Tuesday, July 8, 2025

             साम्राज्यवाद और तीसरी दुनिया के बड़े बुर्जुआ

                            अपूर्व सेनगुप्ता                     

 

क्या वैश्वीकरण के इस दौर में साम्राज्यवाद के चरित्र में कोई बदलाव आया है या वह वैसा ही बना हुआ है जैसा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1960 और 70 के दशक में था? क्या साम्राज्यवादी उत्पीड़न के तरीके में कोई बदलाव आया है? अगर हाँ, तो वह क्या है? क्या भारत जैसे ‘तीसरी दुनिया के देशों’ के बड़े बुर्जुआ वही बने हुए हैं या उनमें भी बदलाव आया है? हमें साम्राज्यवादी पूंजी और ‘तीसरी दुनिया के देशों’ के बड़े बुर्जुआ के बीच के रिश्ते को किस तरह से देखना चाहिए? कम्युनिस्टों को राष्ट्रीय मुक्ति के सवाल पर किस तरह से विचार करना चाहिए? ‘साम्राज्यवाद और राष्ट्रीय मुक्ति’ शीर्षक से एक संकलन में ऐसे कई सवालों पर अलग से चर्चा करने की कोशिश की गई है। यह संकलन मई, 2022 में प्रकाशित हुआ है। हालाँकि, इस संकलन के लेख हिंदी 'लाल सलाम' पत्रिका में प्रकाशित कुछ लेखों के अंग्रेजी अनुवाद हैं, जो 2003 से 2005 के बीच प्रकाशित हुए थे। जिस तरह से 'लाल सलाम' पत्रिका ने पुरानी पारंपरिक सोच से परे जाकर नए तरीके से सवालों को उठाने की कोशिश की है, वह वाकई सराहनीय है। इस संकलन के माध्यम से, उन्होंने वास्तव में इन मामलों पर गहन चर्चा के रास्ते खोले हैं। हम वर्तमान लेख के माध्यम से उस प्रक्रिया में एक भूमिका निभाने का प्रारंभिक प्रयास करने की कोशिश कर रहे हैं। हालाँकि, एक समस्या है। मूल लेख लगभग बीस साल पहले लिखे गए थे। तो क्या इस समय उनके बयानों के बारे में चर्चा अप्रासंगिक है? हमें ऐसा नहीं लगा क्योंकि अंग्रेजी अनुवाद का संकलन केवल दो साल पहले प्रकाशित हुआ था। इस कारण यह माना जा सकता है कि लेखों में प्रकाशित बयानों को वे अभी भी उतना ही प्रासंगिक मानते हैं। इसके अलावा, उन्होंने कई मुद्दों पर कुछ सामान्य विश्लेषण या बयान प्रस्तुत किए हैं, जिन पर भी विचार करने की आवश्यकता है। इस संकलन में लेख विभिन्न विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते हैं। एक पाठ में सभी विचारों पर चर्चा करना संभव नहीं है। इसलिए हम केवल कुछ मुद्दों पर चर्चा करने का प्रयास करेंगे। हमें उम्मीद है कि यह लेख एक व्यापक और अधिक व्यापक चर्चा का मार्ग प्रशस्त करेगा।

'आर्थिक नव-उपनिवेशवाद'

इस संकलन में भारत सहित अधिकांश 'तीसरी दुनिया' के देशों को 'आर्थिक नव-उपनिवेश' [नोट 1] के रूप में संदर्भित किया गया है। संकलन में सबसे पहले लेख का नाम 'Imperialism Today’ [साम्राज्यवाद आज] है। उस लेखन की शुरुआत में ही, वर्तमान दुनिया को 'आर्थिक नव-उपनिवेशवादी दुनिया' [Economic Neo-colonial world] कहा गया है। निबंध इस कथन से शुरू होता है, "कुल मिलाकर, पिछले दो दशकों में अस्तित्व में आए आर्थिक नव-उपनिवेशवादी विश्व की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं" (संदर्भ 1)। फिर यह साम्राज्यवाद द्वारा उत्पीड़ित देशों को दो भागों में विभाजित करता है, कहता है, "साम्राज्यवाद और उत्पीड़ित राष्ट्रों/देशों के बीच विरोधाभास भी दो भाग हैं। पहले वे देश हैं जो आर्थिक नव-उपनिवेशवाद के चरण में प्रवेश कर चुके हैं। दूसरे वे हैं जो अभी भी नव-उपनिवेशवादी उत्पीड़न के शिकार हैं। . . . दूसरे प्रकार के देश संख्या में कम और छोटे हैं। अधिकांश देश पहली श्रेणी के हैं” (संदर्भ 2)। एक अन्य लेख स्पष्ट करता है कि भारत किस श्रेणी में आता है, “भारत, मिस्र, मैक्सिको, ब्राजील जैसे देश इस श्रेणी में आते हैं और उनके लिए सही पारिभाषिक शब्द आर्थिक नव-उपनिवेश है” (संदर्भ 3)

हमने पहले मार्क्सवादी-लेनिनवादी साहित्य में 'आर्थिक नव-उपनिवेश' या 'आर्थिक नव-उपनिवेशवाद' जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं देखा है। हमने पहले साम्राज्यवाद द्वारा उत्पीड़ित देशों को उपनिवेश और आश्रित देश के रूप में संदर्भित होते देखा है (जैसा कि 1920 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के दूसरे सम्मेलन के लिए राष्ट्रीय और औपनिवेशिक प्रश्न पर लेनिन के मसौदा प्रस्ताव के अनुच्छेद 3 में है) (संदर्भ 4)। हम उपनिवेश, अर्ध-उपनिवेश या यहां तक ​​कि नव-उपनिवेश जैसे शब्दों से परिचित हैं। लेकिन, मार्क्सवादी-लेनिनवादी साहित्य में हमें कभी भी 'आर्थिक नव-उपनिवेश' शब्द देखने को नहीं मिला। बेशक, इसे वहां होना ही नहीं चाहिए। क्योंकि, लाल सलाम के लेख में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि, "पिछले दो दशकों में जो आर्थिक नव-उपनिवेशवादी दुनिया अस्तित्व में आई है..." (संदर्भ 1)। चूँकि लेख 2003-05 के बीच लिखे गए थे, इसका मतलब है कि उनके 'आर्थिक नव-उपनिवेशवाद' का यह चरण 1980 के दशक से विकसित हुआ है। फिर, यह शब्द शास्त्रीय मार्क्सवादी-लेनिनवादी साहित्य में कैसे मौजूद होगा?

बेशक, सिर्फ़ इसलिए कि यह पारिभाषिक शब्दाबली मार्क्सवादी-लेनिनवादी साहित्य में पहले इस्तेमाल नहीं किया गया था, ये कोई तर्क नहीं हो सकता है कि यह अब इस्तेमाल नहीं किया जा सकेगा। यदि वास्तव में साम्राज्यवाद का एक नया चरण शुरू होता है और उस समय साम्राज्यवाद द्वारा उत्पीड़ित देशों को पुरानी श्रेणियों के अनुसार ठीक से पहचाना नहीं जा सकता है, तो नई शब्दावली का उपयोग करना पड़ सकता है। हालाँकि, चूँकि यह शब्दाबली नया है, इसलिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि 'आर्थिक नव-उपनिवेश' शब्दाबली से उनका क्या अभिप्राय है, और साम्राज्यवादी दुनिया में क्या बदलाव हुए हैं जिसके कारण इस नए शब्दाबली  का उपयोग करना ज़रूरी हो गया है।

'आर्थिक नव-उपनिवेश' क्या है?

आर्थिक नव-उपनिवेश से उनका क्या अभिप्राय है ? इस प्रश्न का उत्तर संकलन के प्रथम लेख में वर्णित विशेषताओं में पाया जा सकता है। पहली विशेषता के रूप में वे कहते हैं, "तीसरी दुनिया के अधिकांश देश राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हैं। यद्यपि साम्राज्यवादी उनकी राजनीतिक स्वतंत्रता पर निरंतर दबाव डालते हैं, लेकिन यह मूलतः कायम है।" दूसरी विशेषता के रूप में वे कहते हैं, "इन्हें लूटने और यहाँ से अत्यधिक लाभ कमाने के लिए साम्राज्यवाद द्वारा नियोजित मुख्य साधन प्रत्यक्ष राजनीतिक शासन (उपनिवेश) या अप्रत्यक्ष राजनीतिक नियंत्रण (अर्ध या नव-उपनिवेश) नहीं बल्कि आर्थिक हैं" (संदर्भ 1, मोटे अक्षर हमारे)। उन्होंने यहाँ एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है।

उनके इस बातों से क्या अर्थ निकाला जा सकता है? साम्राज्यवाद मुख्य रूप से इन देशों को अपने राजनीतिक शासन या नियंत्रण के बजाय आर्थिक साधनों के माध्यम से लूट रहा है या उनका शोषण कर रहा है, जो कि साम्राज्यवाद के इस चरण को पहले के चरणों से अलग करने वाला सबसे महत्वपूर्ण अंतर है और इसीलिए वे सोचते हैं कि इस चरण को 'आर्थिक नव-उपनिवेशवाद' कहा जाना चाहिए। इसे और स्पष्ट रूप से कहें तो, वैश्वीकरण से पहले के दौर में साम्राज्यवाद के लिए राजनीतिक शासन या नियंत्रण शोषण या लूट का मुख्य साधन था और वैश्वीकरण के दौर में शोषण का मुख्य साधन आर्थिक है - ऐसा उनका मत है। लाल सलाम के साथी कह सकते हैं कि वर्तमान दौर में भी उन्होंने साम्राज्यवाद के राजनीतिक नियंत्रण को बाहर नहीं रखा है। यह सही है। विशेषताओं की चर्चा करते हुए उन्होंने उसके बाद कहा, "शोषण का मूल रूप से आर्थिक रूप होने के बावजूद, साम्राज्यवाद तीसरी दुनिया के देशों के खिलाफ राजनीतिक और सैन्य साधनों का उपयोग करने की लगातार कोशिश करता है। खासकर जब कोई खुले तौर पर इसकी व्यवस्था का उल्लंघन करने की कोशिश करता है, तो यह तुरंत और निर्णायक रूप से कार्रवाई करता है" (संदर्भ 1)। या भारत, ब्राजील आदि के बारे में हमने जो उद्धरण पहले दिया था, उसमें उन्होंने यह भी कहा, "साम्राज्यवाद आर्थिक साधनों मुख्य रूप से आर्थिक हथियारों द्वारा उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश करता है। साथ ही यह लगातार उनके कूटनीतिक अलगाव को बढ़ाने और उन्हें राजनीतिक आदेश देने की भी कोशिश करता है। इसमें वह कुछ हद तक सफल भी होता है" (संदर्भ 3)। यानी वे यह कहना चाहते है  कि यद्यपि आर्थिक व्यवस्था ही मुख्य है, फिर भी साम्राज्यवाद ने राजनीतिक नियंत्रण का प्रयास भी नहीं छोड़ दिया।

बिल्कुल सही। लेकिन, इससे उनकी यह बात नहीं बदलती कि साम्राज्यवाद पहले मुख्यतः राजनीतिक साधनों से और अब मुख्यतः आर्थिक साधनों से अति-लाभ कमाता था। और, यहीं पर संदेह पैदा होता है। अति-लाभ प्राप्त करने के दो तरीकों के रूप में राजनीतिक नियंत्रण और आर्थिक शोषण की तुलना कैसे की जा सकती है? क्या यह वजन और लंबाई के बीच की तुलना नहीं है? यानी, दो गुणात्मक रूप से भिन्न चीजें की तुलना नहीं की जा रही है? औपनिवेशिक काल में विकसित देशों द्वारा की गई लूट और साम्राज्यवाद के दौर में साम्राज्यवादी शोषण की तुलना की जाती तो शायद बात अलग होती। उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने राजनीतिक नियंत्रण की तुलना आर्थिक शोषण से की। संदेह यहीं होता है।

आइए इसे चरणबद्ध तरीके से स्पष्ट करें। हम जानते हैं कि आधुनिक साम्राज्यवाद, जिसे लेनिन ने "पूंजीवाद का सर्वोच्च चरण" कहा था, पूंजीवाद के विकास के दौरान ही आया है। आधुनिक साम्राज्यवाद ने पुराने औपनिवेशिक युग के विपरीत, इन देशों से न केवल कच्चे माल की लूट की है। लेनिन ने साम्राज्यवाद-पूर्व पूंजीवाद और साम्राज्यवादी चरण के बीच मुख्य अंतरों में से एक के रूप में बताया, "माल के निर्यात से अलग पूंजी का निर्यात असाधारण महत्व प्राप्त करता है।" (संदर्भ 4)। इसका मतलब है कि साम्राज्यवाद मुख्य रूप से पूंजी निर्यात करके और उस पूंजी को औपनिवेशिक, अर्ध-औपनिवेशिक या आश्रित देशों में निवेश करके देशों का शोषण करता है। उस समय विकसित देशों के पूंजीपतियों को पूंजी निर्यात करने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ा? साम्राज्यवाद की उत्पत्ति की प्रक्रिया को पर्याप्त रूप से समझाते हुए, लेनिन ने दिखाया कि 20वीं सदी की शुरुआत में पूंजीवाद मुक्त प्रतिस्पर्धा के चरण से एकाधिकार के चरण में चला गया। ये एकाधिकार पूंजी एकाधिकार मुनाफे के परिणामस्वरूप अपने हाथों में जमा अधिशेष पूंजी की विशाल मात्रा को लाभप्रद रूप से निवेश करने का कोई तरीका नहीं खोज पाए। यही कारण है कि उस समय से इन विकसित पूंजीवादी देशों की एकाधिकार पूंजीवादी कंपनियों ने अविकसित देशों में अपनी अधिशेष पूंजी निवेश करने के तरीके खोजे। परिणामस्वरूप यूरोप के विकसित पूंजीवादी देशों के बीच यूरोप के बाहर विभिन्न अविकसित देशों में पूंजी निर्यात करने की होड़ शुरू हो गई। अविकसित देशों के कच्चे माल को लूटने और साम्राज्यवादियों द्वारा अपने देशों में उत्पादित वस्तुओं को निर्यात करने की होड़ पहले से ही उनके बीच थी। अब इसमें पूंजी निर्यात करके मुनाफा कमाना भी शामिल हो गया है। इसे आधुनिक साम्राज्यवाद की नींव कहा जा सकता है। इसके लिए उन्होंने पूरी दुनिया को आपस में बांट लिया। संक्षेप में, साम्राज्यवादी देशों के शोषण का मूल तरीका रहा अविकसित देशों में पूंजी निवेश करके श्रमिकों की सस्ती श्रम शक्ति का शोषण करके मुनाफा कमाना।

इसके अलावा, क्या उन्होंने किसी और तरीके से लाभ नहीं कमाया? बेशक कमाया। इसके अलावा, साम्राज्यवादी देशों की पूंजीवादी संगठनों ने बाजार पर एकाधिकार नियंत्रण का लाभ उठाकर अपने देशों में उत्पादित सामानों को उनके मूल्य से अधिक कीमत पर बेचकर और देशों के प्राकृतिक संसाधनों को लगभग बिना किसी कीमत पर लूटकर इन देशों से सुपर-प्रॉफिट भी कमाया है। लेकिन मुख्य तरीका, निश्चित रूप से, पूंजी निवेश करके अधिशेष मूल्य निकालना था। आर्थिक शोषण का यह तरीका आज भी मूल रूप से वही है, यानी पूंजी निवेश करके देश के श्रमिकों का शोषण करके अधिशेष मूल्य निकालना, साम्राज्यवादी शोषण का मूल तरीका है, हालाँकि वैश्वीकरण के दौर में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं।

लेकिन मुद्दा यह है कि पूंजी निर्यात करके अविकसित देशों की सस्ती श्रम शक्ति का शोषण करना साम्राज्यवाद के शोषण का मूल रूप है, जो था और आज भी है। पहले यह राजनीतिक व्यवस्था द्वारा शोषण था, अब यह आर्थिक व्यवस्था द्वारा शोषण है, यह पूरी तरह से गलत बयान है।

इस मामले में, राजनीतिक नियंत्रण की क्या भूमिका है? इन देशों पर राजनीतिक नियंत्रण शोषण का एक स्वतंत्र तरीका नहीं है; एक ओर इन देशों की जनता के प्रतिरोध से तथा दूसरी ओर अन्य साम्राज्यवादी देशों की प्रतिस्पर्धा से इनके आर्थिक शोषण तथा मुनाफे कमाने की तरीका को बरक़रार रखने के लिए राजनीतिक नियंत्रण आवश्यक है। अर्थात् राजनीतिक नियंत्रण तथा आर्थिक शोषण के तरीके दो अलग-अलग - तथा एक-दूसरे के पूरक - चीजें हैं। अपनी स्वयं की निवेशित पूंजी की रक्षा करने तथा उसके शोषण के लिए, या शोषण के क्षेत्र को अनुकूलतम बनाने के लिए राजनीतिक नियंत्रण की व्यवस्था की आवश्यकता है। इसलिए एक की तुलना दूसरे से नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए, विभिन्न पूंजीवादी देशों में अलग-अलग शासन व्यवस्था हो सकती है। कहीं संसदीय लोकतंत्र हो सकता है, कहीं निरंकुश शासन व्यवस्था हो सकती है, कहीं शासन व्यवस्था फासीवादी रूप ले सकती है। लेकिन शोषण हमेशा पूंजीवादी शोषण होता है, जिसका अर्थ है श्रमिकों की श्रम शक्ति का शोषण करके अधिशेष मूल्य निकालना। इसलिए यह कहना बहुत गलत होगा कि शोषण निरंकुश तरीके से हो रहा है या बुर्जुआ लोकतांत्रिक तरीके से। साम्राज्यवाद के साथ भी यही बात है। शासन का तरीका चाहे जो भी हो, चाहे वह उपनिवेशीकरण के माध्यम से हो या 'स्वतंत्र' देशों के लोगों का शोषण हो, शोषण का प्रमुख साधन पूंजी का निर्यात है। द्वितीय विश्व युद्ध से पहले के दौर में साम्राज्यवादी देशों के लिए शोषित और उत्पीड़ित देशों पर अपना राजनीतिक नियंत्रण बनाए रखने के लिए उपनिवेशीकरण सबसे अच्छा तरीका था। बाद में उन्होंने विभिन्न कारणों से दूसरे रास्ते अपनाए या अपनाने के लिए मजबूर हुए। लेकिन, शोषण का तरीका मौलिक रूप से नहीं बदला है।

यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि आर्थिक शोषण और राजनीतिक नियंत्रण साम्राज्यवादी शोषण और उत्पीड़न के दो अभिन्न पहलू हैं। इनमें से कोई भी एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। साम्राज्यवाद के मामले में, आधुनिक साम्राज्यवाद पूंजीवाद के विकास पर आधारित है, सुपर-प्रॉफिट यानी अति-लाभ का तरीका जहां वे पूंजी निवेश करते हैं, हमेशा आर्थिक शोषण होता है केवल राजनीतिक नियंत्रण के साथ साम्राज्यवादी शोषण नहीं हो सकता और, राजनीतिक नियंत्रण के बिना आर्थिक शोषण संभव नहीं है। इसलिए यह कहना कोई तुक नहीं बनता कि साम्राज्यवाद के एक चरण में राजनीतिक नियंत्रण मुख्य कारक है और दूसरे चरण में आर्थिक शोषण मुख्य कारक है।

क्या उत्पादक शक्तियों में असमानता साम्राज्यवादी शोषण का मूल कारण है?

उन्होंने 'आर्थिक नव-उपनिवेश' की एक और विशेषता का भी उल्लेख किया। वह क्या है? वे कहते हैं कि, वर्तमान में, "साम्राज्यवाद अपनी उत्पादक शक्तियों और उनके बीच भारी अंतर के माध्यम से उनका (उत्पीड़ित देशों-वर्तमान लेखक) शोषण करता है। इस तरह वह अत्यधिक लाभ कमाता है"। (संदर्भ 1)। शायद इसी वजह से, उन्हें लगा कि साम्राज्यवाद के लिए राजनीतिक नियंत्रण की आवश्यकता गौण हो गई है। यह बहुत महत्वपूर्ण और गंभीर भी है-- "साम्राज्यवाद अपनी उत्पादक शक्तियों और उनके बीच भारी अंतर के माध्यम से उनका शोषण करता है।" यहाँ पहली बात जो दिमाग में आती है, वह यह है कि क्या पहले साम्राज्यवादी देशों और उत्पीड़ित देशों की उत्पादक शक्तियों में बहुत बड़ा अंतर नहीं था? यह तो साफ़ नज़र आती है कि 19वीं सदी की शुरुआत में जब पूंजीवाद आधुनिक साम्राज्यवाद के चरण में प्रवेश कर गया था, तब उपनिवेश और आश्रित देश, संक्षेप में उत्पीड़ित देश, उत्पादक शक्तियों के विकास में बहुत पीछे थे। प्रत्येक उपनिवेश और आश्रित देश में उत्पादन के सामंती संबंध लगभग पूरी तरह से हावी थे, पूंजीवादी औद्योगिक उत्पादन अनुपस्थित था या भ्रूण अवस्था में या बहुत ही अल्पविकसित अवस्था में था। उसकी तुलना में 'तीसरी दुनिया' के देश अब पहले से कहीं अधिक विकसित हैं। लाल सलाम के लेखकों ने यह भी कहा कि वे देश अब  पूंजीवादी देश बन गए हैं और इन देशों के बुर्जुआ वर्ग भी साम्राज्यवादी पूँजी की कनिष्ठ भागीदार (जूनियर पार्टनर) बन गई हैं। लेकिन इन देशों की उत्पादक शक्तियों के विकास और साम्राज्यवादी देशों के उत्पादक शक्तियों के विकास में बहुत बड़ा अंतर है। यानी यह असमानता पहले भी थी और अब भी है – आज इसमें कोई नया अंतर कहाँ है?

दूसरा सवाल यह है कि क्या पहले या अब, साम्राज्यवाद वास्तव में उत्पादक शक्तियों में ‘बहुत बड़ा अंतर’ के माध्यम से अन्य देशों का शोषण करता है? या, उन्हें शोषण करने की शक्ति कहीं और से मिलती है? उत्पादक शक्तियों में असमानता है, बेशक। यही कारण है कि साम्राज्यवादी देश साम्राज्यवादी बनने में सक्षम हैं और अविकसित देश उनकी तुलना में पिछड़े और कमजोर हैं। अन्यथा, वे शोषण और उत्पीड़न कैसे करेंगे? मजबूत कमजोर पर अत्याचार करता है। लेकिन, यह कहना सही नहीं है कि वे उत्पादकता में भारी अंतर के माध्यम से शोषण करते हैं।

खैर, इसे समझने के लिए थोड़ा और खुलकर देखा जाए लाल सलाम के लेखक उत्पादक शक्तियों में भारी असमानताओं का फायदा उठाकर क्या कहना चाह रहे होंगे? उनका तर्क यह हो सकता है कि साम्राज्यवादी पूंजी उन देशों की उन्नत उत्पादक शक्तियों का उपयोग करके बेहतर और सस्ती वस्तुओं को बेचकर बाजार पर कब्जा करने के लिए उनका शोषण करती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह उनके लाभ का एक तरीका है। यह पूंजीवाद के साम्राज्यवाद में बदलने से पहले की बात है (संदर्भ 5)। लेकिन, वह मुक्त प्रतिस्पर्धा का पूंजीवाद था। उस समय पूंजीपतियों के बीच प्रतिस्पर्धा के कारण, प्रत्येक पूंजीपति को अपनी वस्तु की गुणवत्ता सुधारने और कीमत कम करने का प्रयास करना पड़ता था ताकि वह प्रतिस्पर्धा में टिक सके। इसके लिए उत्पादक शक्तियों का विकास आवश्यक था। लेकिन, साम्राज्यवाद का अर्थ है पूंजीवाद एकाधिकार पूंजी में बदल गया है। और, एकाधिकार पूंजी का अर्थ है प्रतिस्पर्धा के विरुद्ध काम करना। एकाधिकार पूंजी उत्पादक शक्तियों के विकास के अलावा अन्य तरीकों से भी लाभ कमाती है। इसमें बाजार पर अपने एकाधिकार का उपयोग करके वस्तु की कीमत उसके मूल्य से अधिक बढ़ाकर अत्यधिक लाभ कमाना शामिल है। लेकिन, इससे भी बड़ी बात है विभिन्न तरीकों से पूंजी निवेश करके लाभ कमाना। पिछली सदी के आरंभ में लेनिन ने अपनी पुस्तक 'साम्राज्यवाद - पूंजीवाद का सर्वोच्च चरण' में ऐसे कई तरीकों का उल्लेख किया था, जिनका उपयोग आज भी एकाधिकार पूंजी द्वारा अति-लाभ कमाने के लिए किया जाता है। इस युग के एकाधिकारियों ने न केवल उन तरीकों को परिष्कृत किया, बल्कि उत्पादक शक्तियों के विकास के अलावा अतिरिक्त लाभ कमाने के नए तरीके भी ईजाद करते रहे। [नोट 2]

साम्राज्यवादी शोषण का तरीका

क्या हम वर्तमान संदर्भ से कोई प्रासंगिकता रखे बिना बात कर रहे थे? नहीं। चूंकि एकाधिकार पूंजी साम्राज्यवाद की मुख्य विशेषता है, इसलिए साम्राज्यवादी शोषण या लाभ कमाने की अंतर्वस्तु को एकाधिकार लाभ कमाने की विशेषताओं को छोड़कर नहीं समझा जा सकता है। इसीलिए हमें उपरोक्त चर्चा की आवश्यकता थी।

अब, आइए साम्राज्यवादी शोषण के तरीकों की जांच करें और देखें कि क्या साम्राज्यवादी उत्पादक शक्तियों के विकास में असमानता के माध्यम से उत्पीड़ित देशों का शोषण कर रहे हैं। आइए उन तरीकों पर गौर करें जिनसे साम्राज्यवादी शक्तियां विभिन्न देशों का शोषण करते हैं।

एक। ऐसा लगता है कि साम्राज्यवादी देश अपने देशों में बनी वस्तुओं को इन देशों में निर्यात करके इन देशों के लोगों का शोषण करते हैं। लेकिन, इस मामले में, हमें पूंजी का मुख्य बिंदु याद रखना चाहिए कि पूंजीपतियों का मुनाफा सामानों को बेचने से नहीं, बल्कि उन सामानों  का उत्पादन करने वाले श्रमिकों के श्रम से अधिशेष मूल्य निकालने से आता है। पूंजीपति सामानों को बेचकर उस अधिशेष मूल्य को प्राप्त करता है। यानी, यहां पूंजीपति वास्तविक अर्थों में उस देश के लोगों का नहीं, जहां सामान बेची जा रही हैं, बल्कि उस देश के मजदूर का शोषण कर रहा है जहां सामानों को बनाई जा रही हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि अगर सामान  को उसके मूल्य पर बेचा जाता है तो जिस देश में सामान बेची जा रही है, उस देश के खरीदार को उसके पैसे का मूल्य मिल रहा है। इसलिए यहां शोषण का कोई सवाल ही नहीं है।

शोषण यहां भी हो सकता है, लेकिन, यह तभी हो सकता है जब सामान को उसके मूल्य से अधिक कीमत पर बेचा जाए। तब जहां सामान बेची जाएगी, वहां लाभ होगा और वह सुपर-प्रॉफिट है। लेकिन, सामान अपने मूल्य से अधिक कीमत पर कब बेची जा सकती हैं? वह तभी संभव है जब पूंजीपति का बाजार पर एकाधिकार हो। यानी यहां उत्पादक शक्तियों में अंतर महत्वपूर्ण नहीं है, असली मुद्दा बाजार पर एकाधिकार है। बाजार पर एकाधिकार करके ही साम्राज्यवादी पूंजी उत्पीड़ित देशों से लाभ कमाने और उनके लोगों का शोषण करने के लिए सामानों की कीमतें बढ़ा सकती है। अन्यथा, वे केवल सामानों को बेचकर अपने कारखानों में बनाए गए अधिशेष मूल्य को वसूल कर सकते हैं।

दो साम्राज्यवाद का सार पूंजी का निर्यात है। उद्योग में निवेश की जाने वाली पूंजी का लाभ कमाने का तरीका उत्पीड़ित देशों की श्रम शक्ति का शोषण करना है। यहां पूंजी मायने रखती है, उत्पादक शक्तियों का विकास नहीं। और शोषण के अन्य तरीकों में पूंजी निवेश करना भी इसमें शामिल है, जैसे शेयर बाजार में सट्टेबाजी के जरिए लाभ कमाना और कर्ज देना और उस कर्ज पर ब्याज से लाभ कमाना। जाहिर है कि इनमें से किसी का भी उत्पादक शक्तियों के विकास में असमानता से कोई लेना-देना नहीं है।

तो क्या वैश्वीकरण का दौर में उत्पादक शक्तियों की असमानता साम्राज्यवादी शोषण का कारण है?

तो क्या वैश्वीकरण के इस दौर में उत्पादक शक्तियों के विकास में असमानता के जरिए साम्राज्यवादी पूंजी आश्रित देशों में सुपर प्रॉफिट कमा रही है? वैश्वीकरण के इस दौर में भी साम्राज्यवाद का सुपर-प्रॉफिट कमाने का तरीका पहले का जैसे ही है। यानी एक तरफ मूल्य से अधिक कीमत पर सामान बेचना, जो साम्राज्यवादी पूंजी बाजार पर अपने एकाधिकार के कारण कर सकती है और दूसरी तरफ सुपर-प्रॉफिट कमाने का मूल तरीका पहले की तरह ही पूंजी निवेश करके सस्ती श्रम शक्ति का शोषण करना है। यहाँ वे सस्ती श्रम-शक्ति के कारण अधिक लाभ कमाते हैं। यह सही है कि इन देशों में सस्ती श्रम-शक्ति के पीछे का कारण इन देशों की उत्पादक शक्तियों के अल्प-विकास के कारण व्यापक गरीबी और बेरोजगारी है। इस प्रकार उत्पादक शक्तियों के विकास में असमानता को अप्रत्यक्ष रूप से अधिक लाभ का कारण माना जा सकता है। लेकिन, वह कारण वैश्वीकरण से पहले भी मौजूद था। और लाभ कमाने के लिए साम्राज्यवाद के दूसरे तरीके भी हैं--निवेश कंपनियों द्वारा शेयर बाजार में पूंजी निवेश करके सट्टेबाजी के जरिए और भारी मात्रा में ऋण के ब्याज से धन ऐंठने के माध्यम से लाभ करना। इस प्रकार यह और अधिक विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है कि शेयर बाजार में पूंजी निवेश करके या अन्यत्र पूंजी निवेश करके या ऋण पर ब्याज से लाभ कमाकर लाभ कमाने के पीछे उत्पादक शक्तियों के विकास में असमानता कोई कारण नहीं है। ऐसे शोषण के लिए पूंजी की शक्ति की आवश्यकता होती है जो साम्राज्यवादी पूंजी के पास बहुत अधिक मात्रा में होती है।

इसके उपरांत वैश्वीकरण के दौर में साम्राज्यवाद ने शोषण का एक नया रास्ता अपनाया है जिसमें उन्हें प्रत्यक्ष पूंजी निवेश की भी आवश्यकता नहीं है। यह अजीब लग सकता है, लेकिन यह रास्ता उत्तरोत्तर महत्वपूर्ण होता जा रहा है। साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए यह तरीका कहीं अधिक लाभदायक और परेशानी मुक्त है। वह तरीका यह है कि घरेलू कंपनियां उनके लिए उनके द्वारा निर्धारित तरीके से सामानों का उत्पादन करें। चूंकि ये कंपनियां बहुराष्ट्रीय कंपनियों के स्वामित्व में नहीं हैं, इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां कोई न्यूनतम मजदूरी या कोई पीएफ, ग्रेच्युटी, दुर्घटना मुआवजा आदि देने के लिए बाध्य नहीं हैं। सामानों  के उत्पादन के लिए वे जो कीमत चुकाती हैं वह इतनी कम होती है कि स्थानीय कंपनियों को श्रमिकों को बेहद कम वेतन देने के लिए मजबूर होना पड़ता है। लेकिन, बहुराष्ट्रीय कंपनियां उस सामान को अपने बाजार में बहुत अधिक कीमत पर बेचती हैं। हालांकि कीमत उनके अपने देश में उत्पादित वस्तुओं की तुलना में बहुत कम है। एक उदाहरण दिया जा सकता है। स्वीडिश रिटेलर हेन्नेस एंड मौरिट्ज़ (एच एंड एम) बांग्लादेश से टी-शर्ट का निर्माण करवाती है और उन्हें जर्मनी में बेचती है। वे प्रत्येक शर्ट को 4.95 यूरो में बेचते हैं बांग्लादेशी उत्पादक कंपनियों को 1.35 यूरो मिलता है जिसमें से 40 सेंट कच्चे माल (1 यूरो = 100 सेंट) पर खर्च होते हैं। बाकी 95 सेंट बांग्लादेशी मैन्यूफैक्चरिंग कंपनियों के मालिकों, श्रमिकों, बांग्लादेश सरकार के करों और अन्य आपूर्तिकर्ताओं के बीच बांटे जाते हैं। प्रत्येक श्रमिक 10-12 घंटे काम करके 1.35 यूरो कमाता है और इसके लिए उसे प्रति घंटे 250 टी-शर्ट बनानी पड़ती हैं (संदर्भ 6)। इस तरह से बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारी मुनाफा कमा रहे हैं, लेकिन उन्हें उतनी पूंजी नहीं लगानी पड़ रही है जितनी उन्हें अपनी कंपनी शुरू करने में लगानी पड़ती। दोनों तरफ से फायदेमंद है, पूंजी निवेश कम होता है, लेकिन मुनाफा बढ़ता है। इस तरह इस तरीके से हो रहे साम्राज्यवादी पूंजी के शोषण का अंदाजा पूंजी निवेश में नहीं लगाया जा सकता। बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा इस तरह से किए जा रहे शोषण के पीछे कौन सी ताकत है? वह ताकत है बाजार पर उनका एकाधिकार नियंत्रण। साम्राज्यवाद से पीड़ित देशों के मामले में देखा जा सकता है कि आमूलचूल भूमि सुधार के अभाव और साम्राज्यवादी शोषण के जारी रहने के कारण उनकी प्रति व्यक्ति आय बहुत कम है और इसलिए उनके घरेलू बाजार बहुत छोटे हैं। यही कारण है कि इन देशों के पूंजीपतियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा निर्धारित मूल्य पर अपने माल का उत्पादन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। हालांकि, यह अवसर देश की सरकार ने मजदूरों के अधिकारों को छीनकर दिया है ताकि पूंजीपति मजदूरों से बहुत कम कीमत पर काम करवा सकें। अब उत्पीड़ित देशों में यह होड़ मची हुई है कि कौन सा देश साम्राज्यवादियों से ऐसे काम के ऑर्डर हासिल कर सकता है। एक अर्थशास्त्री ने इस होड़ को नाम दिया है, ‘नीचे की ओर दौड़’ (the race to the bottom)। हर देश का शासक वर्ग मज़दूरों की मज़दूरी कम करके ऐसे काम के ऑर्डर पाने की कोशिश कर रहा है। अगर चीन के मज़दूरों की मज़दूरी बढ़ जाती है, तो बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बांग्लादेश या वियतनाम या कभी-कभी भारत भाग जाती हैं। इन सभी देशों के पूंजीपति ऑर्डर तो ले रहे हैं, लेकिन उन्हें तकलीफ़ नहीं हो रही है, बल्कि वे मज़दूरों का शोषण बढ़ाकर मुनाफ़ा कमा रहे हैं। और श्रमिकों ने अपने अधिकारों से वंचित होकर कम मज़दूरी पर ये काम करने को मजबूर हैं। इससे भी ज़्यादा दिलचस्प बात यह है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ जिस तरह का काम करवा रही हैं, वह कम कौशल वाला काम है, जैसे रेडीमेड कपड़े बनाना, जूते बनाना आदि। यहाँ तक कि फ़ोन के मामले में भी इन देशों में कम कौशल वाला काम करवाया जा रहा है। (संयोग से आउटसोर्सिंग सिर्फ यहीं नहीं, बल्कि साम्राज्यवादी पूंजी द्वारा संचालित भारतीय कंपनियों में भी हो रही है। सिर्फ आर्म्स लेंथ कंपनियों के मामले में ही नहीं, इन-हाउस कंपनियों के मामले में भी यही हो रहा है। उदाहरण के लिए मारुति सुजुकी सिर्फ इंजन और पावर-ट्रेन बनाती है। बाकी सारे हिस्से आउटसोर्स किए जाते हैं। कुछ बेलसोनिका बनाती है, कुछ मुंजाल बनाती है। बेलसोनिका या मुंजाल में मजदूरों की मजदूरी भी मारुति सुजुकी से काफी कम है।) हालांकि, यहां भी उत्पादकता का विकास में असमानता का तर्क नहीं टिकता।

क्या वैश्वीकरण की शुरुआत सिर्फ आर्थिक ताकत के बल पर हुई?

तो क्या उत्पादक शक्तियों के विकास में अंतर के बल पर साम्राज्यवादी पूंजी ने उत्पीड़ित देशों में प्रवेश किया और अपना काम शुरू किया? यह भी नहीं कहा जा सकता। पहला, साम्राज्यवादी इस दौर में निर्यात बढ़ाने में इसलिए सफल रहे क्योंकि उन देशों ने आयात कर कम कर दिए। नतीजतन, उन देशों में विदेशी सामानों की बाढ़ आ गई। दूसरा, साम्राज्यवाद का सार पूंजी का निर्यात है। अभी तक हम पूंजी के निर्यात को तीन मुख्य तरीकों से देखते हैं – प्रत्यक्ष विदेशी निवेश या एफडीआई, विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (एफपीआई) और विदेशी ऋण। अब यह कतई नहीं कहा जा सकता कि अर्थव्यवस्था के सामान्य नियमों का पालन करते हुए वैश्वीकरण के दौर में पूंजी का निर्यात बढ़ा है। सामानों के आयात पर प्रतिबंधों की तरह, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दौर में भारत और अन्य नव-स्वतंत्र देशों ने भी अपने देशों की स्वदेशी पूंजी विकसित करने के लिए विदेशी पूंजी निवेश पर कई प्रतिबंध लगाए थे। नब्बे के दशक की शुरुआत से ये प्रतिबंध हटने शुरू हो गए थे। नतीजतन, यह असंभव है कि वर्तमान में कोई ऐसा क्षेत्र हो, जहां विदेशी पूंजी निवेश के लिए महत्वपूर्ण या अहम बाधाएं अभी भी मौजूद हों। इसीलिए इस स्तर पर भारत में साम्राज्यवादी पूंजी की पैठ काफी बढ़ गई। इसी तरह, अन्य देशों में भी इसमें बढ़ोतरी हुई है।

भारत सहित एशिया और अफ्रीका के देशों में विदेशी पूंजी निवेश पर और विदेशी वस्तुओं के आयात पर बाधाएं 90 के दशक में लगभग एक साथ क्यों हटाई गईं ? उस समय ये कदम किसी एक देश द्वारा नहीं, बल्कि सभी तथाकथित तीसरी दुनिया के देशों द्वारा उठाए गए थे। क्या इसका मतलब यह है कि उन सभी देशों के शासक वर्गों ने एक साथ महसूस किया कि विदेशी सामान और विदेशी पूंजी के लिए दरवाजा खोलना उनके लिए अच्छा होगा, और उन्होंने सभी ने एक साथ स्वेच्छा से दरवाजा खोला, और साम्राज्यवादी पूंजी ने दरवाजा खुला पाया और अंदर आ गई?

यह सर्वविदित है कि वैश्वीकरण के कदम अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के दबाव में और आईएमएफ और विश्व बैंक के निर्देशों के अनुसार उठाए गए थे, जो वास्तव में साम्राज्यवादियों द्वारा नियंत्रित हैं। बेहतर होगा कि ये कहें कि उन्होंने 'तीसरी दुनिया' के देशों को अपने दरवाजे खोलने के लिए मजबूर किया। साम्राज्यवाद ने अपने मुनाफे की गिरती दर को बढ़ाने के लिए यह रास्ता अपनाया। उस समय, तथाकथित समाजवादी खेमे के पतन ने अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवादी खेमे के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा कीं। पराजय के परिणामस्वरूप मजदूर वर्ग की अव्यवस्थित और अस्त-व्यस्त स्थिति के कारण, उनके लिए साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के हमले का विरोध करना संभव नहीं था। ऐसी स्थिति में, साम्राज्यवाद ने वैश्वीकरण के नाम पर इन देशों में पूंजी का निर्यात करना शुरू कर दिया। यानी मुख्य रूप से वैश्वीकरण के पीछे साम्राज्यवाद के हित थे और इसका उद्देश्य उन देशों के सस्ते श्रम का उपयोग करके मुनाफ़ा कमाना था और इस तरह साम्राज्यवादी देशों की गिरती हुई मुनाफ़े की दर को बढ़ाना था।

यह भी सच है कि इन सभी देशों में सत्तारूढ़ बड़े बुर्जुआ ने कमोबेश स्वेच्छा से साम्राज्यवाद द्वारा लादे गए इस रास्ते का अनुसरण किया। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वैश्वीकरण का दौर उत्पादक शक्तियों के विकास में अंतर के कारण शुरू नहीं हुआ, बल्कि साम्राज्यवाद की साज़िशों, उनकी शक्ति, उनकी ताकत से शुरू हुआ। और उसके बाद भी, वैश्वीकरण के पूरे दौर में साम्राज्यवाद, खास तौर पर अमेरिकी साम्राज्यवाद, राजनीतिक प्रभाव, दादागिरी और धौंस के ज़रिए विभिन्न देशों में 'आर्थिक सुधार कार्यक्रमों' का अभियान चलाता रहा है, जो साम्राज्यवादी पूंजी और घरेलू बड़ी पूंजी के शोषण को तेज़ करने के लिए उठाए गए चंद कदम भर हैं। वैश्वीकरण के दौर में साम्राज्यवाद की यह धौंस और मनमानी और भी ज़्यादा बढ़ती जा रही है। हर देश की सरकारों और बुर्जुआ पार्टियों के पीछे, मीडिया के पीछे, तरह-तरह के साम्राज्यवादी प्रभाव और चालें चलती रहती हैं। यहाँ तक कि विभिन्न देशों की सरकारों के गठन में साम्राज्यवादियों, खास तौर पर अमेरिकी साम्राज्यवादियों की भूमिका जगज़ाहिर है। और अगर वे उनके निर्देशों को मानने से इनकार करते हैं, तो इसका नतीजा क्या हो सकता है, इसका सबूत इराक, अफ़गानिस्तान और दूसरे देशों में देखने को मिलता है। हाल ही में हुए यूक्रेन युद्ध में भी साम्राज्यवादी हित शामिल हैं। 2014 में यूक्रेन के शासक को बदलने वाले आंदोलन के दौरान, अमेरिका की सहायक विदेश मंत्री विक्टोरिया नुलैंड और यूक्रेन में अमेरिकी राजदूत के बीच प्रसिद्ध टेलीफोन वार्ता हुई, जिसमें नुलैंड ने तय किया कि यूक्रेन का अगला शासक कौन होगा। (संदर्भ 7) ‘अरब स्प्रिंग’ (अरब देशों में 2010 से चलने वाली सरकार विरोधी विद्रोहों ) के दौरान भी हमने देखा कि मिस्र के छात्र-युवाओं के विरोध प्रदर्शनों में अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने चालाकी से किसी ऐसे व्यक्ति को सत्ता में बिठाया जो उनके हितों की सेवा करेगा। भारत में भी हम साम्राज्यवाद के नियंत्रण की ऐसी कई घटनाएं देख सकते हैं। इराक युद्ध के दौरान, हालांकि भारत ने पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्ति की संयुक्त सेनाओं के साथ सीधे युद्ध अभियानों में भाग नहीं लिया था, लेकिन उसे उनके पक्ष में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ा। 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु संधि अमेरिकी साम्राज्यवाद के दबाव में समझौता करने का एक और उदाहरण था। एक और उदाहरण अमेरिकी साम्राज्यवाद के दबाव में ईरान के साथ तेल पाइपलाइन परियोजना से भारत का पीछे हटना है।

यूरोपीय संघ या अन्य शक्तियां भी कम चालाकी नहीं करती हैं। 2007 में बांग्लादेश में हुई एक घटना इसका एक उदाहरण है। जनवरी 2007 में बांग्लादेश में आपातकाल की घोषणा की गई थी। घोषणा से एक दिन पहले ही यूरोपीय संघ के चुनाव निगरानी आयोग ने अपना मिशन वापस ले लिया था। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश में चुनाव कराना संभव नहीं है। बांग्लादेश में चुनाव कराना संभव है या नहीं, इस बात को लेकर यूरोपीय संघ के सिरदर्द क्यों है? सबसे दिलचस्प बात यह है कि सेना के समर्थन से तख्तापलट के जरिए एक कार्यवाहक सरकार स्थापित की गई थी। उस सरकार का मुखिया जिस व्यक्ति को बनाया गया था, वह बीस साल से विश्व बैंक से जुड़ा हुआ था। 2012 में, एक अंतरराष्ट्रीय कानून पत्रिका के लेख में, इस घटना के बारे में लिखा गया था, "शासन को पश्चिमी राजनयिकों का भी समर्थन प्राप्त था, जिनके बारे में कुछ लोगों ने दावा किया था कि वे तख्तापलट में सहायक थे, और सैन्य समर्थित सरकार के नेता अपने कार्यकाल के दौरान उनके साथ निरंतर परामर्श में रहे। पश्चिमी राजनयिकों ने कथित तौर पर राजनीतिक दलों और नौकरशाही के भ्रष्टाचार से निपटने के लिए सेना को "अंतिम उपाय और आवश्यक बुराई" के रूप में देखा। परिणामस्वरूप, यूनाइटेड किंगडम (यानी ब्रिटेन), संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों और विकास एजेंसियों ने बड़े पैमाने पर अधिग्रहण को मंजूरी दी" (संदर्भ 8)।

यूरोपीय संघ का बांग्लादेश पर इतना ध्यान क्यों? क्यों या कहाँ से उन्हें यह अधिकार मिला है कि वे बांग्लादेश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकें? इसका उत्तर इस तथ्य में हो सकता है कि बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इसका रेडीमेड गारमेंट उद्योग है, जो मुख्य रूप से यूरोपीय संघ की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आपूर्ति करता है। प्रत्येक मामले में साम्राज्यवाद की इस मनमानी के पीछे उनके आर्थिक हित या समग्र आर्थिक हित को बनाए रखने के लिए सैन्य प्रभाव बनाए रखने की उनकी रुचि देखी जा सकती है। रूस की नॉर्ड स्ट्रीम गैस लाइन यूक्रेन से होकर गुजरती है, जिसे अगर खोल दिया जाए तो पश्चिमी यूरोप अपने ईंधन के लिए अमेरिका पर कम निर्भर हो जाएगा, इसलिए इसे बंद कर देना चाहिए - क्या यूक्रेन में अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिए यह एक बड़ा कारण नहीं है?

हम यहाँ से दो बातें समझ सकते हैं।

पहला, साम्राज्यवाद इन देशों का शोषण उत्पादक शक्तियों के विकास में अंतर के माध्यम से नहीं करता है। यह दोहराया जा सकता है कि क्या उत्पादक शक्तियों के विकास में अंतर एक कारण नहीं है? बेशक यह एक कारण है। क्योंकि साम्राज्यवादी देश उत्पादक शक्तियों के विकास में आगे हैं, उनके पास पूंजी का भंडार है जिसे वे दूसरे देशों को निर्यात कर सकते हैं। वे उत्पादक शक्तियों के विकास में अंतर के कारण आर्थिक और सैन्य रूप से आगे हैं, जिसके बल पर वे प्रभुत्व दिखा सकते हैं, दूसरों को अपने पैरों तले रख सकते हैं। लेकिन, वे उत्पादक शक्तियों के विकास या उनकी असमानताओं के आधार पर शोषण नहीं करते हैं। वे पूंजी निर्यात के माध्यम से श्रम शक्ति का शोषण करके, वस्तुओं को ऊंचे दामों पर बेचकर एकाधिकार नियंत्रण का उपयोग करके अधिक मुनाफा कमाते हैं, शेयर बाजार में निवेश पूंजी पर सट्टा लगाते हैं, अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में पूंजी निवेश करते हैं और उससे या ऋण पर ब्याज से लाभांश इकट्ठा करते हैं। इसके लिए उन्हें मुख्य रूप से उत्पादक शक्तियों के विकास की शक्ति की आवश्यकता नहीं है, जो चाहिए वह है पूंजी की शक्ति।

दूसरे, वैश्वीकरण के इस दौर में साम्राज्यवादी शोषण के विकास में साम्राज्यवाद के राजनीतिक नियंत्रण ने छोटी भूमिका नहीं निभाई। साम्राज्यवाद का राजनीतिक नियंत्रण, प्रभाव, मनमानी उसके पहले के दौर (यानी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दौर) से कम नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे बढ़ी है या बढ़ रही है। यह अलग-अलग देशों में कम या ज्यादा हो सकता है, लेकिन हर उत्पीड़ित देश में इस दौर में साम्राज्यवाद का प्रभाव, नियंत्रण और हुक्मरानी बढ़ी है। अगर कोई अपनी आँखें मूंद न रखे तो यह देखा जा सकता है कि वैश्वीकरण के दौर में साम्राज्यवाद का राजनीतिक नियंत्रण और हमला किस तरह लगातार बढ़ रहा है। कई अन्य देशों की तरह, भारत की मेहनतकश जनता, जिसमें मजदूर वर्ग भी शामिल है, न केवल बढ़ते साम्राज्यवादी शोषण के अधीन है, बल्कि भारत को जो सीमित राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त थी, वह भी सिकुड़ती और कम होती जा रही है। फिर भी इसे 'आर्थिक नव-उपनिवेश' कहकर क्या साम्राज्यवाद के राजनीतिक नियंत्रण और मनमानी के खतरे को कम करके नहीं आंका जाएगा?

लाल सलाम के अनुसार भारत में साम्राज्यवादी शोषण और नियंत्रण की स्थिति

इससे भी अधिक आश्चर्यजनक बात यह है कि लाल सलाम के साथी यह नहीं देख पा रहे हैं कि वैश्वीकरण के दौर में साम्राज्यवादी पूंजी का शोषण और उसका समग्र प्रभुत्व और नियंत्रण बढ़ा है। उन्हें लगता है कि घरेलू बाजार पर भारतीय पूंजीपतियों की पकड़ कुछ हद तक ढीली हुई है, लेकिन घरेलू बाजार के अधिकांश हिस्से पर अब भी भारतीय पूंजीपतियों का कब्जा है। उनकी अपनी भाषा में कहें तो, "भारतीय पूंजीपति वर्ग की अपने घरेलू बाजार पर पकड़ कुछ ढीली हुई है, उसका बाजार का हिस्सा बेशक कम हुआ है, लेकिन वह अपने घरेलू बाजार से विस्थापित नहीं हुआ है। डब्ल्यूटीओ की स्थापना के आठ साल बाद भी घरेलू बाजार का बड़ा हिस्सा देशी पूंजीपति वर्ग के हाथों में है। या, दूसरे शब्दों में, कम से कम भारतीय बाजार में देशी पूंजीपति वर्ग साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़ा होने में सक्षम है" (संदर्भ 9)। अन्य बातों के साथ-साथ, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि उनका लेख, जिसका हमने हवाला दिया है, मूल रूप से जनवरी 2003 में लिखा गया था, ठीक 20 साल पहले। इसलिए जानकारी पुरानी हो सकती है। लेकिन, ऐसा लगता है कि उन्हें सामान्य निष्कर्ष बदलने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं हुई। क्योंकि अनुवादित लेखों का वर्तमान संकलन मई 2022 में प्रकाशित हुआ था और उस समय उन्होंने इसके अलावा कुछ भी उल्लेख नहीं किया था। न केवल वस्तुओं के बाजार के संदर्भ में, बल्कि पूंजी निवेश के संदर्भ में भी, उन्होंने महसूस किया कि भारत में विदेशी पूंजी की उपस्थिति घरेलू पूंजी की तुलना में बहुत कम है। “हम पाते हैं कि भारतीय मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता की श्रम शक्ति के समग्र शोषण में भागीदारी में वैश्वीकरण के एक दशक बाद भी, भारतीय पूंजीपति वर्ग अभी भी वरिष्ठ भागीदार है जबकि साम्राज्यवादी कनिष्ठ भागीदार हैं। यदि संदर्भ को भारतीय अर्थव्यवस्था तक सीमित न रखकर पूरे विश्व तक बढ़ाया जाए तो हम विपरीत स्थिति पाते हैं। यहां तीसरी दुनिया का पूंजीपति वर्ग कनिष्ठ भागीदार है जबकि साम्राज्यवादी वरिष्ठ भागीदार हैं” (संदर्भ 10)।

एक आत्म-विरोधाभास

उनके कथन के मद्देनजर, पहला सवाल यह उठता है कि फिर भारत एक 'आर्थिक नव-उपनिवेश' कैसे बन गया? आर्थिक दृष्टिकोण से, एक आर्थिक उपनिवेश बनने के लिए भी, साम्राज्यवाद को नियंत्रक या प्रमुख शक्ति की भूमिका निभानी होगी, है न? वे कहते हैं कि भारतीय पूंजीपति बाजार पर कब्जा करने या पूंजी निवेश के मामले में प्रमुख स्थिति में हैं। तो, वे भारत को आर्थिक नव-उपनिवेश कैसे कहते हैं? क्या वे अपनी स्थिति का खंडन नहीं कर रहे हैं?

भारतीय अर्थव्यवस्था में साम्राज्यवादी पूंजी के प्रभुत्व का सवाल

अब आइए उनके तर्क के मुख्य पहलू का विचार करें। क्या यह सचमुच कहा जा सकता है कि साम्राज्यवाद की तुलना में स्वदेशी पूंजी अभी भी भारत में वरिष्ठ भागीदार है? वे कहते हैं कि “घरेलू पूंजीपति वर्ग अभी भी भारतीय बाजार के बहुमत (चार-पांचवें से अधिक) पर काबिज है” (संदर्भ 9)। यह ज्ञात नहीं है कि वे किस प्राथमिक डेटा के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। लेकिन, इस निष्कर्ष के समर्थन में उन्होंने जो डेटा उद्धृत किया है, वह थोड़ा चौंकाने वाला है। उन्होंने कहा, “1990-91 में आयात जीडीपी का 8.2% था। यह 2001-02 तक बढ़कर 10.5% हो गया” (पिछला संदर्भ)। यदि हम जीडीपी की तुलना में आयात भी लेते हैं, तो हम देखेंगे कि जीडीपी की तुलना में आयात धीरे-धीरे बढ़ा है और यह उस 10% में अटका नहीं है। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, आयात वर्तमान में कुल जीडीपी का 23.9% (2021) है, जो कभी बढ़कर 31.3% (2012) हो गया था (संदर्भ 11)। लेकिन, यह भी कोई बड़ी बात नहीं है। क्या देश के बाजार पर विदेशी कंपनियों के नियंत्रण की सीमा को केवल आयात के आंकड़ों से समझा जा सकता है? आयात में केवल विदेशी पूंजीवादी कंपनियों की उन सामानों का हिसाब होता है, जिन्हें वे विदेश में उत्पादित करके इस देश में बेचती हैं। लेकिन, वे जिन वस्तुओं का उत्पादन इस देश में कर रही हैं और देश के बाजार में बेच रही हैं, उनका हिसाब आयात के आंकड़ों में नहीं मिल सकता। क्या यह भी देश के बाजार पर विदेशी सामानों का नियंत्रण नहीं है? जिन कंपनियों में 100 प्रतिशत विदेशी पूंजी है, उन सभी कंपनियों की सामान पूरी तरह से विदेशी पूंजी की उपज हैं। यहां तक ​​कि जहां भी घरेलू और विदेशी पूंजी एक साथ हैं, क्या उसके जरिए भी विदेशी पूंजी देश के बाजार को नियंत्रित नहीं कर रही है? इसका स्पष्ट मात्रात्मक हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है, लेकिन आयात और देश में आने वाली विदेशी पूंजी को ध्यान में रखते हुए, क्या यह कहना उचित नहीं होगा कि विदेशी पूंजी ने देश के बाजार के महत्वपूर्ण हिस्से के एक बड़े हिस्से पर, यदि अधिकांश ना भी हो, नियंत्रण स्थापित कर लिया है?

अब पूंजी निवेश के बारे में बात करते हैं। जैसा कि वे कहते हैं कि देश में अभी भी घरेलू पूंजी मुख्य स्थान पर है? उन्होंने निम्नलिखित जानकारी दी, “भारतीय अर्थव्यवस्था में हर साल कुल पूंजी निवेश लगभग 95-100 बिलियन डॉलर है। रियायतों के बावजूद किसी भी वर्ष में कुल विदेशी पूंजी निवेश 6 बिलियन डॉलर से अधिक नहीं रहा है।” (संदर्भ 10)। यह ज्ञात नहीं है कि उन्हें यह जानकारी कहां से मिली, क्योंकि उन्होंने जानकारी का कोई स्रोत नहीं दिया। भले ही यह सच हो, लेकिन क्या केवल उस जानकारी से भारतीय अर्थव्यवस्था पर विदेशी पूंजी के प्रभाव को समझा जा सकता है? विदेशी पूंजी के नियंत्रण को केवल निवेश के प्रतिशत की गणना करके नहीं समझा जा सकता है। वर्तमान में, एकाधिकार की स्वामित्व संरचना ऐसी है कि केवल अल्पसंख्यक शेयरों के मालिक होने के कारण पूंजीपति कंपनियों को नियंत्रित करते हैं और प्रभावी मालिक बन जाते हैं। यही कारण है कि 1991 से पहले के चरण में, साम्राज्यवादी पूंजी ने बहुसंख्यक स्वामित्व पर कब्जा करने का अवसर न होने के बावजूद विभिन्न एकाधिकार को नियंत्रित किया। इसके अलावा, पिछले 30 वर्षों में लगभग हर औद्योगिक क्षेत्र में भारी विदेशी पूंजी निवेश हुआ है। 1991 से पहले के चरण की तुलना में जहां किसी भी संस्थान में विदेशी निवेश 50 प्रतिशत से अधिक नहीं था, अक्सर बहुत कम, अब कई संस्थानों पर विदेशी पूंजी का पूर्ण नियंत्रण है और इतना ही नहीं, अब कई औद्योगिक संस्थान हैं जो पूरी तरह से विदेशी पूंजी के स्वामित्व में हैं। उद्योग का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहाँ विदेशी पूंजी न आई हो। यह स्पष्ट रूप से देखा जाता है कि ऑटोमोबाइल क्षेत्र, बैंकिंग, मोबाइल फोन, टीवी, वाशिंग मशीन आदि के उत्पाद क्षेत्र, बड़ी खुदरा कंपनियाँ, कंप्यूटर और कई अन्य क्षेत्र लगभग पूरी तरह से उनके नियंत्रण में हैं। हालाँकि घरेलू कंपनियाँ दूरसंचार, बिजली उत्पादन, खनन उद्योग आदि जैसे विभिन्न क्षेत्रों में काम करती हैं, लेकिन वे घरेलू कंपनियाँ तकनीक के लिए पूरी तरह से विदेशी कंपनियों पर निर्भर हैं। वास्तव में कोई भी उन्नत कारखाना मशीनरी विदेशी साम्राज्यवादी संस्थानों द्वारा निर्मित होती है।

अब, हमारे पास पूर्णतः विदेशी स्वामित्व वाली कंपनियाँ हैं क्योंकि अब 100% FDI की अनुमति है। साथ ही हमारे पास ऐसी कंपनियाँ हैं जो भारतीय पूंजी और FDI के साथ संयुक्त उद्यम हैं। 1990 के दशक में स्थापित कई संयुक्त उद्यम अब पूर्ण विदेशी स्वामित्व में चले गए हैं। साइनबोर्ड पर केवल पुराना नाम रह सकता है। इनमें सबसे प्रमुख है मारुति सुजुकी जिसमें भारतीय प्रमोटर की कोई हिस्सेदारी नहीं है। सुजुकी की हिस्सेदारी 56.37% है और विदेशी निवेश संगठन (विदेशी संस्थान) की हिस्सेदारी 21.48% है, दोनों को मिलाकर यहाँ कार्यरत विदेशी पूंजी का प्रतिशत 78.58% है (संदर्भ 12)। इसके अलावा, कई भारतीय कंपनियों में अप्रत्यक्ष विदेशी पूंजी है। ज़ाहिर तौर पर वे पूरी तरह से भारतीय कंपनियों के रूप में प्रतीत होती हैं या जानी जाती हैं, लेकिन विदेशी पूंजी भी शामिल है, और यह शक भी अनुचित नहीं है कि विदेशी पूंजीपति उन कंपनियों के प्रबंधक मंडल को भी नियंत्रन करते हैं टाटा मोटर्स कंपनी का उदाहरण लें। टाटा मोटर्स कंपनी में टाटा समूह की हिस्सेदारी 46.39% है, लेकिन विदेशी निवेशकों की हिस्सेदारी भी 18.15% है। (संदर्भ 13)। महिंद्रा एंड महिंद्रा की स्थिति और भी महत्वपूर्ण है। वहां प्रमोटरों की पूंजी 18.84% है और विदेशी संस्थाओं की पूंजी 38.15% है, जो प्रमोटरों के हिस्से से दुगुनी है (संदर्भ 14)। इस प्रकार विदेशी पूंजी भारत के औद्योगिक और वित्तीय संस्थानों में अच्छी तरह से जमी हुई है।

इसके अलावा, साम्राज्यवादी नियंत्रण का एक और प्रमुख पहलू विभिन्न साम्राज्यवादी-नियंत्रित वित्तीय संस्थानों से उधार लेना है, जो वास्तव में साम्राज्यवादी पूंजी का दूसरा रूप है। इस ऋण की एक भूमिका ऋण के माध्यम से ब्याज वसूल कर देश का शोषण करना है। लेकिन, इस उधार का एक और महत्वपूर्ण पहलू है जो हमने 1991 के आईएमएफ ऋण के दौरान देखा था। इन ऋणों के माध्यम से, साम्राज्यवादी देश ऋणी देशों की राजनीति और अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं।

इस प्रकार, क्या हम वास्तव में सोच सकते हैं कि वैश्वीकरण के माध्यम से विदेशी पूंजी के लिए दरवाजे खोलने के तीस साल बाद भी, साम्राज्यवादी पूंजी इस देश में नियंत्रणकारी स्थिति में नहीं है?

क्या भारत साम्राज्यवादी देशों के बराबर हो रहा है?

भारत का शासक वर्ग, खासकर मौजूदा सरकार, जोर-शोर से यह प्रचार कर रही है कि भारत अब दुनिया के विकसित देशों की कतार में आने वाला है। दुनिया की कई बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सीईओ अब भारतीय मूल के हैं। यहां तक ​​कि अब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी भारतीय मूल के हैं और अमेरिका के उपराष्ट्रपति भी। इस पर मौज-मस्ती करने वाले यह नहीं समझते कि वे चाहे कितने भी भारतीय मूल के क्यों न हों, वे उन साम्राज्यवादी देशों के नागरिक हैं और उन देशों या उन देशों के एकाधिकारवादी पूंजीवादी संगठनों के शीर्ष पदों पर होने के कारण साम्राज्यवादी पूंजी के हितों की देखभाल करते हैं।

हालांकि, इस अभियान में भारतीय शासक वर्ग का सबसे बड़ा हथियार जीडीपी के आंकड़े हैं। जीडीपी से तुलना करने पर वाकई लग सकता है कि भारत विकसित देशों के बराबर पहुंच गया है या पहुंचने वाला है। क्योंकि, विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 2021 में जीडीपी के मामले में चीन दूसरे और भारत पांचवें स्थान पर है। इस तरह से आंकलन करने पर ऐसा लग सकता है कि ये दोनों देश विकसित देशों के बराबर की स्थिति में पहुंच गए हैं (संदर्भ 15)। यही बात भारत का शासक वर्ग लगातार समझाने की कोशिश कर रहा है। और इसका असर शासक दल की बुर्जुआ विपक्षी ताकतों पर भी पड़ता दिख रहा है, जिन्हें लगता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था ने बहुत तरक्की कर ली है और भारतीय पूंजीपति भी साम्राज्यवादी पूंजीपतियों के करीब आ गए हैं।

लेकिन, अगर 1 लाख रुपये मासिक आय वाले दो परिवारों में से एक के सदस्यों की संख्या 2 है और दूसरे के 20, तो क्या दोनों परिवारों की स्थिति बराबर आंकी जा सकती है? स्वाभाविक रूप से नहीं। देशों की अर्थव्यवस्था की तुलना जीडीपी से नहीं की जानी चाहिए, अगर जीडीपी की तुलना करनी है तो प्रति व्यक्ति जीडीपी से की जानी चाहिए। इस मामले में भारत या चीन की स्थिति कहां है? मौजूदा अमेरिकी डॉलर के हिसाब से देखें तो अमेरिका की प्रति व्यक्ति जीडीपी 70,248.6 डॉलर, जर्मनी की 51,203.6 डॉलर, फ्रांस की 43,659 डॉलर, यूनाइटेड किंगडम की 46,510.3 डॉलर और जापान की 39,312.7 डॉलर है। उच्च आय वाले देशों की औसत प्रति व्यक्ति जीडीपी 48,225.2 डॉलर है। इसकी तुलना में भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी 2,256.6 अमेरिकी डॉलर है। इसकी तुलना में चीन की स्थिति काफी बेहतर है, लेकिन वह भी उच्च आय वाले देशों से काफी कम है। चीन की प्रति व्यक्ति जीडीपी 12,556.3 अमेरिकी डॉलर है। भारत का शासक वर्ग जीडीपी के हिसाब से देश को शीर्ष पांच अर्थव्यवस्थाओं में दिखाने की कितनी भी कोशिश कर ले, प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में भारत वास्तव में निम्न-मध्यम आय समूह में आता है (जिसका औसत प्रति व्यक्ति जीडीपी 2,572.7 अमेरिकी डॉलर है) और चीन उच्च-मध्यम आय समूह में आता है (प्रति व्यक्ति औसत जीडीपी 10,828.1 अमेरिकी डॉलर)। (संदर्भ 16)। तुलना इस तथ्य से पूरी होगी कि प्रति व्यक्ति जीडीपी (nominal  यानी वर्त्तमान बाज़ार मूल्यों पर की गई गणना) के अनुसार, देशों की सूची में भारत 139वें स्थान पर है, जो बांग्लादेश से एक कदम नीचे है। (संदर्भ 17)।

ऐसी निम्न आय वाली आबादी के लिए बाजार स्वाभाविक रूप से बहुत संकीर्ण है। इस बाजार पर निर्भर बड़े बुर्जुआ का प्रभाव स्वाभाविक रूप से बहुत कम है । उनके लिए साम्राज्यवादी पूंजी का कनिष्ठ भागीदार बनना संभव है या नहीं, यह एक प्रश्न है। वास्तव में, जो अर्थशास्त्री तीसरी दुनिया के देशों में बहुराष्ट्रीय पूंजीपतियों को साम्राज्यवाद का कनिष्ठ भागीदार बताते हैं, वे भारत के पूंजीपतियों की बात नहीं कर रहे हैं, वे दक्षिण कोरिया, ताइवान या चीन जैसे देशों के पूंजीपतियों की बात कर रहे हैं।

अतिरिक्त मूल्य का बंटवारा

'लाल सलाम' के साथियों ने साम्राज्यवाद और उसके कनिष्ठ भागीदारों के बीच संबंधों के संदर्भ में कुछ ऐसा कहा है, जिसका खंडन किया जाना चाहिए। वे अपने संकलन के पहले लेख में कहते हैं, "साम्राज्यवाद द्वारा तीसरी दुनिया की इस लूट में उसके पूंजीपति साम्राज्यवाद के साथ हैं। वे साम्राज्यवाद के कनिष्ठ भागीदार बन गए हैं और उनके वैश्विक विनियोजन की अधिशेष मूल्य में उन्हें अपनी पूंजी के अनुसार हिस्सा मिलता है।" (संदर्भ 18)।

सबसे पहले, यह कहना बिल्कुल भी सही नहीं है कि तीसरी दुनिया का पूंजीपति वर्ग साम्राज्यवाद का कनिष्ठ भागीदार है। ज़्यादा से ज़्यादा यह कहा जा सकता है कि तीसरी दुनिया के बड़े पूंजीपति या इजारेदार पूंजीपति साम्राज्यवादी पूंजी के कनिष्ठ भागीदार हैं। पूंजीपति वर्ग के भीतर भी अलग-अलग तबके हैं। छोटे और मझोले कारखानों के पूंजीपति भी पूंजीपति वर्ग के ही हैं और यह भी सच है कि साम्राज्यवादी पूंजी के साथ उनका कोई खुला टकराव फिलहाल नहीं है; वे साम्राज्यवाद और बड़े पूंजीपति वर्ग के हित में शासक वर्ग की नीतियों का पूरा समर्थन करते हैं। लेकिन, उन्हें साम्राज्यवादी पूंजी का कनिष्ठ भागीदार नहीं कहा जा सकता।

दूसरा, एकाधिकार पूंजी के युग में अधिशेष मूल्य को पूंजी के शेयरों के अनुसार कभी भी विभाजित नहीं किया जा सकता है। इसका मतलब है कि सभी पूंजीपतियों के पास लाभ की एक ही दर है। यदि ऐसा होता, तो पूंजीपतियों में एकाधिकार की प्रवृत्ति कभी विकसित नहीं होती। एकाधिकार पूंजी बहुत अधिक दर पर शोषण करती है या शोषण करने की क्षमता रखती है। इसके कई कारण हैं जिन पर अलग से चर्चा की आवश्यकता है। लेकिन, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि बाजार और उत्पादन पर उनके एकाधिकार के कारण वे बहुत अधिक दर पर शोषण कर सकते हैं। एक उदाहरण दिया जा सकता है। 2010 में, एप्पल कंपनी ने चीन की फॉक्सकॉन कंपनी से 179 डॉलर की कीमत पर एक आईफोन खरीदा, एप्पल ने उन्हें अमेरिकी खुदरा बाजार में 600 डॉलर प्रति आईफोन बेचा। फॉक्सकॉन को अपनी 78 बिलियन डॉलर की संपत्ति पर 3.6 बिलियन डॉलर का लाभ हुआ, यानी उसका संपत्ति पर 4.6 प्रतिशत की रिटर्न, जबकि एप्पल ने अपनी 207 बिलियन डॉलर की संपत्ति पर 37 बिलियन डॉलर का लाभ कमाया, जो 18 प्रतिशत की दर है (संदर्भ 19)

समाप्त करने से पहले

आइए संक्षेप में उन बिंदुओं को बता दें जिन्हें हम अब तक की चर्चा में उजागर करना चाहते थे।

एक. लाल सलाम के साथी आर्थिक नव-उपनिवेश के बारे में जो कहते हैं वह सही नहीं है। यह कहना भी सही नहीं है कि साम्राज्यवाद एक समय राजनीतिक नियंत्रण के माध्यम से अति-लाभ कमाता है और दूसरे समय आर्थिक शोषण के माध्यम से अति-लाभ कमाता है। साम्राज्यवादी शोषण हमेशा एक आर्थिक प्रक्रिया होती है जिसका सार पूंजी का निर्यात होता है। मूल्य से अधिक कीमत पर माल बेचकर और पूंजी निवेश करके या ऋण से ब्याज लेकर मुनाफा कमाकर भी अति-लाभ कमाया जाता है। इनमें से कोई भी तरीका किसी बिंदु पर दूसरों पर वरीयता ले सकता है। लेकिन, यह नहीं कहा जा सकता कि शोषण के मामले में आर्थिक तरीका मुख्य है या राजनीतिक तरीका मुख्य है। राजनीतिक नियंत्रण और आर्थिक शोषण एक दूसरे के पूरक हैं - दोनों साम्राज्यवाद के अंग हैं।

दो. यह सामान्य रूप से नहीं कहा जा सकता, खासकर वैश्वीकरण के दौर में, कि साम्राज्यवादी शोषण उत्पीड़ित देशों और साम्राज्यवादी देशों की उत्पादक शक्तियों के विकास में 'बहुत बड़ा अंतर' से प्रेरित है। उत्पादक शक्तियों के विकास में असमानता के कारण ही साम्राज्यवादी देश अविकसित देशों की तुलना में अधिक विकसित बने हैं। इसी से उनकी पूंजी की ताकत और आर्थिक तथा सैन्य शक्ति के रूप में उनका प्रभुत्व पैदा होता है। लेकिन, उनका शोषण उत्पादक शक्तियों के विकास की असमानता के साथ नहीं होता है, उनका शोषण जिस तरह से होता है उसका उत्पादक शक्तियों के विकास से कोई लेना-देना नहीं है। बल्कि, साम्राज्यवाद उत्पादक शक्तियों के विकास में एक पतनशील चरण का प्रतिनिधित्व करता है, जो उनके शोषण के तरीके में परिलक्षित होता है। साम्राज्यवाद के आर्थिक शोषण का राज मुख्य रूप से राजनीतिक और सैन्य शक्ति के प्रभुत्व पर टिका हुआ है।

तीन. वैश्वीकरण के तीस वर्षों के बाद यह नहीं कहा जा सकता है कि घरेलू पूंजीपति मूल रूप से भारत के घरेलू बाजार पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने में सक्षम हैं। यह सच है कि घरेलू बड़ी पूंजी दलाल पूंजी नहीं है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि वैश्वीकरण-पूर्व चरण के बाद से साम्राज्यवादी पूंजी पर भारतीय बड़ी पूंजी की निर्भरता बहुत बढ़ गई है। कुल मिलाकर, भारतीय अर्थव्यवस्था पर साम्राज्यवादी नियंत्रण पहले से कहीं अधिक है, और इसके साथ ही राजनीतिक नियंत्रण भी बढ़ा है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मजदूरों और किसानों सहित मेहनतकश जनता का साम्राज्यवादी शोषण और भी तीव्र और व्यापक हो गया है। अगर हम इसके प्रति सचेत नहीं होंगे तो हम मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता के अगुआ को साम्राज्यवाद के खतरों से ठीक से अवगत नहीं करा पाएंगे और हम कम्युनिस्टों के रूप में अपनी भूमिका नहीं निभा पाएंगे।

'लाल सलाम' पत्रिका ने कई अन्य सवाल उठाए थे जिन पर अभी कोई राय नहीं दी जा सकती। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमने मूल रूप से इस बात पर चर्चा की कि 'लाल सलाम' पत्रिका का विश्लेषण कहां सही नहीं है। अब सवाल यह रह गया है कि क्या वैश्वीकरण के सामने साम्राज्यवाद बदल गया है और मौजूदा दौर में आगे क्या बदलाव होने के संकेत मिल रहे हैं। हम इस पर बाद में चर्चा करना चाहते हैं।

 

नोट्स :

1. इन लेखों में बार-बार तीसरी दुनिया के देशों का जिक्र किया गया है। लेकिन, इस सवाल पर चर्चा नहीं की गई है कि किन देशों की पहचान तीसरी दुनिया के देशों के रूप में की जा रही है और कैसे। तीसरी दुनिया शब्द का इस्तेमाल पहले दो अर्थों में किया जा चुका है। इसका इस्तेमाल कभी-कभी पहली दुनिया को एक तरफ अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी खेमे से, और दूसरी दुनिया को सोवियत रूस के नेतृत्व वाले तथाकथित समाजवादी खेमे से, जिसमें चीन जैसे देश शामिल हैं, के साथ तुलना करने के लिए किया जाता है - इन दोनों दुनियाओं के विपरीत अविकसित देशों की तीसरी दुनिया। तीसरी दुनिया को इस तरह से देखना तब भी सही नहीं था, अब इस तरह का विभाजन करना तर्कहीन है। दूसरी ओर, माओत्से तुंग ने इस अर्थ में विभाजन किया - पहली दुनिया को अमेरिका और रूस के साम्राज्यवाद से, दूसरी दुनिया को अन्य उन्नत पूंजीवादी देशों से और तीसरी दुनिया को अविकसित देशों से, जिसमें चीन भी शामिल है। क्या वर्तमान समय में ऐसे विभाजनों का कोई औचित्य है? दूसरी बात, अगर आज पूरी दुनिया तीन दुनियाओं में बंटी हुई है, तो यह स्पष्ट करना जरूरी है कि तीसरी दुनिया से किन देशों का मतलब है? एक समय में, कई लोग तीसरी दुनिया शब्द का इस्तेमाल साम्राज्यवाद से पीड़ित देशों के लिए करते थे, क्या उनका मतलब यही था? उस स्थिति में, अगर इन देशों को साम्राज्यवाद से पीड़ित माना जाए, तो उन्हें मिलने वाली राजनीतिक स्वतंत्रता की सीमा पर सवाल उठता है। हालाँकि, इस लेख में हमने उन देशों को साम्राज्यवाद से पीड़ित देश माना है और उनकी पहचान इस तरह की है।

2. इस प्रवृत्ति को लेनिन ने पूंजीवाद का परजीवी चरित्र कहा था। हम सभी को शायद साम्राज्यवाद - पूंजीवाद का सर्वोच्च चरण पुस्तक के वे शब्द याद होंगे, "साम्राज्यवाद का सबसे गहरा आर्थिक आधार एकाधिकार है। यह पूंजीवादी एकाधिकार है, यानी एकाधिकार जो पूंजीवाद से निकला है और जो पूंजीवाद, माल उत्पादन और प्रतिस्पर्धा के सामान्य वातावरण में, इस सामान्य वातावरण के साथ स्थायी और असमाधेय विरोधाभास में मौजूद हैं। फिर भी, सभी एकाधिकार की तरह, यह अनिवार्य रूप से गतिरोध और क्षय की प्रवृत्ति को जन्म देता है। चूँकि एकाधिकार मूल्य स्थापित होते हैं, भले ही अस्थायी रूप से, तकनीकी और, परिणामस्वरूप, अन्य सभी प्रगति का प्रेरक कारण एक निश्चित सीमा तक गायब हो जाता है और, इसके उपरांत, तकनीकी प्रगति को जानबूझकर धीमा करने की आर्थिक संभावना पैदा होती है। ... निश्चित रूप से, पूंजीवाद के तहत एकाधिकार कभी भी पूरी तरह से और बहुत लंबे समय तक विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धा को खत्म नहीं कर सकता है। निश्चित रूप से, तकनीकी सुधारों को शुरू करके उत्पादन की लागत को कम करने और मुनाफे को बढ़ाने की संभावना परिवर्तन की दिशा में काम करती है। लेकिन गतिरोध और क्षय की प्रवृत्ति, जो एकाधिकार की विशेषता है, काम करना जारी रखती है, और उद्योग की कुछ शाखाओं में, कुछ देशों में, कुछ समय के लिए, यह प्रभुत्व प्राप्त करती है। (संदर्भ 20)।

References

 

1)    Imperialism today, from Imperialism and National liberation, Collection of Essays, Page-1, bold – present author- Farahara Prakashan

2)    Same as above, page -7 , bold – present author

3)    Twenty-First century and National Question, from Imperialism and National liberation, Collection of Essays, P-114

4)    “Draft thesis on National Colonial question”, Lenin Collected works, Vol-31, P-146

5)    “Imperialism, The highest stage of capitalism”, Lenin Collected works, Vol-22, P-266

6)    We have even seen its mention in the Communist Manifesto.  “The bourgeoisie, by the rapid improvement of all instruments of production, by the immensely facilitated means of communication, draws all, even the most barbarian, nations into civilisation. The cheap prices of commodities are the heavy artillery with which it batters down all Chinese walls, with which it forces the barbarians’ intensely obstinate hatred of foreigners to capitulate..” Manifesto of the Communist Party, Marx and Engels, Collected Works, Vol.  6, P - 488.

7)    The China Price, Tony Norfield, Imperialism in the Twenty-First Century, quoted in John Smith, P- 13).

This incident is available in many news sources.  A detailed description of the role of the United States and Western imperialist powers in the events of Ukraine at that time can be found in the following text:

A US-Backed, Far Right–Led Revolution in Ukraine Helped Bring Us to the Brink of War

https://jacobin. com/2022/02/maidan-protests-neo-nazis-russia-nato-crimea

8)    When corruption is an emergency: “Good Governance” Coups and Bangladesh, Nick Robinson & Nawreen Sattar, Fordham International Law Journal, Volume 35, Issue 3 2012, page 750.

9)    On the Character of the Indian Bourgeoisie, Imperialism and National Emancipation, P-100.

10)   On the Character of the Indian Bourgeoisie, Imperialism and National Emancipation, P-101.

11)   https://data.worldbank.org/indicator/NE.IMP.GNFS.ZS?locations=IN Accessed on March 17, 2023.  (It may be mentioned here that the data of World Bank is different from the data given by them.  According to the data of World Bank, the ratio of imports to GDP in 2002 was 15. 2%.  It is quite a bit higher than the data given by them.  )

12)   EconomicTimes,  https://economictimes.indiatimes.com/maruti-suzuki-india ltd/shareholding/companyid-11890. cms

13)   Economic Times,    https://economictimes.indiatimes.com/tata-motors-ltd/shareholding/companyid-12934.cms

14)   Economic Times,   https://economictimes.indiatimes.com/mahindra-mahindra-ltd/shareholding/companyid-11898.cms

15)   https://data. worldbank. org/indicator/Ny. Gdp. Mktp. Cd? most_recent_value_desc=true

16)https://data.worldbank.org/indicator/NY.GDP.PCAP.CD?end=2022&start=2022&view=map

      The data given in the article was taken from this source when it was accessed during writing of the article. The corresponding data may have changed now slightly but that does not alter the general picture. 

17)https://en.wikipedia.org/wiki/List_of_countries_by_GDP_(nominal)_per_capita the information given in the article has changed somewhat last time when the website was accessed, i.e., 22nd May, 2024, but does not change the general conclusion. Now the position of India in the list is 136, 3 places above Bangladesh, which is in 139 position.

18)   Imperialism Today, from Imperialism and National Liberation, Collection of Essays, P- 2, bold by present author

19)   Milberg and Winkler, Outsourcing economics: Global value chains in capitalist development and secondary data sources: ‘Fortune Global 500, 2014.  Both facts are from’ Lenin's Theory of Imperialism Today:

(The Global Divide between Monopoly and Non-Monopoly Capital, Samuel T.  King, p.  192).

20)   Imperialism, the Highest Stage of Capitalism, Lenin, Collected Works, Vol.  22, P. 276.

 

                                         नवम्बर 2024