इसलिए वे कॉरपोरेट बड़ी पूंजी के अधिग्रहण के खिलाफ थे, लेकिन ग्रामीण शोषकों के रूप में उनकी स्थिति पूरी तरह से पूंजीवाद के खिलाफ नहीं हो सकती थी। वास्तव में वे शिविरों में लंबे संघर्ष के मुख्य संघर्षशील बल भी नहीं थे। जबकि मेहनतकश किसानों के निचले तबके के लिए, जो खुद का श्रम लगाकर मेहनत करते हैं और दूसरों के श्रम के शोषक नहीं हैं, उनका दैनिक संघर्ष उनके अपने अस्तित्व के लिए है और वे अपने श्रम पर -गुजर बसर करते हैं। इसलिए किसान संघर्ष में मध्यम, उच्च-मध्यम वर्ग के किसानों ने बड़ी संख्या में भाग लिया। साल भर का संघर्ष मुख्य रूप से मध्यम किसानों की बड़ी तादाद के दबाव और सक्रिय संघर्षपूर्ण भूमिका के कारण संभव हुआ, जिनके एक बड़े हिस्से को कई क्रांतिकारी संगठनों द्वारा संगठित किया गया था। हालांकि यह सच है कि ये फार्मर, धनी किसान और मध्यम किसान वर्ग ने सरकार को तीन कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए मजबूर करके संघर्ष में अपनी ताकत साबित करते हुए एकजुट हो गए, लेकिन उनके हित अलग-अलग थे। जाहिर है कि इस तरह के पंचमेल अंश का संघर्ष उन पर होने वाले विभिन्न प्रकार के शोषण के खिलाफ निर्णायक जीत नहीं ला सका। इसके अलावा इस संघर्ष में  खेतिहर मजदूर , ग्रामीण मजदूर और गरीब किसानों की बहुसंख्यक ग्रामीण आबादी की उपस्थिति नाममात्र की थी। जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं कि उनमें से अधिकांश इस संघर्ष से बाहर थे और अपने स्वयं के एक अलग आंदोलन में शामिल थे। अतः किसानों का यह संघर्ष समग्र रूप से इस पूंजीवादी-जमींदार व्यवस्था के खिलाफ सभी शोषित किसानों और खेतिहर मजदूरों का एक व्यापक संघर्ष नहीं था। इसलिए यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि हालिया किसान संघर्ष व्यापक किसान आबादी और अन्य ग्रामीण निर्धनों को सभी प्रकार के शोषण से मुक्त करने के लिए व्यापक संघर्ष को शुरू करने का पायदान नहीं बन सकता न बना।

सुरख लीह ने लेख में आगे बढ़ते हुए यहाँ तक कहा है, 'किसान संघर्ष की वर्तमान  स्थिति जन-आंदोलन की इन कमजोरियों को दूर करने की मांग कर रही है’। ‘मजदूर वर्ग के साथ घनिष्ठ गठजोड़,  इन संघर्षों को संगठित करने, अनुशासित करने और जागरूकता एवं तैयारी को एक नयी मिज़ाज देगा। जन आंदोलन के सामने पड़े इन कार्यों को तेजी से पूरा करने के लिए स्थिति चीखते हुए पुकार रह है’। इस प्रकार सुरख लीह ने भविष्य के जन आंदोलनों के लिए मजदूर वर्ग के संघर्षों के महत्व को रेखांकित किया, परंतु किसानों के सभी प्रकार के शोषणों से मुक्ति व उनके व्यापक आंदोलन के संदर्भ में मजदूर वर्ग की अग्रणी भूमिका का उल्लेख नहीं किया।

वास्तव में ग्रामीण जनता,  मेहनतकश किसानों और खेतिहर मजदूरों और गरीबों के विशाल जनसमूह के  शोषण के खिलाफ उनका संघर्ष वर्तमान किसान संघर्ष की स्थिति तक ही सीमित नहीं रह सका। इसलिए यह स्वाभाविक है कि मजदूर वर्ग की मदद से किसी भी संघर्ष को मजबूत करने और बढ़ावा देने का विचार हालिए किसान संघर्ष जैसे संघर्षों के माध्यम से नहीं हो सकता। ऐसा इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि यह संघर्ष ग्रामीण इलाकों के अलग-अलग और विपरीत वर्गों से बना है। जबकि इसे एक उच्च धरातल पर पूरी तरह से अलग किस्म का संघर्ष होना चाहिए।  मजदूर वर्ग के लिए वास्तव में अपनी भूमिका निभाने के लिए संदर्भ बहुत बड़ा होना चाहिए। सबसे पहले पूंजीवादी शोषण से पूर्ण मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिए सभी सामंती अवशेषों के खिलाफ संघर्ष करना होगा। इसलिए इसके पीछे मौजूद पूंजीवादी-जमींदार व्यवस्था पर निर्णायक जीत के लिए, जो अभी भी प्रचलित सामंती ताकतों से कई तरह से बंधी हुई है,  इसे हराने के लिए शोषक व्यवस्था को पूरी तरह से बेनकाब करने में सक्षम होना चाहिए। पूरी शोषक पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था के खिलाफ एक निर्णायक संघर्ष होना चाहिए। दूसरे, यह प्राप्त करने के लिए हाल ही में किसान संघर्ष की तरह यह विरोधी या विविध वर्गों का या फिर ग्रामीण जनता के केवल कुछ धड़ों का संघर्ष नहीं हो सकता है। इस तरह के संघर्ष के लिए यह आवश्यक है कि सभी शोषित, मेहनतकश, किसानों का और खेतिहर मजदूरों की अलग एकता हो। 

यह कैसे पूरा होगा और कौन करेगा? यहाँ पर ही मजदूर वर्ग की भूमिका आती है। यह भूमिका केवल इस प्रकार के पंचमेल बहु श्रेणी किसान संघर्ष को 'बढ़ावा' देने की नहीं है, बल्कि पूंजीवादी-जमींदार व्यवस्था में सभी प्रकार के शोषण के खिलाफ शोषित वर्गों के संघर्ष का नेतृत्व करने की है। यह मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मेहनतकश किसानों का संघर्ष है। मजदूर वर्ग पूंजीवादी-जमींदार शासन व्यवस्था के खिलाफ अपने संघर्ष से व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव का आह्वान करता है, जो मेहनतकश किसानों को सामूहिक रूप से किसानों पर उत्पीड़न करने वाले उन सामंती अवशेषों के खिलाफ उठ खडे होने के लिए प्रेरित करता है और गरीब किसानों, खेतिहर मजदूरों को भी पूंजीवादी और सामंती शोषण के सभी रूपों के खिलाफ जाग्रत करता है। इसके अलावा, मेहनतकश, शोषित किसानों को जागरुक करते हुए, मजदूर संघर्ष एक प्रमुख केंद्र की भूमिका निभाता है, जो इन वर्गों को सत्तारूढ़ व्यवस्था के खिलाफ मजदूरों और किसानों के संयुक्त गठबंधन की ओर ले जाता है, जो कि अमीर किसानों और पूंजीपति जमींदारों द्वारा उन्हें मौजूदा शोषक व्यवस्था में केवल सुधार के रास्ते पर ले जाने के लिए लुभाने के प्रयासों के विपरीत है। तभी जमीन तैयार होती है, जैसा कि सुरख लीह ने कहा था, अगर मजदूर वर्ग खुद संघर्ष कर रहा होता तो “किसान संघर्ष भी कई गुना मजबूत होता”। इससे किसान आंदोलन को न केवल बढ़ावा मिलता बल्कि इसे वर्ग संघर्ष के रास्ते पर  सही वर्ग दिशा की ओर संगठित भी किया जा सकता । और मजदूर वर्ग पहले किसानों का शोषण करने वाले सामंती अवशेषों के खिलाफ संघर्ष में अग्रणी शक्ति के रूप में और फिर पूंजीवादी शोषण के खिलाफ इन ग्रामीण मजदूर और मेहनतकश जनता को इनसे मुक्ति की ओर बढ़ने के लिए नेतृत्व करता।

जाहिर है कि वर्तमान में मजदूर वर्ग के नेतृत्व की अनुपस्थिति के कारण इस किसान संघर्ष का नेतृत्व अभी भी प्रभावशाली अमीर किसानों और फर्मेरों के हाथों में था, न कि गरीब किसानों और खेतिहर मजदूरों के। बाद के उल्लिखित ग्रामीण गरीब, निम्नतम मेहनतकश वर्गों ने एक साथ मिलकर अलग से संगठित नहीं होने और औद्योगिक मजदूर वर्ग के नेतृत्व में संबद्ध नहीं होने के कारण यह होना स्वाभाविक है। भले ही पूरे देश के किसानों और फर्मेरों के ये सभी अलग-अलग वर्ग एकजुट होकर बड़ी ताकत हासिल कर लें,  और बड़ी कॉर्पोरेट पूंजी के खिलाफ विजयी हो जाए, लेकिन वह जीत भी पूंजीवादी और सभी प्रकार के शोषण को खत्म करने वाली जीत नहीं होगी। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पहले से मौजूद समृद्ध, शोषक वर्गों को और मजबूत करेगा। ऐसी ताकतों का संघर्ष न तो सभी प्रकार के सामंती और न ही पूंजीवादी शोषण पर निर्णायक और अंतिम जीत दिला सकता है।

दरअसल, दो ही रास्ते हैं। एक वह है जिसमें समग्र किसान जनसमूह का नेतृत्व धनी फार्मर, धनी किसान करते हैं और दूसरे है किसानों का नेतृत्व मजदूर वर्ग, उसकी क्रांतिकारी वर्ग पार्टी द्वारा ग्रामीण खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों को साथ लेकर दिया जाता है।  पहला गांवों में पूंजीवादी वर्ग संबंधों को और मजबूत करने और स्थापित करने का मार्ग है, जबकि दूसरा सामंती अवशेष, पूंजीवाद को खत्म करने और मजदूर वर्ग और ग्रामीण सर्वहारा वर्ग और गरीब किसानों की सत्ता की स्थापना के लिए आगे बढ़ने का मार्ग है।  पहला अंततः पूंजीवादी शासन के लिए धीमे तथा  दर्दनाक सुधारों का मार्ग है और दूसरा मार्ग नीचे से क्रांतिकारी परिवर्तन का है। यह जो बाद का रास्ता है इसमें मजदूर वर्ग द्वारा निर्देशित किसान, खासकर उसका शोषित तबका, और खेतिहर मजदूर, सामंती अवशेषों को हटाने और बराबर के लिए पूंजीवादी वर्चस्व के खात्मे के कार्य की ओर आगे बढ़ने में सक्षम होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसी स्थिति में ही केवल मजदूर वर्ग की उस भूमिका के अभाव वास्तविक तौर पर महसूस किया जाता है जैसा कि सुरख लीह ने कहा था, ‘मजदूर वर्ग के दृढ़ समर्थन की कमी की चुभनेवाली अनुपस्थिति (pinching absence) का अनुभव होगा’। मेहनतकश किसानों, खेतिहर मजदूरों और ग्रामीण मजदूरों का खुद को पूंजीवादी और सामंती शोषण से मुक्ती के लिए किए जाने वाले किसी भी संघर्ष को ही यह महसूस होना लाजिमी है। 

फ़िलहाल ग्रामीण शोषित वर्गों का ऐसा कोई संघर्ष अभी देखने को नहीं मिल रहा है और वास्तव में खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों के ऐसे संघर्ष के उदभव के लिए उनकों स्वतंत्र रूप से संगठित होना होगा। उसके लिए समाज में एक वास्तविक क्रांतिकारी मजदूर वर्ग पार्टी और एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उसके वर्ग संघर्ष की उपस्थिति अत्यंत आवश्यक है। अन्यथा ये ग्रामीण वर्ग स्वतंत्र रूप से संगठित होने में अक्षम हैं। इस प्रकार ये सभी हिस्से पूंजीवादी शोषण के खिलाफ ताकत के रूप में सामने आते है, जिसमें खासकर मजदूर वर्ग महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पूरे समाज में पूंजीवादी वर्चस्व को समाप्त करने के संघर्ष को आगे बढ़ाने के बारे में जो कोई भी गंभीर है उसे इस तरह साफ तौर पर समझ लेना चाहिए कि इस संघर्ष में वास्तविक मित्र, वास्तविक सहयोगी कौन हैं।

इस स्थिति में सुरख लीह ने ठीक ही इशारा किया है कि मजदूर वर्ग इस समय असंगठित और खंडित स्थिति में है। संभवत: वे इस बात से भी सहमत होंगे, विशेषकर इस महत्वपूर्ण तथ्य से कि स्थापित वामपंथ के विश्वासघात के बाद मजदूर वर्ग ही वर्ग संघर्ष और वर्ग एकता के रास्ते से भटक गया है। सुरख लीह ने वर्तमान में मजदूर वर्ग की कमजोरी को स्वीकार करते हुए आगे कहा है, “किसान संघर्ष की मौजूदा स्थिति जन आंदोलन की इन कमजोरियों को दूर करने की मांग कर रही है। हालाँकि, अभी निकट दिनों में इस अंतर को नहीं भरा जा सकता है; फिर भी, क्रांतिकारी ताकतों को भविष्य के संघर्षों के लिए इस कार्य को पूरा करने हेतु अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए। मजदूर वर्ग के साथ घनिष्ठ संश्रय संगठन, अनुशासन, चेतना और इन संघर्षों की तैयारियों को नया स्वरूप देगा।“ हम सुरख लीह से पूछेंगे- क्या क्रांतिकारी ताकतों की वास्तव में मजदूर वर्ग में किसी भी तरह की पैंठ हैं और मजदूर वर्ग को जगाने में सक्षम हैं? इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या अन्य मेहनतकश जनता के आंदोलनों के संबंध में मजदूर वर्ग की अग्रणी भूमिका के अत्यधिक महत्व को वे वास्तव में पहचान रहे हैं ? व्यवहार में उस मान्यता की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति यह होगी की देश भर में सुधारवादी राजनीति से स्वतंत्र रूप से मजदूरों की अपने अगुवा दस्ता की एकता प्राप्त करने के लिए मजदूर वर्ग की मदद करने का कार्य करना होगा, जिससे उनकी अपनी क्रांतिकारी पार्टी के गठन का मार्ग प्रशस्त होगा ताकि अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा सके। क्या ऐसा किया जा रहा है या ऐसी तमाम ताकतें जो कुछ अगुवा मजदूरों को अपने करीब लाने में सक्षम होता हैं, उन्हें विभाजित करके अनेको खंडित क्रांतिकारी संगठनों में भर्ती कर रहा है, जिसका वजह से मजदूर वर्ग के संघर्ष पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ा रहा है? 

पूंजीवाद निजी संपत्ति पर आधारित एक शोषणकारी व्यवस्था है। सामाजिक उत्पादन में सामूहिक रूप से काम करने वाला मजदूर वर्ग वह सामाजिक शक्ति है जो शोषण और उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व के आधार को समाप्त करने के लिए संगठित हो जाता है। लेकिन इसे हाथ में लेने के लिए वे पहले सामंतवाद के अवशेषों को मिटाकर जमीन तैयार करता है। इस हैसियत से मजदूर वर्ग पहले सामंती अवशेषों के खिलाफ किसानों का नेतृत्व करने में सक्षम होता है और फिर ग्रामीण खेतिहर मजदूरों, गरीब किसानों और यहां तक कि मध्यम किसानों के कुछ हिस्से को साथ लेकर संघर्ष को आगे बढ़ाता है। लेकिन यह सबसे पहले इस बात पर निर्भर करता है कि मजदूर वर्ग खुद को समाज में एक वर्ग के रूप में संगठित होना है। तभी वह वर्ग-संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है, विभिन्न प्रकार के बुर्जुआ रूझानों और विचलनों के खिलाफ संघर्ष को मजबूत करता है ताकि उन ताकतों की एकता और चेतना विकसित हो सके जो सत्ताधारी द्वारा अपनाए गए सिर्फ कुछ उपायों और कानूनों को हराने के लिए नहीं बल्कि पूरी पूंजीवादी-जमींदार व्यवस्था को समाप्त करने के लिए जो विशेषकर हमारे जैसे पिछड़े देशों में प्रचलित है। केवल क्रांति ही निर्णायक जीत सुनिश्चित कर सकती है। स्पष्ट शब्दों में इसे सामने रखना इस समय की अत्यंत महत्वपूर्ण आवश्यकता है - मजदूर वर्ग की राजनीति का तकाजा है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हाल के किसान संघर्ष ने लंबी खामोशी को तोड़ते हुए, विद्रोह का झंडा बुलंद किया है, चाहे वह कितना ही सीमित क्यों न हो।  इससे इस प्रकार के शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ शोषित वर्गों के और निरंतर उत्थान के लिए जमीन तैयार कर रहा है। मजदूरों को इस मौके का लाभ उठाना होगा। जब तक मजदूर अपने ऊपर हो रहे हमले के खिलाफ खड़ा होना शुरू नहीं करते, जब तक वे पिछले विश्वासघात और विखंडन पर काबू पाकर एक वर्ग के प्रतिनिधियों के रूप में एकजुट नहीं हो जाते (केवल समर्थन और बढ़ावा देने की परिप्रेक्ष्य में नहीं बल्कि नेतृत्व की), तब तक वह ‘चुभने वाली अनुपस्थिति’ बनी रहेगी। मजदूर वर्ग की एक वास्तविक, सच्ची क्रांतिकारी पार्टी की तत्काल आवश्यकता है - वास्तविक वर्ग पार्टी जो अन्य मेहनतकश जनता को उनकी आजीविका और अधिकारों पर बढ़ते हमलों से मुक्ति के मार्ग पर ले जा सकती है। हमें उम्मीद है कि सुरख लीह उस भूमिका को मान्यता देंगे।

       फरवरी 2022