Tuesday, July 8, 2025

धन पुनर्वितरण बहस - सर्वहारा दृष्टिकोण से

 संपादकीय                                            

               धन पुनर्वितरण बहस - सर्वहारा दृष्टिकोण से

भारत में जब लोकसभा चुनाव प्रचार ज़ोरों पर थे, तब इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने संयुक्त राज्य अमेरिका में अपने वर्तमान निवास से आभासी तौर पर एक सीधा-सादा बयान देकर काफी हलचल मचा दी थी। उन्होंने कहा कि अमेरिकी विरासत कर की तर्ज़ पर भारत में भी विरासत कर होना चाहिए। गौरतलब है कि अमेरिका में विरासत में मिली संपत्ति का 55 प्रतिशत हिस्सा सरकार द्वारा कर के रूप में 'क़ब्जा' कर लिया जाता है। शायद, उन्होंने अमेरिका के इस क़दम को भारत की बढ़ती असमानता के ख़िलाफ़ एक उपाय बताया। इसी बयान से भारत में उथल-पुथल मच गई! सैम पित्रोदा के बयान पर बीजेपी हमलावर हो गई और बहुत शोर-शराबा मचाना शुरू कर दिया कि कांग्रेस लोगों की 'मेहनत से कमाई गई' संपत्ति को 'ज़बरन' छीनने और संपत्ति बाँटने की योजना बना रही है। हालाँकि, कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र में संपत्ति पुनर्वितरण या विरासत कर का कोई उल्लेख नहीं था। मोदी जी अपने चिर-परिचित तरीक़े से थोड़ा और आगे बढ़ गए और अपनी चुनावी रैलियों में यहाँ तक दावा किया कि कांग्रेस हिंदू गृहिणियों के 'मंगलसूत्र' और ग़रीब हिंदू किसान परिवारों की संपत्ति छीनकर मुसलमानों को देने की योजना बना रही है। हालाँकि चुनाव नतीज़ों के बाद यह साफ हो गया कि तभी से मोदी अंदर ही अंदर चुनाव नतीज़ों को लेकर चिंतित थे और उनका यह अभियान मतदाताओं को हिंदू-मुस्लिम के रूप में ध्रुवीकृत करने की एक चाल थी ताकि हिंदू मतदाताओं को बीजेपी के पक्ष में वोट देने के लिए प्रेरित किया जा सके।  अपने तमाम प्रयासों के बावजूद वह चुनाव में अपनी पार्टी की गिरावट को नहीं रोक सके, यह बिल्कुल अलग कहानी है। लेकिन, यह सच है कि भाजपा और उसकी दलाल मीडिया द्वारा इस मुद्दे पर भारी प्रचार अमीर और उच्च मध्यम वर्ग के लोगों के बीच कुछ प्रतिक्रिया पैदा करने में सफल रहा, जिसके कारण कांग्रेस पार्टी ने सैम पित्रोदा के उपरोक्त बयान से खुद को दूर कर लिया था और अंततः सैम पित्रोदा को इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। इस कार्रवाई से कांग्रेस ने यह साफ़ कर दिया कि वे धन के पुनर्वितरण के किसी विचार की वकालत नहीं कर रहे हैं।

दरअसल, कांग्रेस पार्टी धन के पुनर्वितरण के पक्ष में कैसे हो सकती है? कांग्रेस पार्टी ग़रीबों का वोट पाने और सरकारी सत्ता हासिल करने के लिए कुछ भीख देने का वादा कर सकती है। वे सरकारी धन से मुफ्त राशन और महज कुछ दिनों के लिए ग्रामीण रोज़गार योजना जैसे कुछ लाभों का ही वादा कर सकते हैं। लेकिन, धन का पुनर्वितरण? अमीरों की संपत्ति का एक हिस्सा हड़प कर ग़रीबों को दे देना? वे ऐसी कार्रवाई की वकालत कैसे कर सकते हैं? कांग्रेस भी अमीरों की पार्टी है, बड़े पूँजीपतियों की पार्टी है। इतना ही नहीं, लंबे समय तक कांग्रेस बड़े पूंजीपति वर्ग द्वारा समर्थित और उस पर भरोसा करने वाली मुख्य पार्टी थी। भारत के शासक वर्ग की प्रमुख प्रतिनिधि पार्टी थी। तो, वे सामान्य तौर पर धन पुनर्वितरण के विचार का समर्थन कैसे कर सकते हैं? इतना ही नहीं, किसी भी बुर्जुआ पार्टी शासित देश में निजी संपत्ति का अधिकार अलंघनीय माना जाता है और भारत के संविधान में भी निजी संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार माना जाता है। इसलिए, सिर्फ़ भाजपा या कांग्रेस ही नहीं, वर्तमान संविधान के ढाँचे के भीतर काम करने वाली कोई भी पार्टी धन के सामान्य पुनर्वितरण की माँग नहीं कर सकती है।

ख़ैर, ये तो हुई भाजपा और कांग्रेस की बात। लेकिन, क्या उन अमीरों के लिए कोई औचित्य है जो संपत्ति के पुनर्वितरण के बारे में बात करने आ गए और मीडिया में शोर मचाने लगे कि उनकी 'कड़ी मेहनत से कमाई गई संपत्ति' छीन ली जा रही है? थोड़ा विचार करने पर पता चलता है कि यह तर्क कितना खोखला है कि अमीर अपनी संपत्ति को 'कड़ी मेहनत से कमाई गई संपत्ति' के रूप में देखते हैं। उनका यह तर्क भी मान्य नहीं है कि संविधान में सभी नागरिकों के संपत्ति अधिकारों को मान्यता दी गई है, इसलिए किसी से संपत्ति नहीं छीना जा सकता। क्या इस समाज में अमीर और ग़रीब की संपत्ति पर अधिकार बराबर माने जाते हैं? क्या हम भूल सकते हैं कि 'स्वतंत्रता' के बाद से और विशेष रूप से वैश्वीकरण की शुरुआत के बाद से कितनी बार सरकारों ने विकास के नाम पर, समाज की व्यापक भलाई के नाम पर, ग़रीबों से एक के बाद एक कितनी एकड़ ज़मीन ज़बरन छीन ली है? क्या हम नहीं जानते कि विकास परियोजनाओं या बड़े बुर्जुआ के खनन या औद्योगिक परियोजनाओं के लिए कितने करोड़ आदिवासियों को उनके घरों से उजाड़ा गया? कुछ साल पहले भी, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट यानी अनुबंध खेती क़ानून, जिसे कॉर्पोरेट पूँजीपतियों के हित में पारित किया गया था, लेकिन बाद में किसान समुदाय के दबाव में वापस ले लिया गया था, वह भी कॉर्पोरेट (पूँजीपतियों) ने ग़रीब किसानों से ज़मीन हड़पने के लिए बनाया था। सिर्फ़ सरकार की बात क्यों? क्या हम नहीं देखते कि कैसे बड़े इज़ारेदार पूँजीपतियों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ हज़ारों छोटे-पूंजीपति, छोटे उत्पादक लगातार अपने संपत्ति के अधिकार खो रहे हैं? बड़े पूंजीपति, छोटे पूंजीपति, छोटे उत्पादकों की संपत्ति हड़प रहे हैं। जैसा कि एंगेल्स ने एक बार कहा था, छोटे पूँजीपतियों और कृषि मालिकों के लिए सामंती बंधनों से "संपत्ति की मुक्ति" "संपत्ति से ही मुक्ति" बन गई। तो, यहाँ ग़रीबों की संपत्ति को धोखा देकर छीना जा सकता है, बुर्जुआ सरकार ज़बरन अधिग्रहण कर लेती है, हड़प लेती है, बुलडोज़र चला देती है, लेकिन अमीरों की संपत्ति पर, बड़े पूँजीपतियों के साथ ऐसा कभी नहीं किया जा सकता।

और, अमीरों की अपनी मेहनत से कमाई गई संपत्ति की बात? यह भी सरासर झूठ है। पूँजीपतियों की संपत्ति पूँजीपतियों के अपने श्रम का उत्पाद नहीं है, बल्कि श्रमिकों के श्रम का उत्पाद है। श्रमिक ख़ून पसीना बहा कर उन सामानों का उत्पादन करते हैं जो पूँजीपतियों के लिए संपत्ति पैदा करती हैं, जो उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व के बल पर श्रमिकों की मेहनत की कमाई छीन लेते हैं। तो वास्तव में संपत्ति श्रमिकों और मेहनती लोगों द्वारा कड़ी मेहनत से अर्जित किया जाता है लेकिन पूँजीपतियों द्वारा उनसे हड़प लिया जाता है। इस प्रकार, दूसरों के श्रम पर परजीवी बनकर जीने वाले पूँजीपतियों और अन्य अमीर लोगों से ज़बरन धन छीनना और इसे मेहनतकश लोगों के बीच वितरित करना अन्यायपूर्ण तरीक़े से धन छीनना नहीं है, बल्कि चोरों से धन छीनना और उसे उसके असली मालिक को लौटाने जैसा अच्छा काम है। लेकिन, पूँजीपतियों का यह समाज के अनुसार, अपने क़ानून के अनुसार, यह एक गंभीर अपराध है।

सच कहूँ तो, समाज की भलाई के लिए निजी संपत्ति कब अधिग्रहण की जा सकती है और कब नहीं, इस सवाल पर बुर्जुआ तर्क कभी-कभी काफ़ी भ्रमित करने वाला हो सकता है। 

जब सम्पत्ति के पुनर्वितरण पर उपरोक्त संघर्ष चुनावी सरगर्मी के बीच में चरम पर पहुँच गया था, तब सुप्रीम कोर्ट के एक मामले में भी ऐसा ही सवाल खड़ा हो गया है। इस सवाल से संबंधित मामला यह है कि क्या किसी विशेष भूखंड को सरकार द्वारा अधिग्रहित किया जा सकता है, एक निश्चित बिंदु पर पहुँच जाता है जहाँ संविधान के अनुच्छेद 39 (ए) की व्याख्या आवश्यक हो जाती है। इस बारे में किसी विस्तृत चर्चा की आवश्यकता नहीं, कुछ प्रासंगिक बातें ही पर्याप्त होंगी। सबसे पहले, मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने जिस प्रश्न पर विचार किया वह यह था कि क्या सरकार किसी निजी संपत्ति का अधिग्रहण कर सकती है। कुछ अधिवक्ताओं ने यह तर्क देने की कोशिश की कि सरकार द्वारा किसी भी प्रकार की निजी संपत्ति का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता है। उन्होंने यह भी तर्क देने की कोशिश की कि दिवंगत न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर का यह फ़ैसला कि सभी निजी संपत्ति समाज की बेहतरी के लिए हासिल की जा सकती है, यह एक समाजवादी प्रस्ताव है जिसे अवहेलना के साथ ख़ारिज़ कर दिया जाना चाहिए। हालाँकि, चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने बीच का रास्ता चुना। एक ओर तो वे इस बात से सहमत थे कि न्यायमूर्ति अय्यर का प्रस्ताव समाजवादी था और इसका पालन नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन दूसरी ओर उन्होंने तर्क दिया कि निजी संपत्ति के अधिग्रहण का पूर्ण विरोध उचित नहीं था। उन्होंने कहा कि उस स्थिति में भूमि सुधार या खदानों और बैंकों का अधिग्रहण जैसे उपाय संभव नहीं होते। यह बिल्कुल सही है। वस्तुतः उनके तर्क इस प्रश्न पर पूंजीपति वर्ग की वास्तविक स्थिति को उजागर करते हैं। पूंजीपति वर्ग ने निजी संपत्ति के अधिकार को हमेशा पवित्र माना है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बुर्जुआ राज्य कभी भी किसी निजी व्यक्ति की संपत्ति का अधिग्रहण नहीं करता है। इस बुर्जुआ राज्य ने भूमिहीनों के बीच बाँटने के लिए बड़े ज़मींदारों से भूमि अधिग्रहित की। क्योंकि बुर्जुआ राज्य ने ऐसा तभी किया जब उन्हें लगा कि यह पूंजीपति वर्ग के हितों के लिए ज़रूरी है। हालाँकि, जब बुर्जुआ राज्य ने अमीरों या बड़े ज़मींदारों से अधिग्रहण किया, तो उन्होंने बड़े ज़मींदारों को भारी मुआवज़ा दिया। बुर्जुआ राज्य ने अपने 'विकास मॉडल', बुनियादी ढाँचे के निर्माण, खनन आदि के लिए छोटे, सीमांत भूस्वामियों से भी भूमि का अधिग्रहण किया है। हालाँकि, सरकार द्वारा उन्हें दिया जाने वाला मुआवज़ा इतना कम है कि वह किसी भी तरह से उनके नुकसान की भरपाई नहीं कर सकता है। बुर्जुआ राज्य निजी संपत्ति के अधिकारों को बरकरार रखता है लेकिन एक वर्ग के रूप में पूँजीपति वर्ग की अधिक भलाई के लिए बैंकों, खदानों का अधिग्रहण करता है। यह न केवल 'समाजवाद के नेहरू मॉडल' के दौरान बल्कि पूंजीवाद की 'मुक्त प्रतिस्पर्धा' के दौरान भी सच है। हम अभी भी ऐसे कई उदाहरण देखते हैं जहाँ बुर्जुआ राज्य ने घाटे में चल रहे कई बुर्जुआ वित्तीय संस्थानों को अपने क़ब्ज़े में ले लिया है ताकि उनकी विफलता देश की पूरी वित्तीय प्रणाली को नष्ट न कर दे। (यहाँ, हम यह भी देख सकते हैं कि न केवल बुर्जुआ सरकार, बल्कि बड़े पूँजीपति स्वयं प्रतिस्पर्धा के माध्यम से और शेयर बाज़ार में हेराफ़ेरी जैसी वित्तीय रणनीति सहित विभिन्न रणनीति के माध्यम से छोटे पूँजीपति वर्ग की सम्पत्ति छीन लेते हैं)। इस प्रकार, सामान्य अर्थों में यह सच है कि बुर्जुआ निजी संपत्ति के अधिकार को एक पवित्र अधिकार मानते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पवित्र अधिकार को विशेष मामलों में नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है, जहाँ किसी व्यक्ति के अधिकार एक वर्ग के रूप में पूरे पूँजीपति वर्ग के हितों के आँड़े आते हैं। मुख्य न्यायाधीश के तर्क का सार यही था। सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ पूंजीपति वर्ग के सामान्य हित की याद दिलाई क्योंकि बुर्जुआ राज्य में न्यायपालिका का कार्य समग्र रूप से पूँजीपति वर्ग के हित में कार्य करना और वर्ग के प्रतिनिधियों के बीच विवादों को उनके वर्ग यानि पूंजीपति वर्ग के हित में निपटाने का प्रयास करना है। 

जबकि सुप्रीम कोर्ट ने निजी संपत्ति कब अधिग्रहण की जा सकती है और कब नहीं, इस पर चर्चा अपने वर्ग हित में अच्छे से किया है और उनका तर्क है कि संपत्ति का पुनर्वितरण एक समाजवादी अवधारणा है,  यह पूरी तरह से ग़लत है। निःसंदेह ऐसी ग़लती उनकी ओर से स्वाभाविक है, क्योंकि बुर्जुआ क़ानूनी प्रणाली के बारे में उन्हें चाहे जो भी ज्ञान हो, वे समाजवाद, विशेषकर वैज्ञानिक समाजवाद के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। मार्क्स-एंगेल्स और उनके सच्चे अनुयायी, यहाँ तक कि यूटोपियन समाजवादी, जो समाजवाद के विचार के शुरुआती समर्थकों में से थे, उन्होंने भी बुर्जुआ समाज के दायरे में धन के पुनर्वितरण की माँग नहीं किया या उसके लिए काम नहीं किया। समाजवादियों के लिए, समाजवाद हमेशा उत्पादन के साधनों के सामाजिक मिल्कियत पर आधारित एक सहकारी समाज रहा है। ओवेन, फूरियर, सेंट साइमन जैसे महान यूटोपियन समाजवादियों के समय से, समाजवादी-समाज का अर्थ उत्पादन के साधनों के सामाजिक मिल्कियत पर आधारित समाज है, जहाँ सभी श्रमिक हैं, जहाँ वर्ग-विभाजन ग़ायब हो जाता है और मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण समाप्त हो जाता है। यहाँ सामाजिक मिल्कियत उत्पादन के साधनों का है, जीवन-यापन के साधनों का नहीं। आजीविका के साधन समाज के प्रत्येक सदस्य के उपयोग के लिए हैं, या तो उसकी निजी संपत्ति के रूप में या समाज के एक हिस्से के रूप में। आजीविका के ये साधन व्यक्ति के परिश्रम का फल हैं, जिसे दूसरा कोई नहीं छीन सकता। तर्क के लिए भी, हम इस बात पर विचार करते हैं कि यदि धन अमीरों से छीन लिया जाता है और ग़रीबों में वितरित किया जाता है, तो क्या इससे पूँजीवादी समाजों में मौजूद असमानता खत्म हो जाती है? सबसे पहले, कोई पैसा ले सकता है, और इसे ग़रीबों में बाँट सकता है। लेकिन कारखानों या मशीनरी आदि के बारे में क्या कहा जाए, जिनका पूँजीवादी समाज में पहले ही समाजीकरण हो चुका है, यानी, जिन्हें व्यक्तिगत उपयोग के बजाय कई लोगों के उपयोग के साधन में बदल दिया गया है। क्या हम कारखानों को कई छोटे भागों में बाँट सकते हैं और प्रत्येक मशीन, कल-पुर्जे,  या यहाँ तक कि उसके हिस्सों को व्यक्तियों में वितरित कर सकते हैं? निःसंदेह, यह संभव नहीं है। अब, यदि हम कारखानों या उत्पादन के साधनों को उनके वर्तमान मालिकों पर छोड़ देते हैं, तो उत्पादन के उन साधनों का उपयोग फिर से सर्वहारा वर्ग का शोषण करने के लिए किया जाएगा, यानी जिनके पास उत्पादन का कोई साधन नहीं है। सर्वहारा वर्ग का यह शोषण फिर से धन-संपदा की असमानता को बढ़ाएगा। इस प्रकार, भले ही हम कल्पना करें, या असंभव कल्पना की जगह से भी अगर हम सोचें कि बुर्जुआ समाज में धन का पुनर्वितरण किया जा सकता है, फिर भी इससे असमानता कत्तई दूर नहीं होगी।

इसके अलावा, उत्पादन के साधनों पर समाजवादी मिल्कियत भी बुर्जुआ राज्य के अधीन कुछ कारखानों के राज्य द्वारा अधिगृहित कर अपने मिल्कियत में लेने के समान नहीं है। कारखानों, उत्पादन के कुछ साधनों पर राज्य की मिल्कियत, मेहनतकश जनता को महज धोखा देने के लिए समाजवादी कार्यवाही के रूप में प्रस्तुत किया गया था। गणतंत्र के शुरुआती दिनों में कांग्रेस ने सीपीआई, सीपीआई (एम) आदि सुधारवादी-संशोधनवादी पार्टियों की मदद से यह चाल चली थी। नेहरू काल का तथाकथित समाजवाद भारत में पूंजीवाद के एक चरण के अलावा और कुछ नहीं था, जो समग्र रूप से पूंजीपति वर्ग, विशेषकर बड़े पूंजीपति वर्ग के लाभ के लिए लिया गया था। तब इसका इस्तेमाल मेहनतकश लोगों को धोखा देने के लिए किया गया था और आज इसे समाजवाद के विचार के ख़िलाफ़ एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन, ऐसा बुर्जुआ राज्य द्वारा कारखानों पर मिल्कियत समाजवाद नहीं है, न ही धन-संपदा के पुनर्वितरण का विचार कोई समाजवादी विचार है। अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन का पहला अभियान भले ही पराजित हो गया हो, लेकिन हमें किसी भी तरह से वैज्ञानिक समाजवाद की अवधारणा को विकृत या पराजित नहीं होने देना चाहिए। समाजवाद के वैज्ञानिक सिद्धांत के क्रांतिकारी सार को संरक्षित और क़ायम रखने के प्रयासों में किसी भी तरह से कमी नहीं आने दी जा सकती।

                                  
                                                                      नवम्बर 2024

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