1) 19 नवंबर 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोर्ट के राय का इंतज़ार किए बगैर अचानक ही एलान किया कि तीनों कृषि क़ानून रद्द किया जाएगा। उन्होंने यह भी सूचित किया कि चूंकि संसद में स्वीकृत क़ानून संसद में ही ख़ारिज़ करना संभव है इसलिए अगला संसद सत्र में ही यह काम किया जाएगा। इसी के साथ वे यह भी सूचित किया है कि, कृषि व किसानों के समस्यायों के समाधान के मक़सद से एक कमेटी गठित किया जाएगा जहाँ किसानों के प्रतिनिधि भी रहेंगे। दूसरी तरफ, मोदी के घोषणा पर भरोसा न रख कर किसान आंदोलन की अगुवाई कर रही संयुक्त किसान मोर्चा ने संघर्ष जारी रखने का फ़ैसला लिया है और वे लोग यह भी ऐलान किए है की संसद में कृषि क़ानून रद्द किया जाना तो ज़रुर चाहिए था, एक ही साथ एमएसपी सहित दूसरा कुछ मांगो का समझौता न होने तक धरना प्रदर्शन आगे की तरह जारी रहेगा।
2) कॉर्पोरेट के स्वार्थ में तैयार तीन कृषि क़ानून रद्द करने की मांग पर ठीक एक साल पहले दिल्ली की तमाम सीमा प्रांत में किसानों का धरना शुरु हुआ था। सर्दी-गर्मी-बरसात की परवाह किए बग़ैर लाख लाख अमीर किसान से ग़रीब किसान – सभी तबके के किसानों का एक साल से चल रहे धरने में सात सौ के क़रीब आंदोलनकारी जान गवां चुके हैं। इस अभूतपूर्व किसान संघर्ष ने एक हद तक पूरे देश भर में किसान जनता को आन्दोलित किया था। मौजूदा संघर्षहीन स्थिति में फंसे हुए मज़दूरवर्ग व मेहनतकश जनता के अंदर भी इस आंदोलन ने एक हद तक हलचल पैदा किया, कम से कम एक हिस्सा के अंदर तो ज़रूर। इस समयकाल में, ख़ासकर शुरुआत में मोदी जी और उनकी सरकार बार-बार तरह तरह के हथकंडे अपनाकर व साजिश रचकर आंदोलन को तोड़ने की कोशिश की। दूसरी ओर, यह कहना अधिक न होगा, कृषि क़ानून निरस्त करने के बारे में वे लोग एक पल के लिए भी नहीं सोचे थे। कॉर्पोरेट के प्रति मोदी सरकार की वफादारी ऐसी थी कि वे अपनी स्थिति में अडिग, अटल थे और उनके इस रवैये का आधार था संसद में भाजपा का पूर्ण बहुमत। बड़ी पूंजी के सबसे भरोसेमंद व वफादार प्रतिनिधि के रूप में जिस नरेंन्द्र मोदी और उनकी सरकार अर्थव्यवस्था को तंदुरुस्त करने के नाम असल में कॉर्पोरेट के स्वार्थ में साल 2014 से, ख़ासकर 2019-से भारी बहुमत के बल पर अड़ियल रवैया और अति आत्मविश्वास के साथ अनूठी रफ्तार से एक के बाद एक जनविरोधी सुधार का काम करते जा रहे थे, अब उस ज़बरदस्त व अहंकारी मोदी सरकार को ही दूसरे तरफ के अटल, अडिग किसान आंदोलन की ज़िद और ताक़त के सामने पीछे हटना पड़ा।
3) नये श्रम क़ानून के जैसा ही एक घातक मज़दूर विरोधी क़ानून मोदी सरकार ने जब मज़दूरों पर थोप दिया, तब मज़दूर एकजुट संघर्ष के जरिए उसका विरोध न कर सके। कहा जा सकता है, मज़दूर चुपचाप इस हमले को हजम कर लिए। ऑर्डनेन्स फैक्ट्रियों सहित अहम राष्ट्रीय उद्योगों के निजीकरण, लाँकडाउन के दौर में बड़े पूंजीपतियों को टैक्स छूट, लाखों करोड़ रुपये का अनुदान आदि किसी क्षेत्र में मोदी सरकार को किसी भी बाधा का सामना नहीं करना पड़ा है। इसलिए कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ पंजाब में उभरा हुआ किसानों का संघर्ष इतना विस्तृत रुप से फैल जाएगा और सभी बाधाओं और विपत्तियों को लांघ कर वह संघर्ष एक साल के बाद भी इस तरह जारी रहेगा, यह सत्ता के अहंकार से अंध मोदी व उनके सरकार के पास पूरी तरह अप्रत्याशित थी। दरअसल जिस आंदोलन को शुरु में वे नजरअंदाज़ करते रहे हैं और महीने दर महीने धीरज के साथ इंतज़ार करते रहे कि कब ख़ुद व ख़ुद यह आंदोलन दम खो देगा, आखिरकार वह आंदोलन ही संघर्षरत किसान जनता की स्वतःस्फूर्त भागीदारी और अगुवाई कर रही मोर्चे की मज़बूत एकता के बल पर ख़ुद को ज़िन्दा रख कर और बढ़ते जनसमर्थन से पुनर्जीवित होकर मोदी को पीछे हटने के लिए मजबूर किया, कर सका। प्रबल पराक्रमी मोदी व उनकी सरकार को संसद के बाहर जनप्रतिरोध के जरिए रोका नहीं जा सकेगा, इस मिथक को बहादुर किसान जनता उनलोगों के एक साल के संघर्ष के ज़िद से तोड़ दिए।
4) नरेंद्र मोदी ने जिस समय टीवी पर आकर कृषि क़ानून रद्द करने का फ़ैसला लिए उस समय पर ग़ौर करना ज़रुरी है। आंदोलनकारी किसानों को भी यह बात समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई कि पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश का आने वाला चुनाव जल्दबाज़ी के साथ कृषि क़ानून निरस्त करने के पीछे एक अहम कारण है। बेशक़ यह सच है, लेकिन किसान जनता का आंदोलन ही इस मामले में मुख्य कारण व निर्धारक है इसमें संदेह की कतई गुंजाइश नहीं है। क्योंकि, पहला तो, पिछले साल से शुरू कर एक साल तक अगर किसान लोग उन लोगों के संघर्ष को जारी न रख पाते तब चुनावी मजबूरी आरएसएस भाजपा के सामने अब हाज़िर नहीं होता। दूसरी बात, आंदोलन जितना समेकित और विस्तारित हो रहा था, मोदी और उसके दल के प्रति व्यापक जनता के एक हिस्से का मोहभंग होना शुरु हो गया था जो इस समय के विविध चुनाव में परिलक्षित होते देखा गया है। तीसरा, चूंकि आंदोलन का केन्द्र था पंजाब और आंदोलनकारीयों मे से व्यापक बहुसंख्यक हिस्सा सिख था, इसलिए आंदोलन जितना लंबा हो रहा था उतना ही हिंदी-हिंदू के मुख्य धारा से पूरे सिख समुदाय के अलग हो जाने की आशंका, आरएसएस-भाजपा के पास चिंता का कारण बन रहा था।
5) इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कृषि क़ानून भाजपा के केन्द्र की सत्ता में आने के बाद बड़े पूंजीपतियों के स्वार्थ में मोदी सरकार का सबसे बड़ा और दूरगामी कार्यसूची थी। स्वाभाविक रुप से उस कार्यसूची से पीछे हटना (बहुत संभव अल्पकालिक) कॉर्पोरेट को निराश करेगा। लेकिन, मोदी व मोदी सरकार के प्रति उन लोगों की निष्कपट आस्था में दरार आया है यह सोच लेना निहायत ग़लत होगा।
6) इस संदर्भ में, चुनावी राजनीति से उपजे कृषि क़ानून रद्द का फ़ैसला कम से कम इस सच्चाई को उजागर करता है कि, आरएसएस भाजपा का हिंदुत्ववादी राजनीति के बल पर ध्रुवीकरण करके कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ किसान जनता का विक्षोभ-आंदोलन को दबाकर या अनदेखा कर चुनाव जितने का रास्ता भाजपा के सामने खुला नहीं था। मुज़फ्फ़रनगर की महापंचायत ने जो संकेत दिया था उसे समझना उन लोगों के लिए कोई मुश्किल की बात नहीं थी। इस बारे में, यह कहा जा सकता है की यह फ़ैसला शायद यह भी दर्शाता है कि पिछले दो सालों में वास्तविक जीवन के अनुभव के आधार पर भाजपा प्रभावित लोगों के चेतना में एक बदलाव हो रहा है। इसे और भी देखना परखना है, लेकिन लगता है सार्वजनिक जीवन में साम्प्रदायिक चेतना, तथा हिंदू गौरब को लेकर जीने के रास्ता से रोजी-रोटी का सवाल अहमियत पाना शुरु किया है। निश्चित रुप से इस संबंध में वास्तविक संघर्ष, और साफ़ तौर पर कहे तो वर्ग संघर्ष ही निर्णायक भूमिका निभायेगा।
7) संसदीय लोकतंत्र और फासीवादी आक्रामक अभियान – इन दोनो का अंतर्विरोध उपरोक्त फैसले के मध्य से इस बार साफ़ तौर पर उजागर हुआ। मोदी सरकार फिलहाल इस विरोध का समाधान पीछे हटकर ही किया। लेकिन यह कहने की ज़रुरत नहीं है कि यह अलबत्ता एक रणकौशल के तौर पर वापसी (tactical retreat) है। बहरहाल, आने वाले दिनों में इस अंतर्विरोध को लेकर मोदी जी और उनकी सरकार, हालांकि भाजपा भी कैसे चलेगी यह आने वाले दिनों में ही साफ हो पाएगा। हालांकि इस बारे में कहा जा सकता है कि, कॉर्पोरेट व साम्राज्यवादी पूंजी का सबसे वफादार और मुसाहिब मोदी ने सुधार के आक्रामक अभियान पर लगाम लगायेंगे ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं है। कौन सा दाँव-पेच वे अपनायेंगे यह देखना है। हालिया स्थिति में नरेंद्र मोदी पीछे हटने के लिए मजबूर हुए यह बात सही है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बड़ी पूंजी के हित हिफ़ाजत करने वाले नीति व हिंदू राष्ट्र गठन के लक्ष्य में हिंदुत्ववादी राजनीति के जरिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की नीति आरएसएस-भाजपा छोड़ देगी। ध्यान रखना होगा कृषि क़ानून के एजेंडे से मोदी सरकार हटे नहीं। संसद के जरिए कमेटी बनाने का फ़ैसला ही इसका एक बड़ा सबूत है।
8) खेतिहर मज़दूर इस धरना आंदोलन में भाग नहीं लिए थे। जिस एकजुटता के बल पर एक साल से यह संघर्ष चल सका, वह थी ग़रीब किसानों, मध्य किसानों व अमीर किसानों की एकजुटता – जिन लोगों का स्वार्थ, आशाएं और आकांक्षाएं अलग अलग हैं। तीन कृषि कानूनों की विशालता ही इन तीनों हिस्सों को एक ही मंच पर खड़ा कर दिया था। कहना ज़रुरी नंहीं है कि, इस एकजुटता का नेतृत्व ताक़तवर धनी किसानों के हाथों में ही था। प्रस्तावित कमेटी का काम यानी कसरत का नतीजा कंहा तक पहुंचेगा। यह अभी कहना संभव नहीं है। लेकिन, यह कहना शायद ग़लत नहीं होगा कि, जो किसान जनता एकजुट होकर लड़ाई किए, उन लोगों के अंदरूनी स्वार्थ के आपसी विरोध को इस्तेमाल कर उस एकता को तोड़ने का प्रयास ही कमेटी के जरिए किया जाएगा। निश्चित रूप से कहे तो, ग़रीब व मध्यम किसानों (कम से कम उसका निचला हिस्सा) से अमीर किसानों/ पूंजीवादी ज़मींदारों को अलग करने का प्रयास ही किया जाएगा। सरकार ख़ुद के स्वार्थ तथा बड़ी पूंजीपति के स्वार्थ में इस मौक़े पर समझौता करे या कुछ भी करे, अंत तक आनेवाले दिनों में कृषि क़ानून नई चेहरा व आकार में (एकक या खंड खंड रुप में) जिस तरह से भी उभर कर आए, उससे शायद अमीर किसान लोग व पूंजीवादी ज़मींदार लोग उनलोगों का समृद्ध और विकसित स्थिति को काफ़ी हद तक बरक़रार रख सकेंगे, लेकिन कृषिक्षेत्र में जो सबसे बड़ा हिस्सा है, वह ग़रीब किसान और कम से कम मध्यम किसानों का निचला हिस्सा, जो लोग सदीयों से सामंती शोषण से तबाही और उत्पीड़न का शिकार हैं अब उन लोगों को और ज़्यादा से ज़्यादा बड़ी पूंजी के शोषण नियंत्रण का सामना करना पड़ेगा। वास्तविक अनुभव ही तब अमीर किसानों के नेतृत्व से बाहर निकल कर खेतिहर मज़दूर – ग़रीब किसानों के स्वतंत्र एकजुटता के सवाल को और ज़ोर से सामने लेकर आएगा। क्योंकि इस एकता के सिवा उनलोगों का और एक ही साथ मध्यम किसानों के कम से कम निचले हिस्से का जीने का दूसरा कोई चारा नहीं है। और उस रास्ते के मायने है सामंत और पूंजीवादी दोनों शोषण से मुक्ति का रास्ता। खेतिहर मज़दूर –ग़रीब किसान के मुक्ति के स्वार्थ ही उनलोगों के एकजुट होने का काम इसी बीच आगे ले जाना संभव होने पर यह इस आंदोलन के अंदर आनेवाले उस विशेष समय पर खेतिहर मज़दूर व ग़रीब किसानों के स्वतंत्र एकजुटता तैयार करने के काम को मदद करेगा।
9) इस एकजुटता की संभावना को सही मायने में हक़ीक़त में बदल सकता है मज़दूर वर्ग का संगठित नेतृत्व। शोषण मुक्त समाज निर्माण के लक्ष्य में मज़दूर वर्ग का सबसे बड़ा साथी ग्रामीण खेतिहर मज़दूर और ग़रीब किसान। इसलिए, सिर्फ़ ख़ुद के स्वार्थ में ही नहीं, खेतिहर मज़दूर गरीब किसान के स्वार्थ में भी उनलोगों का एकजुटता तैयार करने के काम में हाथ लगाना मज़दूर वर्ग के लिए जरुरी ही नहीं है, फ़र्ज़ भी है। मज़दूर वर्ग अग्रणी भूमिका निभाने में सक्षम होगा या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कितनी जल्द मज़दूर वर्ग बिखराव की स्थिति से निकलकर वर्ग की हैसियत से संगठित हो सकेंगे, यक़ीनन कहें तो कितनी जल्द अगुवा मज़दूर देशभर में एकजुट हो सकेंगे और अपना स्वाधीन व स्वतंत्र पार्टी बना सकेंगे।
28 नवंबर, 2021
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