Saturday, October 10, 2020

हाथरस: दलित उत्पीड़न का एक और क्रूर उदाहरण

 उत्तर प्रदेश के हाथरस में 19 साल की दलित लड़की के साथ जिस तरह से सामूहिक बलात्कार किया गया और भयानक यातनाएँ दे कर हत्या किया गया, शायद ऐसा बहुत कम ही हुआ है । दिल्ली में निर्भया की आज से एक दशक पहले हुई घटना, , या पिछले साल हैदराबाद में एक युवती के साथ हुई बलात्कार के बाद जिंदा जलाने की घटना से भी शायद यह घटना ज्यादा क्रूर है । हाथरस की दलित लड़की के साथ न केवल सामूहिक बलात्कार किया गया, उसकी जीभ काट दी गई, उसका पूरा शरीर अंतहीन यातना के परिणामस्वरूप अपंग हो गया। 14 सितंबर की ये घटना के बाद जब परिवार के लोग लड़की को थाने ले गए, तब पुलिस ने बलात्कार का मामला दर्ज नहीं किया। बलात्कार का मामला 8 दिन बाद 22 सितंबर को दर्ज किया गया, जब सोशल मीडिया पर यह बात फैलने लगी। उस समय, पुलिस ने चार कथित ऊँची जाति के आरोपियों को गिरफ्तार किया। जहां कानून कहता है कि बलात्कार हुआ है या नहीं, यह साबित करने के लिए एक जाँच तुरंत होनी चाहिए, इसके बजाय बलात्कार के लिए फोरेंसिक जाँच घटना के 11 दिन बाद 25 सितंबर को आयोजित की जाती है। स्वाभाविक रूप से, इतने दिनों के बाद की गई फोरेंसिक जांच रिपोर्ट से बलात्कार का कोई सबूत मिलना मुश्किल है और अब उस फोरेंसिक रिपोर्ट का उपयोग करते हुए, पुलिस दावा कर रही है कि दलित लड़की के साथ बलात्कार नहीं हुआ था! 

पुलिस की यह भूमिका उत्तर प्रदेश के पुलिस-प्रशासन में उच्च जातियों के वर्चस्व के कारण है। केवल उत्तर प्रदेश ही क्यों? भारत की राज्य व्यवस्था के विभिन्न हिस्सों में उच्च जाति का प्रभुत्व अभी भी कायम है। और, बलात्कार की शिकार युवती एक गरीब दलित परिवार की बेटी है। उसके उपरांत, यह परिवार वाल्मीकि समुदाय का है, जिसका स्थान भी दलित समुदाय के बीच काफी नीचे है जातिगत विचार से यह माना जाता है । वाल्मीकि समुदाय के लोग अभी भी मुख्य रूप से गंदगी सफाई संबंधित काम में लगे हुए हैं। लिहाजा, इतने गरीब, दलित समुदाय के महिलाओं के उत्पीड़न का क्या महत्व है उच्च जाति के वर्चस्य में रहे पुलिस प्रशासन के लिए ?  उच्च जाति के लोगों के लिए दलित जीवन, दलित महिलाओं के सम्मान का मूल्य क्या है? इसीलिए उत्तर प्रदेश का पुलिस प्रशासन शुरू से ही इस घटना को दबाने के लिए तत्परता से लगा था। पुलिस अब यह साबित करने में व्यस्त है कि बलात्कार बिल्कुल ही नहीं हुआ। वे जितनी जल्दी हो सके सभी सबूतों को गायब करने में लगे हैं, ताकि जब शोर कम हो जायेगा, तब अपराधी गांव में वापस आ सकते हैं और उत्पीड़न जारी रख सकते हैं। इस मकसद से ही, युवती की मृत्यु के बाद, उसके शरीर को गांव में लाया गया और पुलिस-प्रशासन ने आनन फानन में रात के अंधेरे में गांव के खेत में अंतिम संस्कार के नाम पर शव को जला दिया है । जो पुलिस एक दलित महिला को सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकी थी उस दिन उनके ओर से गांव में एक विशाल पुलिस बल तैनात किया गया था । क्यों? ताकि गाँव और परिवार के लोग "कानून व्यवस्था को भंग न कर सकें"। पुलिस ने पीड़ित मृतक युवती के परिवार को घर में बंद कर दिया और अंतिम संस्कार के रीति रिवाजों के लिए पीड़ित परिवार को बिना कोई अवसर दिए खुद ही पेट्रोलियम पदार्थों का इस्तेमाल करके यह कृत्य किया। 

इसी दौरान इस घटना से उत्तर प्रदेश की उच्च जातियों की प्रतिक्रिया भी दिखाई देने लगी है, जो उस समाज में उच्च जातियों के वर्चस्व, उनकी कथित उच्च जाति की मानसिकता को जोर-शोर से उजागर कर रही है। इस घटना के क्रूरता से शर्मिंदा होने के बजाय, उत्तर प्रदेश के कई कथित उच्च जाति संगठनों ने अपराधियों को बचाने के लिए प्रतिवाद-विरोध-ज्ञापन देना शुरू कर दिया है। ये दलितों को इंसान ही नहीं मानते हैं | उनके लिए दलितों के जीवन का कोई मूल्य नहीं है | दलित महिलाओं की इज्जत का कोई मूल्य नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार, उस गाँव के एक उच्च जाति के व्यक्ति ने टिप्पणी की, "ये दलित लोग ज्यादा हमारे सर पर चढ़ गये "। इसलिए, वे फिर से दलितों को अपने पैरों के नीचे लाने में व्यस्त हैं। यही है उत्तर प्रदेश में भाजपा और संघ परिवार के उदय के बाद जातियों के बदलते शक्ति संतुलन की असली तस्वीर। 

हालाँकि इसके विपरीत, इस अत्याचार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी शुरू  हुए हैं। लड़की वाल्मीकि समुदाय के होने के कारण वाल्मीकि समुदाय के लोग विरोध प्रदर्शन में भड़क उठे हैं। हिंदी पट्टी के राज्यों में, वाल्मीकि समुदाय के लोग शहर की नगर पालिकाओं में सफाई करने के काम में शामिल हैं। नगर निगम कर्मचारीगण कई शहरों में हड़ताल पर चले गए हैं। कई अन्य संगठन भी विरोध में शामिल हो रहे हैं। फिर भी, शायद एक सवाल को हम नज़रंदाज़ नहीं कर सकते है। घटना के लगभग दो हफ्ते बाद इस घटना को मीडिया में प्रचारित किया जाने लगा। उसके बाद ही विरोध शुरू होने लगा, मुख्यतः युवती की मौत के बाद । दिल्ली में निर्भया हत्याकांड के दौरान या कुछ साल पहले हैदराबाद में एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार के मामले में जो स्वतःस्फूर्त विरोध प्रदर्शन हुआ, वह इस बार नहीं देखा गया। अगर ये उत्तर प्रदेश के किसी दूरवर्ती गाँव में दलित लड़की का मामला नहीं होता, बल्कि भारत के एक बड़े शहर में एक उच्च या मध्यम वर्गीय परिवार की लड़की होता तो क्या ऐसा हो सकता था? क्या इससे दलित जीवन के प्रति दलितों पर सवर्णों का उत्पीड़न के प्रति, सवर्णों की उदासीनता नहीं दर्शा रही है ? 

दूसरा, हम विरोध प्रदर्शन के मामले में भी एक ही तरह की थकाऊ पुनरावृत्ति देखते रहते हैं। विरोध प्रदर्शनों में सबसे आगे बुर्जुआ राजनीतिक दल हैं, जिनमें से सभी एक समय या किसी अन्य समय पर सत्ता में रहे हैं। जब वे दल सत्ता में थे, कांग्रेस को छोड़ ही दीजिये, यहां तक कि तथाकथित निम्न जाति का प्रतिनिधित्व करने की दावा करने वाले सपा, बसपा के रहते हुए भी दलितों की स्थिति नहीं बदली है। बलात्कार-हत्या-उत्पीड़न की वही घटना की पुनरावृत्ति हुई है। ये सभी राजनीतिक दल इन विरोधों का उपयोग अपनी सत्ता में जाने के लिए करेंगे और फिर वही बात बार-बार दोहराई जाती रहेगी ।

लेकिन ऐसा नहीं है कि, इस स्थापित पार्टी के अलावा, आम लोग अपना गुस्सा व्यक्त नहीं कर रहे हैं। पिछली घटना की तरह ही एक जैसे मांगों को दोहराया जा रहा है। कुछ कहते हैं कि अब सभी अपराधियों को फांसी दो, कुछ कहते हैं कि उनका एनकाउंटर या मुठभेड़ कर दो जैसा हैदराबाद में हुआ। किसी को कहना है इतनी सख्त सजा देना ताकि कोई इस अपराध को करने की सोच भी न सके। दशकों पहले निर्भया कांड के दौरान भी यही मांग उठी थी। उस समय विरोध के कारण कानून में कई बदलाव किए गए हैं। पुलिस ने हैदराबाद में भी मुठभेड़ की। लेकिन, क्या महिलाओं के खिलाफ अपराध में कोई बदलाव आया है? क्या बलात्कार की घटनाओं में कमी आई है? एक के बाद एक बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं, कोई अंत नहीं है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस घटना को सिर्फ बलात्कार की घटना के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, यह वास्तव में भारत में उच्च जातियों के उत्पीड़न की अभिव्यक्ति है। आजादी के 73 साल बीत चुके हैं। कानून निचली जातियों के ऊपर उच्च जातियों के उत्पीड़न पर पाबन्दी लगा रखा है। बार-बार वह कानून और भी सख्त किया गया है। लेकिन, ऊंची जातियों का उत्पीड़न बंद नहीं हुआ है, यह वास्तविक है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सवर्णों के इस वर्चस्व का असली आधार पुराने सामंती समाज के अवशेष हैं जो पूरे भारत में कहीं कम और कहीं ज्यादा टिकी हुई हैं। सवर्णों के लिए सत्ता का असली स्रोत अभी भी भूमि स्वामित्व में उनका लगभग समूचे प्रभुत्व में है। इसके आधार पर ही, ग्रामीण इलाकों में सत्ता के संतुलन में सवर्णों का वर्चस्व है, जिसके परिणामस्वरूप राज्य के हर स्तंभ में उच्च जातियों का वर्चस्व है। और वैचारिक रूप से उच्च जाति हिंदू समाज के पुराने रीति-रिवाजों और परंपराओं से अपनी ताकत निचोड़ता है, जहां ब्राह्मण और क्षत्रिय का सर्वव्यापी वर्चस्व हैं। अगर यह वर्चस्व नहीं तोड़ा जा सकता है, तो उच्च जातियों का उत्पीड़न बंद नहीं होगा। 

यह सिर्फ एक सिद्धांत की बात नहीं है कि जाति विभाजन और उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए चुनाव द्वारा सरकार को बदलने से नहीं होगा | खासकर पिछले 40-50 वर्षों के अनुभव ने इस तथ्य को साफ़ तौर पर दर्शा दिया है | क्योंकि इस अवधि में हमने संसदीय स्तर पर निचली जाति के दलों के उदय का इतिहास को देखा है। एक ही रास्ता है - सामंती ताकतों को कुचलने का, उजाड़ने का। और यह सुधार के रास्ते पर नहीं, बल्कि मजदूर-किसान मेहनतकश जनता के क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष के ज़रिए होगा, जो क्रांतिकारी संघर्ष आज नहीं तो कल पूरे भारत में जागने वाला है | और दलित जनता अपनी पूरी ताकत से इसमें हिस्सा लेंगे | क्योंकि भारत के शोषित, उत्पीड़ित लोगों का बहुसंख्यक हिस्सा वे ही हैं। जो लोग जाति उत्पीड़न को समाप्त करने की सच्ची इच्छा रखते हैं, उनकी सोच को मौजूदा संसदीय प्रणाली की सीमाओं से बाहर निकल कर भारत में क्रांतिकारी परिवर्तन की ओर ले जाना होगा । केवल कुछ उच्च जाति के अपराधियों को फांसी देने से दलित पुरुषों और महिलाओं को उत्पीड़न से मुक्त नहीं किया जा सकेगा, फंसी में लटकाना होगा मौजूदा शासन संरचना को।

2 अक्टूबर, 2020               सर्वहारा पथ 

 



बाबरी मस्जिद विध्वंस का फैसला: इंसाफ या इंसाफ के नाम पर स्वांग ?

 बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में न्याय के नाम पर जो स्वांग रचा गया वह अनापेक्षित नहीं था। भारत में करोड़ों लोगों की आंखों के सामने, सुप्रीमकोर्ट के आदेश को ठेंगा दिखाकर सभी कानूनों का धज्जियां उड़ाकर खुलेआम बाबरी मस्जिद का विशाल ढांचा ध्वस्त कर दिया गया था । न्याय के नाम पर स्वांग का पहला अध्याय तब लिखा गया जब खुलेआम अंजाम दिए गए इस मामले में फैसला आने में ही कुल 28 साल लग गये । बुर्जुआ (मतलब पूंजीवादी) कानूनी दायरे में भी एक कहावत चलता है - न्याय में देरी न्याय न मिलने के बराबर है - justice delayed is justice denied। उस पैमाने पर भी 28 साल के बाद हुआ फैसला कोई न्यायसंगत फैसला नहीं है। लेकिन, 28 साल की लंबी अवधि के बाद भी, अन्याय इस देरी तक ही सीमित नहीं रहा | लगातार दो तीन साल पूरे देश में खूनी, सांप्रदायिक प्रचार चलाया गया और इसके माध्यम से चरमपंथी हिंदू साम्प्रदायिकता को उकसाकर लाखों कारसेवकों को एकजुट कर सभी की आँखों के सामने संघ परिवार के नेताओं ने एक ढांचा को गिरा  दिया। लेकिन, सीबीआई अदालत इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहरा सका। कितना अजीब न्याय! सभी आरोपियों को 'सम्मान' के साथ रिहा कर दिया गया है। मस्जिद ध्वस्त होने के लिए कोई भी जिम्मेदार नहीं है, कहते हैं यह एक स्वतःस्फूर्त  घटना थी। अगर इसे न्याय का स्वांग  नहीं कहा जाता है, तो इसके अलावा और क्या हो सकता है। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद गठित लिब्रहान आयोग के एक न्यायाधीश मनमोहन सिंह लिब्रहान ने भी टिप्पणी की - यह घटना बिल्कुल भी स्वतःस्फूर्त नहीं थी | उनके पास पर्याप्त सबूत हैं कि संघ परिवार के नेताओं ने काफी योजनाबद्ध तरीके से बाबरी मस्जिद के विध्वंस करने के घटना को अंजाम दिया हैं। वह इस बात पर टिप्पणी नहीं करना चाहते थे कि सीबीआई अदालत उन सबुतों का परवाह नहीं की या उसे अदालत में पेश किया गया था या नहीं। ऐसे ही कुछ लोगों ने खेद के साथ टिप्पणी की है कि - किसी ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त नहीं किया, यह अपने आप गिर गया!

जब सुप्रीम कोर्ट ने विवादित भूमि को राम जन्मभूमि मंदिर के लिए ट्रस्ट को सौंप दिया, तब शीर्ष अदालत ने भी कहा था कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस एक आपराधिक कृत्य (criminal act)  था। उस समय अनेक बुर्जुआ (पूंजीवादी) पर्यवेक्षकों/विवेचकों ने फैसले के उस हिस्से को दिखाते हुए साबित करने की कोशिश की थी की सुप्रीम कोर्ट के फैसला में  दोनों पक्षों को ही देखा गया है। अब हमें नहीं पता कि फैसले के किस हिस्से में वे संतुलन की तलाश करेंगे। सीबीआई अदालत ने शायद उनके लिए कोई रास्ता खुला नहीं छोड़ा। इन दो फैसलों के साथ, भारतीय न्यायपालिका अपनी आपेक्षिक निष्पक्षता की पर्दा को अपने हाथ हटाकर ऐलान कर रही है कि वे वास्तव में किसके साथ खड़े हैं।

हालाँकि, इस फैसले का वास्तविक महत्व केवल यह नहीं है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए जिम्मेदार लोगों को, जिन्हें उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक कृत्य घोषित किया है, उस अपराध के लिए दंडित नहीं किया गया। इस निर्णय का वास्तविक महत्व इस तथ्य में निहित है कि यह निर्णय यह साबित करता है कि संघ परिवार का फासीवादी अभियान कहाँ तक बढ़ गया है जहाँ वे लोग न्यायपालिका सहित राष्ट्र के विभिन्न हिस्सों पर अपना वर्चस्व लगभग पूरा कर लिया है। संघ परिवार के इस फासीवादी अभियान का लक्ष्य सिर्फ बाबरी मस्जिद को गिराना और राम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण करना नहीं है, यह कभी नहीं था। यह बहुसंख्यक हिंदू लोगों के बीच सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाने और देश भर में सांप्रदायिक विभाजन पैदा करके देश को हिंदू राष्ट्र की ओर ले जाने का एक अवसर है। इस फासीवादी हिंदू राष्ट्र का लक्ष्य केवल अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना ही नहीं है, बल्कि सभी उत्पीड़ित लोग जो थोड़ा कुछ लोकतांत्रिक अधिकार का लाभ उठाते थे उसे भी छीन कर भारत को ऐसे एक राष्ट्र में तब्दील करना, जहां लोकतंत्र बिल्कुल भी मौजूद  नहीं रहेगा | आर्थिक तौर पर शोषित वर्गों पर शासक बड़े बुर्जुआ के नेतृत्व में मुख्यतः बड़े बुर्जुआ यानी पूंजीपति वर्ग और उनके साथ ग्रामीण शोषकों का अंधाधुंध शोषण का राज मौजूद रहेगा और सामाजिक रूप से मुख्य रूप से हिंदी पट्टी के उच्च जाति के हिंदुओं का वर्चस्व रहेगा, | बाकी सब उनके पैर तले दबे होंगे। मजदूर वर्ग सहित सभी मेहनतकशों के लिए ख़तरे की बात यह है कि संघ परिवार और भाजपा वास्तव में स्वार्थ रक्षा कर रही है साम्राज्यवाद के ऊपर भरोसेमंद बड़े बुर्जुआ (पूंजीपतियों) का और वे शासक बुर्जुआ के स्वार्थ में मजदूर वर्ग पर हमला कर रहे हैं और करते रहेंगे । इस काम में भाजपा अपनी स्वयं की फासीवादी शक्ति का उपयोग कर रही है और इस कारण शासक वर्ग के अन्य राजनीतिक प्रतिनिधियों की तुलना में मज़दूर वर्ग और जनता पर अधिक आक्रामक तरीके से हमला करने में सक्षम हो रही है । मुंह से चाहे जितना ही शोर शराबा क्यों न करे, सभी स्थापित राजनीतिक दल प्रत्यक्ष तौर पर न होने पर भी अप्रत्यक्ष रूप से इस अभियान में उनको मदद किये हैं और अभी भी कर रहे हैं । उनके पास संघ परिवार के फासीवादी अभियान को रोकने की चाहत या ताकत कुछ भी इन लोगों का नहीं है। वे लोग ज्यादा से ज्यादा सत्ता में जाने के लिए भाजपा के खिलाफ लोगों के विरोध का उपयोग करने की कोशिश करेंगे। संघ परिवार के फासीवादी अभियान को, तमाम मेहनतकश लोगों को संगठित कर मजदूर वर्ग को ही रोकना होगा । वह ताकत शायद अभी तक नहीं देखी जा सकी है। लेकिन, सिर्फ मज़दूर वर्ग के पास ही वह ताकत है। तथाकथित कम्युनिस्ट नामधारी सुधारवादी पार्टियों ने मज़दूर वर्ग की स्वतंत्र ताकत को जगाने के बजाय उन लोगों को पार्टी के पेटीबुर्जुआ (यानी निम्न पूंजीपति वर्ग) नेतृत्व का अनुयायी कर रखे थे। उस नेतृत्व के विश्वासघात के परिणामस्वरूप, मजदूर वर्ग अब बिखरी हुई है। मज़दूर वर्ग को खुद आज अपनी स्वतंत्र ताकत को जगाना होगा, जिसके बल पर वह न केवल फासीवाद के अभियान का विरोध करेगा, बल्कि समाज को शोषण से मुक्ति के मार्ग पर ले जाएगा। बाबरी मस्जिद के फैसले ने इस आह्वान को अगुवा सर्वहारा के समक्ष पेश कर रहे है - उठो, जल्दी से खड़े हो जाओ, खुद एकजुट हो, तमाम मजदूरों को संगठित करो, फासीवाद के इस अभियान का सामना करने के लिए तैयार हो जाओ।

2 अक्टूबर, 2020                                 



Saturday, April 11, 2020




करोना-वायरस महामारी व लॉक-डाउन से उपजे संकट: मजदूर वर्ग का नज़रिया से 

करोना-वायरस के कारण उपजी महामारी और उसे नियंत्रित करने के मकसद से घोषित देशव्यापी लॉक-डाउन मजदूर, गरीब किसान, खेतिहर मजदूर सहित तमाम मेहनतकशों की ज़िंदगी में एक अभूतपूर्व संकट लायी है। हजारों की तादाद में काम काज खोए, निर्धन, असहाय मजदूरों की मीलों पैदल चल कर घर लौटने का मंजर तमाम गरीब मेहनतकशों के ज़िंदगी की मौजूदा संकट की दयनीय स्थिति प्रकट हुई है। पूरे देश में जिस तरह करोना से जानें गई वैसे ही कई मजदूर लॉन्ग मार्च के दौरान भूख और प्यास या सड़क हादसों में जानें गँवाई। ये वाकिये दर्शा रहे हैं कि इस लॉक-डाउन ने मजदूर, गरीब मेहनतकशों के ज़िंदगी में जिस कदर अनिश्चितता और मुसीबत पैदा की है वो कोरोना महामारी से किसी तरह कम नहीं है। वह ये भी साबित कर रहा है कि किसी भी प्राकृतिक आपदा को जितना भी वर्ग शोषण से अलग करके दर्शाने की कोशिश क्यों न हो, वह एक सफ़ेद झूठ है। वर्ग विभाजित समाज में किसी भी प्राकृतिक आपदा में शोषित वर्ग ही सबसे ज्यादा नुकसान का शिकार होते है एवं उनके जीवन में ही सबसे ज्यादा संकट पैदा होता है।
मजदूर, गरीब मेहनतकशों की ज़िंदगी लेकर सरकार व प्रशासन को कत्तई कोई भी सिरदर्द नहीं है ये प्रवासी मजदूरों पर थोपे गए संकट से ही साफ ज़ाहिर है। लॉक-डाउन करने के पहले इन प्रवासी मजदूरों का क्या होगा इसके बारे में सरकार की कोई भी सोच-विचार नहीं था। अब जब ये मजदूर जीने की बेपरवाह कोशिश में पैदल चलकर गांवों की ओर लौटने की कोशिश में मीलों की दूरी तय करना शुरू किए हैं तब भी ये अमीरों की तमाम सरकारें उनके जीवन को लेकर चिंतित नहीं है बल्कि उनकी चिंता सिर्फ संक्रमण की सम्भावना को लेकर है। जबकि विदेशों से अमीर लोगों द्वारा ये संक्रामक बीमारी ले आने के वक़्त सरकार ने उनको बेरोक-टोक आने-जाने व इधर-उधर घूमने दिया है। अब सरकार गरीब मजदूरों को किसी तरह रोकने की फिराक में है एवं उनके साथ जानवरों का तरह वर्ताव भी किया जा रहा है। कैसे ये मजदूर इन्सान की तरह जियेंगे उसे लेकर उनको रत्ती भर भी चिंता नहीं है।
सिर्फ ये प्रवासी मजदूर ही नहीं, सभी मजदूर सहित तमाम मेहनतकश लोग लॉक-डाउन के नतीजे में तीव्र संकट में है। लॉक-डाउन के नतीजे में पूरे देश में उत्पादन व उससे जुड़े सभी कार्य ठप्प होने की कारण करोड़ों मजदूर व मेहनतकश हाल-फिलहाल अपना काम -काज गँवा चुका हैं। पूंजीपति व ठेकेदारों ने कह दिया है कि वे असंगठित क्षेत्र में उत्पादन से जुड़े लाखों मजदूरों को तो ज़रूर यहां तक कि कारखानों में ठेका में नियुक्त मजदूरों को भी इस अवधि की कोई मजदूरी भुगतान नहीं करेगा। वे यहाँ तक कि ज्यादातर निजी क्षेत्र में नियुक्त स्थायी मजदूरों को भी वेतन नहीं दे पायेगें यह कह दिया है। जब पूंजीपति वर्ग उत्पादन चालू रहते वक़्त ही ठीक-ठाक वेतन, सहूलियतें भुगतान नहीं करते, तब आज ये मजदूरों को वेतन नहीं देगा ये कोई नई या चौकानेवाली बात नहीं है। सरकार भी उनको वेतन भुगतान करने के लिए सिर्फ अनुरोध तक ही किया है। इसके अलावा कोई ठोस कदम नहीं लिया। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि सरकार नियोक्ता मालिकों को जो अनुरोध किया है वे महज बात-की-बात ही है। पूंजीपति व जमींदार-सूदखोर जैसा ग्रामीण शोषकों के शोषण के नतीजे में मजदूर सहित किसी भी गरीब इंसान को ही आर्थिक बचत लगभग न के बराबर होता है। इस वजह से कोई काम न रहने के कारण वे और भी अनिश्चितता के कगार पर पहुँच चुके हैं। अब से आने वाले भविष्य तक कैसे ये लोग अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी का इन्तेजाम करेंगे इसका उत्तर उनके पास नहीं है।
इस स्थिति में सरकार 1 लाख 70 हज़ार रुपये की एक राहत पैकेज की घोषणा की है। इस पैकेज के तहत जो ठोस राहत-कार्यक्रम की घोषणा की गई है वह बहुत ही तुच्छ है। खास कर मजदूर गरीब इन्सान अपना काम-कमाई गँवाकर जिस संकट में उलझ गए हैं वह इस राहत के तुलना में अपर्याप्त है। इस राहत से उनकी थोड़ी सी भी ज़रुरत पूरी नहीं होगी। जबकि इस आपदा के समय सरकार की जिम्मेदारी थी सभी नागरिकों की, खास कर गरीबों के लिए खाद्य, आश्रय, व इलाज की पूरी जिम्मेदारी लेना, तब वह काम न करके महज दिखावे भर के संकुचित कदम उठाकर सरकार अपनी जिम्मेदारी से हाथ खींचना चाह रही है। इस घटना ने एक बार फिर से ये साफ ज़ाहिर कर दिया है कि शोषण आधारित समाज में सरकार व प्रशासन मेहनतकश, गरीब जनता के लिए नहीं सोचते, न ही महत्व नहीं देते है। इससे भी बड़ी बात है कि तमाम सरकारों ने जितने भी राहत के इन्तेजाम किए हैं वह भी बाँटने की जिम्मेदारी वही नौकरशाह प्रशासन पर है, जो आम तौर पर भ्रष्टाचार से ग्रस्त है एवं गरीबों के जीवन की समस्या व मुसीबतों के बारे में एकदम ही उदासीन हैं। अतः ये राहत का कितना हिस्सा आखिरकार निचले तबके की जनता के पास पहुंचेगा उस विषय में संदेह है। ऐसे संकट के दौरान मजदूर मेहनतकश जनता को खतरे से सही मायने में बचा सकते थे मेहनतकश जनता के बीच में से बनी जनता कमेटियां। ये कमेटी मेहनतकश जनता के साथ रहके लिए उनके लिए बराबर ही राहत पंहुचाते और देश के दूसरे तबके की तरह उनके बराबर जीने के लिए ज़रूरी सामान ले जाते, इलाज का इन्तेजाम करते। ज़रूरी होता तो इसलिए अमीरों पर अतिरिक्त कर थोप के या उनसे पैसो का इन्तेजाम कर काम की अंजाम तक ले जाते। लेकिन ऐसा इस व्यवस्था में मुमकिन नहीं है, मुमकिन होता अगर मजदूर-किसान का राज होता।
अभी तक करोना-वायरस का संक्रमण शहर में एवं ऊँचे तबके के लोगों में ही मूलतयः सीमित है। लेकिन भविष्य में अगर इस वायरस का संक्रमण शहर के गरीब, निचले तबके की इलाकों में फ़ैल जाए तब उसका नतीजा और खतरनाक होगा। शहर के गरीब, मेहनतकश जनता का बसा हुआ इलाका बहुत ज्यादा भीड़ भरा व अस्वास्थ्यकर है। इस वायरस का कोई टीका न होना एवं काफी ज्यादा संक्रामक होने के कारण गरीब मोहल्लों में ये संक्रमण बहुत जल्दी फैलने की सम्भावना काफी अधिक है। पूंजीपति व अन्य शोषकों के तीब्र शोषण के नतीजे में मजदूर व मेहनतकशों को किसी किस्म का इन्तेजाम करना ही दुष्कर है। लिहाज़ा इस तरह की महामारी का इलाज करना भी उनके क्षमता से बाहर है। गरीब इन्सान को तो लगभग पूरा ही सरकारी स्वास्थ्य-व्यवस्था पर निर्भर करना पड़ता है। इसके अलावा उनके पास और कोई चारा नहीं है। अब सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का क्या हाल है ये सभी जानते हैं। वैसे ही उसका बहुत बुरा हाल है। इसके उपरांत पिछले कुछ दशकों से सरकारों द्वारा वैश्वीकरण नीति के चलते जैसे प्रत्येक क्षेत्र को निजीकरण के रास्ते धकेल दिया गया है उससे सरकारी स्वास्थ्य सेवाओ सहित  तमाम सार्वजनिक सेवा क्षेत्रों को और चरमरा गई है। विकसित व आधुनिक इलाज अब मुख्यतः निजी क्षेत्र में प्राप्त होता है, जोकि गरीबों के पंहुच से बाहर है। कोरोना के चलते वैसे भी एक तंगहाली की स्थिति बनी हुई है। अगर कोरोना संक्रमण देश भर में व्यापक स्तर पर फ़ैल जाता है तब कितना गरीब लोगों को बिना इलाज जान गंवाना पड़ेगा ये भविष्य ही बता पायेगा। कोरोना के लिए अस्पतालों में दाखिल कर इलाज कराने के लिए आवश्यक बेड या उपकरण का बात तो छोड़ ही देते है, अभी तक टेस्ट किट के अभाव में सरकार व्यापक मात्रा में जाँच ही नहीं कर पा रहे है। जो कर पाने से ये महामारी रोकने के लिए एक असरदार कदम लिया जा सकता। जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की जिम्मेदारी तो सरकार की है। इसलिए जनता से बड़ी रकम में सरकार कर भी वसूल लेती है। करों का वह पैसा कहाँ जाता है? जनता से कर बाबत जो पैसा सरकार वसूल लेती है वह पैसा वो पूंजीपतियों को तरह तरह की सुविधा मुहैय्या कराने के लिए, पुलिस-सेना-नौकरशाह को पालने के लिए एवं आम तौर पर अमीरों के लिए तथा समाज की सुविधाभोगी ऊँचे तबके के लिए व्यय करते हैं। आम मेहनतकश जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि क्षेत्रों से सरकार ने धीरे धीरे हाथ खींच लिया है। शासक वर्ग की नीति के चलते जनता को आज किस स्थिति पर ला कर खड़ा कर दिया गया है यह इस संकट से ही साफ ज़ाहिर है | 
कोरोना-वायरस से उपजे लॉक-डाउन होने के पहले से ही समूची दुनिया की आर्थिक स्थिति के साथ भारत की आर्थिक स्थिति भी एक गहरे आर्थिक मंदी से गुजर रही थी।  कोरोना महामारी एवं लॉक-डाउन अर्थव्यवस्था को और गहरे संकट में ले जायेगा ये दिन के उजाले की तरह साफ है। मंदी की वजह से जो पूंजीपति संस्थाएं मजदूरों को छंटनी करना चाह रही थी वे इस मौके का इस्तेमाल कर रहे हैं। लॉक-डाउन को जब वापस लिया जायेगा तब कितने मजदूर व कर्मचारी नौकरी गंवाएंगे, कितने छोटे कारोबार उजड़ जायेंगे उसकी आशंका ही हम अभी कर सकते हैं, उसका पूरा अनुमान लगाना मुमकिन नहीं है। हालाँकि ऐसी स्थिति व्यापक मात्रा में पैदा होगी यह अभी से ही कहा जा सकता है। दूसरा बात है, उत्पादन कार्य व बिक्री लगभग पूरी ही बंद रहने के वजह से सरकार की आमदनी घट गई है। इसके उपरांत पूंजीपति इस संकट से मुकाबला करने के लिए सरकार से आर्थिक मदद मांग रहे हैं। इस मकसद से हाल ही में सरकार ने कुछ कदम उठाया है। आने वाले कल में और कुछ कदम लेंगे। पूंजीपतियों व सरकार के इस संकट का बोझ आने वाले समय में सरकार द्वारा और भी नए करों के व अन्य कदमों के तहत मजदूर व मेहनतकश जनता पर थोपा जायेगा। 
मजदूर व मेहनतकश जनता के उपर संकट का बोझ जैसे सिलसिलेवार रूप में उतरा  आयेगा उतना ही उन लोगों के साथ पूंजीपति वर्ग व सरकार का विरोध बढ़ना तय है। ताकि मजदूर व मेहनतकश जनता को इस बात का एहसास हो सके कि यह संकट कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है, इस संकट का मूल स्रोत है पूंजीपति-जमींदारों का शोषण और उसके लिये उनके बीच में जितना हद तक हो सके प्रचार करना चाहिये। यह प्रचार उनके  जिन्दगी के अनुभव से मिलाकर इस तरह करना होगा ताकि वे इस संकट के साथ इस शोषण आधारित समाज के सम्बन्ध को समझ सकें। साथ साथ मजदूर व मेहनती जनता अपने जायज अधिकारों की मांग लेकर पूंजीपति व सरकार के खिलाफ संघर्ष का निर्माण कर सके इसलिये उनके बीच प्रचार अभियान चलाना व उनको संगठित करने की मकसद से मजदूर वर्ग का अगुवा दस्ता व कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को हर संभव प्रयास करना होगा।
इस प्रचार के साथ साथ इस कठिन स्थिति मे खास कर आसपास उपस्थित मजदूर व गरीब किसान, खेतिहर मजदूर साथियों में, जो लोग खतरे में होंगे, उनके पास में अगुआ वर्ग सचेत मजदूरों को खड़ा होना होगा। हर संभव मदद के लिए हाथ बढ़ाना होगा। इस कठिनाई की घडी में अगर उनके पक्ष में अगुआ वर्ग सचेत मजदूर व कम्युनिस्ट कार्यकर्ता खड़े न हो सके तब सभी राजनैतिक प्रचार ही उनको बेमतलब लगेगा। हालाँकि मजदूर वर्ग का अगुआ दस्ता व कम्युनिस्टों का मुख्य काम अवश्य ही उनको राहत देना नहीं है, बल्कि मुख्य काम है इस शोषण आधारित समाज ने उन लोगों को किस तरह इस संकट में डाल दिया है उसके बारे में उन्हें सचेत करना व समूचे व्यवस्था के खिलाफ सघर्ष के लिये उन लोगों को सचेत व एकजुट करना।
चूँकि वैज्ञानिक अभी तक करोना-वायरस का कोई टीका आविष्कार नहीं कर पाये हैं, वे लोग और विभिन्न देश के शासकों ने सामाजिक दूरी बनाये रखने को ही इस महामारी के रोकथाम का एकमात्र रास्ता दिख रहा है। यानी, सभी को कहा जा रहा है दूसरे लोग से दूर रहने के लिए। करोना-वायरस के संक्रमण की संभावना को रोकने के लिये शारीरिक दूरी बनाये रखना अवश्य ही जरूरी है। लेकिन, इन्सान तो दरअसल सामाजिक जीव है। आपसी सहयोग बगैर कोई भी इन्सान जी नहीं सकता है। पूंजीवाद आमतौर पर यह विचारधारा का प्रचार करते है कि -`खुद जियो। इस बुर्जुआ विचारधारा का असर ही जब अभी हावी है तब सामाजिक दूरी बनाये रखने की यह प्रचार लोगो में आपसी सहयोग के नाते को पीछे धकेल दे सकता है, जिससे आपसी सहयोगिता की जगह लेगा स्वार्थी मानसिकता व स्व-केन्द्रिकता। इस सोच का विरोध हम लोगों को जरूर करना होगा।
करोना-वायरस की यह महामारी चीन से शुरु होकर कई महीनों में दुनिया के काफी देशों तक फैलकर पूरी दुनिया के संकट के रूप में उभरा है। दरअसल यह महामारी पूरे मानव सभ्यता के खिलाफ एक हमले के रूप में सामने आया है, जिसे पूरे मानव जाति को एकजुट होकर मुकाबला करना होगा। लेकिन, मानव समाज आज अनेक पूंजीवादी देश में बंटा हुया है जहाँ कुछ साम्राज्यवादी भीमकाय एकाधिकारी संस्था की अगुवाई में विभिन्न देश के पूँजीपति वर्ग शासक वर्ग के हैसियत से है। यह पूंजीवादी संस्था समूह हर समय उनके मुनाफे के स्वार्थ में अपने बीच के तीव्र प्रतिस्पर्धा में शामिल है। दुनिया के करीब सभी वैज्ञानिक खोज के विषय इन बहुराष्ट्रीय पूंजीवादी संस्था व साम्राज्यवादी देश समूह नियंत्रण करते है। वे उन सभी क्षेत्रो में ही खोज करते हैं जो इन साम्राज्यवादी पूंजी सहित बड़े बड़े पूंजीपतियो के पास अहमियत रखते हैं। या तो उन लोगों को युद्ध हथियारों की जरुरत पूरा करता है या उन लोगों का मुनाफा के स्वार्थ में काम आता है। उनके लिए मजदूर सहित गरीब मेहनतकश लोगों का जीना मरना कोई भी अहमियत नहीं रखता है। फलस्वरुप, कोरोना-वायरस का टीका आविष्कार का काम भी उनके मुनाफा कमाने के स्वार्थ से जुड़ा हुया है। अगर पूरी दुनिया के सभी वैज्ञानिक लोग आपसी सहयोग के तहत और पूंजीपतियो के स्वार्थ पर ध्यान न रखकर, पूरे मानव जाति के हित-हिफाज़त के लिए एक ही केन्द्र के अधीन रहकर प्रतिषेधक आविष्कार का प्रयासरत होते थे तब यह कहना अधिक न होगा की उनका इस प्रयास सफल होने का संभावना कई गुना बढ़ जाती। हालाँकि आज के इस पूंजीवादी दुनिया में वह संभव नही है। इस पहलू से कोरोना-वायरस का हमला इस पूंजीवादी शासन को खत्म कर समाजवाद की ओर यात्रा की ज़रुरत को हमारे समक्ष और जोर-शोर के साथ उपस्थित कर दिया है।
एक ही साथ आज यह भी गौर करने वाली बात है की कोरोना संक्रमण के समय इस देश में हिन्दुत्ववादी, फासिस्ट ताकतों के संरक्षण में गोमूत्र खाने जैसा तरह तरह के अवैज्ञानिक, अंधविश्वास से ग्रस्त काम काज चल रहा है। ऐसे ताकत समूह आमतौर पर जिन अवैज्ञानिक सोच विचार का प्रचार-प्रसार करता है, कोरोना महामारी केन्द्रित कर उसका प्रचार भी उसी का हिस्सा है। आमतौर पर सभी धर्म के कट्टरवादी ताकत ही इस तरह के विविध अवैज्ञानिक, अंधविश्वास से ग्रस्त सोच का प्रचार करते हैं। आज इस महामारी के खिलाफ सामूहिक रूप से जनता द्वार सचेत भूमिका लेने के परिप्रेक्ष्य में यह अवैज्ञानिक सोच विचार एक बड़ा रोड़ा है। इस तरह के अवैज्ञानिक, अंधविश्वास से ग्रस्त सोच-विचार हमारी समाज का पिछड़े सामाजिक आर्थिक आधार पर टिका हुआ है। स्वाभाविक तौर पर हमारी जैसा पिछड़ा देश के लिए समाजवाद के दिशा में आगे बढ़ने के रास्ता में यह पुराना उत्पादन संबंध के अवशेष को मिटाने सवाल भी काफी अहम है जो ज़रुरत को करोना महामारी सामने लाया है।
इन्सान जीने के लिये प्रकृति पर निर्भर है। प्रकृति पर इन्सान अपने श्रम द्वारा कार्य के तहत अपना जीने का इन्तेजाम करते है। इन्सान और प्रकृति का सम्बन्ध सामंजस्य व आपसी सहयोग पर आधारित है। जब भी कभी इन्सान प्रकृति पर आक्रामक तेवर अपनाते है, उसको नष्ट करने के लिए उतारू होते है, तब प्रकृति भी मानव जाति पर पलटवार करते हैं। कोरोना-वायरस का हमला भी प्रकृति पर इन्सान का आक्रामक तेवर के खिलाफ प्रकृति का प्रत्याघात का उदाहरण है। प्रकृति के इस हमले के सामने इंसान कितना लाचार है यह कोरोना-वायरस के महामारी का संकट फिर एक बार दर्शा दिया। इस घटना ने यह भी दिखा दिया कि अंतिम विचार में इन्सान और प्रकृति के इस विरोध में प्रकृति मूख्य भूमिका में रहता है। इस तरह के संकट से बचने के लिये प्रकृति व इन्सान का आपसी सहयोगपूर्ण सम्बन्ध व सामंजस्य को वापस लाना ज़रुरी है। यह काम हालिया पूंजीवादी व्यवस्था के अन्दर संभव नही है, इसे संभव करने के लिये पहले ही हालिया पूंजीपति वर्ग को उखाड़ फेंकना होगा, जो उनके मुनाफा के उग्र लालच में प्रकृति के ऊपर एक खौफनाक, विनाशकारी हमला चलाते आ रहे है एवं जिसका खामियाजा उठाना पड़ रहा है करोड़ों मेहनतकश लोगों को। इस वजह से करोना-वायरस का यह हमला इस पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंक कर समाजवाद की ओर बढ़ने की जरूरत को सामने ला रहे है और इस काम में नेतृत्व जो दे सकता है उस मजदूर वर्ग का ऐलान कर रहे है उनकी ऐतिहासिक भूमिका पालन करने के लिये।
                                                              31 मार्च,2020

Sunday, July 7, 2019

ग्रुप पंथ पार्टी और भविष्य


ग्रुप पंथ पार्टी और भविष्य


अनुच्छेद 7(a) –- संपन्न वर्गों द्वारा निर्मित सभी पुरानी पार्टियों के विपरीत, सर्वहारा केवल अपनी विशिष्ठ राजनीतिक पार्टी के बल पर ही संपन्न वर्गों की सामूहिक सत्ता के खिलाफ संघर्ष में एक वर्ग के रूप में पहलकदमी कर सकता है l सर्वहारा की राजनीतिक पार्टी का गठन सामाजिक क्रांति के आखिरी लक्ष्य की जीत, यानी कि वर्गों के उन्मूलन के लिये अपरिहार्य है l आर्थिक संघर्ष के आधार पर हासिल किये गए मज़दूर वर्ग के गठबंधन को मजदूर वर्ग द्वारा शोषक राजनीतिक सत्ता के खिलाफ संघर्ष में एक प्रभावशाली साधन की तरह इस्तेमाल करना चाहिए l [अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर संघ की नियमावली का प्रस्ताव, सितम्बर, 1871] वर्ष 2017, भारत: मज़दूर वर्ग की पार्टी मौजूद नहीं है, जिसका मतलब है कि मज़दूर वर्ग उसकी खुद की पार्टी में संगठित नहीं है l उसके संघर्षों की ज़रूरतों के लिये मज़दूर वर्ग उसके व्यावहारिक-आर्थिक संघर्षों में से उसकी पार्टी का गठन नहीं कर पाया है l नतीजतन, शासक पूंजीवादी वर्ग की सत्ता के खिलाफ मज़दूर वर्ग असमर्थ है l मगर पूंजीवादी वर्ग के हमले दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे हैं l टुकड़ों में बंटा और बिखरा मज़दूर वर्ग इन हमलों को एक-तरफ़ा झेल रहा हैं l इस हालत में आज के कम्युनिस्ट अलग-अलग ग्रुपों में बंटे हुए हैं l स्वाभाविक है कि (उनके ग्रुपों में सीमित होने की वजह से) वे ज़्यादातर मज़दूर वर्ग से अलग-थलग हो गए हैं l पिछले 40 सालों से ये ग्रुप बारंबार विलीन या विभाजित हो रहे हैं l फिर भी कम्युनिस्टों में गुटों के अस्तित्व का सिलसिला चल रहा है l  
वर्ष 2037, भारत: यही हालात जारी हैं l पार्टी का गठन नहीं हुआ है l तथाकथित कम्युनिस्ट अब भी अपने ग्रुप अस्तित्व से बाहर नहीं निकल पाए हैं l फ़र्क इतना ही है कि तुलनात्मक तौर पर बड़े ग्रुप अब और भी बड़े हुए हैं और वे खुद को पार्टी मानने लगे हैं l दूसरी बात यह है कि मज़दूर वर्ग से अलगाव होने की वजह से उनकी राजनीतिक गतिविधियाँ और मनोकामनाएँ ज्यादा दक्षिणपंथी होने लगी हैं, जो कि 2017 से पहली भी थीं l यह याद रखना ज़रूरी है कि ग्रुप बड़ा होने से वह एक सर्वहारा पार्टी नहीं बनता, न ही कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों को इकठ्ठा कर लेने से कोई संगठन मज़दूर वर्ग का संगठन बनता है l कुल मिलाकर कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों के हालात वैसे ही हैं जैसे कि 60 साल पहले थे l इन हालातों में बदलाव की कोई सम्भावना नज़र नहीं आती l
(टिपण्णी: 20 सालों के बाद क्या होगा यह कहना क्या भविष्यवाणी नहीं है? आरोप मान्य है l मगर इस भविष्यवाणी को ग्रुपों की कुंडली देखकर नहीं बल्कि भूतकाल और वर्तमान का विश्लेषण करके किया गया है l इस भविष्यवाणी में यह मान कर चला गया है कि : (1) राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति में कोई बदलाव नहीं, (2) फैक्ट्री-स्तर के आर्थिक संघर्षों के बावजूद लडाकू मज़दूर पूंजीवादी हमलों के खिलाफ देशव्यापी स्वतंत्र मज़दूर संगठन बनाने तक नहीं पहुँच पाए हैं l)
भारत में फिलहाल दिख रही गुटों की प्रवृत्ति पिछले 40 सालों से पायी जा रही है जब सीपीआई(मा-ले) बिखर गया l ये सही है कि इस बिखराव का स्रोत 1960-70 के दशकों के आखिर में ही शुरू हुआ जब सीपीआई(एम्) और अन्य वामपंथी पार्टियों की सुधारवादी और संशोधनवादी राजनीती के विरोध में कम्युनिस्ट कार्यकर्ता उन पार्टियों से बाहर निकल पड़ें l इनमें से कुछ कार्यकर्ताओं ने सीपीआई(मा-ले) से अलग रह कर छोटे-बड़े ग्रुप  स्थापित किये l मगर वर्तमान ग्रुपों में से ज़्यादातर सीपीआई(मा-ले) से निकलकर बाहर आये हैं l पिछले 40 सालों में ये सारे ग्रुप विलीन होने और विभाजित होने की अनेक प्रक्रियाओं से गुजरते रहे हैं l इस वजह से इन ग्रुपों में पार्टी के गठन के विश्लेषण में ज़्यादातर फ़र्क नहीं आया है l इसी परिस्थिति को हमने शुरुआत में दो अलग कालावधियों का सन्दर्भ देते हुए बताने की कोशिश की है l
लेकिन और खोजबीन करने पर हम एक बड़ा बदलाव देख सकते हैं l यह बदलाव ग्रुप अस्तित्व की राजनीतिक भूमिका में नहीं बल्कि उनके ‘गुणविशेष’ में है l ‘ग्रुप गुणविशेष’ यह आम व्याख्या नहीं है मगर इससे अधिक स्पष्ट व्याख्या के अभाव में हम ‘ग्रुप गुणविशेष’ का प्रयोग कर रहे हैं l हमें इस ‘ग्रुप गुणविशेष’ का स्पष्टीकरण देना ज़रूरी है ताकि इसके बारे में कोई उलझन पैदा न हो l
19वीं सदी के आखिर में जब यूरोप के अलग-अलग देशों में पार्टीयाँ (सामाजिक जनवादी पार्टीयाँ) बनने लगी थीं, तब आन्दोलन में कम्युनिस्ट ग्रुप का अस्तित्व नहीं था l हम आज जो बिखराव देख रहे हैं वह पिछले 40 सालों में, यानि के पिछली सदी के आखिर में जबसे विश्व समाजवादी आन्दोलन के प्रथम अभियान की पराजय हुई है तबसे दिखाई दे रहा है l हालाँकि पार्टी गठन के पूर्व काल में यूरोप में कई सारे ग्रुप संगठन थे जो प्रौड़होन, लासेल, ब्लांकी, इत्यादि की विचारधाराओं पर आधारित थे, जिन्हें मार्क्स ने पंथ का नाम दिया था l ये कम्युनिस्ट ग्रुप नहीं थे l उन्हें समाजवादी पंथों का नाम दिया था जबकि उनका वैज्ञानिक समाजवाद से कोई रिश्ता नहीं था l मार्क्स ने कभी भी इन ग्रुपों को इकट्ठे करके पार्टी बनाने के बारे में नहीं सोचा l उलटे, मार्क्स-एंगेल्स ने हमेशा इन ग्रुपों की संकुचित सोच के खिलाफ संघर्ष किया l फ़िलहाल की चर्चा में स्पष्ट करने के लिये इस इतिहास का फिर कभी विश्लेषण किया जायेगा l
इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे देश के मौजूदा ग्रुपों के बीच राजनीतिक अवस्थिति को लेकर विभिन्नताएँ हैं l यह याद रखना ज़रूरी है कि सीपीआई(मा-ले) के बिखर जाने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के निरंतरता में रुकावटें आयीं, और इस पार्टी-विहीन हालत में कुछ ग्रुप निर्माण हुए l ये भी सही है कि इससे पहले कुछ ग्रुप स्थापित किये गए जो पुराने कम्युनिस्ट और समाजवादी पार्टियों से अलग हुए लेकिन सीपीआई(मा-ले) का हिस्सा नहीं बनें l ये सारे ग्रुप ज़रूर कम्युनिस्ट अस्मिता रखते हैं और इन सब को कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के नाम से जाना जाता है l
स्वाभाविकतः, यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि जिस ऐतिहासिक परिस्थिति में ये ग्रुप उभर कर आये हैं, उसी पैदाइश के विशिष्ठ गुण ने इन ग्रुपों के ऐतिहासिक लक्ष्य और उनके ध्येय (aims and mission) को निर्धारित किया है l मतलब, पार्टी को जारी रखते हुए, अर्थात पिछले 100 सालों की पार्टी अस्तित्व की इतिहास या प्रवृत्ति को जारी रखते हुए (खासकर के तीसरे अंतर्राष्ट्रीय के समय से) ग्रुप अस्तित्व का समापन कर एकीकृत होकर एक नई पार्टी में विलीन होना l  इस नज़रिए से, ग्रुपों को पार्टी गठन के सन्दर्भ में केवल एक संक्रमणकालीन दौड़ की तरह देखा जा सकता है l  इसी को हमने ‘ग्रुप गुणविशेष’ कहा है l अब हम बताएँगे कि किस तरह तथाकथित कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों के इस स्वाभाविक और आतंरिक ‘ग्रुप गुणविशेष’ को गँवा चुके हैं l
इस बात में कोई शक नहीं कि सीपीआई(मा-ले) के बिखर जाने के बाद उभर आये इन ग्रुपों का घोषित लक्ष्य  यही था कि वे पार्टी को पुनर्गठित करना चाहते हैं l इसी वजह से शुरू में वे अपने आप को ग्रुप समझते थे l जिन संगठनों ने खुद को सीपीआई(मा-ले) फलाँफलाँ कहा उन्होंने भी खुद को पार्टी का हिस्सा या पार्टी ग्रुप कहकर संबोधित किया l पहले 5-7 सालों में पार्टी के निर्माण या पुनर्गठन के लिये काफी प्रयास किये गए l मगर वे प्रयास असफल हुए l 1984 में इन सभी ग्रुपों की एक समन्वय समिति बनाने की कोशिश हुई, लेकिन बहुत आगे तक जाने के बावजूद वह कोशिश भी आखिर में असफल हुई l इसके बाद ‘पार्टी ग्रुप’ की संकल्पना पृष्ठभूमि में चली गयी l शायद ग्रुपों को यह अहसास हुआ कि ग्रुपों को विलीन करके पार्टी का गठन नहीं किया जा सकता l उस वक्त पार्टी के एकीकरण के लिये बहुत सारी अडचने आई होंगी l मगर आम तौर पर एक लक्षण दिखाई दे रहा था l गठन के इस प्रयास में हिस्सेदारी लेनेवाले ग्रुपों में, खासकर के बड़े संगठनों में एक प्रवृत्ति थी कि उन्हीं के विचारधारा पर, या राजनीतिक समझ के आधार पर एकीकरण होना चाहिए l जो अनिवार्य/अपरिहार्य था वही हुआ l इस अनुभव से एक बात दिखाई देती है कि  5-10 सालों में सभी ग्रुपों ने अपनी-अपनी समझ को और मज़बूत कर लिया है l इस सन्दर्भ में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि पराजय के बाद की मज़दूर वर्ग आन्दोलन की पीछे हटने की इस कालावधि में, पुराने पार्टियों के विश्वासघात व सीपीआई(मा-ले) की असफलता के पश्चात, मज़दूर वर्ग में पैदा हुई निराशा के स्थिति में सभी ग्रुपों ने उनकी अपनी सोच को शुद्ध मानकर उनकी ही तात्विक राजनीतिक समझ को और ठोस रूप प्रदान कर दिया l असल में, सीपीआई(मा-ले) के बिखर जाने के बाद, कार्यकर्ताओं के अन्दर से उभरनेवाले अनगिनत सवालों को लेकर एक दिशाहीन बिखराव की परिस्थिति पैदा हुई l इस हालत में कार्यकर्ता चंद नेताओं के इर्दगिर्द इकठ्ठा होने लगें l यह स्वाभाविक था कि इन छोटे ग्रुपों के नेताओं को उनके अपने व्यक्तिगत चेतना और मुख्यतः अपने दृष्टिकोण के बल पर पूर्व अनुभव का मूल्यांकन करना पड़ा, विशेषतः वामपंथी  दुःसाहसवाद के विषय में, और उसके द्वारा उन्हें अपने छोटे ग्रुपों की राजनीतिक सोच बनानी पड़ी l दुर्भाग्यवश इन में से ज़्यादातर गुट शुरू से ही मज़दूरों से या तो दूर रहे या उनसे खास रिश्ता न बना पाए, क्योंकि सीपीआई(मा-ले) का मज़दूरों के बीच कोई आधार (base) नहीं था l
वस्तुतः, मज़दूर वर्ग के हितों और मज़दूर वर्गीय राजनीतिक दृष्टिकोण के आधार पर पूर्व अनुभव का वस्तुगत मूल्यांकन और सही सर्वहारा सोच तक पंहुचा जा सकता था l इससे अलग-अलग ग्रुपों की कट्टर राजनीतिक अवस्थितियों को दूर करके ग्रुपों का एकीकरण किया जा सकता था l लेकिन कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों में मजदूर वर्ग की राजनीति के प्रति प्रतिवद्धता का अभाव या कमजोरी रही है और इसकी जड़ें भी सीपीआई(एम) के खिलाफ संघर्ष में विचलन, विकृति और अधूरेपन में रही हैं, अर्थात पुराणी पार्टिओं के सुधारवाद, संशोधनवाद और अवसरवाद के खिलाफ संघर्ष में रही है l
फिलहाल के लिये यह ज़रूरी है कि पुराने वाक़यातों को सामने रखा जाए ताकि हम इन तथाकथित कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों की वर्तमान भूमिका और गुणविशेष को समझ सकें, जिससे हम सही तरीके से अपना मुख्य विषय प्रस्तुत कर सकें l सारांश में, मगर प्रमुखता से, हम कहना चाहेंगे कि 1980 के मध्य में ये ग्रुप कुछ हद तक अलग-अलग तरीके से संगठित होने लगें और उन्होंने अपनी-अपनी राजनीतिक और वैचारिक भूमिका को मज़बूत कर लिया l इस लिहाज़ से, उन्होंने अपनी संकीर्ण/संकुचित भूमिका बना ली और हर किसी ने उसके उभरने के 5-7 सालों में ही खुद को सही मानना शुरू किया, जिस के कारण एक एकीकृत पार्टी की स्थापना में असफलता हुई l इस असफलता की वजह से इन ग्रुपों ने ज़्यादा तीव्रता से खुद को मज़बूत बनाने, बढाने और संगठित करने की प्रक्रिया को मुख्य कार्य बनाने की तरफ धकेल दिया l बहुत सारे विलीनीकरण और विभाजनों के बावजूद यह प्रक्रिया निरंतर चलती रही है l और ज़्यादा जोर पकडे हुए है l नतीजतन देखा गया है कि इन कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों के अपने आप बड़े होने की लक्ष्य में जनाधार बढ़ाने के प्रयास के कारण (आम जनता की चेतना के अभाव में) इन ग्रुपों को मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टियों का दर्ज़ा दिया जा रहा है l सच यह है कि जैसा कि हमने पहले ही कहा है एक कम्युनिस्ट ग्रुप के उभार और अस्तित्व की कारगरता उसके एक पार्टी के साथ विलय में है और यही बात अब पृष्ठभूमी में रह गई है, बल्कि ख़त्म कर दी गई है l अब हमारे सामने एक बड़ा सवाल है l यदि वर्त्तमान में मौजूद ग्रुप अपने उदय के समय के ऐतिहासिक लक्ष्य और अपनी विशिष्टताओ को खो बैठे है तो क्या इन्हें वाकई सच्चे कम्युनिस्ट ग्रुप मना जा सकता है ?
और फिर क्या इनमें से हरेक ग्रुप को पार्टी कहा जा सकता है? सभी मार्क्सवादी जानते है की एक देश में कई कम्युनिस्ट पार्टी नहीं हो सकती है l हाँ किसी समय विशेष पर पार्टी के भीतर कई ग्रुप हो सकते है l आज के कम्युनिस्ट इस बात से अनभिज्ञ नहीं है l और उन्हें यह भी पता है कि ऐसा क्यों नहीं हो सकता है l लेकिन मजेदार बात यह है कि अगर छोटे ग्रुपों को छोड़ दिया जाए तो हम पाएंगे कि उनकी अवस्थिति और क्रियाकलाप एक पार्टी की तरह के है l ऐसे कम से कम दसियों संगठन हैं जिन्होंने भारतीय क्रांति का कार्यक्रम तैयार कर लिया है जोकि एक कम्युनिस्ट पार्टी का काम है l एक संगठन तो स्वयं के कम्युनिस्ट पार्टी होने की घोषणा कर देता है और खुले आम यह दावा करता है कि सीपीआई(मा-ले) के ध्वस्त होने के बाद से इस देश में वही कम्युनिस्ट पार्टी की विरासत को कायम रखे हुए है l अभी फ़िलहाल इस सवाल को एक तरफ रख देंगे कि खुद को एक कम्युनिस्ट पार्टी घोषित करने का दावा कितना तार्किक और सच है l लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अन्य ग्रुपों की राजनीतिक गतिविधियाँ, कार्यशैली और सांगठनिक ढांचा भी ऊपर उल्लिखित संगठनों से कुछ ज्यादा अलग नहीं है l चाहे बात महत्वपूर्ण राजनीतिक या सामाजिक परिघटनाओं पर अवस्थिति की हो, उनके आधार पर जनता के बीच काम करने की हो, चुनावों (विधान सभा और कुछ मामलों में लोक सभा के लिए) में भाग लेने की बात हो, या मजदूरों, किसानों, छात्रों आदि में अग्र संगठन बनाने का विषय हो, पुराणी कम्युनिस्ट पार्टियों की परंपरा में इन सभी के जरिए जनाधार बनाने के लिए काम करने की बात हो—इन सभी मामलों में अन्य तमाम ग्रुपों और ऊपर उल्लिखित तथाकथित पार्टी के बीच कोई बुनियादी फर्क नहीं है l यह एक अजीब तरह का अंतर्विरोध है कि ग्रुप पार्टी की तरह काम कर रहे है l इसमें कोई शक नहीं है एकता के शुरुआती प्रयासों की विफलता के बाद इन ग्रुपों ने अपनी अवस्थिति को संघटित किया है और दूसरी ओर परिस्थितियों की मजबूरी के कारण (अपना जनाधार फ़ैलाने के संकीर्ण हितों के कारण) इन ग्रुपों को यह अंतर्विरोधी अवस्थिति अख्तियार करनी पड़ी है l और इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि वे ग्रुप जितना ज्यादा इस अंतर्विरोध में धंसते जा रहे है, जितना ज्यादा वे पार्टी के तौर पर काम करते जा रहे है, पार्टी गठन का काम उतना ही दूर होता जा रहा है l यहाँ एक और स्पष्टीकरण जरूरी है l कम्युनिस्ट संगठनों के बीच एक सोच मौजूद है कि कम्युनिस्ट शिविर के भीतर संघर्ष के जरिए एक उच्चतर राजनीतिक और विचारधारात्मक एकता हासिल की जाए जो एकीकृत पार्टी के लिए आधार का काम करे l लेकिन एक बड़े सवाल को अनदेखा किया जा रहा है l क्या मजदूर आंदोलनों के साथ समेकन के बिना यह सब संभव है? सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि पराजय के बाद की स्थिति में आज वह आन्दोलन नहीं है जो वैचारिक संघर्ष को जारी रखे, हमारे सामने ठोस रूप में आये, हमें सीखने के लिए प्रेरित करे और सही सर्वहारा अवस्थिति अपनाने में मदद करे l
जो भी हो, एक चीज आज स्पष्ट है l कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों की एकता के जरिए पार्टी गठन की अब कोई गुंजाईश नहीं है l लेकिन क्या इसका अर्थ है कि अब स्वयं वर्ग संघर्ष का ही कोई भविष्य नहीं रह गया है? क्या स्थिति ऐसे ही रहेगी? क्या हमारे भविष्यवाणी सही साबित होगी?
ऐसा नहीं हो सकता है l भविष्य है और वह पूंजीवादी व्यवस्था के श्रम-पूंजी के अंतर्विरोध में निहित है l ऐतिहासिक भौतिकवाद हमें यही सीखाता है l इस सन्दर्भ में यदि हम वर्त्तमान परिस्थिति को सही तरह से
देखकर विश्लेषण करे तो हम पाएंगे कि तात्कालिक भविष्य तो कलकारखानों में बन रहा है जहाँ मजदूरों ने पूंजीपतियों के बढ़ते हमलों का प्रतिरोध करने के लिए अपनी-अपनी फैक्टरियों में अपनी खुद की स्वतंत्र यूनियनें बनाना शुरू कर दिया है l हकीकत में हमें इस बात को समझना होगा कि आज की घडी में वर्ग संघर्ष का भविष्य और मजदूर वर्ग की पार्टी के गठन का भविष्य कम्युनिस्ट क्रांतिकारी संगठनों के हाथों में नहीं है l यह मजदूरों के हाथ में है, खासकर ऐसे संघर्षों में तपकर उभर रहे नेतृत्वकारी मजदूरों के हाथ में है l
अब तक हमने कौशिश की है कि पिछले 40 वर्षों के अनुभवों की रौशनी में कम्युनिस्ट क्रांतिकारी संगठनों की स्थिति को समझा जाए l हम अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास की चर्चा करेंगे और बेशक मकसद वही होगा कि पराजय के बाद के दौर में मजदूर वर्ग में विखराव की मौजूदा स्थिति से कैसे उभरा जाए l पहले तो हमें यह याद रखना होगा की 19वी सदी के उतरार्द्ध से अर्थात (रूस सहित) यूरोपीय देशों में पहली पार्टी (सामाजिक- जनवादी) के गठन के बाद से, खास कर तृतीय अंतर्राष्ट्रीय के प्रभाव में भारत सहित बिभिन्न देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों के गठन के बाद से ऐसी दयनीय, दिशाहीन स्थिति कभी नहीं थी l तृतीय अंतर्राष्ट्रीय और उसके बाद के अनुभव से हम अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी आन्दोलन के प्रथम अभियान की पराजय के कारणों की तलाश कर सकते है l लेकिन पराजय ने हमें जिस रसातल में धकेल दिया है वहां से उठकर भविष्य की दिशा तलाशने के लिए हमें कम्युनिस्ट आन्दोलन के उदय के इतिहास में जाना होगा, प्रथम अंतर्राष्ट्रीय तथा यूरोप में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संघ का इतिहास को देखना होगा l हमें सिर्फ मार्क्स और एंगेल्स की भूमिका पर नहीं बलिकी मजदूरों की स्वतंत्र भूमिका पर ध्यान देना होगा l और मकसद होगा कि आज की विकत परिस्थिति का सामना करने के लिए जरूरी सामग्री जुटाए, सबक निकले और हाँ थोडा अपनी सोच को अद्यतन बनाए l हमें इतिहास की कोई बात वर्त्तमान पर नहीं थोपनी है l हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मजदूरों की व्यवहारिक संघर्ष हमारे सामने अचेतन तौर पर वर्ग संघर्ष की रह देखा देते है l कम्युनिस्टों का काम है कि अपनी वैज्ञानिक सोच से उसे सूत्रबद्ध करे और उसे आगे बढ़ने में मदद करे l आइये उस दौर को देखें—
क.   यह 19 वी सदी में उस वक़्त की बात है जब 1848 की क्रांति की हार के बाद चुप्पी और निराशा के एक दौर के बाद फ़्रांस और जर्मनी सहित यूरोप के तमाम देशों में मजदूरों ने एक बार फिर संघर्ष करना शुरू कर दिया था l वे पराजित क्रांति से यह सीख लेकर खड़े होम्राहे रहे थे कि उन्हें खुद को पूंजीपति वर्ग से अलग कर स्वतंत्र अवस्थिति अख्तियार करनी होगी l ऐसी स्थिति में अगुवा मजदूरों की पहल पर समूचे यूरोप में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संघ की स्थापना हुई l कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास में इसे प्रथम अंतर्राष्ट्रीय के नाम से जाना जाता है l आज सिर्फ हार के बाद के यूरोप में ही नहीं बल्कि समूचे विश्व में मजदूर वर्ग विखराव के स्थिति में पीछे हट रहा है और यहं स्थिति लम्बे समय से जारी है l  ऐसी स्थिति के बीच हाल के वर्षों में  मजदूरों ने मौजूदा संगठनों के बाहर रहकर संघर्षों में खड़ा होना शुरू किया है l
ख.   यह वह समय था जब इन देशों में मजदूर वर्ग की कोई पार्टी नहीं थी l यह इतिहास का वह दौर था जब विभिन्न देशों में पहली बार वे पार्टियाँ बन रही थी जिनमें मजदूर एक वर्ग के तौर पर शामिल थे l और इस लक्ष्य की दिशा में मजदूर संघ ने एक अत्याधिक महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका अदा की l दुर्भाग्यवश पार्टी इतिहास के 150 वर्ष बाद आज हमारे सामने जो कार्यभार है वह पहली नहीं बल्कि एक नई पार्टी बनाने का है जिसे कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुप पिछले 40 सालों में भी पूरा नहीं कर पाए हैं l  
ग.    इस बात का पहले उल्लेख किया जा चूका है कि उस समय मजदूरों के बीच प्राउधन, लासाल आदि के विचारों से प्रभावित अनेक ग्रुप सक्रिय थे जिन्हें मार्क्स और एंगेल्स ने वर्ग संघर्ष के नजरिये से ‘पंथ’ (sect) का नाम दिया था l  आज के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों और उन ग्रुपों के बीच का एक अंतर यह था कि उन ग्रुपों का उदय मजदूर आन्दोलन के साथ हुआ था l मार्क्स ने एक बार टिप्पणी की थी कि प्रूधो, लासाल, ब्लांकी आदि ....का मजदूरों पर अत्याधिक प्रभाव था l इसी कारण और मजदूरों की बड़ी तादाद को मजदूर संघ के भीतर जोड़ने के मकसद से मार्क्स और एंगेल्स को संघ के भीतर और बाहर ‘पंथ’ की मानसिकता के खिलाफ तेज संघर्ष छेड़ना पड़ा था l   
19 वी सदी का अनुभव
1864 में प्रथम अंतरराष्ट्रीय की स्थापना के समय स्वीकृत दस्तावेजों में अनु:छेद 7 (a), जिसका इस लेख के आरंभ में जिक्र किया गया था, शामिल नहीं था l हम सब जानते हैं कि वह दस्तावेज, जिसके आधार पर संघर्षरत और जुझारू मजदूरों की एकता का यह संगठन स्थापित किया गया था, कम्युनिस्ट घोषणापत्र के लेखक कार्ल मार्क्स द्वारा ही तैयार किया गया था और उसका शीर्षक था “अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ के उद्घाटन के समय का संबोधन” l लेकिन यह उल्लेखनीय है कि अपने उस संबोधन में मार्क्स ने पार्टी का सवाल खड़ा नहीं किया था l इसे प्रथम अंतरराष्ट्रीय की स्थापना के सात साल बाद 1871 में आयोजित हेग सम्मलेन में स्वीकृत एक प्रस्ताव के जरिये अनु:छेद 7 (a) के रूप में जोड़ा गया था l इसका क्या कारण था ? यह तो संभव नहीं है कि 1864 में (कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशन के 18 वर्ष बाद) मार्क्स और एंगेल्स को सामाजिक क्रांति के सन्दर्भ में पार्टी की अपरिहार्यता का एहसास नहीं था l इसकी क्या वजह हो सकती है कि जबकि मजदूर संघ द्वारा स्वीकृत प्रस्ताव में मार्क्स ने यह जुडवाया कि संगठन और वर्ग संघर्ष का लक्ष्य सत्ता की प्राप्ति होगा, तथापि उन्होंने इसके लिए अपरिहार्य पार्टी गठन के तात्कालिक कार्यभार का जिक्र नहीं किया l यहीं पर हमें मार्क्स की मार्क्सवादी पहुँच दिखाई देती है l तत्कालीन वास्तविकता के ठोस विश्लेषण के आधार पर मार्क्स को यह समझ आ रहा था कि प्रथम अंतरराष्ट्रीय के गठन के समय यूरोप के मजदूर एक पार्टी के तहत एकजुट होने की स्थिती में नहीं थे l यहां तक कि मजदूरों के संघर्षरत तबकों के अगुवा हिस्सों में भी एक पार्टी की सोच या चाहत दिखाई नहीं दे रही थी l  स्वाभाविक था कि ऐसी स्थिति में उन्होंने अपनी “मार्क्सवादी सोच” मजदूरों पर नहीं थोपी और ऐसा काम उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी किया भी नहीं l इन्होने मजदूरों के आन्दोलन के विकास पर जोर दिया l
मजदूर संघ की स्थापना के समय यूरोप के मजदूर एक पार्टी बनाने के स्थिति में नहीं थे l और इसका एक कारण था कि एक बड़ी तादाद ‘पंथों’ के असर में थी l जैसाकि पहले उल्लेख किया गया है, प्राउधन, लासाल, आदि का उन पर अत्याधिक असर था l  हालाँकि ये नेता समाजवाद की बात करते थे, लेकिन वर्ग संघर्ष और संगठन के मुद्दों पर उनका विरोध था l मार्क्स और उनसे जुड़े मजदूरों की यह स्पष्ट समझ थी कि यदि इन रुझानों को पराजित नहीं किया गया या, दुसरे शब्दों में, मजदूर खुद अपने संघर्षों के अनुभव के आधार पर ऊपर उल्लिखित प्रभाव से उबरने में कायम नहीं हुए, तो मजदूर वर्ग न विकसित हो पाएगा और न ही आगे बढ़ पायगा l और न ही मजदूर वर्ग एक पार्टी के तौर पर एकजुट हो पाएगा l मार्क्स और एंगेल्स ने इसे दोनों ओर से देखा l बोलते को लिखे एक पत्र (23 नवम्बर, 1871) में मार्क्स ने कहा, “ समाजवादी पंथों की व्यवस्था का विकास और सही मायने में मजदूर आन्दोलन का विकास एक दुसरे के विपरीत है”  (मार्क्स एंगेल्स—संकलित रचनाएं, खंड-44, पृष्ठ-252) l इस सन्दर्भ में यदि हम आज की स्थिति पर गौर करें तो हम समझ पाएंगे कि यह वक्तव्य कितना सही है l क्या वर्त्तमान परिस्थिति में यह सच नहीं है कि लंबे समय से कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों की मौजूदगी का कारण पराजय की स्थिति में मजदूर आन्दोलन की चुप्पी है और दूसरी ओर इन्हीं ग्रुपों की मौजूदगी मजदूरों के असली संघर्ष के विकास में बाधा भी है? हालाँकि यह एक सवाल है कि क्या तमाम ग्रुपों के लिए ‘पंथ’ शब्द का इस्तेमाल करना सही होगा ?
प्रथम अंतर्राष्ट्रीय को अपने अस्तित्व के पुरे दौर में इस ‘पंथ’ मानसिकता के खिलाफ लगातार संघर्ष करना पड़ा l वास्तव में  प्रूधो, लासाल, ब्लांकी आदि ने संघ के भीतर अपने-अपने पंथ को स्थापित करने के प्रयास अनवरत जारी रखे l अतः यह स्वाभाविक था कि अंतरराष्ट्रीय ने भी संगठन के भीतर इस विघटनकारी पंथ मानसिकता के खिलाफ लगातार संघर्ष किया l मार्क्स और एंगेल्स ने भी अंतरराष्ट्रीय की नीतियों और गतिविधियों का समर्थन करते हुए अपने आलेखों के जरिए और विभिन्न व्यक्तियों को लिखे पत्रों में इस पंथ मानसिकता की कड़ी आलोचना की और प्रूधो, लासाल, आदि की वर्ग संघर्ष विरोधी अवस्थितियों को ख़ारिज किया l बोलते को लिखे ऊपर उल्लिखित पत्र में कही बातों से यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है l उक्त पत्र में उन्होंने कहा, “अंतरराष्ट्रीय का पूरा इतिहास इन पंथों और नौसीखिया लोगों के खिलाफ सामान्य परिषद के सतत संघर्ष का इतिहास रहा है जो मजदूर वर्ग के असली संघर्ष के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय के भीतर आवाज़ बुलंद करना चाहते है” ( मार्क्स एंगेल्स, संकलित रचनाएं, खंड-44, पृष्ठ-252) l यह कहना सटीक होगा कि सामान्य परिषद् के भीतर की यह लड़ाई यूरोप के तत्कालीन मजदूर आन्दोलन में ठोस रूप में दिखाई दे रही थी l जब तक अंतरराष्ट्रीय का वजूद रहा यूरोप के तमाम देशों में मजदूर आन्दोलन सामान्य परिषद के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय द्वारा निर्दिष्ट दिशा में आगे बढ़ा l मजदूर भी अधिकाधिक तादाद में अपनी सही वर्गीय अवस्थिति की ओर अग्रसर हुए l इन तमाम पंथों के अनुगामी होने के बावजूद चूंकि मजदूर बुनियादी तौर पर मजदूर होता है, पूंजी-श्रम की अंतर्विरोध के मामले में अपने अनुभव के आधार पर मजदूर अंतरराष्ट्रीय की दिशा में एकजुट हुए और उन्होंने अधिकाधिक तादाद में एकजुट वर्ग संघर्ष में भाग लेना शुरू कर दिया l और इस तरह पंथों के अनुगामी होने के बावजूद मजदूर अपने व्यवहारिक संघर्षों के जरिये इन पंथों के असर से बाहर निकलने लगे, पंथ आन्दोलन कमजोर हुआ और व्यापक मजदूर एकता का आधार बना l ऐसी ही स्थिति में 1871 में अंतरराष्ट्रीय ने अलग-अलग देशों में पार्टियों के गठन की ज़रुरत के बारे में एक प्रस्ताव भी पारित किया l वस्तुगत आन्दोलन के सम्बन्ध में अंतरराष्ट्रीय की यही भूमिका है जोकि हमारे लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण और शिक्षाप्रद है l मार्क्स के शब्दों में, “अंतरराष्ट्रीय की स्थापना इसी लिए हुई थी ताकि समाजवादी या अर्ध-समाजवादी पंथों की जगह संघर्ष के लिए मजदूर वर्ग का एक असली संगठन बने” (वही) l “संघर्ष के लिए मजदूर वर्ग का एक असली संगठन बने” वाक्यांश बेहद अहम है l इस सम्बन्ध में यह याद दिलाना असंगत नहीं होगा कि प्रथम अंतरराष्ट्रीय द्वारा वर्ग संघर्ष का विरोध करने वाले संगठनों और पंथों की विचारधारा के खिलाफ छेड़ी गई लड़ाई अंतरराष्ट्रीय के भंग होने के बाद भी ख़त्म नहीं हुई l अगला 7 से 15 वर्षों तक बढ़ते मजदूर संघर्षों के जरिये  यह संघर्ष जारी रहा और अधिकांश यूरोपीय देशों में पार्टियों के गठन के जरिए इसकी परिणति ठोस सांगठनिक रूप में हुई l यह कहने की ज़रुरत नहीं है कि 1871 में पेरिस कम्यून का उदय, जिसे इतिहास में मजदूर वर्ग का सर्वप्रथम राज्य माना जाता है, कम्यूनवासियों का शानदार संघर्ष और बलिदान और सबसे बढ़कर, इस राज्य द्वारा आर्थिक और सामाजिक संरचनाओं के लिए उठाए गए क्रांतिकारी क़दमों ने यूरोपीय मजदूर वर्ग पर अत्याधिक प्रभाव डाला था और पार्टी निर्माण की प्रक्रिया में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका थी  l और शायद प्रथम अंतरराष्ट्रीय और पेरिस कम्यून के संघर्षों के आधार पर ही एंगेल्स ने यह कहा था कि अगला अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट सिद्धांतों पर ही आधारित होगा l
प्रथम अंतरराष्ट्रीय के अनुभवों की रौशनी में वर्त्तमान परिस्थिति
सर्वप्रथम, यह नोट करने की बात है कि मार्क्स एंगेल्स ने अपनी विचारधारा के आधार पर यूरोप के मजदूरों को संगठित करने की कोशिश नहीं की l उनकी विचारधारा का अर्थ है सर्वहारा की विचारधारा l स्पष्ट है कि उस समय ऐसी परिस्थिति नहीं थी l क्योंकि उस समय तक (विशेष कर 19 वी सदी के छठे और सातवे दशक तक ) यूरोप के मजदूर वर्ग में मार्क्सवाद का पर्याप्त असर नहीं था l इसलिए सर्वहारा विचारधारा या कम्युनिस्ट सिद्धांतों के आधार पर मजदूरों को संगठित करने का अर्थ होता मजदूर वर्ग के सिर्फ एक हिस्से को संगठित करना l और मार्क्स एंगेल्स को बेशक यह मालूम था l इसके विपरीत यह तथ्य कि वे मजदूर संघ के साथ जुड़े और इसमें एक नेतृत्वकारी भूमिका अदा की, यह साबित करता है कि उन्होंने तत्कालीन यूरोपीय मजदूर वर्ग के एकीकृत संगठन और संघर्ष पर बल दिया  l बेशक वे इस संबंध में सचेत थे कि विशिष्ट ऐतिहासिक परिस्थितियों में मजदूरों के व्यापक तबकों में किस तरह की एकता संभव थी और जरूरी भी l अन्यथा मजदूर संघ के मामले में मार्क्स की पहलकदमी और कड़ी मेहनत का कोई स्पष्टीकरण नहीं हो सकता, खास तौर पर ऐसे समय में जब वह एक महत्वपूर्ण सैद्धांतिक कार्य में बुरी तरह दुबे हुए थे l और फिर मजदूर संघ बेशक कही से भी शुरू हुआ हो, 7 वर्ष के दौरान यूरोप के मजदूर वर्ग की एकता नई ऊँचाइयों को छूने लगी और यह कहने की कोई ज़रुरत नहीं है कि यह मजदूर संघ के आन्दोलन के भीतर ही अंतर्निहित था l
 आज हम कहाँ खड़े है ? कम्युनिस्ट आन्दोलन  या वर्ग संघर्ष का गौरवशाली इतिहास आज खोया जा चूका है l पार्टी न होने की स्थिति में मजदूर वर्ग बिखरा हुआ है l पुरानी कम्युनिस्ट पार्टियों के विश्वासघात और अंतरराष्ट्रीय समाजवादी आन्दोलन  की पराजय के सदमे से समाजवाद की परिकल्पना लगभग मिट चुकी है l कम्युनिस्ट आन्दोलन को अब एकदम शुन्य से शुरू करना है और बेशक ऐसा होगा और यह ऊपर उठेगा l ऐसी स्थिति में सिर्फ यही दर्दनाक नहीं है कि कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आज अनेक ग्रुपों में बंटे हुए है बल्कि यह कि आज वे मजदूर वर्ग से अलग-थलग पड़े हुए है, जबकि मजदूर वर्ग और उत्पीडित जनता की भारी तादाद पूरी तरह से शासक वर्गों के प्रभुत्व तले रौंदी जा रही है l शोषण और उत्पीडन लगातार बेलगाम रफ़्तार से गहराता जा रहा है l ऐसे समय पर वर्ग संघर्ष के हित में ज़रूरी है कि देशव्यापी स्तर पर मजदूर वर्ग की एकता बने—ऐसी संघर्षकारी एकता, जो पूंजीपति वर्ग के हमलों का वाकई सामना कर सके l लेकिन अगर कम्युनिस्ट ग्रुपों की ऊपर से एकता हो भी जाती है तो भी यह काम असंभव है l इसके अलावा कम्युनिस्ट सिद्द्फ्हंतों के आधार पर मजदूर वर्ग की देशव्यापी एकता की कल्पना नहीं की जा सकती है क्योंकि यह काम सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी अर्थात असली मजदूर वर्गीय पार्टी के नेतृत्व के तहत ही किया जा सकता है l इसलिए आज विद्यमान स्थिति में बड़ा सवाल यही है कि क्या आज के कम्युनिस्ट अपने-अपने सांगठनिक हितों की अलग-थलग पड़ी चहार दिवारी से बाहर निकलने के इच्छुक हैं, क्या वे अपनी आत्म-तुष्टि की इस भावना से बाहर निकलेंगे कि “हमनें कम्युनिस्ट आन्दोलन को जीवित रखा है”? क्या वे 19 वी सदी में अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ के अनुभवों के सबकों की रौशनी में अलग तरह से सोचने के लिए इच्छुक है?
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संघ (एसोसिएशन) बनाने में मजदूरों की भूमिका

हमें याद रखना चाहिए कि मार्क्स और एंगल्स ने अपनी ज्ञान और व्यक्तित्व की शक्ति का इस्तेमाल
 मजदूर एसोसिएशन के निर्माण हेतु योजना बनाने और यूरोप के तत्कालीन, गुवा, जुझारू मजदूरों को  लामबंद करने के लिए नहीं किया था। मार्क्स और एंगल्स की मौजूदगी के बिना ही यूरोप के विभिन्न देशों के मजदूरों ने स्वंय ही संपूर्ण यूरोप में काफी हद तक एक संयुक्त केंद्रिय संगठन बनाने में पहल की थी। जहां तक ज्ञात है, एंगल्स की वजह से और विशेष रूप से उनके अनुयायी और लंबे समय के साथी रहे एकेरियस के जोर देने पर ही मार्क्स ने संगठन के निर्माण में केवल अंतिम चरण में ही भाग लिया था। और शायद वे शीघ्र ही वर्ग संघर्ष के भावी विकास के संदर्भ में इसके अंतर्निहित महत्व और आवश्यकता को समझ गए थे। इसके बाद से हमने एसोसिएशन में उनकी सक्रिय भूमिका देखी जो कि अब कम्युनिस्ट इतिहास का हिस्सा बन चुका है। दूसरा, भले ही इस एसोसिएशन को तीन अंतरराष्ट्रीयों में प्रथम अंतरराष्ट्रीय माना जाता है, लेकिन फिर भी यह कम्युनिस्ट सिद्धांतों पर आधारित नहीं था। आज हम सभी, जो तीसरे अंतरराष्ट्रीय के विचारों में पले बढ़े हैं, मजदूर संगठनों और संघर्ष के विषय में, यहां तक कि ट्रेड यूनियन संघर्ष के बारें में भी, कम्युनिस्ट पार्टी/संगठन की नेतृत्वकारी भूमिका और सचेत हस्तक्षेप के बिना कल्पना नहीं कर सकते हैं, हमारे लिए पहला अंतर्राष्ट्रीय केवल एक खिचड़ी संगठन लग सकता है जिसमें विभिन्न विचारधाराओं के मजदूर (पंथों सहित) शामिल थे। यह आश्चर्यजनक लगता है कि मार्क्स ने ब्रिटिश मजदूर संघ को इस संगठन में लाने के लिए बहुत अधिक प्रयास किया था और इसमें वे कामयाब भी हुए थे। ऐसे खिचड़ी संगठन (निस्सन्देह मजदूर संगठन) में नेतृत्वकारी भूमिका निभाते हुए मार्क्स एंगल्स ने अथक रूप से काम किया। निस्सन्देह इस खिचड़ी संगठन ने मजदूर आंदोलन में एक महान ऐतिहासिक भूमिका निभाई है जिसकी हमने कुछ समय पहले चर्चा की थी।
पंथ की अभिलाक्षणिक विशेषताएं
19वीं शताब्दी में यूरोप के मजदूर आंदोलन के विभिन्न पहलुओं से हमें क्या सबक निकालने चाहिए, और किस तरह से आज उसकी प्रासंगिकता है, इस बारे में हम बाद में चर्चा करेंगे पहले कुछ अन्य चीजों को संक्षेप में स्पष्ट करने की आवश्यकता है। पंथों से हमारा क्या अभिप्राय है? पंथों की अभिलाक्षणिक विशेषताएं क्या होती है? आइए हम मार्क्स और एंगल्स के विभिन्न वक्तव्यों से इसका उत्तर खोजने का प्रयास करें।
13 अक्टूबर 1868 को श्वीट्जर को लिखे एक पत्र में मार्क्स ने इस विषय पर स्पष्ट रूप से अपनी राय व्यकत की है। पत्र में एक जगह उन्होंने लिखा है, "आपके पास स्वयं पंथ आंदोलन और वर्ग आंदोलन के बीच के अंतर्विरोध का व्यक्तिगत अनुभव है। पंथ अपने अस्तित्व और सम्मान के विषय को इस रूप में नहीं देखता है कि वर्ग आन्दोलन के साथ उसकी क्या समानता है बल्कि वह उस पहचान चिन्ह पर विशेष बल देता है जो उसे वर्ग आन्दोलन से भिन्न रूप में दर्शाता है ।" (मार्क्स एंगल्स की संकलित रचनाएं,खंड-43, पृष्ठ -133, मूल में तिरछे अक्षरों में)। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रूधो, लासाल, ब्लांकी  आदि के अपने अपने पहचान चिन्ह थे...जो भिन्न-भिन्न थे। यहां  वास्तव में राजनीति में उनके विभिन्न राजनीतिक वक्तव्यों और अवस्थितियों के बारे में चर्चा करने की न तो कोई गुंजाइश है और न ही आवश्यकता। लेकिन हम एक उदाहरण के माध्यम से उनके पहचान चिह्न या अवस्थितियों के संबंध में उनकी समानता को समझ पाएंगे। 1850 के दशक में, खासकर 1848 की क्रांति की विफलता के बाद, पूंजीपतियों के हमलों से निपटने हेतु संगठित होने के आवश्यकता के चलते मजदूरों ने अपनी क्षणिक निराशा से बाहर आ कर यूनियन संगठन बनाने शुरू कर दिए। प्रूधो और अन्यों ने मजदूर आंदोलन की प्रगति से खुद को अलग कर लिया और किसी भी तरह के मजदूर संगठन के गठन का विरोध किया। उन्होंने मजदूरों के ट्रेड यूनियन संघर्ष को भी नकार दिया। दरअसल 1848 के बाद के काल में वे मजदूर वर्ग के सामान्य आंदोलन में प्रारंभिक ट्रेड यूनियन के आंदोलन और संगठन का महत्व और आवश्यकता को स्वयं के लिए एक वर्ग के बतौर संगठित होने की परिप्रेक्ष्य में समझने में नाकाम रहे, जिसकी परिणति  प्रथम अंतरराष्ट्रीय के गठन मैं हुई।  इसके विपरीत तथाकथित "मजदूरों के हित" के नाम पर आंदोलन का विरोध करते हुए उन्होंने मजदूर आंदोलन के बाहर से बनाए गये अपने व्यक्तिपरक विचारों को मजदूरों पर थोपने का प्रयास किया। इस संदर्भ में यह याद रखना चाहिए कि प्रारंभिक चरणों में उनके विचारों का मजदूरों पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा। और इसके कारण, मार्क्स और एंगल्स को, निश्चित रूप से प्रथम अंतरराष्ट्रीय को, पंथ मानसिकता के खिलाफ एक कठोर संघर्ष करना पड़ा। मार्क्स ने लासाल के बारे में जो कुछ कहा, उससे पंथ के सिद्धांत स्पष्ट हो जाते है, "वे प्रूधो की तरह की गलती कर गए, जो वर्ग आंदोलन की मूलवस्तु में अपने आंदोलन का वास्तविक आधार तलाशने की बजाए आंदोलन के लिए एक ऐसा रास्ता पेश करना चाहते थे जो एक एकदम अव्यवहारिक, पंड़िताऊ सिद्धांत से निर्धारित किया गया था।" (जोर हमारा है, मार्क्स एंगल्स की संकलित रचनाएं, खंड-43, पृष्ठ -133,)
19वीं सदी के अनुभव के सबक से और मार्क्स और एंगेल्स के वक्तव्यों से हमारे सामने एक बुनियादी सवाल प्रस्तुत होता है कि क्या मजदूर आंदोलन या वर्ग संघर्ष किसी दूसरें के विचारों द्वारा दिखाये गये या निर्देशित मार्ग पर आगे बढ़ेगा या फिर पूंजी––श्रम अंतर्विरोध से उत्पन्न संघर्ष की व्यवहारिक जरूरतों से अपना रास्ता तय करेगा (जो कि स्थितीनुसार अलग अलग रूप ले सकता है)? ऐसे वक्तव्यों के पीछे की अवधारणा मसलन कम्युनिस्ट संघर्ष का निर्माण करते हैं' का अर्थ यह है कि मजदूर संघर्ष सैद्धांतिक अवस्थिति के प्रभाव के तहत उत्पन्न होते हैं और विकसित होते हैं, या कहें कि कम्युनिस्ट नेताओं की नीतियों और विचारों पर निर्भर करते हैं।  इस तरह के विचार का एकांगी भाव (अर्थात--कम्युनिस्ट संघर्ष का निर्माण करते हैं) द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के कम्युनिस्टों में देखा गया है, जिनकी चरम अभिव्यक्तियां भाकपा(सीपीआई) और भाकपा(एम) में थी। दुर्भाग्यवश आज के कम्युनिस्ट अर्थात कम्युनिस्ट क्रांतिकारी इस विरासत को अलग-अलग परिमाण में ढोह रहे हैं। मान लीजिए अगर दस कम्युनिस्ट की सोच एक साथ यहां पहुँचती है कि वर्ग संघर्ष उन विचारों के अनुसार आगे बढ़ेगा और विकसित होगा जिस विचार या पंथ को उन्होंने व्यक्तिगत रूप से खोजा है (निस्सन्दे एक ही स्रोत से--तथाकथित मार्क्सवादी-लेनिनवाद) और परिणामस्वरूप यदि दस अलग अलग विचारों को मजदूरों पर थोपा जाता है, तो फिर क्या आप कल्पना कर सकते हैं इससे क्या पैदा होगा? इसके उल्टे, मार्क्सवाद हमें बताता है कि मजदूरों द्वारा वास्तविक आवश्यकताओं के लिए किए गए व्यावहारिक और अपरिहार्य संघर्ष और कार्यवाहियां हमारे सामने ऐतिहासिक रूप से वर्ग संघर्ष का पथ प्रकट करते हैं और प्रस्तुत करते हैं। कम्युनिस्टों की सचेत भूमिका है आंदोलन को संशोधनवाद व अवसरवाद के चंगुल से मुक्त करते हुए समाजवाद की दिशा में विकसित करना। चेतना, दर्शन व विज्ञान (मार्क्सवादी सिद्धांत) और वास्तविकता के समावेश से बढ़ती है।
उद्धरणों की अधिकता से अपना आलेख के बोझिल होने की आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए भी हम इस मुद्दे पर एंगल्स के वक्तव्य का उल्लेख टाल नहीं सकते हैं। यह बताने की आवश्यता नहीं है कि मार्क्स ने जिसे संघर्ष का तत्व कहा है वह किसी का आत्मगत विष्कार नहीं है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है यह मजदूरों की कार्रवाई में वास्तविक संघर्ष के भीतर अंतर्निहित है। एंगल्स स्पष्ट रूप से निवास का प्रश्न (द हाउसिंग क्वश्चन) लेख में व्यक्त करते हैं, "मुल्बर्गर जवाब देता है कि जहां तक लातीनी श्रमिकों का सवाल है," प्रूधो द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत कमोबेश सभी जगह आंदोलन की "प्रेरक शक्ति" हैं।"  "मैं इससे इनकार करता हूँ। सबसे पहले, मजदूर वर्ग आंदोलन की "प्रेरक शक्ति" दूर दूर तक कहीं भी "सिद्धांतों," पर निर्भर नहीं है बल्कि हर जगह बड़े पैमाने पर उद्योगों के विकास और इसके प्रभाव, और एक तरफ पूंजी के संचयन और केन्द्रीकरण पर और दूसरी तरफ सर्वहारा पर निर्भर है । "(एंगेल्स, निवास का प्रश्न  (द हाउसिंग क्वश्चन) -III, मार्क्स और एंगेल्स चयनित रचनाएं, खंड -2, पृष्ठ-354)। वक्तव्य एकदम स्पष्ट है, एंगेल्स ने इसी लेख में आगे पेरिस कम्यून पर बात करते हुए अपनी इस बात को और सुस्पष्ट किया है,--इसके सभी आर्थिक उपायों में "प्रेरक शक्ति" कोई सिद्धांतों की पोटली नहीं थी बल्कि केवल व्यावहारिक जरूरतें थी" "(वही, जोर हमारा है)।
हमें आशंका है कि कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुप (निश्चित रूप से वे लोग जो इसे पढ़ेंगे ) यहां इस चर्चा को रोकने के लिए कहेंगे। हम खुद ही पंथो के बारें में इस चर्चा को रोक देते। शायद वे सवाल उठाना चाहेंगे कि ---मार्क्स द्वारा उल्लेखित 19वी सदी के पंथों का आज के दौर से क्या संबंध है? क्या उस दौर के पंथ  और आज के कम्युनिस्ट समान हैं? नहीं, निश्चित रूप से समान नहीं हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास के इन दो कालखंडों के बीच 150 साल का अंतराल है । और, उस समय के पंथों के नेताओं ने वर्ग संघर्ष के सिद्धांत को स्वीकारा नहीं था। उन्होंने मजदूरों की राजनीतिक कार्रवाहियों और संगठन का विरोध किया था। उन्हें समाजवादी पुनर्निर्माण के लिए सत्ता पर कब्जे की अनिवार्यता पर विश्वास नहीं था। निस्संदेह आज के कम्युनिस्टों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। लेकिन सवाल कहीं और है। मार्क्स और एंगेल्स ने प्रूधो, लासाल, ब्लाकी आदि के खिलाफ संघर्ष करते हुए जोरदार तरीके से पंथों की अभिलाक्षणिक विशेषताओं का खुलासा किया और आलोचना की... इस सन्दर्भ में  क्या आज के कम्युनिस्ट ग्रुपों में मुख्यतः कोई भिन्नता है? 30-35 वर्ष से अधिक समय से ग्रुप संगठनों का "ग्रुप चरित्र" मजबूत हुआ है, मजदूर वर्ग के हितों को, ग्रुप के हितों के अधीन करने की प्रवृत्ति, ग्रुपों के बीच में आपसी समझ और सहयोग के बजाए विरोधी और विपक्ष और प्रतिस्पर्धा का संबंध होना ग्रुप की विचारधारा और राजनीतिक अवस्थिती पर पवित्र ग्रंथों की तरह दृढ़ रहना और खासकर मजदूरों और जनता के आंदोलन निर्माण के संबंध में प्रत्येक ग्रुप का अपने विचारों और नीतियों से चिपके रहना और उसी लीक (line) पर कार्य करने की कोशिश करना--क्या ये सब पंथ मानसिकता का प्रतिबिंब नहीं है?
यहां एक बात का उल्लेख किया जाना चाहिए। एक विचार बुद्धिजीवियों के बीच में अक्सर सुनाई देता है और मजबूत हो रहा है। मोटे तौर पर कहें तो विचार यह है कि--ग्रुप की स्थिति पूरी तरह से समाप्त होनी चाहिए। सबसे पहले, कोई भी केवल अपनी इच्छा से ऐतिहासिक तथ्य को नकार नहीं सकता है। दुसरे ऐसी सोच गलत है। लेकिन यह एक अलग चर्चा है जिसकी यहां कोई गुंजाइश नहीं है। फिर भी मौजूदा चर्चा की आवश्यकता के लिए एक  को स्पष्ट किए जाने की जरूरत है। वस्तुतः मार्क्स के वक्तव्य का हवाला देते हुए (जहाँ पंथों और मजदूर वर्ग आंदोलन के बीच संबंध में यह कहा गया है-- एक के विकास का मतलब दूसरे की गिरावट है) यह कहा जा सकता है कि पार्टी गठन के इतिहास की शुरुआत के बाद, विशेष रूप से तीसरे अंतरराष्ट्रीय के बाद पंथ ऐतिहासिक रूप से प्रासांगिक हो गए हैं । हम सहमत हैं, लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि दुनिया के पहले समाजवादी आंदोलन की मुहिम की हार के बाद कम्युनिस्ट आंदोलन एक जबरदस्त झटके के साथ पीछे हटा है। यह एक वास्तविकता है कि आज मजदूर वर्ग अपनी पार्टी बनाने की स्थिति में नहीं है। वर्ग संघर्ष की धारा बहुत कमजोर है। मौजूदा वास्तविकता को अनदेखा कर कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के ग्रप अस्तित्व का मूल्यांकन करना बिल्कुल गलत होगा। चलों हम मान लें कि ये ग्रुप निष्क्रिय हो गए या मिटा दिए गए हैं लेकिन दूसरी तरफ पार्टी अभी तक गठित नहीं हुई है। तो क्या आज के कम्युनिस्ट, संभावित कम्युनिस्ट, संगठनात्मक प्रक्रियाओं/प्रणालियों से दूर नहीं हो जाएंगे और अनुशासन से परे व्यक्तियों के स्तर पर नहीं पहुंच जाएंगे? दरअसल मजदूरों के संघर्ष में स्वतंत्र रूप से हार के झटके से उभरने के संघर्ष को जीतने में ग्रुपों की भूमिका एक बाधा के रूप में कार्य करती है, लेकिन दूसरी ओर इसे नकारा भी नहीं जा सकता है कि हार के बाद पार्टी की कमी की स्थिति में ग्रुप कम्युनिस्ट आंदोलन के हितों में अन्य तरीके से सकारात्मक भूमिका निभाते है। हमें दोनों के बीच के द्वंदात्मक संबंध को समझना होगा। स्पष्ट रूप से बोलते हुए, यद्दपि ग्रुपों के भीतर दक्षिणपंथी विचलन (विभिन्न स्तर तक) की एक सामान्य प्रवृत्ति है, फिर भी बुर्जुआ विचारधारा के जबरदस्त हमले व लगभग सर्वव्यापी प्रभुत्व की मौजूदा स्थिति में कम्युनिस्ट विचारधारा ग्रुपों के माध्यम से ही ज़िंदा है। दूसरा, जो ग्रुप मजदूरों के बीच ईमानदारी से काम कर रहे हैं, वे अपनी सीमित क्षमता के बावजूद अगुवा मजदूरों के एक हिस्से को वर्ग चेतना से लैस कर रहे हैं, भले ही बहुत कम संख्या में हो। भावी पार्टी के लिए इसके महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। अंत में, यह दोहराया जाना चाहिए कि ग्रुपों का उन्मूलन सिर्फ किसी की झक पर निर्भर नहीं करता है। बल्कि केवल स्वतंत्र वर्ग संघर्ष का विकास ही इसे किसी मुकाम पर खत्म कर सकता है। मार्क्स का एक वक्तव्य हमें इस बात को समझने में मदद कर सकता है, जहां उन्होंने कहा, "पंथ (ऐतिहासिक रूप से) तब तक उचित हैं जब तक मजदूर वर्ग एक स्वतंत्र ऐतिहासिक आंदोलन के लिए परिपक्व नहीं होता है।" (बोल्ट को पत्र, 23 नवंबर 1871, मार्क्स एंजल्स संकलित रचनाएं, भाग -44, पेज 252)।

पंथों के संदर्भ में (इसके विपरित) मार्क्स ने उनके समकक्ष 'वर्ग आंदोलन', 'मजदूर वर्ग के वास्तविक आंदोलन' शब्दों का प्रयोग किया। दूसरी ओर से देखते हुए उन्होंने वर्ग आंदोलन के संबंध में पंथों की स्थिति की पहचान की। समस्या यह है कि जिस वर्तमान स्थिति में हम लोग रह रहे हैं वहाँ वर्ग आन्दोलन कहाँ हैं? मौजूदा स्थिति में हम किसे वर्ग संघर्ष समझे? यह सच है कि मजदूर वर्ग के संघर्ष का कोई संगठित और ठोस रूप दिखाई नहीं दे रहा है। दुनिया के अन्य देशों की तरह, यहां भी मजदूर अभी तक विश्व समाजवादी आंदोलन की हार के झटके से उबरने में असमर्थ रहे हैं। मजदूर वर्ग अभी भी आम तौर पर पीछे हटने की स्थिति में है। कम्युनिस्ट कई संगठनों में विभाजित और मजदूर वर्ग से कटे हुए हैं। ये वास्तव में सच हैं लेकिन क्या यह स्थिति अनिश्चित काल तक जारी रहेगी? क्या हमने शुरुआत में जो 'पूर्वानुमान' लगाया था वह सच होने जा रहा है? लेकिन इतिहास के नियमों के अनुसार यह नहीं हो सकता है।  ऐसा नहीं हो सकता है कि पूंजी और श्रम के बीच के द्वंद तेज हो जाए लेकिन द्वंद संघर्ष का रूप न ले। हालांकि हार के बड़े धक्के से या विनाशकारी प्रभाव से उबरने में समय लग सकता है लेकिन अंत में मजदूर वर्ग अपने कार्यवाहियों से अनिवार्य रूप से हार के प्रभाव का सामना करने में सक्षम होगा और आने वाले दिनों में हार के बाद लंबे समय से पीछे हटने की अपनी स्थिति को बदल सकेगा। जाहिरा तौर पर  पिछले अनुभव और व्यावहारिक जरूरतों के समावेश से वह ऐसा कर सकता है । अगर हम अंधे नहीं हैं तो हम देख सकते है कि वह समय आना शुरू हो चुका है। वास्तव में, हम देख रहे है कि पिछले 10-12 वर्षों के दौरान कई क्षेत्रों में मजदूरों के खड़े होने की शुरूआत हो चुकी हैं। लगभग 30-35 वर्षों की फैली निराशा और निष्क्रियता पर काबू पाते हुए मजदूरों ने ट्रेड यूनियन स्तरों पर अपनी अपनी फैक्ट्रियों के संघर्षों में खड़े होना शुरू कर दिया है, और वर्तमान समय में ही उनके लिए संभव है।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन संघर्षों में मजदूर, पुराने संगठनों और दलों को छोड़कर स्वतंत्र रूप से अपनी यूनियन बना रहे हैं। ऐसा करते हुए वे पुराने संगठनों द्वारा मजदूरों के बीच बनाए गए विभाजन कों तोड़ रहे हैं । अपनी फैक्ट्री के सभी मजदूरों को एकजुट करते हुए संघर्षों को आगे ले जा रहे हैं। अगर हम पहचानने या समझने में गलती नहीं करते हैं तो हम आगे देख पाएंगे कि उपरी तौर पर अलग-थलग फैक्ट्री आधारित स्वतंत्र संघर्षों के माध्यम से मजदूर अपने पीछे हटने के उस दौर से बाहर आ रहे हैं, जो पराजय के कारण उपजा था। और इसमें से मजदूरों में नई जागृति का दौर पैदा होना शुरू हुआ। मार्क्स द्वारा बताए गए 'असली मजदूर संघर्ष' को वर्तमान स्थिति में इस नई प्रवृत्ति के भीतर ही खोजा जा सकता है, इसे और कहीं नहीं पाया जा सकता है। यह स्पष्ट किया जाना जरूरी है कि हम पिछले 10-12 वर्षों के दौरान हो रहे जिस बदलाव की बात कर रहे हैं वह सिर्फ इतना नहीं है कि मजदूर संघर्ष में उतर रहे हैं, बल्कि मुख्य रूप से यह है कि मजदूर एक हद तक अपने अतीत के अनुभव की समीक्षा करते हुए, अपने स्वतंत्र संगठनों का निर्माण कर रहे हैं, वो भी बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के (कम्युनिस्टों सहित)। यह सच है कि पृथक-पृथक फैक्ट्री आधारित संघर्ष वास्तव में वर्ग संघर्ष नहीं है लेकिन इन संघर्षों के भीतर वर्ग संघर्ष और वर्ग संघर्ष का भविष्य अंतर्निहित है। ये संघर्ष वर्ग आंदोलन के वास्तविक तत्व हैं जिसका जिक्र मार्क्स ने किया था।
हम ऐसा क्यों कह रहे हैं? संक्षेप में इस तरह से कहा जा सकता है। निस्संदेह इन अलग-अलग फैक्ट्री-आधारित संघर्षों में से प्रत्येक अत्याधिक असमान संघर्ष हैं। एक तरफ मालिकों और पुलिस-प्रशासन-सरकार का मजदूरों पर संयुक्त हमला हैं, दूसरी तरफ मजदूर अलग-थलग और अकेले इसके खिलाफ लड़ रहे हैं। परिणामस्परूप, मजदूरों के लिए अपने संघर्षों को आगे बढ़ाना और नतीजे तक पहुँचाना बहुत ही मुश्किल  हो रहा है, या यूं कहे कि लगभग असंभव हो रहा है। बहुत थोडे से अपवाद स्वरुप उदाहरणों को छोड़कर जहां मजदूर जीत पाएं हैं भले ही वे पूरी तरह से न जीते हों, लेकिन उनकी मांगों का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने प्राप्त किया है, सामान्य अनुभव जबर्दस्त चौतरफा हमलों के सामने पीछे हटने का है। असल में, असफलता का अनुभव है। विफलता फिर से वस्तुनिष्ठ रूप से संघर्षशील मजदूरों के बीच में एक तड़प को जन्म दे रही है। विशेष रूप से उनमें जो कारखानों स्तर के व्यावहारिक संघर्षों से जुड़े हैं। यह तरप है पर्याप्त ताकत इकट्ठा करने के लिए और पूंजीपति वर्ग के सर्वव्यापी हमले के खिलाफ प्रभावी ढंग से मुकाबला करने के लिए। संगठित संघर्ष का निर्माण करने हेतु संघर्ष करने के लिए। जो केवल मजदूरों के एकजुट संगठन द्वारा ही संभव है। निस्संदेह मजदूर वर्ग की वर्तमान बिखरी हुई स्थिति में जो इस समय सबसे ज़रूरी है वह है कार्यवाही के सभी स्तरों पर मजदूरों की एकता, जो अंततः मजदूरों का संगठित देशव्यापी संघर्ष करने वाले संगठन बनने की ओर अग्रसर हो। यह कहने का आवश्यकता नहीं है कि संगठित संघर्ष और संगठन का आग्रह जमीनी वास्तविकता से उत्पन्न हो रहा है, विशेष रूप से कहें तो उपरोक्त विफलता के अनुभव से उत्पन्न हो रहा है, न कि किसी के व्यक्तिगत रूप से आविष्कार की गई योजना या नुसख़े से। पिछले 40 वर्षों के अनुभव ने इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्थापित किया है कि कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों की एकता के माध्यम से मजदूर वर्ग की राजनीतिक एकता न केवल एक दूरूह सपना है, बल्कि संघर्ष के लिए प्राथमिक वर्ग एकता की भी गुंजाइश नहीं है। हालांकि हाल ही में कुछ कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों को ट्रेड यूनियन स्तर पर एक अखिल भारतीय संगठन में संगठित होते हुए पाया जा रहा है, संभवतः उनके द्वारा नियंत्रित यूनियनों और स्थानीय स्तर पर मजदूरों के बीच काम करने वाले कुछ अन्य स्थानीय संगठनों को इसमें शामिल किया जा रहा है। हमेशा की तरह से यह पुनः मजदूरों को ऊपर से एकजुट करने का प्रयास है, निश्चित रूप से यह कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों के बीच मौजूद संयुक्त कार्यवाही का एक हिस्सा है। लेकिन वास्तव में अखिल भारतीय मजदूरों को एक संघर्षरत संगठन में एकजुट करने जैसे महत्वपूर्ण कार्यों के संबंध में यह कदम कितना प्रभावी है? पहली बात तो यह कि इन सभी के पास कितनी यूनियनें है खास तौर पर औद्यागिक मजदूरों की? संभवतः यह आंकड़ा हमारे देश की कुल यूनियनों का 0 .01% भी नहीं है। जैसा कि हमने पहले देखा है कि कम्युनिस्ट क्रांतिकारियो के ग्रुप मजदूर वर्ग से कटे हुए हैं। दूसरा, ग्रुपों के बीच मौजूद प्रतिस्पर्धा के सामान्य संबंध संज्ञान में लिए बिना इस प्रयास का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। हालांकि हमें अभी प्रतीक्षा करनी चाहिए और देखना चाहिए कि यह कैसे काम करता है। फिर भी अतीत के अनुभव से एक बात कही जा सकती है कि ऐसी एकता उनके अपने अपने  संगठनात्मक हितों की तो बेहतर सेवा कर सकती है, परंतु संयुक्त वर्ग संघर्ष के लिए आवश्यक मजदूर वर्ग की असली एकता का कारण कतई नहीं हो सकती। वर्ग की विश्वास पात्र एक ऐसे पार्टी की अनुपस्थिति में, ऊपर से इस तरह का कोई भी प्रयास घटकों की संकीर्ण सीमाओं के भीतर ही सीमित रहेगा। किसी को भी मजदूरों की संघर्ष हेतु खुद के स्वतंत्र यूनियन बनाने वाली हालिए प्रवृत्ति को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। अतः जरूरी एकता, प्रारंभिक रूप से संघर्षरत मजदूरों पर निर्भर करती है, खासतौर पर उनके संघर्षों में तपे हुए अगुवा मजदूरों की नेतृत्वकारी भूमिका व स्वतंत्र पहल पर निर्भर करती है। हार के आघात पर काबू पाने व आगे बढ़ने का मार्ग यही है। निर्विवादित रूप से यह पथ न तो आसान और न ही छोटा है। कई उतार-चढ़ावों से होते हुए, कई झटकों का सामना करते हुए मजदूर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। इतिहास ने हमें ऐसी स्थिति में धकेल दिया है। लेकिन यात्रा अभी रुकी नहीं है। एक समय आएगा जब हम देखेंगे कि फैक्ट्री मालिक के साथ पुलिस प्रशासन के प्रत्येक घातक हमले के बावजूद भी नए नए फैक्ट्री मजदूर संघर्ष में उतर रहे हैं, दूसरी तरफ संघर्ष से उभर रहे नेतृत्वकारी मजदूर अगुवा मजदूरों की एकता के बारे में सोच ही नहीं रहे हैं, बल्कि हकीकत में अपने इलाकों में वे इसकी पहल भी कर रहे हैं।
 दुर्भाग्य से कम्युनिस्ट ग्रुप विकसित हो रहे इन मजदूर संघर्षो में अंतर्निहित वस्तुगत प्रवृत्ति को नहीं देख रहे हैं। इसके विपरीत वे अपने अपने संगठनात्मक विचारों और नीतियों के आधार पर वर्ग संघर्ष के निर्माण के विचारों से चिपके हुए हैं। निस्संदेह कुछ संगठन, जो श्रमिकों के बीच अपने काम को अधिकतम महत्व दे रहे हैं वे जिन पर हमले हुए है, उन मजदूरों के समर्थन में, खड़े होकर और अपनी पूरी ताकत से उनके संघर्ष का समर्थन कर रहे हैं। निस्संदेह यह प्रशंसनीय है। लेकिन सवाल इसके पीछे के उद्देश्य से जुड़ा है। यह निर्विवादित है कि फैक्ट्री-आधारित गैरबराबरी की लड़ाई में जबरदस्त हमले के अनुभव से मजदूरों के बीच दो अलग अलग तरह के रुझान बढ रहे हैं। जब नेतृत्वकारी मजदूरों की बर्खास्तगी, छंटनी, अंधाधुंध गिरफ्तारी और प्रबंधन द्वारा मजदूरों के सबसे कमजोर हिस्से को अपने पक्ष मे किए जाने जैसे झटके सामने आते है, तब अक्सर जुझारू और अगुवा मजदूर अपने पीछे हटते हुए संघर्ष को जीवित रखने के लिए, बिना समर्पण के संघर्ष करते हैं, लेकिन तथाकथित निम्न-बुर्जुआ लोकतांत्रिक तत्वों और कुछ मामलों में कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुपों की बाहरी ताकत का सहारा लेते हुए।  वर्तमान समय में जब मजदूरों के संघर्ष एक बार फिर उठने लगे है, लेकिन जमीनी स्तर पर मजदूरों के बीच आधार की गैर-मौजूदगी में दूसरी प्रवृत्ति यह है कि उनके समर्पित संघर्ष के अनुभव के सार- संकलन से रास्ता निकालना। मजदूर, विशेष रूप से अगुवा मजदूर, सचेत हो रहे है कि वास्तव में पूंजीपति-सरकार के गठबंधन के शक्तिशाली हमले का मुकाबला अकेले फैक्ट्री के स्तर के संघर्ष की ताकत के आधार पर करना लगभग नामुमकिन है। और इसका मुकाबला करने के लिए नीचे जमीनी स्तर पर मजदूरों की ताकत को संगठित करने की जरूरत है, कम से कम इलाके के स्तर पर मजदूरों को संगठित करना होगा, जो शुरूआत में संघर्षरत मजदूरों के लिए एकमात्र मदद हो सकती है
वे लोग जो खुद के कम्युनिस्ट होने का दावा करते हैं वे क्या करेंगे? क्या वे अवसरवादी समझौतो के जरिए या दूसरों के सहारे आत्मरक्षा करने के आसान मार्ग की प्रवृत्ति के खिलाफ खड़े होंगे? या इसके विपरीत मजदूरों द्वारा अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के संघर्ष में (जिसके लिए मजदूरों ने शुरुआत में अपनी पुरानी व स्थापित ट्रेड़ यूनियनों को खारिज कर दिया और अपना स्वयं का ट्रेड़ यूनियन स्थापित किया है) उनका समर्थन करेंगे? या फिर तरीकों और साधनों को खोजने के प्रयास करते हुए विवशता से छुटकारा पाने के पुराने तरीकों पर ही खुद को आधारित करेंगे, और मजदूरों के पुनर्जागरण के लिए विभिन्न तरीकों की योजना बनाएंगे, संक्षेप में कहें तो, जैसे वे सोचते है कि कम्युनिस्टों का कर्तव्य संघर्ष को पुनर्जीवित करना है? वस्तुतः यदि वे मजदूरों की चेतना को विफलता के अनुभव से बचाने वाले अभिभावक की मानसिकता से कार्य करते हैं और बड़े पैमाने की एकता के बढ़ते आग्रह को नजरअंदाज करते हैं, तो क्या वे मजदूर वर्ग के आंदोलन के विकास के पक्ष में काम करेंगे या वे उनके रास्ते की रूकावट बन जाएंगे? कम्युनिस्टों को इस सवाल का सामना करना पड़ेगा। हालांकि संघर्षों को पुनर्जीवित करने और मजबूत करने के लिए क्या वर्तमान स्थिति में केवल फैक्ट्री के स्तर के अलग अलग संघर्षो के माध्यम से मजदूरों और फैक्ट्री मालिकों के बीच शक्ति संतुलन को मजदूरों के पक्ष में झुकाया जा सकता है या नहीं इसका खुलासा केवल अनुभव से ही होगा और शायद यह खुलासा हो रहा है।
अंत में, यदि कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुप, विशेष रूप से जो संगठित करने और मजदूर वर्ग को वर्ग चेतना से लैस करने की कार्यभार को प्रमुख महत्व दे रहे हैं, यदि वे खुद पर पंथ होने का आरोप नहीं लेना चाहते हैं, तो उन्हे अपने अपने संगठनों को मजबूत करने और विस्तार करने की दिशा से हटना होगा, मजदूरों पर अपने अमूर्त विचारों को लागू करने (उनका दम घोटने) से पीछे हटना होगा। सबसे ऊपर, उन्हें मौजूदा परिस्थितियों में मजदूरों की एकता की आवश्यकता के उद्देश्य को समझने के लिए सचेत और सक्रिय भूमिका निभानी होगी। निश्चित रूप से संघर्षरत मजदूर के भीतर के संभावनाशील हिस्से को वर्ग सचेत बनाने के कार्य को और राजनीतिक अभियान, दोनों को साथ साथ एक ही समय में जारी रखना होगा।

(for a proletarian party अक्टूबर-दिसम्बर 2017 अंक से)