लोकतंत्र के सवाल पर
कांति
देवनाथ
पिछले कुछ दशकों में
भारत में फासीवादी ताकतों के लगातार बढ़ने के कारण राजनीतिक क्षेत्र में लोकतंत्र
का सवाल काफ़ी महत्वपूर्ण हो गया है । लोकतंत्र की चाहत या मांग न केवल मजदूर वर्ग
में बल्कि बुर्जुआ और निम्न-बुर्जुआ वर्ग में भी मौजूद है । इसी वजह से छात्रों और
बुद्धिजीवियों के एक हिस्से की ओर से फासीवाद के इस हमले के खिलाफ आवाज उठाई जा
रही है । यह कहना गलत नहीं होगा कि सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्ष के अभाव के कारण
लोकतांत्रिक छात्र-बुद्धिजीवियों के इस विरोध को कई लोग फासीवादी हमले के खिलाफ
सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं । लेकिन, सवाल यह है कि क्या क्रांतिकारी कम्युनिस्ट भी अपने
लोकतंत्र के संघर्ष को उसी सीमा के भीतर देखेंगे, जिस सीमा
के भीतर इस निम्न पूंजीवादी वर्ग की लोकतंत्र की इच्छा (उनकी वर्ग-स्थिति के कारण)
बनी हुई है? क्या लोकतंत्र के सवाल पर कम्युनिस्टों की
मांगें इन निम्न पूंजीवादी बुद्धिजीवियों की मांगों के समान होंगी? ऐसा नहीं है कि इस पर पहले चर्चा नहीं हुई थी। बहरहाल जो भी हो, वर्तमान समय लोकतंत्र के सवाल पर कम्युनिस्टों की भूमिका के बारे में अधिक
गहरी चर्चा की मांग करता है ।
लोकतंत्र क्या है?
क्या लोकतंत्र सिर्फ
एक संसदीय प्रणाली है? क्या लोकतंत्र का मतलब इस संसदीय प्रणाली के भीतर विधायिका में अपने
प्रतिनिधियों को चुनने का अधिकार मात्र है ? यदि यह चुनाव
प्रक्रिया स्वतंत्र, निष्पक्ष, निर्बाध,
भ्रष्टाचार-मुक्त है, तो क्या यह कहा जा सकता
है कि समाज में वास्तव में लोकतंत्र स्थापित हो गया है ? क्या
लोकतंत्र का मतलब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से है जहाँ हर नागरिक बिना किसी डर के
अपनी राय स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर सके ? या क्या लोकतंत्र
का अर्थ है अपनी मांगों के लिए संघर्ष करने का हक़ और उसके लिए संगठित होने में
सक्षम होना ? किसी भी पूंजीवादी विचारक से पूछें और आपको
शायद ऐसे ही किसी अधिकार या अधिकारों के बारे में सुनने को मिलेगा।
लोकतंत्र को शासन की
एक ऐसी प्रणाली के रूप में समझा जाता है, जो बहुमत की राय के आधार पर चलती है, यानी बहुमत की राय के अनुसार ही शासन के नियम और कानून तय किए जाते हैं।
यह निर्वाचन के माध्यम से बनाई गई प्रतिनिधि संस्थाओं के ज़रिए तय होता है। लेकिन,
बहुमत की राय पर आधारित ऐसी प्रतिनिधि संस्थाओं की मौजूदगी या
गैरमौज़ूदगी यह तय नहीं करती कि लोकतंत्र है या नहीं । इसका सबसे बड़ा सबूत मौजूदा
पूंजीवादी लोकतंत्र हैं। यहां लोकतंत्र की कमी बहुत साफ़ दिखती है। यह कहा जा सकता
है कि ये लोकतंत्र वास्तव में बहुसंख्यक जनता की राय को नहीं दर्शाते । वास्तव में,
भले ही फैसले बहुमत की राय के आधार पर भी लिए जाएं, फिर भी हमेशा यह नहीं कहा जा सकता कि यह लोकतंत्र को दर्शाता है । मान
लीजिए, किसी समय देश के ज़्यादातर लोगों ने देश को धार्मिक
राष्ट्र बनाने के पक्ष में मतदान किया । पहली नज़र में, ऐसा
लग सकता है कि यह फैसला लोकतांत्रिक है, क्योंकि यह बहुमत से
लिया गया है। लेकिन, क्या सिर्फ इसी वजह से इस फैसले को
लोकतांत्रिक माना जा सकता है? खासकर, जब
इस फैसले का मतलब एक खास धर्म के अनुयायियों के अलावा बाकी धर्मों को मानने वालों
या धर्म ना मानने वालों की आस्था की आजादी छीन लेना है । हम जानते हैं कि लोकतंत्र
का एक आधारभूत सिद्धांत है कि हर व्यक्ति को अपनी पसंद का धर्म मानने या ना मानने
की आजादी हो । इसलिए, धार्मिक राष्ट्र बनाने का फैसला
लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के खिलाफ जाता है । दूसरे शब्दों में, धर्मनिरपेक्षता या राज्य और धर्म को अलग रखने का सिद्धांत, लोकतंत्र की शुरूआत से ही इसके मुख्य आधारों में से एक रहा है । राज्य को
धर्म से अलग करना ऐतिहासिक रूप में एक प्रगतिशील कदम था, और
यह उस लोकतांत्रिक संघर्ष का एक अहम हिस्सा था, जब पूंजीपति
वर्ग सामंतवाद के खिलाफ लड़ रहा था । इसलिए, यह नहीं कहा जा
सकता है कि धार्मिक राष्ट्र बनाने का फैसला इसलिए लोकतांत्रिक है, क्योंकि यह जनता की बहुसंख्या की राय के आधार पर लिया गया फैसला है,
क्योंकि ऐसा फैसला लोकतंत्र की मूल अवस्थिति के खिलाफ जाता है । इसी
वजह से, सिर्फ बहुमत के फैसले को ही लोकतंत्र मानना मुश्किल
है । असल मुद्दा ये है कि जनता तब ही अपने हित में फैसले ले पाएगी, जब वह समाज के ऊपरी तबके के प्रभाव, नियंत्रण और
दबाव से मुक्त होकर अपने स्वतंत्र विवेक से फैसले ले सके । सिर्फ फैसला लेने की
प्रक्रिया से कोई फैसला लोकतांत्रिक नहीं हो जाता है ।
आइए, एक और उदाहरण लेते हैं ।
आम तौर पर माना जाता है कि कम्युनिस्टों द्वारा चलाई जा रही यूनियन या शोषित वर्गों
के एक हिस्से से जुड़े लोगों के संगठन लोकतांत्रिक तरीके से चलाए जाते हैं । ऐसा
नहीं है कि यह औपचारिक रूप से नहीं होता है, कम से कम
ज्यादातर मामलों में । इसका मतलब है कि फैसले बहुमत की सहमति के आधार पर किए जाते
हैं । लेकिन, क्या यह वाकई लोकतांत्रिक हो जाता है? ज्यादातर समय, खासकर वर्ग संघर्ष के इस कमजोर दौर
में, ऐसा देखा जाता है कि नेतृत्व का फैसला ही संगठन का
फैसला बन जाता है क्योंकि मजदूरों या गाव के गरीबों की नेताओं पर निर्भरता होती है
। सवाल यह नहीं है कि फैसला सही है या नहीं, बल्कि तथ्य यह
है कि प्रक्रिया वास्तव में लोकतांत्रिक नहीं है । संगठन के सदस्यों ने उन फैसलों
को पूरी तरह से अपने फैसले के आधार पर नहीं लिया, बल्कि काफी
हद तक नेताओं पर अपनी निर्भरता के कारण लिया । इसलिए, यहां
यह भी स्पष्ट है कि लोकतंत्र का निर्धारण केवल इस बात से नहीं होता कि फैसला बहुमत
का है या नहीं, असली फैसला यह है कि क्या बहुमत के लोगों ने
अपने स्वतंत्र विचारों के अनुसार, अपने वर्गहितों के बारे
में जागरूक होकर फैसला किया है या नहीं ।
इसलिए लोकतंत्र का
मतलब संसदीय व्यवस्था का होना या ना होना नहीं है, और न ही यह सिर्फ अपने प्रतिनिधियों को चुनने का
अधिकार है । लोकतंत्र सिर्फ बोलने की आज़ादी के बारे में नहीं है । संघर्ष और संगठित होने का अधिकार भी नहीं
है । ये सब लोकतंत्र के अंग हैं, लेकिन अकेले या सब मिलाकर
भी ये लोकतंत्र नहीं हैं। लोकतंत्र इन सब चीज़ों से अलग है।
तो लोकतंत्र का मतलब
क्या होता है? लेनिन
ने कहा था, "लोकतंत्र का मतलब है समानता ।" (राज्य
और क्रांति, लेनिन की संकलित रचनाएं, खंड
25, पृ।- 476) लेकिन सिर्फ इसलिए कि
लेनिन ने कहा है, इसका मतलब ये नहीं है कि ये सच होना चाहिए ।
बल्कि यह इतिहास में लोकतंत्र की अवधारणा के उदय की प्रक्रिया से स्पष्ट होगा ।
लोकतंत्र का सवाल सबसे पहले पूंजीपतियों ने उठाया था। यूरोप में जब पूंजीपतियों ने
सभी मज़दूरों को, जिन्हें उस वक्त तीसरा तबका कहा जाता था,
सामंतवाद को खत्म करने के लिए एक पूंजीवादी लोकतांत्रिक क्रांति के
लिए इकट्ठा किया, तो उन्होंने ऐसा लोकतंत्र के नारे के आधार
पर किया । उस ज़माने के स्तरीकृत सामंती समाज में, जहां राजा
या सम्राट और कुलीन और पुरोहित वर्ग के अलावा किसी के कोई अधिकार नहीं थे, उन्होंने सभी के लिए समान अधिकारों की मांग की । यही लोकतंत्र का सार था ।
पूंजीवादी वर्ग ने
सत्ता में आने के लिए लोकतंत्र का वादा किया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद सारी ताकत उन्हीं के
हाथों में चली गई और मजदूरों और मेहनतकश लोगों को व्यावहारिक रूप से कोई अधिकार
नहीं मिला । बेशक, और क्या हो सकता था?
जाहिर है कि शोषक और शोषित का शोषण पर आधारित समाज में कभी भी समान
अधिकार नहीं हो सकते हैं। अगर ऐसा होता है, तो समाज कैसे चल सकता है? लेकिन, जैसे-जैसे समय बीतता गया, पूंजीपति वर्ग फ्रांसीसी
क्रांति या उस समय के बुर्जुआ क्रांतियों के दौरान बताए गए लोकतंत्र के अपने
आदर्शों से गिरता गया। उनके अलोकतांत्रिक, प्रतिक्रियावादी चरित्र ने साम्राज्यवाद के युग में अपना अंतिम रूप धारण
कर लिया।
आइए लेनिन के कथन पर
वापस चलते हैं । अगर हम इस कथन को थोड़ा गहराई से समझने की कोशिश करें, तो शुरुआत में ही अटक
जाते हैं । लेनिन का कहना है कि लोकतंत्र का मतलब समानता है, पर ऐसा क्यों ? लोकतंत्र समानता कैसे ला सकता है ?
ये तो हम जानते ही हैं कि असली समानता तो सिर्फ तब आ सकती है जब
समाज में कोई वर्ग न हों, यानी साम्यवाद में । लेनिन इसे
अपने कथन के अगले हिस्से में साफ़ समझाते हैं । वहां वो कहते हैं, “समानता
के लिए सर्वहारा वर्ग के संघर्ष का और समानता के नारे का बड़ा महत्व तब स्पष्ट
होगा जब हम इसकी सही व्याख्या करें । इसका मतलब है वर्गों का खत्म होना । लेकिन,
लोकतंत्र का मतलब सिर्फ औपचारिक समानता होता है ।” (राज्य और क्रांति, लेनिन
की संकलित रचनाएं, खंड 25, पृ।- 477)
यहाँ गौर करने वाली
बात ये है कि उसी कथन में ही लोकतंत्र के मतलब को दो बार, दो अलग-अलग तरीकों से
समझाया गया है। पहले बताया गया है कि "लोकतंत्र का मतलब है समानता"
(लोकतंत्र का मतलब है बराबरी) । दूसरी जगह इसे थोड़ा बदलकर बताया गया है कि
"लोकतंत्र का मतलब सिर्फ औपचारिक समानता है" (लोकतंत्र मतलब सिर्फ
कागजों वाली बराबरी) । क्या ये बातें एक-दूसरे के विपरीत हैं? नहीं, बिल्कुल नहीं। असल में, पहले
असली लोकतंत्र का मतलब बताया गया है - लोकतंत्र का असली मतलब है सबकी बराबरी । लेकिन,
बाद में जब लोकतंत्र के मतलब को समझाया गया है, तो ये उस नजरिए से समझाया गया है कि पूंजीवादी समाज में लोकतंत्र का क्या
मतलब है - ये बताया गया है कि पूंजीवादी समाज में जो लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था
दिखती है वो असली लोकतंत्र नहीं है, इसलिए यहां लोकतंत्र का
मतलब सबकी बराबरी नहीं है, यहां लोकतंत्र का मतलब सिर्फ
कागजों वाली बराबरी है । लोकतंत्र के ये दो रूप ही सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग
के लोकतंत्र के बारे में विचारों के मौलिक अंतर को दिखाते हैं। सर्वहारा वर्ग
हमेशा लोकतंत्र को असली बराबरी के आधार पर देखता है, और
पूंजीपति वर्ग कितना भी ज्यादा लोकतंत्र का दावा करे, वो कभी
सिर्फ कागजों वाली बराबरी की सीमाओं से आगे नहीं जा सकता ।
औपचारिक समानता और
उसके आधार
पूंजीवादी समाज में
लोकतंत्र में औपचारिक समानता क्यों होती है ? पूंजीवादी देशों में कानून के नजर में सभी लोगों को
समान अधिकार प्राप्त होते हैं । उस देश में जन्मे हर व्यक्ति को, चाहे वो अमीर हो या गरीब, उसे
नागरिकता का अधिकार मिलता है । जाति, धर्म या रंग के भेदभाव के बिना सभी को कानून के तहत समान अधिकार प्राप्त
होते हैं । आजकल
ज़्यादातर पूंजीवादी देशों में सभी वयस्क नागरिकों को वोट देने का अधिकार है, और हर किसी को एक ही वोट
मिलता है ।
लेकिन, असलियत में पूरी तरह से
समानता नहीं हो सकती। ये समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि किसी भी वर्ग व्यवस्था
में शोषक और शोषित समान अधिकार नहीं रख सकते। शोषण पर आधारित किसी भी समाज में,
शोषक वर्ग ही शासक वर्ग होता है। पूंजीवादी समाज में भी यही होता है,
भले ही वहां दिखने में सभी को समान अधिकार प्राप्त हों, असलियत में ऐसा नहीं होता।
बुर्जुआ यानी
पूंजीवादी व्यवस्था में, राज्य पूंजीपतियों की ही होती है । यह राज्य धनी वर्ग के हितों को साधने
के लिए चलायी जाता है, जिससे सर्वहारा वर्ग और मेहनतकश लोगों
का शोषण होता है । लोगों को वोट देने का अधिकार तो मिलता है, लेकिन असली ताकत राज्य व्यवस्था के उन नौकरशाहों के हाथों में होती है जो
चुने हुए नहीं होते और हजारों धागों से बंधी कठपुतली की तरह पूंजीपतियों के इशारे
पर नाचते हैं । असल में पर्दे के पीछे से पूंजीपति ही शासन के तार खींचते हैं ।
इसीलिए पूंजीवादी व्यवस्था में लोकतंत्र असल में पूंजीपतियों का लोकतंत्र होता है,
मजदूरों का नहीं । पूंजीवादी समाज में लोकतंत्र का असल मतलब है
पूंजीपतियों की तानाशाही । पूंजीवादी लोकतंत्र या तानाशाही में शासन करने का सारा
अधिकार पूंजीपतियों के हाथों में होता है । सर्वहारा वर्ग को सही मायने में राज
करने का कोई हक नहीं है । न कभी मिल ही सकता है । यहां तक कि कानून के मुताबिक जो
भी अधिकार सभी नागरिकों को दिए गए हैं, वो भी ज्यादातर
मजदूरों और मेहनतकशों से छीन लिए जाते हैं ।
ये एक ऐसी चीज है
जिसे मेहनतकश व सर्वहारा वर्ग अपनी लड़ाई के दौरान लगातार झेलता है। कानून के
सामने भले ही सब बराबर हैं, असल में अमीर लोग ही कानूनी अधिकारों का फायदा उठा पाते हैं । वो अपने पैसों से कई तरह से इंसाफ खरीद
लेते हैं । ज़्यादातर मामलों में अदालत का फैसला
मजदूरों के हक में नहीं जाता, चाहे कानून के हिसाब से वो कितना भी सही क्यों न हो । कभी-कभी अगर अपवाद के रूप में मजदूरों को
फैसला मिल भी जाता है, तो पूंजीपति उस फैसले को नामंज़ूर करने की ताकत रखते हैं । हर किसी को बोलने की आज़ादी का हक़ है, लेकिन मजदूर या मेहनतकश
लोग इस अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर पाते । अमीर लोग अपने अखबार या टीवी चैनल चलाकर या मीडिया कंपनियां खरीदकर
अपनी बात फैला सकते हैं । मजदूर
ऐसा नहीं कर सकते । शहर में
कहीं भी सभा करने के लिए नगर पालिका या प्रशासन से इजाजत लेनी पड़ती है, जो वो आमतौर पर मजदूरों
को नहीं देते जब तक वो संगठित न हों । अगर मजदूर संगठित भी हैं, तब भी उन्हें अक्सर सम्बंधित पूंजीवादी लोगों से इजाजत नहीं मिलती । अमीर लोग तो बड़े-बड़े हॉल किराए पर लेकर
अपनी सभा कर सकते हैं । इसके
अलावा, कानून में ऐसे कई
प्रावधान हैं जिनसे सर्वहारा वर्ग के अधिकार छीने जा सकते हैं । मजदूरों को संघर्ष करने का अधिकार है, लेकिन धारा 144 जैसी चीजें होती हैं, जिनके तहत सभा और जुलूस पर
रोक लगाई जा सकती है। हड़ताल करने का अधिकार है, मगर कई
नियमों से ये हक भी सीमित कर दिया जाता है । अंत में, पुलिस
और मालिकों के गुंडों द्वारा हड़ताल तोड़ने के लिए बल प्रयोग की व्यवस्था है ।
इसलिए, एक बुर्जुआ यानी
पूंजीवादी लोकतंत्र में, समान अधिकार केवल औपचारिक अर्थ में
ही स्थापित किए जा सकते हैं, वास्तविक अर्थ में नहीं । लेकिन
यह औपचारिक समान अधिकार भी पिछले समाजों की तुलना में एक महान प्रगति है । इस
लोकतंत्र की स्थापना द्वारा पूंजीपति वर्ग ने एक ऐतिहासिक कार्य पूरा किया है ।
पूर्व-पूंजीवादी समाजों के खड़े रहने के जो आधार थे, उन
आधारों या वर्ग संबंधों में किसी भी प्रकार के समान अधिकारों या औपचारिक समानता का
भी कोई सवाल नहीं था । दास प्रथा आबादी के एक हिस्से का दासों के रूप में शोषण पर
आधारित थी, जिनके पास इंसान होने का भी कोई अधिकार नहीं था ।
यहां तक कि एक सामंती व्यवस्था में भी केवल राजा या कुलीन वर्ग और पुरोहित वर्ग को
ही शासन प्रणाली में भाग लेने का अधिकार था । सामंती समाज में जमींदारों और
सामंतों द्वारा शोषण का एक अहम आधार आर्थिक से इतर दबाव था । इस कारण सारे अधिकार राजा या सम्राट, सामंतों और जमींदारों के
हाथों में थे और आम जनता अधिकारों से वंचित थी। पूंजीवाद ऐसा आर्थिक संबंध लाने वाली
पहली व्यवस्था थी जिसमें पूंजीपति और मजदूर दोनों दिखने में समान थे (नोट 1)।
पूंजी के लाभ का
स्रोत मजदूर की श्रम शक्ति है। इसी लाभ के ज़रिये से पूंजी खुद को लगातार बढ़ाती है
और उत्पादन का चक्र चलता रहता है। मजदूर अपनी श्रम शक्ति को बेचता है और पूंजीपति इसे खरीदता है । अन्य
सभी सामानों की तरह, श्रम शक्ति का व्यापार दो स्वतंत्र खरीदारों और विक्रेताओं के बीच समान
स्तर पर किया जाता है । पूंजीपति श्रम शक्ति को उसके दाम पर खरीदता है । किसी भी
उत्पाद का दाम उत्पाद में लगायी गयी श्रम की मात्रा से तय होता है । श्रम शक्ति का
दाम भी उन ख़ास चीजों के दाम से तय होता है जो किसी भी समय मजदूरों की निरंतर
आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए उनके गुजारे हेतु औसत रूप से जरुरी होती हैं । एक
अन्य पहलू यह है कि समान मूल्य का यह लेन-देन दो स्वतंत्र लोगों के बीच होता है ।
पूंजीपति यहां स्वतंत्र है । इसके अलावा, मजदूर यह तय करने
के लिए स्वतंत्र है कि वह अपनी श्रम शक्ति बेचेगा भी या नहीं या यदि वह इसे बेचना
चाहता है तो इसे उसे किस पूंजीपति को बेचना है । मजदूरों की इस स्वतंत्रता को दो
पहलुओं से देखना होगा: पहला, वे पुराने सामंती बंधनों से
मुक्त हो गए हैं और स्वतंत्र लोग बन गए हैं, अपनी श्रम शक्ति
के मालिक बन गए हैं और दूसरा, उत्पादन के सभी साधनों को खो
देने से वे भी इससे मुक्त हो गए हैं। इसलिए यहां संबंध दो स्वतंत्र लोगों के बीच
है । [नोट 2]
इस तरह से, पूंजीपतियों की ऐतिहासिक भूमिका
ये रही है कि उन्होंने सबसे पहले लोकतंत्र का सवाल उठाया, यानी
सबको समान अधिकार मिलें । कुछ लोग कहते हैं कि प्राचीन यूनान के एथेंस में या प्राचीन भारत में
लिच्छवियों के शासनकाल में लोकतंत्र था । ये समझना मुश्किल नहीं है कि ये सिर्फ नाम के लोकतंत्र थे, असल में इनका आधुनिक
लोकतंत्र के विचार से कोई मेल नहीं खाता । यूनानी सभ्यता गुलामी पर टिकी हुई थी । इसलिए वहां समान अधिकारों की बात करना
बेकार है । भारत के
राजशाही राज्यों में भी यही बात लागू होती है । और खासकर उस समाज में जहां जाति व्यवस्था
के जरिए समाज को ऊंच-नीच में बांटा गया था और एक बड़ा तबका को इस व्यवस्था से बाहर
कर दिया गया था और उन्हें हर चीज़ से वंचित रखा गया था, वहां समान अधिकार नाम के
लिए भी संभव नहीं थे । ज्यादा से ज्यादा, इन खास समाजों में "लोकतंत्र" का मतलब सिर्फ इतना हो सकता था कि
वहां कोई एक राजा या सम्राट नहीं था, जैसा कि दूसरे सामंती
व्यवस्थाओं में होता था, बल्कि अभिजात वर्ग मिलकर शासन करता
था । यानी ये
"लोकतंत्र" कुलीनों का लोकतंत्र था । इस "लोकतंत्र" का आधुनिक
लोकतंत्र से कोई लेना-देना नहीं है, जहां औपचारिक रूप से सबको समान अधिकार होते हैं और हर
नागरिक को शासन में भाग लेने का स्पष्ट अधिकार होता है ।
सर्वहारा वर्ग का
लोकतंत्र
हमने पहले ही ये
समझाया है कि पूंजीवादी लोकतंत्र केवल पूंजीपति वर्ग का होता है और उसमें सर्वहारा
वर्ग के समान अधिकार नहीं होते । ऐसे में, इस पूंजीवादी लोकतंत्र की रक्षा करना सर्वहारा वर्ग की ज़िम्मेदारी नहीं है
। सर्वहारा
वर्ग का असली उद्देशय सच्चा लोकतंत्र
स्थापित करना है । ऐसा
लोकतंत्र जहां समाज के सभी लोगों को, सिर्फ नाम के लिए नहीं बल्कि असल में, समान अधिकार मिलें । असली लोकतंत्र कैसे लाया जा सकता है? यह सर्वहारा वर्ग द्वारा राज्य सत्ता हथियाने के बाद,
उनके द्वारा स्थापित किए जाने वाले सर्वहारा वर्ग के लोकतंत्र या उसकी
तानाशाही के जरिए ही संभव है । हालांकि, यहां एक बात गौर करने लायक है । यह सच है कि इस नई व्यवस्था में भी सभी
तबकों को बराबर के हक़ नहीं मिल सकते । ऐसा इसलिए क्योंकि उस समाज में भी वर्ग मौजूद रहते हैं और जहां
वर्ग-संघर्ष होता है, वहां शासक और शासित के अधिकार बराबर नहीं हो सकते । सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का दौर पूंजीवाद से
समाजवाद की तरफ जाने का एक चरण है । इस चरण में सर्वहारा वर्ग शासक होता है और पूंजीपति वर्ग शासित । सर्वहारा राज्य का एक मुख्य काम सत्ता से
बेदखल हुए पूंजीपति वर्ग को दबाना होता है, ताकि वे दोबारा सत्ता हथिया न सकें । इसलिए पूंजीपति वर्ग के अधिकारों को काफी
हद तक कम करना पड़ता है । सीधे
शब्दों में कहें तो, सर्वहारा वर्ग का लोकतंत्र सिर्फ मजदूरों के लिए होता है, पूंजीपतियों के लिए नहीं । लेकिन, पूंजीवादी लोकतंत्र के उलट, यह किसी छोटे से हिस्से के
लिए नहीं, बल्कि समाज के विशाल बहुमत के लिए होता है । इसीलिए, सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के दौर में लोकतंत्र का
काफी विस्तार होता है। दूसरी बात, सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के इस दौर के जरिए समाज वर्गों के उन्मूलन की
तरफ बढ़ता है । पूर्ण लोकतंत्र
का मतलब समाज के सभी लोगों के लिए समान अधिकार है । ये तभी हो सकता है जब वर्ग खत्म हो जाएं । लेकिन, जैसे-जैसे समाज पूर्ण लोकतंत्र की तरफ बढ़ता है,
वैसे-वैसे राज्य की जरूरत कम होती जाती है और इसलिए शासन के रूप में
लोकतंत्र की जरूरत भी कम हो जाती है । ये थोड़ा आश्चर्य की बात लग सकती है, लेकिन अगर हम लोकतंत्र को
समाज के विकास में एक खास चरण के रूप में देखें, तो ये समझना
मुश्किल नहीं होगा कि जितना लोकतंत्र फैलता है, उतना ही उसका
खत्म होना भी तय होता है । लेनिन के शब्दों में, "लोकतंत्र जितना ज्यादा पूरा होता है, उतनी ही जल्दी वो समय आता है जब उसकी जरूरत खत्म हो जाती है ।" (लेनिन, राज्य और क्रांति,
संकलित रचनाएँ, खंड 25, पृष्ठ
479) । वर्गविहीन समाज में सभी लोग समान होते हैं । हर कोई आजाद और स्वतन्त्र होता है । ऐसे समाज में हर व्यक्ति उत्पादन करने
वाला होता है और अपनी क्षमता के अनुसार काम करता है और अपनी जरूरत के अनुसार पारिश्रमिक
लेता है । इसलिए
इस समाज में न तो अधिकार देने का सवाल है और न ही लेने का ।
अतः, लोकतंत्र के मुद्दे पर,
कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को हमेशा मजदूरों को वास्तविक लोकतंत्र
की शिक्षा देनी चाहिए। उन्हें यह बताना चाहिए कि असली लोकतंत्र क्या है और उसे
कैसे हासिल किया जाए । सिर्फ इतना ही नहीं, अगर सर्वहारा वर्ग
का एक वर्ग-सचेत क्रांतिकारी दस्ता, उसका पार्टी मौजूद है, तो
वे सभी मजदूरों को पूंजीपति वर्ग के सीमित लोकतंत्र से मुक्त कराएंगे (जो और अधिक
संकीर्ण व सीमित हो गया है) और उन्हें पूर्ण लोकतंत्र और समान वास्तविक अधिकारों के संघर्ष में
शामिल करेंगे।
भारत जैसे देश में
लोकतंत्र
भारत जैसे देश में, जहाँ जनवादी क्रांति
अधूरी है, जहाँ समाज में सामंती उत्पादन व्यवस्था के अवशेष
मौजूद हैं, वहां पूंजीवादी लोकतंत्र भी पूरी तरह से विकसित
नहीं हुआ है। इसके अलावा, भारत की शासन व्यवस्था काफी हद तक ब्रिटिश-कालीन औपनिवेशिक शासन व्यवस्था
की छाप लिए हुए है। यह कहना ज्यादा सही होगा कि भारत के बड़े पूंजीपति औपनिवेशिक
शासन के ढांचे को काफी हद तक बरकरार रखते हुए अपना शासन चला रहे हैं। यह समझना
मुश्किल नहीं है कि यह व्यवस्था बेहद अलोकतांत्रिक है, क्योंकि
उपनिवेशवादियों ने उपनिवेश की शोषित जनता को दबाने के लिए जो राज्य तंत्र बनाया था,
वह आज भी कायम है। इसका सबूत राजद्रोह कानून से लेकर बिना मुकदमा
चलाए हिरासत में रखने के कानूनों को कई रूपों में जारी रखने और सशस्त्र बल विशेष शक्ति
अधिनियम जैसे कानूनों तक में मिलता है, जो सेना को लोगों को
मारने की इजाज़त देता है और जिस पर नागरिक न्यायपालिका के पास कोई कार्यवाही करने की
कोई शक्ति नहीं है। सरकार किसी भी विरोध को बलपूर्वक दबा सकती है, प्रदर्शनकारियों को बिना सुनवाई के जेल में डाल सकती है, पुलिसिया आतंक के साथ मजदूरों और मेहनतकश लोगों के संघर्षों को बेरहमी से
दबा सकती है।
हालाँकि, अगर हम लोकतंत्र का आकलन केवल विभिन्न कठोर कानूनों या
महज कुछ कानूनी अधिकारों में संकुचित कर रखने के आधार पर करते हैं, तो हम भारत में मौजूदा लोकतंत्र का आकलन असल लोकतंत्र के संदर्भ में नहीं
कर सकते हैं । असली लोकतंत्र का अर्थ है जाति के आधार पर भेदभाव का खात्मा, क्योंकि भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से को वास्तव में नीची जाति का बताकर
अधिकारों से महरूम रखा गया है । पूर्ण लोकतंत्र का अर्थ है देशज आदिवासी लोगों
सहित विभिन्न उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के शोषण को ख़त्म करना । इसका अर्थ उस
समानांतर शासन को समाप्त करना भी है जिसे ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े जमींदार किसी
भी प्रकार की कानूनी व्यवस्था की अवहेलना करके जारी रखते हैं । सबसे बड़ी बात तो
यह है कि हमारे जैसे पिछड़े देश में समाज के एक बड़े हिस्से के लोगों में स्वतंत्र
मनुष्य के रूप में चेतना विकसित नहीं हो पाई है। अभी भी उच्च वर्ग के लोगों को
मालिक के रूप में मानने की सोच आम जनता में फैली हुई है । भगवान के अवतार माने
जाने वाले पुजारियों या ब्राह्मणों की सलाह पर बेझिझक निर्भरता अभी भी आम लोगों के
बीच काफी हद तक कायम है। संक्षेप में कहें तो अब भी यह अहसास बहुत कम लोगों में है
कि इंसान होने के नाते सभी बराबर हैं, सभी को समान अधिकार
मिलना चाहिए। जहां व्यक्तियों का स्वतंत्र विकास नहीं हुआ है, वहां स्वाभाविक है कि जनता के बीच समान अधिकार का सवाल अभी विकसित नहीं
हुआ है। यदि यह विकास नहीं होगा तो हम असली लोकतंत्र के लक्ष्य की ओर कैसे बढ़
सकेंगे?
यह बात कहना जरूरी
है कि पूंजीवाद के आर्थिक आधार के लिए सिर्फ वर्ग शोषण और दमन ही नहीं, बल्कि जाति व्यवस्था के
कारण होने वाला भेदभाव, राष्ट्रीयता के आधार पर होने वाला
भेदभाव और दमन भी अनुकूल नहीं है । ऐसा इसलिए है क्योंकि पूंजी के सामने मजदूर
सिर्फ अपनी मेहनत का मालिक होता है । पूंजी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि
मेहनत कौन बेच रहा है । लेकिन, पूंजीवाद के विकास के एक चरण
में जाकर उसने सामंतवाद से समझौता करना शुरू कर दिया । इसीलिए पूंजीपति वर्ग ने बुर्जुआ
क्रांति के दौरान जिस तरह से पुराने सामंती रिश्तों को खत्म करने की कोशिश की थी,
उस रास्ते पर न चलकर उन्हें बचाए रखा और उनका फायदा उठाया। दूसरी
बात, पूंजीवाद का यह चरण साम्राज्यवादी चरण है, जो एकाधिकार पर टिका हुआ है। इस दौरान पूंजीवाद ने कई तरह के प्रतिक्रियावादी
विचारों, रीति-रिवाजों और संस्थाओं को वापस लाकर उनका समर्थन
किया है और उसी पर खड़ा है । इसीलिए, पूंजीवाद के इस चरण में
मजदूर वर्ग को समाज से जातिवाद, विभाजन और अन्य सभी तरह के
गैर-लोकतांत्रिक व्यवहारों को खत्म करने की जिम्मेदारी उठानी होगी।
नतीजतन, लोकतंत्र का सवाल केवल इस
आधार पर तय नहीं होता है कि सभी को वोट देने का अधिकार है या नहीं, स्वतंत्र, निष्पक्ष चुनाव हो रहे हैं या नहीं,
या यहां तक कि काले कानून रद्द किये जा रहे हैं या नहीं । लोकतंत्र
का सवाल जाति के उन्मूलन का सवाल है, लोकतंत्र का सवाल
राष्ट्रीय उत्पीड़न के उन्मूलन का सवाल है, लोकतंत्र का सवाल
पुरुषों और महिलाओं के समान अधिकारों का सवाल है, यह
बहुसंख्यक मजदूरों और मेहनतकश लोगों का
शासन स्थापित करने का सवाल है और अंततः सभी लोगों के लिए समान अधिकारों का सवाल है
। वर्ग-सचेत सर्वहारा का संघर्ष इस वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना का संघर्ष है । वर्ग-सचेत सर्वहारा केवल पूंजीवादी लोकतंत्र
के कुछ विस्तार के लिए संघर्ष नहीं कर सकता है, क्योंकि ऐसा करने का मतलब अंत में पूंजीवादी तानाशाही
को स्वीकार करना या उसके समर्थन में खड़ा होना होगा । यदि हमें वास्तविक लोकतंत्र
स्थापित करना है तो हमें सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में जनवादी क्रांति को पूरा
करना होगा और समाजवादी क्रांति के रास्ते पर साम्यवाद की ओर बढ़ना होगा । वर्ग-सचेत
सर्वहारा वर्ग की ज़िम्मेदारी इस संघर्ष को खड़ा करने की कोशिश करने की है ।
सवाल ये है कि क्या सर्वहारा
वर्ग को पूंजीवादी लोकतंत्र में कोई हक ही नहीं है? पूंजीवादी लोकतंत्र असल में पूंजीवादी तानाशाही है।
क्योंकि सत्ता का असली हक पूंजीपतियों के हाथ में होता है इसलिए सर्वहारा वर्ग या
मेहनतकश आबादी को इसका कोई हक नहीं है । पूंजीवादी लोकतंत्र में सर्वहारा वर्ग के
लिए लोकतंत्र का मतलब है संघर्ष करने और संगठित होने का अधिकार। इस लोकतंत्र का
इस्तेमाल सर्वहारा वर्ग पूंजीपतियों के
खिलाफ लड़ाई में अपनी एकता और संगठन को मजबूत करने के लिए करता है। पूंजीवादी देश
में ये लोकतंत्र कितना मौजूद है, ये इस बात पर निर्भर करता
है कि सर्वहारा वर्ग और पूंजीपतियों के बीच संघर्ष की स्थिति कैसी है। लेकिन अंत
में ये इस बात पर टिका है कि पूंजीपति वर्ग अपने वर्ग हित के हिसाब से मजदूरों को
कितना लोकतंत्र देने को तैयार है।
लोकतंत्र की लड़ाई
के लिए सर्वहारा वर्ग की वर्ग एकता और वर्ग संघर्ष का निर्माण बहुत जरूरी है
क्योंकि सर्वहारा वर्ग ही लोकतंत्र का हिरावल हैं । मार्क्सवाद-लेनिनवाद से हमें
ये पता चलता है कि लोकतंत्र की लड़ाई का नेतृत्व या तो पूंजीपति वर्ग या सर्वहारा वर्ग ही कर सकता है। इतिहास में इससे हट के कोई
और रास्ता नहीं दिखता है । लेकिन पूंजीपति वर्ग अपनी सामाजिक स्थिति के कारण पूर्ण
लोकतंत्र के लिए लड़ ही नहीं सकता। खासकर साम्राज्यवादी दौर के पूंजीपति तो पूंजीवादी
लोकतंत्र के आदर्शों से भी दूर हो चुके हैं। लोकतंत्र को उसके अंतिम निष्कर्ष
पूर्ण लोकतंत्र की स्थापना के लिए सिर्फ सर्वहारा वर्ग ही लड़ सकता है। सवाल ये
नहीं है कि आज मजदूर क्या कर रहे हैं या उनकी क्या हालत है, बल्कि उनकी वर्ग स्थिति
ही उनकी भूमिका तय करती है। इसके लिए जरूरी है कि सर्वहारा वर्ग अपनी वर्गीय राजनीति
के आधार पर संगठित हो और अपनी वर्ग सचेत वाहिनी को एकजुट करे, एक सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी बनाए। इसीलिए आज कम्युनिस्टों का फर्ज है कि
वे मजदूरों को उनकी बिखरी, निष्क्रिय और हताश अवस्था से
जगाएं और उनकी अगुवा दस्तों को एक असली वर्ग पार्टी, एक सच्ची
कम्युनिस्ट पार्टी में एकजुट करें । ये ना सिर्फ सर्वहारा वर्ग और मेहनतकश वर्ग को
शोषण से आज़ादी दिलाने के लिए जरूरी है बल्कि लोकतंत्र की लड़ाई के लिए भी बेहद अहम
है।
एक बार फिर, यह साफ है कि पूंजीवादी
व्यवस्था में सर्वहारा वर्ग व मेहनतकश जनता को एकजुट करना चाहिए और लोकतंत्र के
लिए संघर्ष जारी रखना चाहिए। लेकिन, उनका संघर्ष सिर्फ
पूंजीवादी व्यवस्था के कुछ सुधारों तक सीमित नहीं रह सकता। मजदूर वर्ग के संघर्ष
का लक्ष्य क्रांतिकारी संघर्ष के जरिए असली लोकतंत्र की तरफ बढ़ना है। बेशक,
वो इस क्रांतिकारी संघर्ष के दौरान मिलने वाले सुधारों का इस्तेमाल
करेंगे, लेकिन सिर्फ मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी संघर्ष को
आगे बढ़ाने के लिए, ना कि सिर्फ कुछ लोकतांत्रिक सुधारों की
लड़ाई के लिए।
फासीवादी आक्रमण और सर्वहारा
वर्ग
हमारे देश में जनवादी
क्रांति पूरी नहीं हुई है, जिसकी वजह से पुरानी सामंती उत्पादन व्यवस्था के कुछ अंश आज भी समाज में
मौजूद हैं । इनमें से जितना भी कुछ हटाया गया है वह केवल सुधारों के जरिए हटाया
गया है । इस वजह से, हमारे देश में लोकतंत्र का आधार बहुत
कमजोर है, यहां तक कि पूंजीवादी लोकतंत्र के लिहाज से भी यह बहुत
सीमित और संकुचित है । पिछले कुछ दशकों में, इस सीमित और
संकीर्ण लोकतंत्र को खत्म करके देश में फासीवादी राज स्थापित करने की कोशिशें की
जा रही हैं । इन कोशिशों के बारे में विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है । हमने
पहले इस बारे में चर्चा की थी कि सर्वहारा वर्ग लोकतंत्र के संघर्ष को किस नजरिया से
देखता है । इस चर्चा के आधार पर, हमें यह देखना होगा कि
मौजूदा फासीवादी अभियान के दौरान असली कम्युनिस्टों की क्या भूमिका होनी चाहिए ।
पहली चर्चा में से
दो महत्वपूर्ण बातें हैं जो अभी की चर्चा में ध्यान देने योग्य हैं, जो कि सर्वहारा वर्ग
लोकतंत्र के संघर्ष को किस नजरिया से देखते है, इस बारे में
थी । पहली बात, सर्वहारा वर्ग के संघर्ष का इरादा पूंजीवादी लोकतंत्र
में सुधार का नहीं है, बल्कि उसका उद्देश्य पूर्ण लोकतंत्र
स्थापित करना है । दूसरी बात, क्रांतिकारी संघर्ष के
फलस्वरूप अगर थोड़ा बहुत पूंजीवादी लोकतंत्र का विस्तार होता है, तो इसका इस्तेमाल सर्वहारा वर्ग अपने वर्ग संघर्ष और संगठन के विकास के
लिए करता है । हालांकि, सर्वहारा वर्ग पूंजीवादी लोकतंत्र के
अंदर केवल कुछ सुधारों के लिए नहीं लड़ता है । पहला कारण यह है कि क्रांतिकारी
संघर्ष के दौरान मिलने वाले सुधार ज्यादा व्यापक और स्थायी होते हैं । दूसरा कारण
यह है कि पूंजीवादी सुधारों की लड़ाई सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी इरादों को
अस्पष्ट कर देती है ।
हम जानते हैं कि वर्ग
स्थिति के मुताबिक लोकतंत्र की लड़ाई में सबसे आगे रहने वाला वर्ग सर्वहारा का है ।
लेकिन ये कड़वा सच है कि आज का सर्वहारा वर्ग उस मुकाम से बहुत दूर है । वैश्विक
समाजवादी आंदोलन के प्रथम अभियान की हार और तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियों के धोखे
के बाद पैदा हुई निराशा, निष्क्रियता और असंगठित हालत से सर्वहारा वर्ग अभी तक बाहर नहीं निकल पाया
है । इसीलिए, सर्वहारा वर्ग अपनी मौजूदा हालत में, लोकतंत्र पर इस हमले का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है ।
तो फासीवादी हमले के
खिलाफ कम्युनिस्टों को अब क्या करना चाहिए? वास्तव में ऐसा प्रतीत होता है कि कई कम्युनिस्ट
क्रांतिकारी समूहों को लगता है कि जब सर्वहारा वर्ग लड़ाई के मैदान में मौजूद नहीं
है, तो फासीवादी ताकतों के हमले को रोकने के लिए बुर्जुआ, निम्न-पूंजीवादी
ताकतों पर भरोसा करना जरूरी है । इसलिए वे संसदीय बुर्जुआ, निम्न-बुर्जुआ पार्टियों
के गठबंधन में शामिल हो रहे हैं या उन्हें वोट देकर भाजपा के उभार को रोकने की सोच
रहे हैं ।
सैद्धांतिक रूप में
हमने यह देखा है कि पूंजीपतियों का कोई भी वर्ग (निश्चित रूप से साम्राज्यवादी युग
का पूंजीपति वर्ग) असली लोकतंत्र के लिए संघर्ष का नेतृत्व नहीं कर सकता है, लोकतंत्र के लिए संघर्ष
का नेतृत्व करना तो दूर की बात है । और आज भारत में हम वास्तव में क्या देख रहे
हैं? न तो कांग्रेस पार्टी जैसी शासक वर्ग की बड़ी पूंजीपति
पार्टियां, और न ही क्षेत्रीय पूंजीपतियों का प्रतिनिधित्व
करने वाली संसदीय राजनीतिक पार्टियां लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने के लिए स्वयं
में ही लोकतांत्रिक हैं । वे संघ परिवार के आदर्शों के खिलाफ खड़े नहीं हो सकते,
क्योंकि वे भी उस आदर्श से कहीं न कहीं प्रभावित हैं । वे हिंदू
बहुसंख्यक आबादी के पिछड़े वर्गों को रिझाने के लिए सांप्रदायिकता और धार्मिक
आदर्शों के साथ अधिक से अधिक समझौता कर रहे हैं । इन सभी संसदीय दलों का एकमात्र
उद्देश्य केंद्र या राज्य सरकार की सीट पर कब्जा करने के लिए भाजपा का विरोध करना
है। नतीजतन, उनके लिए सही मायनों में लोकतंत्र की लड़ाई लड़ना असंभव है।
इसके अलावा, निम्न-बुर्जुआ बुद्धिजीवी
भी हैं। बेशक, निम्न-बुर्जुआ बुद्धजीवियों के बीच कुछ ऐसे भी
हैं जो संघ परिवार के हमले का विरोध कर रहे हैं और उसका विरोध करने की कोशिश कर
रहे हैं । फिर भी, यह उम्मीद करना बेमानी है कि वे सर्वहारा
वर्ग और मेहनतकश लोगों को संगठित करेंगे और असली लोकतंत्र के लिए संघर्ष करेंगे।
उनके पास ऐसा करने की योग्यता नहीं है।
वास्तव में, वे निम्न-बुर्जुआ बुद्धिजीवी
जो संघ परिवार के फासीवादी हमले के खिलाफ मुखर हैं, उनकी
लोकतंत्र की अवधारणा भी भारत के वर्तमान पूंजीवादी लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर ही सीमित
है । इसका प्रमाण उनके द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में बार-बार देखने को मिलता है।
कभी भारतीय संविधान की प्रस्तावना को पढ़कर इस संविधान की हिफाजत के लिए पुकार दी
जाती है । कभी-कभी वर्तमान भारतीय गणराज्य के प्रति अपना समर्थन दिखाने के लिए भारतीय
राष्ट्रीय ध्वज का प्रदर्शन करते हैं । सवाल यह है कि क्या भारतीय संविधान में जिस
पूंजीवादी लोकतंत्र को कानूनी रूप या ढांचा दिया गया है, वह
वास्तव में लोकतांत्रिक है? ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने
अपने स्वार्थ के लिए, भारत की ग़ुलाम जनता को दबाने के लिए,
यह संविधान बनाया था। ऐसा संविधान कैसे लोकतांत्रिक हो सकता है?
संविधान में अभी भी देशद्रोह कानून विद्यमान है, जिसके खिलाफ खुद पूंजीपतियों के प्रतिनिधि भी मुखर हैं । उस संविधान में
सीआरपीसी की धारा-144, बिना मुकदमा चलाए हिरासत के विभिन्न
कानून, सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम जैसे कई
अलोकतांत्रिक कानून शामिल हैं । इस संविधान में जातिवाद के खिलाफ सजा का प्रावधान
तो किया गया था, लेकिन ऊँची जाति के लोगों की असली ताकत,
गांवों में बड़ी-बड़ी जमीनों पर मालिकाना हक का उनका एकछत्र अधिकार,
बना ही हुआ है । उनके द्वारा नीची जाति पर जुल्म जारी है। इस
संविधान में मजदूरों के संगठन बनाने और हक की लड़ाई लड़ने के अधिकारों पर कई तरह
से पाबंदी लगाई गई है। यही कड़वा सच है ! अगर पूंजीपति वर्ग का संविधान
पूंजीपतियों का साथ नहीं देगा, तो और कौन देगा ? इस संविधान ने राज्य को धर्म से अलग नहीं किया, जिसकी
वजह से सांप्रदायिकता बढ़ी और उसी को आधार बनाकर हिंदुत्व की ताकतें मजबूत हुईं और
आज के मौजूदा समय के फासीवादी हमले लाने में सफल हुईं । 1947
में भारत का बड़ा पूंजीपति वर्ग सत्ता में आया और उसने एक ऐसी व्यवस्था खड़ी की जो
शुरू से ही लोकतंत्र के लिहाज से अवरुद्ध और सीमित रही है क्योंकि ये औपनिवेशिक
शासन के ढांचे में छोटे-मोटे बदलाव करके बनाई गई थी। जो लोग इस गणतंत्र के संविधान
को सही मानते हैं, जो इस गणतंत्र का झंडा ऊंचा करके अपना
भरोसा जताते हैं, वे इसी अटपटी, सीमित
पूंजीवादी लोकतंत्र के समर्थन में खड़े हैं। क्या वे असली लोकतंत्र के लिए लड़ रहे
हैं? जाहिर सी बात है, नहीं, और उनके वर्ग चरित्र के कारण उनके लिए ऐसा करना मुमकिन भी नहीं है।
कुल मिलाकर बात यह
है कि, कोई भी बुर्जुआ या निम्न-बुर्जुआ
दल या विभिन्न संगठन जो किसी भी तरह से आरएसएस-भाजपा के उग्र हिंदुत्व फासीवादी
हमले का विरोध कर रहे हैं, वे सभी वास्तविक लोकतंत्र के लिए
संघर्ष करने में असमर्थ हैं। उनसे जुड़ना इस पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर कुछ
सुधारों के लिए संघर्ष करना है। जैसा कि हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं, सर्वहारा वर्ग का उद्देश्य इस पूंजीवादी लोकतंत्र में कुछ सुधार करना नहीं
है, बल्कि इसका विस्तार करना है, असली
लोकतंत्र की ओर बढ़ना है।
यहाँ एक जरुरी बात
कही जानी चाहिए । अगर कोई यह मानता है कि, कोई संगठन, लोगों के एक हिस्से के
साथ, सड़कों पर उतरता है, चाहे
लोकतंत्र की मांग के लिए या इस पूंजीवादी व्यवस्था के अंदर लोकतंत्र की रक्षा के
लिए, तो यह संसदीय क्षेत्र के बाहर का संघर्ष है। और अगर वही
संगठन चुनावों में उम्मीदवार खड़ा करता है या किसी पार्टी का समर्थन करता है,
तो यह संसदीय क्षेत्र के अंदर का संघर्ष है। ऐसा सरलीकृत अंतर करना गलत
होगा । हमें यह बात समझने की जरूरत है कि अगर लोकतंत्र की लड़ाई सिर्फ पूंजीवादी
लोकतंत्र की सीमाओं में फंसी रहेगी, तो यह संसदीय दायरे में
उतर कर आएगी ही । क्योंकि इस पूंजीवादी व्यवस्था में, जहाँ
संसदीय प्रणाली है, पूंजीवादी लोकतंत्र की सीमाओं के अंदर का
कोई भी संघर्ष अंततः उसी संसदीय व्यवस्था के दायरे में ही सुलझता है । उसके बाहर
नहीं । इसीलिए यह देखा जाता है कि ऐसा कोई भी आंदोलन अंत में संसदीय संघर्ष की सीमाओं
में ही सिमट कर रह जाता है । जरा 2011 के अन्ना हजारे के
नेतृत्व वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बारे में सोचें । उस संघर्ष से आम आदमी
पार्टी का जन्म हुआ, जो जल्दी ही संसदीय क्षेत्र में
उतर गई और आख़िर में अन्य पूंजीवादी पार्टियों
जैसी शामिल हो गयी । जिग्नेश मेवाणी, हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकुर या यहां तक कि चंद्रशेखर आज़ाद जैसे नेता जो दलित संघर्ष या
लोगों के सहज संघर्ष की प्रतिक्रिया के रूप में उभरे, सभी ने
किसी न किसी संसदीय दल की शरण ले ली है । इसलिए,सवाल यह नहीं
है कि संघर्ष सड़क पर हो रहा है या नहीं, सवाल यह है कि क्या
संघर्ष का इरादा इस पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर सुधार करना है या पूंजीवादी लोकतंत्र
की बाधाओं को तोड़कर असली लोकतंत्र की स्थापना करना है । इसमें शक़ की कोई गुंजाइश
नहीं है कि यदि पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर सुधार का उद्देश्य है, तो संघर्ष संसदीय सीमाओं के भीतर ही सीमित रहेगा। यानी उस संघर्ष का
परिणाम इसी संसदीय प्रणाली, चुनावी प्रणाली के भीतर होगा।
अंत में, या तो वे किसी संसदीय बुर्जुआ-निम्न-पूंजीवादी पार्टी
के पक्ष में खड़े होंगे या फिर उन्हें एक नई पार्टी बनाकर संसदीय मंच पर प्रवेश
करना होगा।
यहां पर यह कहा जा सकता
है कि आज जब सर्वहारा वर्ग बिखरा हुआ है और आरएसएस-भाजपा का फासीवादी हमला तेज हो
रहा है, तो क्या उस हमले को रोकने
की कोशिश नहीं की जानी चाहिए? पहले इस फासीवादी हमले को
रोकते हैं, फिर हम असली लोकतंत्र की लड़ाई के बारे में सोच
सकते हैं। हम इस तरह के तर्क को कई तरीकों से सुनने के आदी हैं।
सबसे पहले, असली अनुभव क्या है ?
हमने संसदीय बुर्जुआ-निम्न बुर्जुआ दलों के बारे में पहले ही चर्चा
कर ली है। इसे दोहराने की जरूरत नहीं है। कोई भी दल फासीवाद के खिलाफ लड़ने में
सक्षम नहीं लगता है । यह स्वाभाविक है क्योंकि बुद्धिजीवियों या अन्य निम्न-बुर्जुआ
समूहों के पास जमीनी स्तर पर लोगों को फासीवाद के खिलाफ जगाने का कोई साधन नहीं है
। हालांकि, यह स्पष्ट होना चाहिए कि आरएसएस-भाजपा के इस हमले
को जमीनी स्तर के जनसंघर्ष के बिना हराया नहीं जा सकता । ऐसा इसलिए है क्योंकि
हिंदू आबादी के पिछड़े वर्गों पर प्रभाव आरएसएस-भाजपा की मुख्य ताकत है । जब तक
इसे इस तबके से अलग नहीं किया जाता, तब तक आरएसएस-भाजपा को
हराया नहीं जा सकता। यह केवल मजदूरों-किसानों
और खेतिहर मजदूरों का एकजुट संघर्ष बनाकर ही संभव है। इसे बनाने का मतलब है सर्वहारा
वर्ग की एकता बनाना, उसका वर्ग संघर्ष बनाना, उसकी पार्टी बनाना । सिर्फ
एकजुट होकर काम करने वाली पार्टी में शामिल सर्वहारा वर्ग का हिरावल ही गरीब
ग्रामीणों को एकजुट करके और किसानों के साथ गठबंधन बनाकर संघर्ष खड़ा कर सकता है ।
जाहिर सी बात है कि यह संघर्ष शासकों और शोषकों के शोषण और अत्याचार के खिलाफ होगा
। उस क्रांतिकारी संघर्ष के माध्यम से, सर्वहारा वर्ग और
मेहनतकश लोग न केवल शोषण के खिलाफ लड़ेंगे, बल्कि फासीवादी
हमले के खिलाफ भी लड़ेंगे और सच्चे लोकतंत्र की ओर बढ़ने के लिए इस व्यवस्था की
मुश्किलों को पार करेंगे । इसलिए फासीवाद के खिलाफ लड़ाई और मजदूरों-किसानों का
क्रांतिकारी संघर्ष अलग-अलग नहीं हैं । [नोट 3]
दूसरी बात ,जो लोग विपक्षी पार्टियों
के बाहर निम्न-बूर्जुआ ताकतों के साथ गठबंधन कर रहे हैं, वो
ये सोचकर गलती कर रहे हैं कि इससे कम्युनिस्ट क्रांतिकारी समूह निम्न-बूर्जुआ वर्ग
को ऊपर उठा लेंगे । दरअसल, निम्न-बूर्जुआ वर्ग के एक हिस्से
को क्रांतिकारी राजनीति की तरफ खींचना सिर्फ तभी मुमकिन होता, अगर सर्वहारा वर्ग की एक सच्ची पार्टी होती जो सर्वहारा वर्ग के वर्ग
संघर्ष की राह पर चलती । पर अभी फिलहाल ऐसी कोई पार्टी मौजूद नहीं है ।
तो, कम्युनिस्टों को क्या
करना चाहिए? क्या कम्युनिस्ट चुपचाप बैठें रहेंगे ? बिलकुल नहीं । अगर कम्युनिस्ट सचमुच मानते हैं कि सर्वहारा वर्ग ही समाज
में इकलौती ताकत है जो असली लोकतंत्र के लिए लड़ सकती है, तो
उन्हें उस वर्ग को जगाने और आज के हालात में वर्गीय राजनीति के आधार पर जितना संभव
है उस अगुवा तबके को संगठित करने के लिए काम करना होगा । यह बात सच है कि अंतर्राष्ट्रीय
और राष्ट्रीय स्तर पर हार के बाद सर्वहारा वर्ग अपनी शानदार भूमिका के साथ कब
उठेगा, यह हमें नहीं पता है । लेकिन फासीवाद के मौजूदा खतरे
का हवाला देते हुए, अगर बुर्जुआ, निम्न-बुर्जुआ वर्ग के साथ
कोई गठबंधन किया जाता है, तो इसका मतलब बुर्जुआ, निम्न-बुर्जुआ
राजनीति का साथ देना होगा। क्योंकि इस गठबंधन में शामिल होने या बने रहने के लिए,
कम्युनिस्टों को बुर्जुआ राजनीति से समझौता करना होगा, और असली लोकतंत्र के इरादे को छोड़कर, मौजूदा पूंजीवादी
लोकतंत्र के अंदर कुछ सुधारों की मांग करनी होगी । कुल मिला कर, निम्न-बुर्जुआ वर्ग
की ताकतों को क्रांतिकारी स्तर तक ले जाने के बजाय, उन्हें
खुद को निम्न-बुर्जुआ वर्ग की राजनीति के स्तर तक गिराना होगा । इससे सबसे पहले,
सर्वहारा वर्ग को एक वर्ग के रूप में संगठित करने के सबसे जरुरी काम
को नुकसान पहुंचेगा और दूसरा, मजदूरों या जनता के उस छोटे से
हिस्से की चेतना को भ्रष्ट कर दिया जाएगा जिसे उन्होंने संगठित किया है।
इसलिए कम्युनिस्टों
का काम है कि वो मजदूरों और मेहनतकश जनता के बीच क्रांतिकारी राजनीति को आगे
बढ़ाएं और इस तरह उनमें से एक छोटे लेकिन अगुवा हिस्से को आज की क्रांतिकारी
राजनीति की तरफ खींचे और उन्हें वर्ग राजनीति के परचम तले संगठित करें । मजदूरों
और मेहनतकश जनता का सिर्फ यही छोटा
तबका ही वर्ग संघर्ष का झंडा उठाकर आगे बढ़ेगा। इस बात में कोई शक नहीं कि ये काम
मुश्किल है। लेकिन, अगर क्रांतिकारी कम्युनिस्ट ये नहीं करते हैं, तो
फिर समाज में क्रांति का झंडा कौन उठाएगा ? सबसे ज़रूरी बात
ये है कि ऐसा न करने का मतलब असली लोकतंत्र के झंडे को, क्रांति
के झंडे को छोड़ देना है । कम्युनिस्टों को ये फैसला करना है कि वो क्या करेंगे।
नोट्स:
1।ये कैपिटल के दो उद्धरण
से अधिक साफ़ समझ आएगा । पहला उद्धरण "पण्य" (Commodity) वाले अध्याय से है, जहां मार्क्स बताते हैं कि
प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक और वैज्ञानिक अरस्तु ने सबसे पहले कहा था कि समानता के
बिना कोई लेनदेन नहीं हो सकता, और सामंजस्य या अनुकूलता के
बिना समानता नहीं हो सकती । उनका कहना है कि "वस्तुओं का आदान-प्रदान समानता
के बिना नहीं हो सकता, और समानता समान मूल्य के बिना नहीं हो
सकती ।" (पूंजी, खंड-1, पण्य,
पृष्ठ-65, अंग्रेजी में ) । लेकिन अरस्तु आगे नहीं बढ़ पाए। यानी, वे यह नहीं समझ पाए कि दो
सामानों के बीच समानता के आधार पर लेनदेन उनके बीच में छुपे श्रम के आधार पर हो
सकता है। यह कहते हुए, मार्क्स ने कहा, "हालांकि, एक महत्वपूर्ण तथ्य था जिसने अरस्तु को यह
देखने से रोका, कि पण्य को मूल्य देना, सभी श्रम को समान मानव श्रम के रूप में व्यक्त करने का एक तरीका है,
और इसलिए समान गुणवत्ता के श्रम के रूप में है।" (वही) ऐसा
क्यों? इसको भी मार्क्स ने समझाया है, "यूनानी समाज दासता पर आधारित था, और इसलिए, इसका प्राकृतिक आधार व्यक्तियों और उनकी श्रम शक्तियों की असमानता था।
मूल्य की अभिव्यक्ति का रहस्य, अर्थात् सभी प्रकार के श्रम
समान और तुल्य होते हैं, क्योंकि वे सामान्य रूप से मानव
श्रम होते हैं, तब तक समझा नहीं जा सकता, जब तक कि मानव समानता की धारणा पहले से ही एक लोकप्रिय पूर्वाग्रह के रूप
में स्थापित नहीं हो जाती। हालांकि, यह
केवल एक ऐसे समाज में संभव है जहां श्रम के उत्पाद का बड़ा हिस्सा पण्य का रूप ले
लेता है, जिसमें फलस्वरूप, मनुष्य और
मनुष्य के बीच का प्रमुख संबंध वस्तुओं के मालिकों का होता है" (पूंजी, खंड-1, पृष्ठ 65-66,
अंग्रेजी में, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, जोर और इटालिक
वर्तमान लेखक के हैं)
2। मार्क्स ने पूंजी के एक वाक्य
में यह स्पष्ट किया था कि पूंजीवाद के तहत पूंजीपति और मजदूर समान कीमतों पर दो
स्वतंत्र लोगों के रूप में श्रम शक्ति खरीदते और बेचते हैं। मार्क्स ने कहा,
“वह और पैसे का मालिक बाजार में मिलते हैं, और
समान अधिकारों के आधार पर एक दूसरे के साथ सौदा करते हैं, केवल
इस अंतर के साथ कि एक खरीदार है, दूसरा विक्रेता; इसलिए, कानून की नजर में दोनों बराबर हैं” (पूंजी,
खंड-1, पृष्ठ-165,अंग्रेजी
में, प्रोग्रेस पब्लिशर्स)
3। हमें यह समझना होगा कि
कोई भी कम्युनिस्ट ग्रुप या समूहों का गठबंधन भी असली कम्युनिस्ट पार्टी की जगह
नहीं ले सकता है । कई लोग पिछले अनुभव का हवाला देते हुए फासीवाद-विरोधी संयुक्त
मोर्चा बनाने के नाम पर सुधारवादी-संशोधनवादी पार्टियों सहित संसदीय बुर्जुआ, निम्न-बुर्जुआ
पार्टियों के साथ गठबंधन बनाने की बात करते हैं। फासीवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चों
के जो अनुभव हमने अतीत में देखे हैं वे वास्तव में फासीवाद के विरुद्ध असली संघर्ष
के लिए थे। लेकिन इनमें से कोई भी दल सही मायनों में ऐसा संघर्ष खड़ा करने की
कोशिश नहीं कर रहा है, और उनके पास उस संघर्ष को खड़ा करने
की कोई क्षमता नहीं है। दूसरी ओर, कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुप
या समूह भी सर्वहारा वर्ग और मेहनतकश जनता से पूरी तरह अलग-थलग हैं और इसमें शक़ की
कोई गुंजाइश नहीं है कि आम तौर पर सर्वहारा वर्ग और मेहनतकश जनता अपने ऊपर शासक
वर्ग द्वारा किये गए हमलों के खिलाफ संघर्ष खड़ा करने में सक्षम नहीं हैं। तो वे
शासक वर्ग के ख़िलाफ़ राजनीतिक संघर्ष कैसे खड़ा करेंगे? जहां
फासीवाद के खिलाफ कोई असली संघर्ष नहीं है, वहां संघर्ष के
लिए संयुक्त मोर्चे का सवाल ही बेमानी है।
नवम्बर 2024
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